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=== उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण ===
 
=== उत्पादन और वितरण एवं विकेन्द्रीकरण ===
उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन
+
उत्पादन के साथ उत्पादक, उपभोक्ता और संसाधन जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से
 +
# उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना अति आवश्यक है । यह अन्तर जितनी मात्रा में बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते हैं । उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है, उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव, अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम का, धन का विनियोग करना पड़ता है । उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वस्त्र, लकड़ी, स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर दूर तक फैले हुए हों तो परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव, विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं । ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास (pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं । भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है । आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition), सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र - यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते हैं। इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है । वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये १०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक महँगा होता है ।
 +
# ''भारत में लंका के... हवस नहीं होना चाहिये । इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी''
 +
''अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं । यह महँगा होना... स्वामित्व होना अपेक्षित है । विचार करने पर ध्यान में आता''
   −
&.
+
''स्वाभाविक है । परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे... है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही''
   −
जुडे हुए हैं । इन तीनों का सुलभ होना
+
''धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो... सिक्के के दो पहलू हैं ।''
   −
और उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था कम खर्चीली और
+
''पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण''
   −
कम अटपटी होना आवश्यक है । इस दृष्टि से
+
''माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु''
   −
(१) उत्पादक और उपभोक्ता में कम से कम अन्तर होना
+
''जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य''
   −
अति आवश्यक है । यह अन्तर जितनी मात्रा में
+
''अनुत्पादक है ।''
   −
बढ़ता जाता है उतनी मात्रा में अनुचित खर्चे, अनुचित
+
''आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत,''
   −
व्यवस्थाओं का बोझ और चीजों की कीमतें बढ़ जाते
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''पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ''
   −
हैं उपभोक्ता को कीमत अधिक चुकानी पड़ती है,
+
''बनकर उसे आभासी बनाती है ''
   −
उत्पादक को कीमत अधिक प्राप्त नहीं होती, निर्जीव,
+
''जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी''
   −
अनावश्यक व्यवस्थाओं के लिये संसाधनों का, श्रम
+
''अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश''
   −
का, धन का विनियोग करना पड़ता है ।
+
''उतनी ही अधिक मात्रा में दरिद्र होता है ।''
   −
उदाहरण के लिये दन्तमंजन, साबुन, वख्र, लकड़ी,
+
''(४) उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र''
   −
स्वच्छता का सामान आदि एक स्थान पर बनते हों, उसके
+
''सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में''
   −
प्राकृतिक स्रोत यदि दूसरी जगह हों और उसके उपभोक्ता दूर
+
''मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य et और''
   −
दूर तक फैले हुए हों तो
+
''मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है । यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित''
   −
परिवहन, सड़क, बिचौलिये, निवेश, संत्रह, रखरखाव,
+
''होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं । उनकी भूमिका''
   −
विज्ञापन, पैकिंग, स्थानीय वितरण व्यवस्था आदि के खर्च
+
''सहायक की ही होनी चाहिये । इसलिये सारे के सारे यन्त्र''
   −
बढ़ते हैं जो अधिकांश अनुत्पादक हैं ।
+
''मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस''
   −
ये देश के अर्थतन्त्र में विभिन्न प्रकार के आभास
+
''प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये ।''
   −
(pseudoness) निर्माण करने वाले होते हैं ।
+
''यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं ।''
   −
भारत में जिस प्रकार समाजव्यवस्था की मूल इकाई
+
''उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है ।''
   −
परिवार है उस प्रकार अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम है ।
+
''(२) उत्पादन का 'विकेन्द्रीकरण अधीनता बढती है । कौशलों का हास होने लगता है ।''
   −
आर्थिक स्वावलंबन, हर परिवार के व्यवसाय को सुरक्षा
+
''कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के इसके और भी परिणाम eid & fare SH side effects''
   −
प्रत्येक ग्रामवासी के अस्तित्व का स्वीकार (recognition),
+
''और कह सकते हैं ।''
   −
सामाजिक समरसता और परस्परावलम्बन का स्वयंपूर्ण चक्र
+
''sere मी व्यवस्था स्थनिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये । जैसे जैसे यंत्र बढ़ते हैं बडे बडे कारखानों की''
   −
- यही ग्राम की परिभाषा है । अतः ग्रामकेन्द्री उत्पादन एवं
+
''आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या''
   −
वितरण व्यवस्था से अर्थतंत्र में आभास निर्माण नहीं होते
+
''०. उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा । जो जाते हैं उन्हे''
   −
हैं।
+
''० लागत कम होगी । कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर''
   −
इस आभासी और ठोस, अथवा उत्पादक और
+
''आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है । परिवहन की''
   −
अनुत्पादक अर्थव्यवस्था की संकल्पना ध्यान देने योग्य है ।
+
''०. स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो .''
   −
वस्तु का मूल्य उसमें प्रयुक्त पदार्थ, कौशल और
+
''जयेंगी । समस्या भी बढती है । दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है । यंत्र''
   −
उपलब्धता के आधार पर तय होता है । उदाहरण के लिये
+
''और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है ।''
   −
१०० ग्राम लोहे से १०० ग्राम चाँदी और १०० ग्राम चाँदी
+
''(३) उत्पादक का स्वामित्व मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का''
   −
से १०० ग्राम सोना अधिक महँगा होता है । मोटे और खुरदरे
+
''दास बन जाता है । इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य''
   −
कपड़े से महीन और कुशलता पूर्वक बुना हुआ कपड़ा अधिक
+
''पर विपरीत प्रभाव पडता है । मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट''
   −
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+
''मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है । उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय''
   −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
+
''हालत में सम्भव होनी चाहिये । अतः मनुष्य को व्यवसाय बातों में दिलासा खोजता है । isi नं''
   −
महँगा होता है । भारत में लंका के... हवस नहीं होना चाहिये । इस दृष्टि से व्यवसाय में सहभागी
+
''का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहें तो इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो''
   −
अथवा बसरा के मोती अधिक महँगे होते हैं । यह महँगा होना... स्वामित्व होना अपेक्षित है । विचार करने पर ध्यान में आता
+
''विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और... जा खर्च होती है उससे FEA बड़ी पर्यावरणीय असन्तुलन''
   −
स्वाभाविक है । परन्तु गुजरात के गाँव में बनने वाला कपडे... है कि परिवारगत व्यवसाय और सहभागी स्वामित्व एक ही
+
''स्वामित्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी चाहिये। . दा होता है । इससे तो संपूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में''
   −
धोने का चूर्ण जिसका उत्पादक मूल्य बहुत साधारण है, जो... सिक्के के दो पहलू हैं ।
+
''व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार... है।''
   −
पदार्थ, कौशल और उपलब्धता के आधार पर अति साधारण
+
''को अपने योगक्षेम हेतु अर्थार्जन दोनों समाविष्ट हैं । इसकी... ७... व्यवसाय, उत्पादन और पर्यावरण''
   −
माना जायेगा वह यदि भारत के कोने कोने में बिकने हेतु
+
''व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवनसिद्धान्त बताती''
   −
जायेगा तो उसका मूल्य बीस गुना बढ जायगा । यह मूल्य
+
''यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य''
   −
अनुत्पादक है ।
+
''है । विकेन्ट्रित उत्पादन व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ है ।''
   −
आज की अर्थव्यवस्था में परिवहन, विज्ञापन, आडत,
+
''२७०''
 
  −
पैकिंग आदि अनुत्पादक बातें हैं जो अर्थव्यवस्था पर बोझ
  −
 
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बनकर उसे आभासी बनाती है ।
  −
 
  −
जिस देश में ठोस की अपेक्षा आभासी
  −
 
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अर्थव्यवस्था जितनी अधिक मात्रा में होती है वह देश
  −
 
  −
उतनी ही अधिक मात्रा में दरिद्र होता है ।
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(४) उत्पादन में मनुष्य और यन्त्र
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सम्पूर्ण उत्पादन प्रक्रिया में और वितरण व्यवस्था में
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मनुष्य मुख्य है इसलिये सम्पूर्ण रचना मनुष्य et और
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मनुष्य आधारित होना अपेक्षित है । यन्त्र मनुष्य द्वारा निर्मित
  −
 
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होते हैं और मनुष्य के सहायक होते हैं । उनकी भूमिका
  −
 
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सहायक की ही होनी चाहिये । इसलिये सारे के सारे यन्त्र
  −
 
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मनुष्य के अधीन रहें और मनुष्य की सर्वोपरिता बनी रहे इस
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प्रकार की व्यवसाय रचना होनी चाहिये ।
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यंत्रों की अधिकता के कारण मनुष्य बेकार होते हैं ।
  −
 
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उनको काम नहीं मिलता है । भावात्मकता कम होती है ।
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(२) उत्पादन का 'विकेन्द्रीकरण अधीनता बढती है । कौशलों का हास होने लगता है ।
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कुछ अनिवार्यताओं को छोड़कर शेष सभी चीजों के इसके और भी परिणाम eid & fare SH side effects
  −
 
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और कह सकते हैं ।
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sere मी व्यवस्था स्थनिक और विकेन्द्रित होनी चाहिये । जैसे जैसे यंत्र बढ़ते हैं बडे बडे कारखानों की
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आवश्यकता पड़ती है । काम करने वाले मनुष्यों की संख्या
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०. उत्पादन के लिये मानवश्रम सुलभ होगा । जो जाते हैं उन्हे
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० लागत कम होगी । कम होती है परन्तु जो भी मनुष्य काम करने जाते हैं उन्हें घर
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आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें छोड़कर व्यवसाय केन्द्र पर जाना पड़ता है । परिवहन की
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०. स्थानीय आवश्यकतायें और अन्य जटिलतायें कम हो .
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जयेंगी । समस्या भी बढती है । दिनचर्या अस्तव्यस्त होती है । यंत्र
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और कारखाने की व्यवस्था से अनुकूलन बनाना पड़ता है ।
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(३) उत्पादक का स्वामित्व मनुष्य स्वाधीन नहीं रहता, यंत्र के अधीन और व्यवस्था का
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दास बन जाता है । इसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य
  −
 
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पर विपरीत प्रभाव पडता है । मनुष्य शुष्क, कठोर, असन्तुष्ट
  −
 
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मनुष्य स्वभाव से स्वतन्त्र है । उसकी स्वतन्त्रता की रक्षा हर बनने लगता है । गौरव की हानि से त्रस्त होकर अवांछनीय
  −
 
  −
हालत में सम्भव होनी चाहिये । अतः मनुष्य को व्यवसाय बातों में दिलासा खोजता है । isi नं
  −
 
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का स्वामित्व प्राप्त होना चाहिये । लौकिक भाषा में कहें तो इसका एक दूसरा पहलू भी है । यंत्रों के निर्माण में जो
  −
 
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विभिन्न प्रकार के व्यवसायों में नौकरियाँ कम से कम और... जा खर्च होती है उससे FEA बड़ी पर्यावरणीय असन्तुलन
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स्वामित्व की मात्रा अधिक से अधिक होनी चाहिये। . दा होता है । इससे तो संपूर्ण सृष्टि का जीवन संकट में
  −
 
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व्यवसाय से समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा परिवार... है।
  −
 
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को अपने योगक्षेम हेतु अर्थार्जन दोनों समाविष्ट हैं । इसकी... ७... व्यवसाय, उत्पादन और पर्यावरण
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व्यवस्था में मनुष्य की स्वतन्त्रता, सम्मान और गौरव का भारतीय जीवनदृष्टि एकात्मता को जीवनसिद्धान्त बताती
  −
 
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यह एक बहुत बड़ा आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मूल्य
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है । विकेन्ट्रित उत्पादन व्यवस्था का यह बहुत बड़ा लाभ है ।
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
+
है । इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही, साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है । इस कारण से उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का दायित्व दिया गया है ।
 
  −
है । इस दृष्टि से मनुष्य का अन्य मनुष्यों से तो सम्बन्ध है ही,
  −
 
  −
साथ ही प्राणी सृष्टि, वनस्पति सृष्टि और पंचभौतिक सृष्टि के
  −
 
  −
साथ भी सम्बन्ध है । कहा गया है कि परमात्मा की सृष्टि
  −
 
  −
में मनुष्य परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है । इस कारण से
  −
 
  −
उसे अपने से कनिष्ठ सम्पूर्ण सृष्टि के रक्षण और पोषण का
  −
 
  −
दायित्व दिया गया है ।
  −
 
  −
उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना
  −
 
  −
आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं ।
  −
 
  −
9. किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति
  −
 
  −
का दोहन करना, शोषण नहीं ।
  −
 
  −
प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है,
  −
 
  −
बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि
  −
 
  −
से घाटे का सौदा है ।
  −
 
  −
इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की
  −
 
  −
आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की
  −
 
  −
आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का
  −
 
  −
प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो
  −
 
  −
धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है ।
  −
 
  −
कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव
  −
 
  −
होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्ः
  −
 
  −
बनता है ।
  −
 
  −
भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का
  −
 
  −
उदाहरण है ।
  −
 
  −
जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी Ash
  −
 
  −
और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है ।
  −
 
  −
२. . प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी प्रकार
  −
 
  −
के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये ।
  −
 
  −
जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति
  −
 
  −
अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है
  −
 
  −
और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है
  −
 
  −
तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता
  −
 
  −
है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो
  −
 
  −
जाता है ।
  −
 
  −
३... मनुष्य का स्वास्थ्य खराब करने वाला उत्पादन तन्त्र
  −
 
  −
तथा उस प्रकार की चीजों के उत्पादन भी अनुमति
  −
 
  −
२७१
  −
 
  −
के पात्र नहीं हैं ।
  −
 
  −
खाद्यपदार्थों में विभिन्न प्रकार के रसायनों का प्रयोग,
  −
 
  −
शीतागार में संग्रह (८०10 5६07886), रसायनों का प्रयोग कर
  −
 
  −
फल पकाने की प्रक्रिया, जल शुद्धीकरण की प्रक्रिया, विभिन्न
  −
 
  −
प्रकार के कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन, वस्त्र, उपकरण, फर्नीचर
  −
 
  −
आदि में अधिकाधिक प्लेंस्टिक का प्रयोग, सिमेन्ट-क्रॉँक्रीट
  −
 
  −
की वास्तु आदि अनगिनत चीजें ऐसी हैं जिनका मनुष्य के
  −
 
  −
स्वास्थ्य पर अत्यंत घातक प्रभाव पड़ता है । इन चीजों का
  −
 
  −
उत्पादन अर्थव्यवस्था को भी घातक ही बनाता है ।
  −
 
  −
४. प्राणियों की हिंसा को बढ़ावा देने वाला उत्पादन
  −
 
  −
तन्त्र भी अनुमत नहीं है ।
  −
 
  −
खाद्य पदार्थ, वस्त्र प्रावरण एवं सौंदर्य प्रसाधनों में
  −
 
  −
प्राणियों के साथ अतिशय अमानवीय व्यवहार किया जाता
  −
 
  −
है । प्लेंस्टिक की थैलियाँ खाकर गायें मरती हैं । माँस के
  −
 
  −
निर्यात के लिये बूचडखाने चलाये जाते हैं । यह सब हिंसक
  −
 
  −
अर्थव्यवस्था के उदाहरण हैं ।
  −
 
  −
५... सृष्टि की विभिन्न प्रकार की चक्रीयता को तोड़ने
  −
 
  −
वाला उत्पादन तन्त्र भी अनुमत नहीं है ।
  −
 
  −
सम्पूर्ण अर्थव्यवहार में सर्जन-विसर्जन-सर्जन का
  −
 
  −
चक्र अबाध गति से चलना चाहिये ।
  −
 
  −
जंगल तोड़े जाते हैं और प्राणवायु - कार्बनडाई
  −
 
  −
ऑक्साईड - प्राणवायु का चक्र टूट जाता है । घरों के आँगन
  −
 
  −
में मिट्टी नहीं अपितु पत्थर होने से जमीन की नमी समाप्त हो
  −
 
  −
जाती है । भूमिगत जल निष्कासन (undergdound drain-
  −
 
  −
98४) पद्धति से जलचक्र टूट जाता है और जलस्तर नीचे से
  −
 
  −
और नीचे चला जाता है । इस कारण से वृक्ष का जीवनचफ्र
  −
 
  −
टूट जाता है । प्रकृति और मनुष्य का स्नेहसंबंध भी समाप्त
  −
 
  −
हो जाता है ।
  −
 
  −
८... व्यवसाय, वितरण, व्यक्ति, परिवार, समाज और
  −
 
  −
राज्य
  −
 
  −
व्यवसाय एवं वितरण के सम्बन्ध में अब तक चर्चा
  −
 
  −
की है । व्यक्ति की भूमिका व्यावसायिक कुशलता प्राप्त करने
     −
की है।
+
उत्पादन और व्यवसाय में इस दायित्व का स्मरण रहना आवश्यक है । इस दृष्टि से निम्न बिन्दु विचारणीय हैं ।
 +
# किसी भी प्रकार के संसाधन जुटाते समय प्रकृति का दोहन करना, शोषण नहीं । प्रकृति का शोषण करना भावात्मक दृष्टि से हिंसा है, बौद्धिक दृष्टि से अदूरदर्शिता और अन्याय है, व्यावहारिक दृष्टि से घाटे का सौदा है । इसके उदाहरण देखने के लिये कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। भूमि हमारी सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है परन्तु रासायनिक खाद का प्रयोग करने के कारण उसकी उर्वरता कम होती है, जो धान्य-फल-सब्जी उगते हैं उसकी पोषकता कम होती है । कालानुक्रम से भूमि बंजर बन जाती है, धान्य का अभाव होता है, मनुष्य का स्वास्थ्य खराब होता है और समाज दरिद्र बनता है । भूमि से पेट्रोलियम निकालने का उपक्रम भी इसी का उदाहरण है । जंगल काटकर कारखाने, बड़े बड़े मॉल, चौड़ी सडकें और आकाशगामी भवन बनाना भी इसी का उदाहरण है ।
 +
# प्रकृति का सन्तुलन बिगाड़ने वाले किसी भी प्रकार के उत्पादन तन्त्र को अनुमति नहीं होनी चाहिये । जब प्रकृति का दोहन किया जाता है तब प्रकृति अपने आप संसाधनों का सृजन कर क्षतिपूर्ति कर देती है और सन्तुलन बनाये रखती है । परन्तु जब शोषण होता है तब प्रकृति असहाय हो जाती है । जब संतुलन बिगड़ जाता है तब अभाव, असंतोष और अस्वास्थ्य का चक्र शुरू हो जाता है ।
 +
# मनुष्य का स्वास्थ्य खराब करने वाला उत्पादन तन्त्र तथा उस प्रकार की चीजों के उत्पादन भी अनुमति के पात्र नहीं हैं । खाद्यपदार्थों में विभिन्न प्रकार के रसायनों का प्रयोग, शीतागार में संग्रह (cold storage), रसायनों का प्रयोग कर फल पकाने की प्रक्रिया, जल शुद्धीकरण की प्रक्रिया, विभिन्न प्रकार के कृत्रिम सौन्दर्य प्रसाधन, वस्त्र, उपकरण, फर्नीचर आदि में अधिकाधिक प्लेंस्टिक का प्रयोग, सिमेन्ट-क्रॉँक्रीट की वास्तु आदि अनगिनत चीजें ऐसी हैं जिनका मनुष्य के स्वास्थ्य पर अत्यंत घातक प्रभाव पड़ता है । इन चीजों का उत्पादन अर्थव्यवस्था को भी घातक ही बनाता है ।
 +
# प्राणियों की हिंसा को बढ़ावा देने वाला उत्पादन तन्त्र भी अनुमत नहीं है । खाद्य पदार्थ, वस्त्र प्रावरण एवं सौंदर्य प्रसाधनों में प्राणियों के साथ अतिशय अमानवीय व्यवहार किया जाता है । प्लेंस्टिक की थैलियाँ खाकर गायें मरती हैं । माँस के निर्यात के लिये बूचडखाने चलाये जाते हैं । यह सब हिंसक अर्थव्यवस्था के उदाहरण हैं ।
 +
# सृष्टि की विभिन्न प्रकार की चक्रीयता को तोड़ने वाला उत्पादन तन्त्र भी अनुमत नहीं है । सम्पूर्ण अर्थव्यवहार में सर्जन-विसर्जन-सर्जन का चक्र अबाध गति से चलना चाहिये । जंगल तोड़े जाते हैं और प्राणवायु - कार्बनडाई ऑक्साईड - प्राणवायु का चक्र टूट जाता है । घरों के आँगन में मिट्टी नहीं अपितु पत्थर होने से जमीन की नमी समाप्त हो जाती है । भूमिगत जल निष्कासन (underground drainage) पद्धति से जलचक्र टूट जाता है और जलस्तर नीचे से और नीचे चला जाता है । इस कारण से वृक्ष का जीवनचक्र टूट जाता है । प्रकृति और मनुष्य का स्नेहसंबंध भी समाप्त हो जाता है ।
   −
परिवार के पास व्यवसाय का स्वामित्व होना चाहिये ।
+
=== व्यवसाय, वितरण, व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य ===
 +
''व्यवसाय एवं वितरण के सम्बन्ध में अब तक चर्चा की है । व्यक्ति की भूमिका व्यावसायिक कुशलता प्राप्त करने की है। परिवार के पास व्यवसाय का स्वामित्व होना चाहिये ।''
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+
''परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका... भिखारी ।''
   −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
+
''महत्त्वपूर्ण है । अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है ।''
   −
परन्तु सम्पूर्ण तन्त्र में समाज की भूमिका... भिखारी
+
''व्यवसायतन्त्र का नियन्त्रण और नियमन समाज के... अंग्रेजों से पूर्व भारत में राजाओं का शासन था बीच बीच''
   −
महत्त्वपूर्ण है अंग्रेजों के शासनकाल का यही मुख्य लक्षण है ।
+
''अधीन होना चाहिये, राज्य के अधीन नहीं में कहीं कहीं गणतंत्र भी था । परन्तु भारत के सुदीर्घ इतिहास''
   −
व्यवसायतन्त्र का नियन्त्रण और नियमन समाज के... अंग्रेजों से पूर्व भारत में राजाओं का शासन था । बीच बीच
+
''उत्पादन के एवं व्यापार के क्षेत्र में राज्य को नहीं पड़ना... में राजा ही राज्य करता था । राजा अच्छे या बुरे होते थे ।''
   −
अधीन होना चाहिये, राज्य के अधीन नहीं । में कहीं कहीं गणतंत्र भी था परन्तु भारत के सुदीर्घ इतिहास
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''चाहिये । मूल्यनिर्धारण, वितरण व्यवस्था, उत्पादन आदि में... तानाशाह भी बन जाते थे विलासी, दुश्चरित्र, निर्वीय भी बन''
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उत्पादन के एवं व्यापार के क्षेत्र में राज्य को नहीं पड़ना... में राजा ही राज्य करता था । राजा अच्छे या बुरे होते थे ।
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''वर्णों की, व्यवसाय समूहों की अपनी व्यवस्था होनी चाहिये । ..... जाते थे । अधिक करसंपादन करके प्रजा का शोषण भी करते''
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चाहिये । मूल्यनिर्धारण, वितरण व्यवस्था, उत्पादन आदि में... तानाशाह भी बन जाते थे । विलासी, दुश्चरित्र, निर्वीय भी बन
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''जिस प्रकार समाजन्यवस्था की मूल इकाई परिवार है... थे । परन्तु व्यापार कभी भी नहीं करते थे ।''
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वर्णों की, व्यवसाय समूहों की अपनी व्यवस्था होनी चाहिये । ..... जाते थे अधिक करसंपादन करके प्रजा का शोषण भी करते
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''उस प्रकार से अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम होनी केवल अंग्रेज शासन व्यापारियों का शासन था उस''
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जिस प्रकार समाजन्यवस्था की मूल इकाई परिवार है... थे । परन्तु व्यापार कभी भी नहीं करते थे
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''चाहिये दृष्टि से देखें तो साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि सब''
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उस प्रकार से अर्थव्यवस्था की मूल इकाई ग्राम होनी केवल अंग्रेज शासन व्यापारियों का शासन था । उस
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''wel, अन्य युद्ध सामग्री एवं इसी प्रकार की अन्य... अर्थव्यवस्था पर. आधारित शासनव्यवस्था है। यह''
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चाहिये दृष्टि से देखें तो साम्यवाद, समाजवाद, पूंजीवाद आदि सब
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''सामग्री के उत्पादन, संग्रह एवं विनियोग की व्यवस्था राज्य... समाजव्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक है राज्य और अर्थ''
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wel, अन्य युद्ध सामग्री एवं इसी प्रकार की अन्य... अर्थव्यवस्था पर. आधारित शासनव्यवस्था है। यह
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''के अधीन हो सकती है । अन्यथा समाज ही नियमन करेगा । दोनों एकदूसरे के अधीन नहीं होने चाहिये । राजा का काम,''
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सामग्री के उत्पादन, संग्रह एवं विनियोग की व्यवस्था राज्य... समाजव्यवस्था के लिये अत्यन्त घातक है । राज्य और अर्थ
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''९... कर, संग्रह एवं अनुदान शासन का काम रक्षण, सहायता और अनुकूलता निर्माण''
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के अधीन हो सकती है । अन्यथा समाज ही नियमन करेगा । दोनों एकदूसरे के अधीन नहीं होने चाहिये । राजा का काम,
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''राज्य की भूमिका विशेष समय पर होगी । करने का है । सांस्कृतिक''
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... कर, संग्रह एवं अनुदान शासन का काम रक्षण, सहायता और अनुकूलता निर्माण
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''3. ज्ञानसाधना, विद्यादान, सांस्कृतिक अनुष्ठान, रुग्णसेवा,''
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राज्य की भूमिका विशेष समय पर होगी । करने का है । सांस्कृतिक
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''१, शासन, प्रशासन, न्याय, सैन्य आदि के लिये राज्य को''
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3. ज्ञानसाधना, विद्यादान, सांस्कृतिक अनुष्ठान, रुग्णसेवा,
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''जो धन चाहिये उसके लिये कर (६००0 व्यवस्था होती औषध योजना आदि कार्य अबाधरूप से चले इस दृष्टि''
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१, शासन, प्रशासन, न्याय, सैन्य आदि के लिये राज्य को
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''है। करव्यवस्था को राज्यसंचालन में समाज की से राज्य ने दान-अनुदान की व्यवस्था करनी होती है ।''
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जो धन चाहिये उसके लिये कर (६००0 व्यवस्था होती औषध योजना आदि कार्य अबाधरूप से चले इस दृष्टि
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''सहभागिता का स्वरूप देना चाहिये । प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही यह व्यवस्था होती''
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है। करव्यवस्था को राज्यसंचालन में समाज की से राज्य ने दान-अनुदान की व्यवस्था करनी होती है ।
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''करव्यवस्था भी प्रजा के शोषण के नहीं अपितु दोहन uv इसलिये इन सब कार्यों - विद्यादानादि - पर''
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सहभागिता का स्वरूप देना चाहिये प्रजा के द्वारा दिये गये कर से ही यह व्यवस्था होती
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''के सिद्धान्त पर बननी चाहिये । राज्य का नियन्त्रण का अधिकार नहीं होता ''
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करव्यवस्था भी प्रजा के शोषण के नहीं अपितु दोहन uv इसलिये इन सब कार्यों - विद्यादानादि - पर
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''४... सज्जन परित्राण एवं दुष्टनिर्दालन हेतु राज्य को जिन''
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के सिद्धान्त पर बननी चाहिये । राज्य का नियन्त्रण का अधिकार नहीं होता ।
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''में प्रजा को अन्न प्राप्त हो सके इस दृष्टि से राज्य ने संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है वह प्रजा के द्वारा''
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४... सज्जन परित्राण एवं दुष्टनिर्दालन हेतु राज्य को जिन
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''धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है । वह धान्य व्यापार दिये गये कर से ही प्राप्त होती है ।''
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में प्रजा को अन्न प्राप्त हो सके इस दृष्टि से राज्य ने संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है वह प्रजा के द्वारा
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''के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा । करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है,''
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धान्य का संग्रह करना अपेक्षित है वह धान्य व्यापार दिये गये कर से ही प्राप्त होती है
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''राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये राज्य शोषणसिद्धान्त से नहीं उद्योजकों''
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के लिये नहीं, निःशुल्क वितरण के लिये ही होगा । करविधान भी दोहनसिद्धान्त से ही होता है,
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''व्यापार करने लगता है तब अर्थव्यवस्था में घोर संकट पैदा इसमें अध्ययन, अनुसन्धान के साथ साथ उद्योजकों''
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राज्य को कभी भी व्यापार नहीं करना चाहिये । राज्य शोषणसिद्धान्त से नहीं उद्योजकों
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''होते हैं । एक लोकोक्ति है, जहाँ राजा व्यापारी वहाँ प्रजा तथा राज्य दोनों का प्रबोधन करना भी आवश्यक है ''
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व्यापार करने लगता है तब अर्थव्यवस्था में घोर संकट पैदा इसमें अध्ययन, अनुसन्धान के साथ साथ उद्योजकों
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''२... अकाल, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय''
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होते हैं । एक लोकोक्ति है, जहाँ राजा व्यापारी वहाँ प्रजा तथा राज्य दोनों का प्रबोधन करना भी आवश्यक है ।
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== ''इतिहास'' ==
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''इतिहास को हम राजकीय इतिहास के रूप में ही... प्रशासन के ही हाथ में हमने दे दी है । अथवा ब्रिटिश''
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... अकाल, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के समय
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''पढ़ाते हैं । शासन, प्रशासन, राजनीति आदि हमारे लिये. शासन ने समाज की स्वायत्तता का भंग कर सत्ता अपने''
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== इतिहास ==
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''इतने महत्त्वपूर्ण मामले हो गये हैं कि इतिहास इसीसे बनता. हाथ में ले ली तबसे हमारी मानसिकता धीरे धीरे''
इतिहास को हम राजकीय इतिहास के रूप में ही... प्रशासन के ही हाथ में हमने दे दी है अथवा ब्रिटिश
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पढ़ाते हैं । शासन, प्रशासन, राजनीति आदि हमारे लिये. शासन ने समाज की स्वायत्तता का भंग कर सत्ता अपने
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''है ऐसा हमें लगता है आज भी सारी सत्ता शासन और. शासनकेन्द्रित अर्थात्‌ राज्यकेंद्रित बन गई है । राजाओं या''
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इतने महत्त्वपूर्ण मामले हो गये हैं कि इतिहास इसीसे बनता. हाथ में ले ली । तबसे हमारी मानसिकता धीरे धीरे
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''ROR''
 
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है ऐसा हमें लगता है । आज भी सारी सत्ता शासन और. शासनकेन्द्रित अर्थात्‌ राज्यकेंद्रित बन गई है । राजाओं या
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ROR
      
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पर्व ६ : शक्षाप्रक्रियाओं का सांस्कृतिक स्वरूप
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शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन करना हमारे लिये इतिहास है । भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है। भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें इतिहास मान रहा है परन्तु विद्वतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं ।
 
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शासनकर्ताओं को केन्द्र में रखकर बीते हुए समय का वर्णन
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करना हमारे लिये इतिहास है ।
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भारतीय ज्ञानपरंपरा में महाभारत को और पुराणों को
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इतिहास कहा गया है । आज इनके सामने बड़ी आपत्ति
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उठाई जा रही है। इन्हें काल्पनिक कहा जा रहा है।
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भारतीय विद्वान इन्हें इतिहास के नाते प्रस्थापित कर ही नहीं
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पा रहे हैं क्योंकि इतिहास की पाश्चात्य विद्वानों की परिभाषा
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को स्वीकार कर अपने ग्रन्थों को लागू करने से वे इतिहास
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ग्रंथ सिद्ध नहीं होते हैं । एक बहुत ही छोटा तबका इन्हें
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इतिहास मान रहा है परन्तु विट्रतक्षेत्र के मुख्य प्रवाह में
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अभी भी ये धर्मग्रंथ हैं, इतिहास नहीं ।
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इतिहास की भारतीय परिभाषा है
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धर्मार्थिकाममो क्षाणाम्‌ उपदेशसमन्वितम्‌ ।
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पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।
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अर्थात्‌ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों
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इतिहास की भारतीय परिभाषा है<blockquote>धर्मार्थिकाममो क्षाणाम्‌ उपदेशसमन्वितम्‌ ।</blockquote><blockquote>पुरावृत्तं कथारूप॑ इतिहासं प्रचक्षते ।।</blockquote>अर्थात्‌ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों
    
का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो
 
का उपदेश जिसमें मिलता है, जो पूर्व में हो गया है, जो

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