Changes

Jump to navigation Jump to search
m
no edit summary
Line 41: Line 41:  
# निम्नलिखित बातों का कैसे ध्यान रखें - १. वस्तुओं की सम्हाल २. एक ही वस्तु के अनेक उपयोग ३. बिना पैसे की वस्तुओं का उपयोग ४. प्राकृतिक व्यवस्थायें ५. रखरखाव का खर्च कम से कम हो ऐसी व्यवस्था या वस्तुयें ।
 
# निम्नलिखित बातों का कैसे ध्यान रखें - १. वस्तुओं की सम्हाल २. एक ही वस्तु के अनेक उपयोग ३. बिना पैसे की वस्तुओं का उपयोग ४. प्राकृतिक व्यवस्थायें ५. रखरखाव का खर्च कम से कम हो ऐसी व्यवस्था या वस्तुयें ।
   −
==== '''प्रश्नावली से पाप्त उत्तर''' ====
+
==== प्रश्नावली से पाप्त उत्तर ====
 
महाराष्ट्र के नासिक जिले में एक विद्यालय है जहाँ मितव्ययता हेतु नित्य विविध प्रयोग होते हैं । उस विद्यालय के शिक्षकों को यह प्रश्नावली मिली थी। विद्यालय मे २० शिक्षिकाएँ थी परंतु उत्तर मात्र एक ही प्राप्त हुआ। हमारे विद्यालय में मितव्ययिता की नीति हम सब मिलकर एक विचार से लागू करते हैं। इसलिए २० प्रश्नावली की जगह चर्चा करके एकने उत्तरावली भरी तो भी चलेगा यह विचार हम सबने किया। विद्यालय की मितव्ययिता का प्रत्यक्ष उदाहरण इस तरह प्राप्त हुआ।
 
महाराष्ट्र के नासिक जिले में एक विद्यालय है जहाँ मितव्ययता हेतु नित्य विविध प्रयोग होते हैं । उस विद्यालय के शिक्षकों को यह प्रश्नावली मिली थी। विद्यालय मे २० शिक्षिकाएँ थी परंतु उत्तर मात्र एक ही प्राप्त हुआ। हमारे विद्यालय में मितव्ययिता की नीति हम सब मिलकर एक विचार से लागू करते हैं। इसलिए २० प्रश्नावली की जगह चर्चा करके एकने उत्तरावली भरी तो भी चलेगा यह विचार हम सबने किया। विद्यालय की मितव्ययिता का प्रत्यक्ष उदाहरण इस तरह प्राप्त हुआ।
   Line 249: Line 249:  
* शिक्षा के साथ जुड़े हुए तो ये सारे वर्ग हैं परन्तु उसका केन्द्रवर्ती स्थान और केन्द्रवर्ती दायित्व शिक्षक का ही है। जिस दिन इस देश का शिक्षक अपने आपको इस कार्य के लिये प्रस्तुत करेगा उस दिन से शिक्षा की अर्थव्यवस्था और समग्र शिक्षाक्षेत्र ठीक पटरी पर आ जायेगा यह निश्चित है । हमारा इतिहास और हमारी परम्परा भी यही कहती है।
 
* शिक्षा के साथ जुड़े हुए तो ये सारे वर्ग हैं परन्तु उसका केन्द्रवर्ती स्थान और केन्द्रवर्ती दायित्व शिक्षक का ही है। जिस दिन इस देश का शिक्षक अपने आपको इस कार्य के लिये प्रस्तुत करेगा उस दिन से शिक्षा की अर्थव्यवस्था और समग्र शिक्षाक्षेत्र ठीक पटरी पर आ जायेगा यह निश्चित है । हमारा इतिहास और हमारी परम्परा भी यही कहती है।
   −
==== '''शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च''' ====
+
==== शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च ====
 
पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये । आज कल ऐसी बातों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है जिन पर बिलकुल ही खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिये छोटे बच्चे जब लेखन सीखना प्रारम्भ करते हैं तब आज क्या होता है इसका विचार करें । रेत पर उँगली से भी 'अ' लिखा जाता है, भूमि पर खड़िया से भी 'अ' लिखा जाता है, पत्थर की पाटी पर लेखनी से 'अ' लिखा जाता है, कागज पर कलम से 'अ' लिखा जाता है, संगणक के पर्दे पर भी 'अ' लिखा जाता है । रेत पर ऊँगली से लिखने में एक पैसा भी खर्च नहीं होता है, जबकि संगणक पर हजारों रुपये खर्च होते हैं। एक पैसा खर्च करो या हजार, लिखा तो 'अ' ही जाता है। उँगली से लिखने में 'अ' का अनुभव अधिक गहन होता है । शैक्षिक दृष्टि से वह अधिक अच्छा है और आर्थिक दृष्टि से अधिक सुकर । फिर भी आज संगणक का आकर्षण अधिक है। लोगों को लगता है कि संगणक अधिक अच्छा है, पाटी पर या रेत पर लिखना पिछड़ेपन का लक्षण है। यह मानसिक रुग्णावस्था है जो जीवन के हर क्षेत्र में आज दिखाई देती है। संगणक बनाने वाली कम्पनियाँ इस अवस्था का लाभ उठाती हैं और विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को और लालायित करती हैं । सरकारें चुनावों में मत बटोरने के लिये लोगों को संगणक का आमिष देते हैं और बड़े-बड़े उद्योगगृह ऊंचा शुल्क वसूलने के लिये संगणक प्रस्तुत करते हैं । संगणक का सम्यक् उपयोग सिखाने के स्थान पर अत्र-तत्र-सर्वत्र संगणक के उपयोग का आवाहन किया जाता है। संगणक तो एक उदाहरण है। ऐसी असंख्य बातें हैं जो जरा भी उपयोगी नहीं हैं, अथवा अत्यन्त अल्प मात्रा में उपयोगी हैं, परन्तु खर्च उनके लिये बहुत अधिक होता है। ऐसे खर्च के लिये लोगों को अधिक पैसा कमाना पड़ता है, अधिक पैसा कमाने के लिये अधिक कष्ट करना पड़ता है और अधिक समय देना पड़ता है । इस प्रकार पैसे का एक दुष्ट चक्र शुरू होता है, एक बार शुरू हुआ तो कैसे भी रुकता नहीं है और फिर शान्ति से विचार करने का समय भी नहीं रहता है।  
 
पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये । आज कल ऐसी बातों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है जिन पर बिलकुल ही खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिये छोटे बच्चे जब लेखन सीखना प्रारम्भ करते हैं तब आज क्या होता है इसका विचार करें । रेत पर उँगली से भी 'अ' लिखा जाता है, भूमि पर खड़िया से भी 'अ' लिखा जाता है, पत्थर की पाटी पर लेखनी से 'अ' लिखा जाता है, कागज पर कलम से 'अ' लिखा जाता है, संगणक के पर्दे पर भी 'अ' लिखा जाता है । रेत पर ऊँगली से लिखने में एक पैसा भी खर्च नहीं होता है, जबकि संगणक पर हजारों रुपये खर्च होते हैं। एक पैसा खर्च करो या हजार, लिखा तो 'अ' ही जाता है। उँगली से लिखने में 'अ' का अनुभव अधिक गहन होता है । शैक्षिक दृष्टि से वह अधिक अच्छा है और आर्थिक दृष्टि से अधिक सुकर । फिर भी आज संगणक का आकर्षण अधिक है। लोगों को लगता है कि संगणक अधिक अच्छा है, पाटी पर या रेत पर लिखना पिछड़ेपन का लक्षण है। यह मानसिक रुग्णावस्था है जो जीवन के हर क्षेत्र में आज दिखाई देती है। संगणक बनाने वाली कम्पनियाँ इस अवस्था का लाभ उठाती हैं और विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को और लालायित करती हैं । सरकारें चुनावों में मत बटोरने के लिये लोगों को संगणक का आमिष देते हैं और बड़े-बड़े उद्योगगृह ऊंचा शुल्क वसूलने के लिये संगणक प्रस्तुत करते हैं । संगणक का सम्यक् उपयोग सिखाने के स्थान पर अत्र-तत्र-सर्वत्र संगणक के उपयोग का आवाहन किया जाता है। संगणक तो एक उदाहरण है। ऐसी असंख्य बातें हैं जो जरा भी उपयोगी नहीं हैं, अथवा अत्यन्त अल्प मात्रा में उपयोगी हैं, परन्तु खर्च उनके लिये बहुत अधिक होता है। ऐसे खर्च के लिये लोगों को अधिक पैसा कमाना पड़ता है, अधिक पैसा कमाने के लिये अधिक कष्ट करना पड़ता है और अधिक समय देना पड़ता है । इस प्रकार पैसे का एक दुष्ट चक्र शुरू होता है, एक बार शुरू हुआ तो कैसे भी रुकता नहीं है और फिर शान्ति से विचार करने का समय भी नहीं रहता है।  
   Line 283: Line 283:  
गुरुकुल की अर्थव्यवस्था के प्रमुख आयाम इस प्रकार थे ...
 
गुरुकुल की अर्थव्यवस्था के प्रमुख आयाम इस प्रकार थे ...
   −
==== '''समित्पाणि''' ====
+
==== समित्पाणि ====
 
समित्पाणि शब्द दो शब्दों से बना है । एक है समित, और दूसरा है पाणि । समित का अर्थ है, समिधा और पाणि का अर्थ है, हाथ । छात्र जब गुरुकुल में अध्ययन हेतु प्रथम बार जाते थे, तब हाथ में समिधा लेकर जाते थे । समिधा यज्ञ में होम करने हेतु उपयोग में ली जाने वाली लकड़ी को कहते हैं । गुरुकुल में यज्ञ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गतिविधि होती थी और छात्रों को समिधा एकत्रित करनी होती थी। अतः गुरु के समक्ष हाथ में समिधा लेकर ही उपस्थित होने का प्रचलन था । यह समिधा शब्द सांकेतिक है । उसका लाक्षणिक अर्थ है गुरुकुल वास हेतु उपयोगी सामग्री । गुरुकुल में अध्ययन हेतु जाते समय छात्र किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री लेकर ही जाते थे। यह एक आवश्यक आचार माना जाता था । देव, गुरु, स्नेही, राजा आदि आदरणीय व्यक्तियों के सम्मुख कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये, ऐसा आग्रह था। यह आग्रह हमारे समाज जीवन में अभी भी देखने को मिलता है । हम मन्दिर में जाते हैं तो द्रव्य और धान्य लेकर ही जाते हैं। किसीके घर जाते हैं तो बच्चों के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाते हैं। किसी विद्वान के पास जाते हैं तो भी खाली हाथ नहीं  जाते हैं। गाँवों में अभी भी बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है तब शिक्षक को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है और छात्रों को भोजन या जलपान कराया जाता है। यह एक बहुत व्यापक सामाजिक व्यवहार का हिस्सा है, जहाँ अपने व्यक्तिगत अच्छे अवसर पर अधिकाधिक लोगों को सहभागी बनाया जाता है और खुशी से कुछ न कुछ दिया जाता है। यह देकर, बाँटकर कर खुश होने की संस्कृति का लक्षण है । तात्पर्य यह है कि विद्यालय प्रवेश के समय पर छात्र द्वारा गुरु और गुरुकुल को किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री देने की व्यवस्था थी।
 
समित्पाणि शब्द दो शब्दों से बना है । एक है समित, और दूसरा है पाणि । समित का अर्थ है, समिधा और पाणि का अर्थ है, हाथ । छात्र जब गुरुकुल में अध्ययन हेतु प्रथम बार जाते थे, तब हाथ में समिधा लेकर जाते थे । समिधा यज्ञ में होम करने हेतु उपयोग में ली जाने वाली लकड़ी को कहते हैं । गुरुकुल में यज्ञ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गतिविधि होती थी और छात्रों को समिधा एकत्रित करनी होती थी। अतः गुरु के समक्ष हाथ में समिधा लेकर ही उपस्थित होने का प्रचलन था । यह समिधा शब्द सांकेतिक है । उसका लाक्षणिक अर्थ है गुरुकुल वास हेतु उपयोगी सामग्री । गुरुकुल में अध्ययन हेतु जाते समय छात्र किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री लेकर ही जाते थे। यह एक आवश्यक आचार माना जाता था । देव, गुरु, स्नेही, राजा आदि आदरणीय व्यक्तियों के सम्मुख कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये, ऐसा आग्रह था। यह आग्रह हमारे समाज जीवन में अभी भी देखने को मिलता है । हम मन्दिर में जाते हैं तो द्रव्य और धान्य लेकर ही जाते हैं। किसीके घर जाते हैं तो बच्चों के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाते हैं। किसी विद्वान के पास जाते हैं तो भी खाली हाथ नहीं  जाते हैं। गाँवों में अभी भी बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है तब शिक्षक को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है और छात्रों को भोजन या जलपान कराया जाता है। यह एक बहुत व्यापक सामाजिक व्यवहार का हिस्सा है, जहाँ अपने व्यक्तिगत अच्छे अवसर पर अधिकाधिक लोगों को सहभागी बनाया जाता है और खुशी से कुछ न कुछ दिया जाता है। यह देकर, बाँटकर कर खुश होने की संस्कृति का लक्षण है । तात्पर्य यह है कि विद्यालय प्रवेश के समय पर छात्र द्वारा गुरु और गुरुकुल को किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री देने की व्यवस्था थी।
   Line 624: Line 624:  
इसलिए प्रत्येक अवसर का लाभ उठाना चाहिए। कोई भी अवसर जाने मत दो । प्रयत्न करो, यश तो मिलता ही है।  
 
इसलिए प्रत्येक अवसर का लाभ उठाना चाहिए। कोई भी अवसर जाने मत दो । प्रयत्न करो, यश तो मिलता ही है।  
   −
==== '''व्यर्थ मत गँवाओ''' ====
+
==== व्यर्थ मत गँवाओ ====
 
व्यर्थ मत गँवाओ, और खशियाँ लाओ।  
 
व्यर्थ मत गँवाओ, और खशियाँ लाओ।  
   Line 661: Line 661:  
=== स्वायत्तता और अर्थक्षेत्र का प्रबोधन ===
 
=== स्वायत्तता और अर्थक्षेत्र का प्रबोधन ===
   −
==== '''अर्थनिष्ठ नहीं, धर्मनिष्ठ समाजव्यवस्था''' ====
+
==== अर्थनिष्ठ नहीं, धर्मनिष्ठ समाजव्यवस्था ====
 
अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था में अर्थ का स्थान सर्वोपरि होगा । यह तो बिना कहे समज में आनी चाहिये ऐसी बात है। अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था केवल भौतिक समृद्धि की ही प्रतिष्ठा करती है ऐसा नहीं है या समाज की भौतिक समृद्धि में ही वृद्धि करती है ऐसा नहीं है । भौतिक समृद्धि में सही अर्थ में वृद्धि तो जब धर्म के अविरोधि अर्थक्षेत्र होता है तब होती है। अर्थनिष्ठ समाज व्यवस्था में व्यक्ति समृद्ध होते हैं और समाज दरिद्र होता है यह एक बात है परन्तु इससे भी अधिक अनिष्ट यह है कि सारी व्यवस्था बाजार बन जाती है और सारी अच्छी बातें बिकाऊ बन जाती हैं। जिस प्रकार यान्त्रिक शिक्षाव्यवस्था में सबकुछ अंकों में रूपान्तरित कर ही मूल्यांकन होता है उस प्रकार अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था में सबकुछ सिक्कों में परिवर्तित हो जाता है ।
 
अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था में अर्थ का स्थान सर्वोपरि होगा । यह तो बिना कहे समज में आनी चाहिये ऐसी बात है। अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था केवल भौतिक समृद्धि की ही प्रतिष्ठा करती है ऐसा नहीं है या समाज की भौतिक समृद्धि में ही वृद्धि करती है ऐसा नहीं है । भौतिक समृद्धि में सही अर्थ में वृद्धि तो जब धर्म के अविरोधि अर्थक्षेत्र होता है तब होती है। अर्थनिष्ठ समाज व्यवस्था में व्यक्ति समृद्ध होते हैं और समाज दरिद्र होता है यह एक बात है परन्तु इससे भी अधिक अनिष्ट यह है कि सारी व्यवस्था बाजार बन जाती है और सारी अच्छी बातें बिकाऊ बन जाती हैं। जिस प्रकार यान्त्रिक शिक्षाव्यवस्था में सबकुछ अंकों में रूपान्तरित कर ही मूल्यांकन होता है उस प्रकार अर्थनिष्ठ समाजव्यवस्था में सबकुछ सिक्कों में परिवर्तित हो जाता है ।
   Line 672: Line 672:  
अर्थ की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद उसे समझाना बहुत कठिन बात है। सुभाषित कहता है, 'अर्थातुराणां न गुरुन बन्धुः' अर्थात् जिसके मनमस्तिष्क पर अर्थ सवार हो गया है वह उसके लिये न कोई गुरु है न कोई स्वजन फिर अर्थ को वश में कैसे किया जा सकता है ? जीवननिर्वाह के लिये अर्थ तो चाहिये । उसके लिये बेचने के लिये बिना । विद्या के कुछ है ही नहीं तो क्या करेंगे ? बेचने के लिये बुद्धि ही है तो क्या करेंगे?
 
अर्थ की प्रतिष्ठा हो जाने के बाद उसे समझाना बहुत कठिन बात है। सुभाषित कहता है, 'अर्थातुराणां न गुरुन बन्धुः' अर्थात् जिसके मनमस्तिष्क पर अर्थ सवार हो गया है वह उसके लिये न कोई गुरु है न कोई स्वजन फिर अर्थ को वश में कैसे किया जा सकता है ? जीवननिर्वाह के लिये अर्थ तो चाहिये । उसके लिये बेचने के लिये बिना । विद्या के कुछ है ही नहीं तो क्या करेंगे ? बेचने के लिये बुद्धि ही है तो क्या करेंगे?
   −
==== '''ईश्वरप्रदत्त सम्पत्ति का बिकाऊ होना''' ====
+
==== ईश्वरप्रदत्त सम्पत्ति का बिकाऊ होना ====
 
मनुष्य की व्यक्तिगत रूप से ईश्वरप्रदत्त सम्पत्ति कौनसी है ? प्रथम तो शरीर है । फिर मन है, बुद्धि है, अहंकार है। ये सब किस प्रकार बिकाऊ होते हैं ।
 
मनुष्य की व्यक्तिगत रूप से ईश्वरप्रदत्त सम्पत्ति कौनसी है ? प्रथम तो शरीर है । फिर मन है, बुद्धि है, अहंकार है। ये सब किस प्रकार बिकाऊ होते हैं ।
   Line 693: Line 693:  
आज अर्थनिष्ठा के कारण इन सभी मूल्यवान तत्त्वों का नाश हो गया है।
 
आज अर्थनिष्ठा के कारण इन सभी मूल्यवान तत्त्वों का नाश हो गया है।
   −
==== '''अर्थनिरपेक्ष कैसे बनना''' ====
+
==== अर्थनिरपेक्ष कैसे बनना ====
 
इस स्थिति में अर्थनिरपेक्ष कैसे बना जा सकता है ? कुछ इन बातों पर विचार किया जा सकता है...
 
इस स्थिति में अर्थनिरपेक्ष कैसे बना जा सकता है ? कुछ इन बातों पर विचार किया जा सकता है...
 
* बुद्धि नहीं बेचने का निश्चय कौन कर सकता है, बेचने वाला कि खरीदनेवाला ?
 
* बुद्धि नहीं बेचने का निश्चय कौन कर सकता है, बेचने वाला कि खरीदनेवाला ?
Line 705: Line 705:  
हमारे दृष्टा ऋषि इस तत्त्व को समझते थे इसलिये उन्होंने मनुष्य की ईश्वर प्रदत्त सम्पत्ति को बाजारू पदार्थ बनाने का निषेध कर दिया था। इस कारण से ही समाज समृद्ध और सुसंस्कृत था।  
 
हमारे दृष्टा ऋषि इस तत्त्व को समझते थे इसलिये उन्होंने मनुष्य की ईश्वर प्रदत्त सम्पत्ति को बाजारू पदार्थ बनाने का निषेध कर दिया था। इस कारण से ही समाज समृद्ध और सुसंस्कृत था।  
   −
==== '''परिवर्तन के बिन्दु''' ====
+
==== परिवर्तन के बिन्दु ====
 
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को धार्मिक जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पडेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
 
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को धार्मिक जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पडेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
 
# मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पडेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये। इस दष्टि से हर व्यक्ति को अपने अर्थार्जन हेतु स्वतन्त्र व्यवसाय मिलना चाहिये।  
 
# मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पडेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये। इस दष्टि से हर व्यक्ति को अपने अर्थार्जन हेतु स्वतन्त्र व्यवसाय मिलना चाहिये।  
Line 867: Line 867:  
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 
[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
 
[[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]]
 
[[Category:धार्मिक शिक्षा : धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम]]
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 3: विद्यालय की शैक्षिक व्यवस्थाएँ]]
+
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 4: विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ]]

Navigation menu