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३०. व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में भावनायें नहीं होती ऐसा नहीं होता । भावना मनुष्य के अन्तःकरण का स्वभाव है इसलिये भावनायें तो होती हैं परन्तु उनके आधार पर व्यवस्थायें नहीं बनाई जातीं । व्यवस्थायें बनाते समय “व्यावहारिकता' का ध्यान रखा जाता है । इसके प्रभाव में ही आज कहा जाता है कि भावनाविवश मत बनो, व्यावहारिक बनो । व्यवसाय के क्षेत्र में कहा जाता है कि “भावना विवश' मत बनो 'प्रोफेशनल' अर्थात्‌ व्यावयासिक बनो । भारत में भावना से ऊपर विवेक होता है इसलिये कहा जाता है कि भावना में मत बहो, विवेक से काम लो । उदाहरण के लिये न्यायाधीश पिता को पुत्र के प्रति प्रेम होता है परन्तु उपदेश यह दिया जाता है कि पुत्र के प्रति प्रेम की भावना से प्रेरित होकर पक्षपाती मत बनो, विवेकपूर्ण व्यवहार कर न्याय कर पक्ष लो । स्वार्थ या व्यवसाय और विवेक एकदूसरे से बहुत अलग हैं । विवेक भावना से बढकर है, परन्तु स्वार्थ तो एक नकारात्मक भावना ही है। व्यक्तिकेन्द्री समाज का व्यवहार स्वार्थकेन्द्री ही बन जाता है ।
 
३०. व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में भावनायें नहीं होती ऐसा नहीं होता । भावना मनुष्य के अन्तःकरण का स्वभाव है इसलिये भावनायें तो होती हैं परन्तु उनके आधार पर व्यवस्थायें नहीं बनाई जातीं । व्यवस्थायें बनाते समय “व्यावहारिकता' का ध्यान रखा जाता है । इसके प्रभाव में ही आज कहा जाता है कि भावनाविवश मत बनो, व्यावहारिक बनो । व्यवसाय के क्षेत्र में कहा जाता है कि “भावना विवश' मत बनो 'प्रोफेशनल' अर्थात्‌ व्यावयासिक बनो । भारत में भावना से ऊपर विवेक होता है इसलिये कहा जाता है कि भावना में मत बहो, विवेक से काम लो । उदाहरण के लिये न्यायाधीश पिता को पुत्र के प्रति प्रेम होता है परन्तु उपदेश यह दिया जाता है कि पुत्र के प्रति प्रेम की भावना से प्रेरित होकर पक्षपाती मत बनो, विवेकपूर्ण व्यवहार कर न्याय कर पक्ष लो । स्वार्थ या व्यवसाय और विवेक एकदूसरे से बहुत अलग हैं । विवेक भावना से बढकर है, परन्तु स्वार्थ तो एक नकारात्मक भावना ही है। व्यक्तिकेन्द्री समाज का व्यवहार स्वार्थकेन्द्री ही बन जाता है ।
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३१. व्यक्ति केद्री समाजन्यवस्था में लोग भावना और बुद्धि के स्तर पर हमेशा खींचातानी ही करते रहते हैं । सबको एकदूसरे से सावध रहना पडता है । स्वहित की रक्षा करनी पड़ती है । हमेशा व्यक्तियों के स्वार्थ एकदूसरे से टकराते ही है । मुझे मिलेगा तो उसे नहीं मिलेगा और उसे मिलेगा तो मुजे नहीं ऐसी स्थिति होती है और चाहिये तो मुझे ही, इसलिये हमेशा दूसरे को कैसे परास्त करें इसका विचार चलता रहता है । ऐसे में मनःशान्ति नहीं रहती ।
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३१. व्यक्ति केद्री समाजन्यवस्था में लोग भावना और बुद्धि के स्तर पर सदा खींचातानी ही करते रहते हैं । सबको एकदूसरे से सावध रहना पडता है । स्वहित की रक्षा करनी पड़ती है । सदा व्यक्तियों के स्वार्थ एकदूसरे से टकराते ही है । मुझे मिलेगा तो उसे नहीं मिलेगा और उसे मिलेगा तो मुजे नहीं ऐसी स्थिति होती है और चाहिये तो मुझे ही, इसलिये सदा दूसरे को कैसे परास्त करें इसका विचार चलता रहता है । ऐसे में मनःशान्ति नहीं रहती ।
    
३२. व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में कोई किसी पर विश्वास नहीं करता, न ही कोई विश्वसनीय बना रहता है । कोई किसी का नहीं होता । सबको अपनी चिन्ता स्वंय करनी पड़ती है । कोई किसी की चिन्ता नहीं करता, न कोई मेरी चिन्ता करेगा ऐसा लगता है । इतने बडे विश्व में सब अकेले होते हैं । एकाकी जीवन में सुख और शान्ति नहीं होती है ।
 
३२. व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना में कोई किसी पर विश्वास नहीं करता, न ही कोई विश्वसनीय बना रहता है । कोई किसी का नहीं होता । सबको अपनी चिन्ता स्वंय करनी पड़ती है । कोई किसी की चिन्ता नहीं करता, न कोई मेरी चिन्ता करेगा ऐसा लगता है । इतने बडे विश्व में सब अकेले होते हैं । एकाकी जीवन में सुख और शान्ति नहीं होती है ।
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४०. धार्मिक समाज रचना की सभी आधारभूत व्यवस्थायें व्यक्तिकेन्द्री रचना के कारण ध्वस्त हो गई हैं । कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि में से किसी की भी मान्यता नहीं रही है। व्यक्ति केवल व्यक्ति है। इसलिये कई बुद्धिजीवी लोग केवल अपना नाम ही लिखते हैं और बताते हैं । और किसी पहचान की उन्हें आवश्यकता नहीं है । स्थिति अभी ऐसी है कि केवल नाम से भी भाषा, प्रान्त, वर्ण आदि की कुछ पहचान हो तो जाती है परन्तु कुछ लोग इस प्रकार से पकड में न आयें ऐसे नाम भी रखते हैं । अर्थात्‌ व्यक्ति अकेला हो जाना चाहता है और अन्य लोगों के साथ मतलब के सम्बन्ध बनाना चाहता है ।
 
४०. धार्मिक समाज रचना की सभी आधारभूत व्यवस्थायें व्यक्तिकेन्द्री रचना के कारण ध्वस्त हो गई हैं । कुल, गोत्र, वर्ण, जाति, सम्प्रदाय आदि में से किसी की भी मान्यता नहीं रही है। व्यक्ति केवल व्यक्ति है। इसलिये कई बुद्धिजीवी लोग केवल अपना नाम ही लिखते हैं और बताते हैं । और किसी पहचान की उन्हें आवश्यकता नहीं है । स्थिति अभी ऐसी है कि केवल नाम से भी भाषा, प्रान्त, वर्ण आदि की कुछ पहचान हो तो जाती है परन्तु कुछ लोग इस प्रकार से पकड में न आयें ऐसे नाम भी रखते हैं । अर्थात्‌ व्यक्ति अकेला हो जाना चाहता है और अन्य लोगों के साथ मतलब के सम्बन्ध बनाना चाहता है ।
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४१. मेरी रुचि, मेरी स्वतन्त्रता, मेरा अधिकार की भाषा ही स्वाभाविक बन जाती है । भारत ने हमेशा दूसरे का विचार करना सिखाया है । यह 'मैं' को केन्द्र में रखने वाली सोच को आसुरी विचार का लक्षण बताया है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा ने इसे सार्वत्रिक बना दिया है ।
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४१. मेरी रुचि, मेरी स्वतन्त्रता, मेरा अधिकार की भाषा ही स्वाभाविक बन जाती है । भारत ने सदा दूसरे का विचार करना सिखाया है । यह 'मैं' को केन्द्र में रखने वाली सोच को आसुरी विचार का लक्षण बताया है । परन्तु पश्चिमी शिक्षा ने इसे सार्वत्रिक बना दिया है ।
    
४२. आज भी भारत के अनेक लोग है जो इस बात को समझते हैं परन्तु शिक्षा ने व्यक्तिकेन्द्री सोच को इतना व्यापक बना दिया है कि अब वही स्वाभाविक लगने लगी है। विशेष बात तो यह है कि भारत जिस व्यवस्था के कारण इतने अधिक समय तक अच्छे से जीवित रहा है उसी व्यवस्था पर मूल में ही आघात हो रहा है । भारत का जीवनरस इतना प्राणवान है कि अभी भी यह पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है परन्तु प्राणों पर आघात तो अत्यन्त बलवान हो रहे हैं ।
 
४२. आज भी भारत के अनेक लोग है जो इस बात को समझते हैं परन्तु शिक्षा ने व्यक्तिकेन्द्री सोच को इतना व्यापक बना दिया है कि अब वही स्वाभाविक लगने लगी है। विशेष बात तो यह है कि भारत जिस व्यवस्था के कारण इतने अधिक समय तक अच्छे से जीवित रहा है उसी व्यवस्था पर मूल में ही आघात हो रहा है । भारत का जीवनरस इतना प्राणवान है कि अभी भी यह पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है परन्तु प्राणों पर आघात तो अत्यन्त बलवान हो रहे हैं ।
    
४३. सभी सुज्ञ लोगों को इस विषय पर मूल रूप से चिन्तन करने की आवश्यकता है । ऊपर ऊपर का चिन्तन करने से या दुःखी होने से मार्ग निलनेवाला नहीं है ।
 
४३. सभी सुज्ञ लोगों को इस विषय पर मूल रूप से चिन्तन करने की आवश्यकता है । ऊपर ऊपर का चिन्तन करने से या दुःखी होने से मार्ग निलनेवाला नहीं है ।

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