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३. परिवार को इकाई मानने का तात्पर्य कया है ? परिवार में तो एक से अधिक व्यक्ति होते हैं । एक से अधिक संख्या इकाई कैसे हो सकती है  खाना, पीना, सोना, काम करना सब तो सबका अलग अलग होता है । फिर सबकी मिलकर एक इकाई कैसे होगी ? भावनात्मक दृष्टि से तो ठीक है परन्तु व्यवस्था में यह कैसे बैठ सकता है ?   
 
३. परिवार को इकाई मानने का तात्पर्य कया है ? परिवार में तो एक से अधिक व्यक्ति होते हैं । एक से अधिक संख्या इकाई कैसे हो सकती है  खाना, पीना, सोना, काम करना सब तो सबका अलग अलग होता है । फिर सबकी मिलकर एक इकाई कैसे होगी ? भावनात्मक दृष्टि से तो ठीक है परन्तु व्यवस्था में यह कैसे बैठ सकता है ?   
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४. यही बात भारतीय मनीषियों की प्रतिभा का नमूना है। अध्यात्म को व्यावहारिक कैसे बनाना इसका उदाहरण है । आज यह हमारी कल्पना से बाहर हो गया है यह बात अलग है, परन्तु हमारा चिन्तन तो ऐसा ही रहा है ।
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४. यही बात धार्मिक मनीषियों की प्रतिभा का नमूना है। अध्यात्म को व्यावहारिक कैसे बनाना इसका उदाहरण है । आज यह हमारी कल्पना से बाहर हो गया है यह बात अलग है, परन्तु हमारा चिन्तन तो ऐसा ही रहा है ।
    
५. परिवार के केन्द्र में होते हैं पति और पत्नी । पति और पत्नी अलग नहीं होते, वे दोनों मिलकर एक ही होते हैं ऐसे गृहीत का स्वीकार कर भारत में परिवार की कल्पना की गई है। इसका मूल अध्यात्म संकल्पना में है । परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त हुए तो सर्वप्रथम स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित हुए । ये दोनों धारायें अपने आप में स्वतन्त्र रूप में अपूर्ण हैं । वे एक होने पर ही एक पूर्ण बनता है । यही एकात्मता है । ख्री और पुरुष की, पति और पत्नी की एकात्मता परिवार का केन्द्र बिन्दु है जिसके आधार पर परिवार का विस्तार होता जाता है ।  
 
५. परिवार के केन्द्र में होते हैं पति और पत्नी । पति और पत्नी अलग नहीं होते, वे दोनों मिलकर एक ही होते हैं ऐसे गृहीत का स्वीकार कर भारत में परिवार की कल्पना की गई है। इसका मूल अध्यात्म संकल्पना में है । परमात्मा जब सृष्टि के रूप में व्यक्त हुए तो सर्वप्रथम स्त्रीधारा और पुरुषधारा में विभाजित हुए । ये दोनों धारायें अपने आप में स्वतन्त्र रूप में अपूर्ण हैं । वे एक होने पर ही एक पूर्ण बनता है । यही एकात्मता है । ख्री और पुरुष की, पति और पत्नी की एकात्मता परिवार का केन्द्र बिन्दु है जिसके आधार पर परिवार का विस्तार होता जाता है ।  
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६. सम्पूर्ण समाज रचना इस एकात्मता के तत्त्व के आधार पर विकसित होती जाती है । इसे छोड दिया तो सारी रचना बिखर जाती है ।
 
६. सम्पूर्ण समाज रचना इस एकात्मता के तत्त्व के आधार पर विकसित होती जाती है । इसे छोड दिया तो सारी रचना बिखर जाती है ।
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७. पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से इस सम्बन्ध पर गहरी चोट हुई है । अब पतिपत्नी का एकदूसरे से स्वतन्त्र अस्तित्व है । इस स्वतन्त्रता का मूल गृहीत यह है कि भारत में स्त्रियों का शोषण होता है, उन्हें दबाया जाता है, उनका कोई स्वतन्त्र मत नहीं होता, अपनी रुचि नहीं होती, अपना अधिकार नहीं होता । ऐसा कहा जाता है कि भारतीय समाज पुरुष प्रधान है जिसमें सख्री का बहुत गौण स्थान है । उसे किसी भी बात में कुछ भी कहने का या निर्णय करने का अधिकार नहीं है । उसके लिये शिक्षा की व्यवस्था नहीं है । अपने विकास की यह कल्पना तक नहीं कर सकती |
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७. पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से इस सम्बन्ध पर गहरी चोट हुई है । अब पतिपत्नी का एकदूसरे से स्वतन्त्र अस्तित्व है । इस स्वतन्त्रता का मूल गृहीत यह है कि भारत में स्त्रियों का शोषण होता है, उन्हें दबाया जाता है, उनका कोई स्वतन्त्र मत नहीं होता, अपनी रुचि नहीं होती, अपना अधिकार नहीं होता । ऐसा कहा जाता है कि धार्मिक समाज पुरुष प्रधान है जिसमें सख्री का बहुत गौण स्थान है । उसे किसी भी बात में कुछ भी कहने का या निर्णय करने का अधिकार नहीं है । उसके लिये शिक्षा की व्यवस्था नहीं है । अपने विकास की यह कल्पना तक नहीं कर सकती |
    
८. ऐसा कहने के ब्रिटीशों के लिये दो कारण थे । एक तो यह कि खुद इंग्लैण्ड में उन्नीसवीं शताब्दी तक खियों की स्थिति इस प्रकार की थी । वहाँ खियों को मत देने का अधिकार नहीं था । यही स्थिति उन्होंने भारत पर आरोपित की । दूसरा यह कि भारत के लोगों के मनोभाव और व्यवहार उनकी समझ से परे थे । भारत में आत्मीयता का अर्थ होता है प्रथम दूसरों का विचार करना, बाद में स्वयं का । इसलिये पैसा कमाने वाला अपने पर सबसे अन्त में पैसा खर्च करता है । घर में भोजन बनाने वाली स्त्री सबको खिलाकर स्वयं अन्त में भोजन करती है । उस समय अपने लिये कुछ कम भी बचा तो उसे दुःख नहीं होता, शिकायत भी नहीं होती ।
 
८. ऐसा कहने के ब्रिटीशों के लिये दो कारण थे । एक तो यह कि खुद इंग्लैण्ड में उन्नीसवीं शताब्दी तक खियों की स्थिति इस प्रकार की थी । वहाँ खियों को मत देने का अधिकार नहीं था । यही स्थिति उन्होंने भारत पर आरोपित की । दूसरा यह कि भारत के लोगों के मनोभाव और व्यवहार उनकी समझ से परे थे । भारत में आत्मीयता का अर्थ होता है प्रथम दूसरों का विचार करना, बाद में स्वयं का । इसलिये पैसा कमाने वाला अपने पर सबसे अन्त में पैसा खर्च करता है । घर में भोजन बनाने वाली स्त्री सबको खिलाकर स्वयं अन्त में भोजन करती है । उस समय अपने लिये कुछ कम भी बचा तो उसे दुःख नहीं होता, शिकायत भी नहीं होती ।
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=== पश्चिम से स्त्री अधिक प्रभावित ===
 
=== पश्चिम से स्त्री अधिक प्रभावित ===
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१०. आज भारतीय समाज ने इसे पकड़ लिया है । अब स्त्री के समान अधिकार हैं । स्त्री को स्वयं को भी इन बन्धनों से मुक्त होना है। पहली बात है समानता की । ख्री वह सब कुछ करना चाहती है जो पुरुष करता है । पुरुष के लिये शिक्षा है तो स्त्री को भी शिक्षा चाहिये । पुरुष यदि नौकरी करता है तो स्त्री को भी नौकरी करनी है । पुरुष यदि पैसा कमाने के लिये घर से बाहर जाता है तो स्त्री भी जायेगी । पुरुष का बैंक खाता है तो स्त्री का भी होगा । घर पुरुष के नाम पर है तो ख्त्री के भी नाम पर होगा । ऐसी कोई बात नहीं होगी जो पुरुष करेगा और स्त्री नहीं करेगी ।
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१०. आज धार्मिक समाज ने इसे पकड़ लिया है । अब स्त्री के समान अधिकार हैं । स्त्री को स्वयं को भी इन बन्धनों से मुक्त होना है। पहली बात है समानता की । ख्री वह सब कुछ करना चाहती है जो पुरुष करता है । पुरुष के लिये शिक्षा है तो स्त्री को भी शिक्षा चाहिये । पुरुष यदि नौकरी करता है तो स्त्री को भी नौकरी करनी है । पुरुष यदि पैसा कमाने के लिये घर से बाहर जाता है तो स्त्री भी जायेगी । पुरुष का बैंक खाता है तो स्त्री का भी होगा । घर पुरुष के नाम पर है तो ख्त्री के भी नाम पर होगा । ऐसी कोई बात नहीं होगी जो पुरुष करेगा और स्त्री नहीं करेगी ।
    
११. बात यहाँ तक जाती है कि पुरुष यदि सिगरेट या शराब पीता है तो स्त्री क्यों नहीं पी सकती, पुरुष अकेला रहता है तो ख्त्री भी रहेगी । पुरुष यदि शर्ट और पैण्ट पहनता है तो ख्त्री भी पहनेगी । उसे जो ठीक लगे वह सब करने की उसे स्वतन्त्रता है, अधिकार है ।
 
११. बात यहाँ तक जाती है कि पुरुष यदि सिगरेट या शराब पीता है तो स्त्री क्यों नहीं पी सकती, पुरुष अकेला रहता है तो ख्त्री भी रहेगी । पुरुष यदि शर्ट और पैण्ट पहनता है तो ख्त्री भी पहनेगी । उसे जो ठीक लगे वह सब करने की उसे स्वतन्त्रता है, अधिकार है ।
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२१. पति और पत्नी को एकदूसरे से अलग और स्वतन्त्र मानने से परिवार भावना पर जो आघात हुआ वह सृष्टि के समस्त सम्बन्धों पर परिणाम करनेवाला सिद्ध हुआ है । जिस प्रकार के दो लोग, दो वर्ग, दो समूह साथ मिलकर व्यवहार करते हैं उनमें एकात्मता के कारण स्थापित हुई, पनपी हुई समरसता के स्थान पर अलगाव में से पैदा हुई अपनी अपनी स्वतन्त्रता और सुरक्षा की ही भावना दिखाई देती है । सब एक दूसरे से सावध रहते हैं ।
 
२१. पति और पत्नी को एकदूसरे से अलग और स्वतन्त्र मानने से परिवार भावना पर जो आघात हुआ वह सृष्टि के समस्त सम्बन्धों पर परिणाम करनेवाला सिद्ध हुआ है । जिस प्रकार के दो लोग, दो वर्ग, दो समूह साथ मिलकर व्यवहार करते हैं उनमें एकात्मता के कारण स्थापित हुई, पनपी हुई समरसता के स्थान पर अलगाव में से पैदा हुई अपनी अपनी स्वतन्त्रता और सुरक्षा की ही भावना दिखाई देती है । सब एक दूसरे से सावध रहते हैं ।
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२२. पतिपत्नी के बाद दूसरा सम्बन्ध है मातापिता और सन्तानों का । पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली परम्परा और पीढ़ियों का आपसी सम्बन्ध अब गौण हो गया क्योंकि अब व्यक्ति स्वतन्त्र है । भारत परम्परा का देश है, परम्परा समाज को विकसित होने का, समृद्ध और संस्कृति को सुरक्षित रखने का बहुत बडा साधन है यह भारतीय समाजरचना की आधारभूत सोच है । इस पर आधारित पितृक्ण की, कुल और गोत्र की, पूर्वजों की, पूर्वजों से प्राप्त विरासत की, कुलरीति की, पाँच और चौदह पीढ़ियों की, खानदानी की कल्पनायें की गई हैं । व्यक्ति को अपने पूर्वज, कुल, परम्परा आदि को नहीं भूलना, नहीं छोड़ना सिखाया जाता रहा है । कुल का नाम खराब नहीं करना, कुल का गौरव बढ़ाना, कुलदीपक होना, वंशपरम्परा खण्डित नहीं करना यह बहुत बडा कर्तव्य माना गया है । इसलिये विवाह, सन्तानोत्पत्ति और शिशुसंस्कार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कर्तव्य माने गये हैं । इसमें से श्राद्ध, पितृतर्पण आदि की पद्धति शुरू हुई है ।
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२२. पतिपत्नी के बाद दूसरा सम्बन्ध है मातापिता और सन्तानों का । पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली परम्परा और पीढ़ियों का आपसी सम्बन्ध अब गौण हो गया क्योंकि अब व्यक्ति स्वतन्त्र है । भारत परम्परा का देश है, परम्परा समाज को विकसित होने का, समृद्ध और संस्कृति को सुरक्षित रखने का बहुत बडा साधन है यह धार्मिक समाजरचना की आधारभूत सोच है । इस पर आधारित पितृक्ण की, कुल और गोत्र की, पूर्वजों की, पूर्वजों से प्राप्त विरासत की, कुलरीति की, पाँच और चौदह पीढ़ियों की, खानदानी की कल्पनायें की गई हैं । व्यक्ति को अपने पूर्वज, कुल, परम्परा आदि को नहीं भूलना, नहीं छोड़ना सिखाया जाता रहा है । कुल का नाम खराब नहीं करना, कुल का गौरव बढ़ाना, कुलदीपक होना, वंशपरम्परा खण्डित नहीं करना यह बहुत बडा कर्तव्य माना गया है । इसलिये विवाह, सन्तानोत्पत्ति और शिशुसंस्कार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कर्तव्य माने गये हैं । इसमें से श्राद्ध, पितृतर्पण आदि की पद्धति शुरू हुई है ।
    
२३. परन्तु अब व्यक्ति स्वतन्त्र है। पितृओं का ऋण मानने की कोई आवश्यकता नहीं । पूर्वजों के नाम से जाना जाना महत्त्वपूर्ण नहीं, अपने कर्तृत्व से ही प्रतिष्ठा प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है । बडे घर का बेटा होने से कोई कर्तव्य नहीं है, अधिकार अथवा लाभ मिल जाय तो लेने में कोई आपत्ति नहीं है ।
 
२३. परन्तु अब व्यक्ति स्वतन्त्र है। पितृओं का ऋण मानने की कोई आवश्यकता नहीं । पूर्वजों के नाम से जाना जाना महत्त्वपूर्ण नहीं, अपने कर्तृत्व से ही प्रतिष्ठा प्राप्त करना महत्त्वपूर्ण है । बडे घर का बेटा होने से कोई कर्तव्य नहीं है, अधिकार अथवा लाभ मिल जाय तो लेने में कोई आपत्ति नहीं है ।
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३७.. यहाँ सबको अपना अपना निर्णय लेने का अधिकार है, कोई किसी के लिये निर्णय नहीं कर सकता और यदि करता भी है तो उसे मान्य नहीं रखा जाता । सबके अधिकार होते हैं और उस अधिकार की रक्षा के लिये कानून होता है ।
 
३७.. यहाँ सबको अपना अपना निर्णय लेने का अधिकार है, कोई किसी के लिये निर्णय नहीं कर सकता और यदि करता भी है तो उसे मान्य नहीं रखा जाता । सबके अधिकार होते हैं और उस अधिकार की रक्षा के लिये कानून होता है ।
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३८. भारतीय समाजरचना में पति और पत्नी के बीच में झगडे में तीसरा व्यक्ति पडता नहीं है क्योंकि सब जानते हैं कि वे एक ही है । पति पत्नी के और पत्नी पति के विरुद्ध शिकायत तीसरे व्यक्ति के पास नहीं करते क्योंकि यह एकत्व का भंग है । परिवार का झगडा परिवार से बाहर नहीं ले जाया जाता है क्योंकि वह अन्दर का मामला है । समुदाय का, जाति का विवाद समुदाय या जाति में ही निपटाया जाता है । ब्रिटीशों ने यह सारी व्यवस्था नष्ट कर दी और सारे विवादों के लिये उच्चतम न्यायालय के मार्ग खुले कर दिये ।
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३८. धार्मिक समाजरचना में पति और पत्नी के बीच में झगडे में तीसरा व्यक्ति पडता नहीं है क्योंकि सब जानते हैं कि वे एक ही है । पति पत्नी के और पत्नी पति के विरुद्ध शिकायत तीसरे व्यक्ति के पास नहीं करते क्योंकि यह एकत्व का भंग है । परिवार का झगडा परिवार से बाहर नहीं ले जाया जाता है क्योंकि वह अन्दर का मामला है । समुदाय का, जाति का विवाद समुदाय या जाति में ही निपटाया जाता है । ब्रिटीशों ने यह सारी व्यवस्था नष्ट कर दी और सारे विवादों के लिये उच्चतम न्यायालय के मार्ग खुले कर दिये ।
    
३९. पतिपत्नी एक हैं इस नाते परिवार के सारे कार्य दोनों मिलकर करते हैं । यज्ञ, पूजा, अनुष्ठान, सन्तानों के विवाह अकेला पति या अकेली पत्नी नहीं कर सकते । समाज में भी दोनों एक साथ होते हैं । किसी का अमृतमहोत्सव मनाना है तो पतिपत्नी साथ ही होते हैं । पूर्व समय में राज्याभिषेक राजा और रानी दोनों का साथ ही होता था और अभिषिक्त रानी का तथा जब उसका पुत्र राजा बनता था तब राजामाता का मान्य पद होता था । परन्तु पश्चिमी व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था के परिणाम स्वरूप राष्ट्रपति या राज्यपाल सपत्नीक शपथ नहीं लेते, भारतरत्न जैसे पुरस्कार भी व्यक्तिगत होते हैं, पत्नी या पति के साथ मिलकर नहीं । इसका न किसी को आश्चर्य होता है न किसी के मन में प्रश्न उठता है ।
 
३९. पतिपत्नी एक हैं इस नाते परिवार के सारे कार्य दोनों मिलकर करते हैं । यज्ञ, पूजा, अनुष्ठान, सन्तानों के विवाह अकेला पति या अकेली पत्नी नहीं कर सकते । समाज में भी दोनों एक साथ होते हैं । किसी का अमृतमहोत्सव मनाना है तो पतिपत्नी साथ ही होते हैं । पूर्व समय में राज्याभिषेक राजा और रानी दोनों का साथ ही होता था और अभिषिक्त रानी का तथा जब उसका पुत्र राजा बनता था तब राजामाता का मान्य पद होता था । परन्तु पश्चिमी व्यक्तिकेन्द्री व्यवस्था के परिणाम स्वरूप राष्ट्रपति या राज्यपाल सपत्नीक शपथ नहीं लेते, भारतरत्न जैसे पुरस्कार भी व्यक्तिगत होते हैं, पत्नी या पति के साथ मिलकर नहीं । इसका न किसी को आश्चर्य होता है न किसी के मन में प्रश्न उठता है ।
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=== ध्वस्त समाजरचना ===
 
=== ध्वस्त समाजरचना ===
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४०. भारतीय समाज रचना की सभी आधारभूत व्यवस्थायें व्यक्तिकेन्द्री रचना के कारण ध्वस्त हो गई हैं । कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि में से किसी की भी मान्यता नहीं रही है। व्यक्ति केवल व्यक्ति है। इसलिये कई बुद्धिजीवी लोग केवल अपना नाम ही लिखते हैं और बताते हैं । और किसी पहचान की उन्हें आवश्यकता नहीं है । स्थिति अभी ऐसी है कि केवल नाम से भी भाषा, प्रान्त, वर्ण आदि की कुछ पहचान हो तो जाती है परन्तु कुछ लोग इस प्रकार से पकड में न आयें ऐसे नाम भी रखते हैं । अर्थात्‌ व्यक्ति अकेला हो जाना चाहता है और अन्य लोगों के साथ मतलब के सम्बन्ध बनाना चाहता है ।
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४०. धार्मिक समाज रचना की सभी आधारभूत व्यवस्थायें व्यक्तिकेन्द्री रचना के कारण ध्वस्त हो गई हैं । कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि में से किसी की भी मान्यता नहीं रही है। व्यक्ति केवल व्यक्ति है। इसलिये कई बुद्धिजीवी लोग केवल अपना नाम ही लिखते हैं और बताते हैं । और किसी पहचान की उन्हें आवश्यकता नहीं है । स्थिति अभी ऐसी है कि केवल नाम से भी भाषा, प्रान्त, वर्ण आदि की कुछ पहचान हो तो जाती है परन्तु कुछ लोग इस प्रकार से पकड में न आयें ऐसे नाम भी रखते हैं । अर्थात्‌ व्यक्ति अकेला हो जाना चाहता है और अन्य लोगों के साथ मतलब के सम्बन्ध बनाना चाहता है ।
    
४१. मेरी रुचि, मेरी स्वतन्त्रता, मेरा अधिकार की भाषा ही स्वाभाविक बन जाती है । भारत ने हमेशा दूसरे का विचार करना सिखाया है । यह 'मैं' को केन्द्र में रखने वाली सोच को आसुरी विचार का लक्षण बताया है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा ने इसे सार्वत्रिक बना दिया है ।
 
४१. मेरी रुचि, मेरी स्वतन्त्रता, मेरा अधिकार की भाषा ही स्वाभाविक बन जाती है । भारत ने हमेशा दूसरे का विचार करना सिखाया है । यह 'मैं' को केन्द्र में रखने वाली सोच को आसुरी विचार का लक्षण बताया है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा ने इसे सार्वत्रिक बना दिया है ।

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