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हमारे विद्यालय में मितव्ययिता की नीति हम सब मिलकर एक विचार से लागू करते हैं। अतः २० प्रश्नावली की जगह चर्चा करके एक ने उत्तरावली भरी तो भी चलेगा यह विचार हम सबने किया। विद्यालय की मितव्ययिता का प्रत्यक्ष उदाहरण इस तरह प्राप्त हुआ।
 
हमारे विद्यालय में मितव्ययिता की नीति हम सब मिलकर एक विचार से लागू करते हैं। अतः २० प्रश्नावली की जगह चर्चा करके एक ने उत्तरावली भरी तो भी चलेगा यह विचार हम सबने किया। विद्यालय की मितव्ययिता का प्रत्यक्ष उदाहरण इस तरह प्राप्त हुआ।
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विद्यार्थियों के लिए शैक्षिक सामग्री निर्माण करते समय ज्यादातर घरों में फिजूल वस्तुएँ होती हैं उसका ही उपयोग हम करते हैं। जैसे बीज, बोतल के ढक्कन, मासिक पत्रिका से चित्र इत्यादि विद्यालय में प्रश्नपत्र या अभ्यास कार्य करने हेतु सदा एक बाजू पर कोरे कागज ही हम उपयोग में लाते हैं । साजसज्जा की वस्तुयें बनाने के लिये घर मे बेकार और अनुपयोगी (पुढे के) पुरानी किताबों में से अच्छा रंगीन कागज, निमंत्रण पत्रिकाएँ ऐसी वस्तुओं का आग्रह हम रखते हैं। छोटे बच्चों के लिए आसन और लिखने हेतु डेस्क के लिये अभिभावकों को द्वारा दिया हुआ लकडी का, उनके घर का पुराना फर्निचर हम उपयोग में लाते हैं। अभिभावकों के बगीचे में लगे हए केला, नारियल आदि फल, सब्जी, फूल, विद्यालय में अध्यापन सामग्री के लिये सहजता से देने का संस्कार हमने अभिभावकों पर किया है। चित्र-प्रतिकृति की जगह इस प्रकार की स्वेच्छा से भेजी हुई सामग्री हमें अधिक मूल्यवान लगती है।
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विद्यार्थियों के लिए शैक्षिक सामग्री निर्माण करते समय ज्यादातर घरों में फिजूल वस्तुएँ होती हैं उसका ही उपयोग हम करते हैं। जैसे बीज, बोतल के ढक्कन, मासिक पत्रिका से चित्र इत्यादि विद्यालय में प्रश्नपत्र या अभ्यास कार्य करने हेतु सदा एक बाजू पर कोरे कागज ही हम उपयोग में लाते हैं । साजसज्जा की वस्तुयें बनाने के लिये घर मे बेकार और अनुपयोगी (पुढे के) पुरानी किताबों में से अच्छा रंगीन कागज, निमंत्रण पत्रिकाएँ ऐसी वस्तुओं का आग्रह हम रखते हैं। छोटे बच्चोंं के लिए आसन और लिखने हेतु डेस्क के लिये अभिभावकों को द्वारा दिया हुआ लकडी का, उनके घर का पुराना फर्निचर हम उपयोग में लाते हैं। अभिभावकों के बगीचे में लगे हए केला, नारियल आदि फल, सब्जी, फूल, विद्यालय में अध्यापन सामग्री के लिये सहजता से देने का संस्कार हमने अभिभावकों पर किया है। चित्र-प्रतिकृति की जगह इस प्रकार की स्वेच्छा से भेजी हुई सामग्री हमें अधिक मूल्यवान लगती है।
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स्टेशनरी, बिजली, पानी बाबत सर्वत्र अपव्यय और दुर्व्यय होते दिखाई देता है परंतु उनका उपयोग मितव्ययिता से करने की आदत शिक्षक एवं छात्रों में हमने निर्माण की है। कैसा भी साहित्य हो उसका सम्भाल कर उपयोग करना यह आदत बच्चों में हम विकसित करते हैं।
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स्टेशनरी, बिजली, पानी बाबत सर्वत्र अपव्यय और दुर्व्यय होते दिखाई देता है परंतु उनका उपयोग मितव्ययिता से करने की आदत शिक्षक एवं छात्रों में हमने निर्माण की है। कैसा भी साहित्य हो उसका सम्भाल कर उपयोग करना यह आदत बच्चोंं में हम विकसित करते हैं।
    
कम से कम खर्च करके सादगी और सौंदर्य निर्माण करने हेतु हस्तव्यवसाय एवं कार्यानुभव सिखाते समय वस्तुओं का पुनरुपयोग और वेस्ट से बेस्ट' इस संकल्पना को हम व्यवहार में लाते हैं। सस्ती वस्तु का महत्व कम नहीं होता यह बात प्रत्यक्ष व्यवहार से, प्रयोग से यहाँ सिद्ध करते हैं। विद्यालय के वार्षिकोत्सव की निमंत्रण पत्रिका जो छपवाकर आकर्षक परंतु महँगी हो जाती है परंतु हमारे छात्र उसे सुंदर शब्दों में गद्य या पद्य रूप मे शब्दबद्ध करते हैं और उसे सादे कागज पर छपवाते हैं। विद्यालय और अभिभावक दोनों को इसकी मौलिकता समझ में आती है। वार्षिकोत्सव, स्नेह सम्मलेन के कार्यक्रमों में आकर्षक मेकअप और वेषभूषा की जगह विद्यार्थी का उत्कृष्ट अभिनय, शिक्षकों ने स्वयं तैयार किये हुए विविध कार्यक्रम अभिभावकों के लिये आकर्षक होते हैं। हर एक वस्तु का ज्यादा से ज्यादा और अनेक प्रकार से कैसा उपयोग किया जा सकता है इस बाबत छात्रों से सतत चर्चा, विचार और प्रयोग किये जाते हैं।
 
कम से कम खर्च करके सादगी और सौंदर्य निर्माण करने हेतु हस्तव्यवसाय एवं कार्यानुभव सिखाते समय वस्तुओं का पुनरुपयोग और वेस्ट से बेस्ट' इस संकल्पना को हम व्यवहार में लाते हैं। सस्ती वस्तु का महत्व कम नहीं होता यह बात प्रत्यक्ष व्यवहार से, प्रयोग से यहाँ सिद्ध करते हैं। विद्यालय के वार्षिकोत्सव की निमंत्रण पत्रिका जो छपवाकर आकर्षक परंतु महँगी हो जाती है परंतु हमारे छात्र उसे सुंदर शब्दों में गद्य या पद्य रूप मे शब्दबद्ध करते हैं और उसे सादे कागज पर छपवाते हैं। विद्यालय और अभिभावक दोनों को इसकी मौलिकता समझ में आती है। वार्षिकोत्सव, स्नेह सम्मलेन के कार्यक्रमों में आकर्षक मेकअप और वेषभूषा की जगह विद्यार्थी का उत्कृष्ट अभिनय, शिक्षकों ने स्वयं तैयार किये हुए विविध कार्यक्रम अभिभावकों के लिये आकर्षक होते हैं। हर एक वस्तु का ज्यादा से ज्यादा और अनेक प्रकार से कैसा उपयोग किया जा सकता है इस बाबत छात्रों से सतत चर्चा, विचार और प्रयोग किये जाते हैं।
    
==== अभिमत : ====
 
==== अभिमत : ====
मितव्ययिता माने कंजूसी नहीं अपितु जिस बात का जितना मूल्य है उतना ही खर्च करना यह बात समझ और प्रयोग में उतारना है । आवश्यक न हो तब पांच पैसे भी नहीं खर्च करना परंतु साथ साथ आवश्यकता हो तो हजार रूपया भी खर्च करने में हिचकिचाना नहीं - यह विचार विद्यालयों में और घर घर में प्रस्थापित करना चाहिये । शिशुकक्षा एवं प्राथमिक कक्षाओं में कापियों की जगह पत्थर की स्लेट का अनिवार्य रूप से उपयोग करना चाहिये । पेन, पेंसिल, कलर्स इधर उधर फेंकना नहीं, खोना नहीं ऐसी छोटी छोटी बातों का आग्रह करना चाहिये । साधन सामग्री का उचित और कम से कम उपयोग करने वाले छात्रों को सब छात्रों के सामने गौरवान्वित करें । नुकसान, लापरवाही आदि दुर्गुणों से बच्चों को बचाना होगा।
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मितव्ययिता माने कंजूसी नहीं अपितु जिस बात का जितना मूल्य है उतना ही खर्च करना यह बात समझ और प्रयोग में उतारना है । आवश्यक न हो तब पांच पैसे भी नहीं खर्च करना परंतु साथ साथ आवश्यकता हो तो हजार रूपया भी खर्च करने में हिचकिचाना नहीं - यह विचार विद्यालयों में और घर घर में प्रस्थापित करना चाहिये । शिशुकक्षा एवं प्राथमिक कक्षाओं में कापियों की जगह पत्थर की स्लेट का अनिवार्य रूप से उपयोग करना चाहिये । पेन, पेंसिल, कलर्स इधर उधर फेंकना नहीं, खोना नहीं ऐसी छोटी छोटी बातों का आग्रह करना चाहिये । साधन सामग्री का उचित और कम से कम उपयोग करने वाले छात्रों को सब छात्रों के सामने गौरवान्वित करें । नुकसान, लापरवाही आदि दुर्गुणों से बच्चोंं को बचाना होगा।
    
==== विमर्श ====
 
==== विमर्श ====
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'''अभिमत'''
 
'''अभिमत'''
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आज विद्यालय तो ज्ञान के मॉल बन गये है। गणवेश, बस्ता, पुस्तकें, अन्य सारा साहित्य खरिदना विद्यालयों में अनिवार्य बना दिया है। कहीं कहीं तो विद्यालय ने बच्चों की सुविधा के रूप दिन में बच्चों के लिए केन्टीन खोला है। और विद्यालय के बाद उसे ही होटल का स्वरूप दिया है। नये से भर्ती होने वाले शिक्षको से दान स्वरूप राशी लेना यह आज बडी मात्रा में दिखाई देता है। ऐसे विपरीत वातावरण में कुछ अच्छे निष्ठावान, तत्त्व से चलनेवाले विद्यालय है भी परन्तु उनकी मात्रा नगण्य जैसी ही है। ज्ञानदान का पवित्र कार्य करनेवाले ज्ञानमंदिर हमने ही अपवित्र किये है।।
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आज विद्यालय तो ज्ञान के मॉल बन गये है। गणवेश, बस्ता, पुस्तकें, अन्य सारा साहित्य खरिदना विद्यालयों में अनिवार्य बना दिया है। कहीं कहीं तो विद्यालय ने बच्चोंं की सुविधा के रूप दिन में बच्चोंं के लिए केन्टीन खोला है। और विद्यालय के बाद उसे ही होटल का स्वरूप दिया है। नये से भर्ती होने वाले शिक्षको से दान स्वरूप राशी लेना यह आज बडी मात्रा में दिखाई देता है। ऐसे विपरीत वातावरण में कुछ अच्छे निष्ठावान, तत्त्व से चलनेवाले विद्यालय है भी परन्तु उनकी मात्रा नगण्य जैसी ही है। ज्ञानदान का पवित्र कार्य करनेवाले ज्ञानमंदिर हमने ही अपवित्र किये है।।
    
विद्यालय अध्ययन और अध्यापन का केन्द्र है यह बात तो सही है फिर भी उसे अर्थ की आवश्यकता तो रहती ही है। विद्यालय भौतिक पदार्थ के उत्पादन या वितरण का केन्द्र तो है नहीं, तो फिर उसका निभाव कैसे होगा ?
 
विद्यालय अध्ययन और अध्यापन का केन्द्र है यह बात तो सही है फिर भी उसे अर्थ की आवश्यकता तो रहती ही है। विद्यालय भौतिक पदार्थ के उत्पादन या वितरण का केन्द्र तो है नहीं, तो फिर उसका निभाव कैसे होगा ?
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==== निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग ====
 
==== निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग ====
ऐसी कई वेद पाठशालायें हैं जहाँ छात्रों से शुल्क नहीं लिया जाता है। वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती, विद्या भारती जैसी अनेक संस्थाओं द्वारा गरीब बस्तियों में, वनवासी क्षेत्रों में और नगरों की झुग्गीझोंपड़ियों में संस्कारकेन्द्र और एकल विद्यालय चलते हैं, जहाँ शुल्क नहीं लिया जाता है। सरकार स्वयं प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क ही चलाती है। ये प्राथमिक विद्यालय लाखों की संख्या में हैं और देश के करोड़ों बच्चे इन विद्यालयों में पढ़ते ही हैं। कर्नाटक में हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान द्वारा संचालित गुरुकुलों में आवास, भोजन और शिक्षा का शुल्क नहीं लिया जाता है । ऐसे और भी कई उदाहरण होंगे। अतः निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग तो चलते ही हैं। परन्तु इसका परिणाम जैसा हमें अपेक्षित है, ऐसा नहीं हो रहा है। वेदविज्ञान गुरुकुल एक आदर्श नमूने के रूप में प्रतिष्ठित है परन्तु उसका अनुसरण अन्यत्र नहीं हो रहा है। विभिन्न संगठनों के द्वारा चलाये जाने वाले संस्कारकेन्द्रों और एकल विद्यालयों को सेवा के प्रकल्प के रूप में और धर्मादाय की व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। उनमें पढ़ना प्रतिष्ठा का विषय नहीं माना जाता है। सरकारी विद्यालयों की दशा इतनी खराब है कि कोई उसमें पढ़ना नहीं चाहता है । लोग अधिक पैसा खर्च करके भी निजी संस्थानों द्वारा चलने वाले विद्यालयों में अपने बच्चों को भेजते हैं । शिक्षा पर खर्च करने में लोगोंं को अर्थार्जन के लिये अधिक कष्ट झेलने पड़ते हैं, कर्जा लेना पड़ता है, गाँवों में लोग अपनी जमीन या आभूषण बेचते हैं परन्तु निःशुल्क शिक्षा लेने के लिये सरकारी विद्यालयों में नहीं जाते । एक ऐसा लोकमत हो गया है कि जो मुफ्त मिलता है, वह गुणवत्तापूर्ण नहीं होता है। इस प्रकार व्यवस्था और लोकमत दोनों क्षेत्रों में उपाय करने की आवश्यकता है।
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ऐसी कई वेद पाठशालायें हैं जहाँ छात्रों से शुल्क नहीं लिया जाता है। वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती, विद्या भारती जैसी अनेक संस्थाओं द्वारा गरीब बस्तियों में, वनवासी क्षेत्रों में और नगरों की झुग्गीझोंपड़ियों में संस्कारकेन्द्र और एकल विद्यालय चलते हैं, जहाँ शुल्क नहीं लिया जाता है। सरकार स्वयं प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क ही चलाती है। ये प्राथमिक विद्यालय लाखों की संख्या में हैं और देश के करोड़ों बच्चे इन विद्यालयों में पढ़ते ही हैं। कर्नाटक में हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान द्वारा संचालित गुरुकुलों में आवास, भोजन और शिक्षा का शुल्क नहीं लिया जाता है । ऐसे और भी कई उदाहरण होंगे। अतः निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग तो चलते ही हैं। परन्तु इसका परिणाम जैसा हमें अपेक्षित है, ऐसा नहीं हो रहा है। वेदविज्ञान गुरुकुल एक आदर्श नमूने के रूप में प्रतिष्ठित है परन्तु उसका अनुसरण अन्यत्र नहीं हो रहा है। विभिन्न संगठनों के द्वारा चलाये जाने वाले संस्कारकेन्द्रों और एकल विद्यालयों को सेवा के प्रकल्प के रूप में और धर्मादाय की व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। उनमें पढ़ना प्रतिष्ठा का विषय नहीं माना जाता है। सरकारी विद्यालयों की दशा इतनी खराब है कि कोई उसमें पढ़ना नहीं चाहता है । लोग अधिक पैसा खर्च करके भी निजी संस्थानों द्वारा चलने वाले विद्यालयों में अपने बच्चोंं को भेजते हैं । शिक्षा पर खर्च करने में लोगोंं को अर्थार्जन के लिये अधिक कष्ट झेलने पड़ते हैं, कर्जा लेना पड़ता है, गाँवों में लोग अपनी जमीन या आभूषण बेचते हैं परन्तु निःशुल्क शिक्षा लेने के लिये सरकारी विद्यालयों में नहीं जाते । एक ऐसा लोकमत हो गया है कि जो मुफ्त मिलता है, वह गुणवत्तापूर्ण नहीं होता है। इस प्रकार व्यवस्था और लोकमत दोनों क्षेत्रों में उपाय करने की आवश्यकता है।
    
हम निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग तो करें ही, साथ ही शिक्षा का क्षेत्र क्यों अर्थनिरपेक्ष होना चाहिये, इसका भी ज्ञान दें।
 
हम निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग तो करें ही, साथ ही शिक्षा का क्षेत्र क्यों अर्थनिरपेक्ष होना चाहिये, इसका भी ज्ञान दें।
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इस सन्दर्भ में अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय का उदाहरण ध्यान देने योग्य है। हार्वर्ड विश्वप्रसिद्ध श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। वह शासन से कोई अनुदान नहीं लेता है। उसकी सारी अर्थव्यवस्था उसके पूर्व छात्र ही सँभालते हैं। ये छात्र विश्वभर में फैले हुए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में उन्होंने नाम और दाम कमाये हैं। परन्तु अपने विश्वविद्यालय हेतु धनदान करना अपना धर्म मानते हैं। यदि आज के जमाने में अमेरिका जैसे देश में यह सम्भव है तो भारत तो स्वभाव से ही जिससे ज्ञान मिला उसका ऋण मानने वाला है। गुरुदक्षिणा की संकल्पना उसे सहज स्वीकार्य होगी। गुरुदक्षिणा की परम्परा को पुनः जीवित करना होगा।  
 
इस सन्दर्भ में अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय का उदाहरण ध्यान देने योग्य है। हार्वर्ड विश्वप्रसिद्ध श्रेष्ठ विश्वविद्यालय है। वह शासन से कोई अनुदान नहीं लेता है। उसकी सारी अर्थव्यवस्था उसके पूर्व छात्र ही सँभालते हैं। ये छात्र विश्वभर में फैले हुए हैं। व्यवसाय के क्षेत्र में उन्होंने नाम और दाम कमाये हैं। परन्तु अपने विश्वविद्यालय हेतु धनदान करना अपना धर्म मानते हैं। यदि आज के जमाने में अमेरिका जैसे देश में यह सम्भव है तो भारत तो स्वभाव से ही जिससे ज्ञान मिला उसका ऋण मानने वाला है। गुरुदक्षिणा की संकल्पना उसे सहज स्वीकार्य होगी। गुरुदक्षिणा की परम्परा को पुनः जीवित करना होगा।  
 
* साधन-सामग्री के सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है । वर्तमान सन्दर्भ में साधन-सामग्री और सुविधाओं की मात्रा बहुत कम करने की आवश्यकता है। वास्तव में इनके कारण से ही आज शिक्षा महँगी हो गई है । ज्ञानार्जन का सिद्धान्त तो स्पष्ट कहता है कि अध्ययन हेतु साधनों की नहीं साधना की आवश्यकता होती है। यदि छात्रों को साधना करना सिखाया जाय तो अनेक अतिरिक्त खर्चे बन्द हो जायेंगे। ज्ञानार्जन के विषय में हमने इस ग्रन्थमाला के प्रथम खण्ड में विस्तार से चर्चा की है, इसलिये पुनरावर्तन की आवश्यकता नहीं है।  
 
* साधन-सामग्री के सम्बन्ध में एक बात और विचारणीय है । वर्तमान सन्दर्भ में साधन-सामग्री और सुविधाओं की मात्रा बहुत कम करने की आवश्यकता है। वास्तव में इनके कारण से ही आज शिक्षा महँगी हो गई है । ज्ञानार्जन का सिद्धान्त तो स्पष्ट कहता है कि अध्ययन हेतु साधनों की नहीं साधना की आवश्यकता होती है। यदि छात्रों को साधना करना सिखाया जाय तो अनेक अतिरिक्त खर्चे बन्द हो जायेंगे। ज्ञानार्जन के विषय में हमने इस ग्रन्थमाला के प्रथम खण्ड में विस्तार से चर्चा की है, इसलिये पुनरावर्तन की आवश्यकता नहीं है।  
* इस सन्दर्भ में एक उदाहरण और है। गुजरात के सूरत में समग्र विकास का विद्यालय चलता है। वहाँ समर्थ भारत केन्द्र भी चलता है। इस केन्द्र में समर्थ बच्चों को जन्म देने हेतु माता-पिता को समर्थ बनने की शिक्षा दी जाती है। यह एक अभिनव प्रयोग है। इस केन्द्र में धार्मिक परम्परा का अनुसरण करते हुए कोई शुल्क नहीं लिया जाता । परन्तु गर्भाधान आदि संस्कार करने हेतु यज्ञ आदि करने के लिये जो सामग्री उपयोग में लाई जाती है उस खर्च की भरपाई करने की दृष्टि से इक्यावन रुपये की राशि ली जाती थी। माता-पिता यह राशि खुशी से देते भी थे। परन्तु एक बार आचार्यों के मन में विचार आया कि इतनी सी राशि लेकर निःशुल्क शिक्षा की संकल्पना को क्यों दूषित करें। यह राशि भी समाज से प्राप्त कर लेंगे । ऐसा विचार कर उन्होंने इक्यावन रुपये की राशि लेना बन्द किया। दूसरी ओर जिन पर संस्कार होता था उन माता-पिता को लगा कि हमारे भावी बालक को समर्थ बनाने वाले संस्कार हम बिना दक्षिणा दिये कैसे करवा सकते हैं। कोई भी वस्तु मुफ्त में नहीं लेना, यह धार्मिक मानस तो है ही। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका विस्मरण हुआ है। परन्तु निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था देखते ही वे सुप्त संस्कार जाग उठे और उन्होंने दक्षिणा देने का आग्रह आरम्भ किया। अतः आचार्यों ने दक्षिणा पात्र रख दिया। जो लोग शुल्क के रूप में इक्यावन रुपये देते थे उन्होंने दक्षिणा के रूप में दोसौ इक्यावन रुपये दिये । यह कलियुग की इक्कीसवीं शताब्दी का ही उदाहरण है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि समाज आज भी गुणग्राही है ! हाँ, इक्यावन के स्थान पर दोसौ इक्यावन मिलते हैं इसलिये ही जो निःशुल्क शिक्षा की सिद्धता करेगा उसे तो कदाचित इक्यावन भी नहीं मिलेंगे। मूल्य पैसे का नहीं, निरपेक्षता का है।  
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* इस सन्दर्भ में एक उदाहरण और है। गुजरात के सूरत में समग्र विकास का विद्यालय चलता है। वहाँ समर्थ भारत केन्द्र भी चलता है। इस केन्द्र में समर्थ बच्चोंं को जन्म देने हेतु माता-पिता को समर्थ बनने की शिक्षा दी जाती है। यह एक अभिनव प्रयोग है। इस केन्द्र में धार्मिक परम्परा का अनुसरण करते हुए कोई शुल्क नहीं लिया जाता । परन्तु गर्भाधान आदि संस्कार करने हेतु यज्ञ आदि करने के लिये जो सामग्री उपयोग में लाई जाती है उस खर्च की भरपाई करने की दृष्टि से इक्यावन रुपये की राशि ली जाती थी। माता-पिता यह राशि खुशी से देते भी थे। परन्तु एक बार आचार्यों के मन में विचार आया कि इतनी सी राशि लेकर निःशुल्क शिक्षा की संकल्पना को क्यों दूषित करें। यह राशि भी समाज से प्राप्त कर लेंगे । ऐसा विचार कर उन्होंने इक्यावन रुपये की राशि लेना बन्द किया। दूसरी ओर जिन पर संस्कार होता था उन माता-पिता को लगा कि हमारे भावी बालक को समर्थ बनाने वाले संस्कार हम बिना दक्षिणा दिये कैसे करवा सकते हैं। कोई भी वस्तु मुफ्त में नहीं लेना, यह धार्मिक मानस तो है ही। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका विस्मरण हुआ है। परन्तु निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था देखते ही वे सुप्त संस्कार जाग उठे और उन्होंने दक्षिणा देने का आग्रह आरम्भ किया। अतः आचार्यों ने दक्षिणा पात्र रख दिया। जो लोग शुल्क के रूप में इक्यावन रुपये देते थे उन्होंने दक्षिणा के रूप में दोसौ इक्यावन रुपये दिये । यह कलियुग की इक्कीसवीं शताब्दी का ही उदाहरण है। क्या यह इस बात का संकेत नहीं है कि समाज आज भी गुणग्राही है ! हाँ, इक्यावन के स्थान पर दोसौ इक्यावन मिलते हैं इसलिये ही जो निःशुल्क शिक्षा की सिद्धता करेगा उसे तो कदाचित इक्यावन भी नहीं मिलेंगे। मूल्य पैसे का नहीं, निरपेक्षता का है।  
 
* अत: निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग साहस पूर्वक करना चाहिये।  
 
* अत: निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग साहस पूर्वक करना चाहिये।  
 
* किसी भी बड़े कार्य का प्रारम्भ छोटा ही होता है। अतः शिक्षकों के एक छोटे गट ने इस प्रकार की व्यवस्था का प्रयोग प्रारम्भ करना चाहिये । परन्तु इस संकल्पना की विद्वानों में, छात्रों में, शासकीय अधिकारियों में और आम समाज में चर्चा प्रसृत करने की अतीव आवश्यकता है। यदि सर्वसम्मति नहीं हुई तो यह प्रयोग तो चल जायेगा। ऐसे तो अनेक एकसे बढ़कर एक अच्छे प्रयोग देशभर में चलते ही है। परन्तु व्यवस्था नहीं बदलेगी। हमारा लक्ष्य प्रयोग करके सन्तुष्ट होना नहीं है, व्यवस्था में परिवर्तन करने का है।  
 
* किसी भी बड़े कार्य का प्रारम्भ छोटा ही होता है। अतः शिक्षकों के एक छोटे गट ने इस प्रकार की व्यवस्था का प्रयोग प्रारम्भ करना चाहिये । परन्तु इस संकल्पना की विद्वानों में, छात्रों में, शासकीय अधिकारियों में और आम समाज में चर्चा प्रसृत करने की अतीव आवश्यकता है। यदि सर्वसम्मति नहीं हुई तो यह प्रयोग तो चल जायेगा। ऐसे तो अनेक एकसे बढ़कर एक अच्छे प्रयोग देशभर में चलते ही है। परन्तु व्यवस्था नहीं बदलेगी। हमारा लक्ष्य प्रयोग करके सन्तुष्ट होना नहीं है, व्यवस्था में परिवर्तन करने का है।  
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मनुष्य की अनेक इच्छायें और आवश्यकतायें होती हैं। शरीर की आवश्यकताओं को तो आवश्यकता ही कहते हैं। मन, बुद्धि आदि की आवश्यकताओं को इच्छा कहते हैं। ये भौतिक और अभौतिक स्वरूप की होती हैं। अन्न, वस्त्र, मकान आदि भौतिक आवश्यकतायें हैं । ज्ञान, प्रेम, मैत्री, यश आदि अभौतिक आवश्यकतायें हैं । आवश्यकतायें शरीर, मन, बुद्धि आदि सभी स्तरों की होती हैं । शरीर की आवश्यकतायें सीमित स्वरूप की होती हैं। भूख सन्तुष्ट होने पर अन्न की आवश्यकता पूर्ण हो जाती है । वस्त्र एक समय में सीमित स्वरूप में ही पहने जाते हैं। जल की आवश्यकता प्यास बुझने पर समाप्त हो जाती है । परन्तु मन की इच्छायें असीमित होती हैं। वे कभी पूर्ण नहीं होती हैं । इस सम्बन्ध में महाभारत में ययाति कहते हैं (यही श्लोक मनुस्मृति में भी है<ref>मनुस्मृति २.९४</ref>) : <blockquote>न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। </blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।</blockquote>इच्छायें और आवश्यकतायें मनुष्य जीवन का अनिवार्य अंश है। इसलिये उसे काम पुरुषार्थ कहा है। इसका तिरस्कार नहीं किया गया है अपितु उसे धर्म की मर्यादा दी गई है। श्री भगवान कहते हैं, धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ<ref>श्रीमद् भगवद्गीता अध्याय ७ श्लोक ११</ref>' । इस काम की पूर्ति के लिये मनुष्य जो करता है वह अर्थ पुरुषार्थ है । अर्थ को भी धर्म की मर्यादा दी गई है। अर्थ का स्वरूप भौतिक है । धन अथवा द्रव्य उसका साधन है । सीधा-सादा सिद्धान्त यह है कि जो अभौतिक इच्छाएँ अथवा आवश्यकतायें हैं उनको अर्थ से नहीं नापा जा सकता है। शिक्षा, ज्ञान के आदान-प्रदान हेतु की गई व्यवस्था है । इसलिये शिक्षा को भी भारत में अर्थ निरपेक्ष रखा गया है। अर्थात न पढ़ने के लिये किसीको पैसे देने पड़ते हैं, न पढ़ाने के पैसे माँगे जाते हैं। वैसे तो अन्न और चिकित्सा भी भारत में अर्थनिरपेक्ष ही माने गये हैं। मनुष्य को जीवित रहने के लिये इन दोनों की अनिवार्य आवश्यकता होती हैं। जीना हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, इसलिये इन दोनों बातों के लिये भारत में पैसे के माध्यम से लेनदेन नहीं होता है। ये दान और सेवा के क्षेत्र माने गये हैं।
 
मनुष्य की अनेक इच्छायें और आवश्यकतायें होती हैं। शरीर की आवश्यकताओं को तो आवश्यकता ही कहते हैं। मन, बुद्धि आदि की आवश्यकताओं को इच्छा कहते हैं। ये भौतिक और अभौतिक स्वरूप की होती हैं। अन्न, वस्त्र, मकान आदि भौतिक आवश्यकतायें हैं । ज्ञान, प्रेम, मैत्री, यश आदि अभौतिक आवश्यकतायें हैं । आवश्यकतायें शरीर, मन, बुद्धि आदि सभी स्तरों की होती हैं । शरीर की आवश्यकतायें सीमित स्वरूप की होती हैं। भूख सन्तुष्ट होने पर अन्न की आवश्यकता पूर्ण हो जाती है । वस्त्र एक समय में सीमित स्वरूप में ही पहने जाते हैं। जल की आवश्यकता प्यास बुझने पर समाप्त हो जाती है । परन्तु मन की इच्छायें असीमित होती हैं। वे कभी पूर्ण नहीं होती हैं । इस सम्बन्ध में महाभारत में ययाति कहते हैं (यही श्लोक मनुस्मृति में भी है<ref>मनुस्मृति २.९४</ref>) : <blockquote>न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। </blockquote><blockquote>हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।</blockquote>इच्छायें और आवश्यकतायें मनुष्य जीवन का अनिवार्य अंश है। इसलिये उसे काम पुरुषार्थ कहा है। इसका तिरस्कार नहीं किया गया है अपितु उसे धर्म की मर्यादा दी गई है। श्री भगवान कहते हैं, धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ<ref>श्रीमद् भगवद्गीता अध्याय ७ श्लोक ११</ref>' । इस काम की पूर्ति के लिये मनुष्य जो करता है वह अर्थ पुरुषार्थ है । अर्थ को भी धर्म की मर्यादा दी गई है। अर्थ का स्वरूप भौतिक है । धन अथवा द्रव्य उसका साधन है । सीधा-सादा सिद्धान्त यह है कि जो अभौतिक इच्छाएँ अथवा आवश्यकतायें हैं उनको अर्थ से नहीं नापा जा सकता है। शिक्षा, ज्ञान के आदान-प्रदान हेतु की गई व्यवस्था है । इसलिये शिक्षा को भी भारत में अर्थ निरपेक्ष रखा गया है। अर्थात न पढ़ने के लिये किसीको पैसे देने पड़ते हैं, न पढ़ाने के पैसे माँगे जाते हैं। वैसे तो अन्न और चिकित्सा भी भारत में अर्थनिरपेक्ष ही माने गये हैं। मनुष्य को जीवित रहने के लिये इन दोनों की अनिवार्य आवश्यकता होती हैं। जीना हर मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, इसलिये इन दोनों बातों के लिये भारत में पैसे के माध्यम से लेनदेन नहीं होता है। ये दान और सेवा के क्षेत्र माने गये हैं।
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वर्तमान समय की बात करें तो यह सिद्धान्त कल्पनातीत लगता है। छोटे बच्चों की शिशुवाटिका से लेकर आयुर्विज्ञान, अभियान्त्रिकी, संगणक, वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों की शिक्षा बहुत महँगी हो गई है। निर्धन या कम पैसे वाले लोग शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते । शिक्षा के लिये बैंकों से कर्जा अवश्य मिलता है परन्तु वह बहुत बड़ी चिन्ता का कारण बनता है, यह भी अनेक भुक्तभोगियों का अनुभव है। सरकार प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क देने की व्यवस्था करती है परन्तु उसका लाभ लेने वाले कम ही लोग होते हैं। ऐसी स्थिति में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का प्रचलन अवास्तविक और अव्यावहारिक लगना स्वाभाविक है। परन्तु शिक्षा वैसी थी अवश्य । इसका सामाजिक सन्दर्भ ही इस व्यवस्था के लिये अनुकूल था, इसलिये यह समाज में स्वीकृत था।
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वर्तमान समय की बात करें तो यह सिद्धान्त कल्पनातीत लगता है। छोटे बच्चोंं की शिशुवाटिका से लेकर आयुर्विज्ञान, अभियान्त्रिकी, संगणक, वाणिज्य आदि सभी क्षेत्रों की शिक्षा बहुत महँगी हो गई है। निर्धन या कम पैसे वाले लोग शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकते । शिक्षा के लिये बैंकों से कर्जा अवश्य मिलता है परन्तु वह बहुत बड़ी चिन्ता का कारण बनता है, यह भी अनेक भुक्तभोगियों का अनुभव है। सरकार प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क देने की व्यवस्था करती है परन्तु उसका लाभ लेने वाले कम ही लोग होते हैं। ऐसी स्थिति में अर्थ निरपेक्ष शिक्षा का प्रचलन अवास्तविक और अव्यावहारिक लगना स्वाभाविक है। परन्तु शिक्षा वैसी थी अवश्य । इसका सामाजिक सन्दर्भ ही इस व्यवस्था के लिये अनुकूल था, इसलिये यह समाज में स्वीकृत था।
    
==== अर्थनिरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था ====
 
==== अर्थनिरपेक्ष शिक्षाव्यवस्था ====
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==== समित्पाणि ====
 
==== समित्पाणि ====
समित्पाणि शब्द दो शब्दों से बना है । एक है समित, और दूसरा है पाणि । समित का अर्थ है, समिधा और पाणि का अर्थ है, हाथ । छात्र जब गुरुकुल में अध्ययन हेतु प्रथम बार जाते थे, तब हाथ में समिधा लेकर जाते थे । समिधा यज्ञ में होम करने हेतु उपयोग में ली जाने वाली लकड़ी को कहते हैं । गुरुकुल में यज्ञ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गतिविधि होती थी और छात्रों को समिधा एकत्रित करनी होती थी। अतः गुरु के समक्ष हाथ में समिधा लेकर ही उपस्थित होने का प्रचलन था । यह समिधा शब्द सांकेतिक है । उसका लाक्षणिक अर्थ है गुरुकुल वास हेतु उपयोगी सामग्री । गुरुकुल में अध्ययन हेतु जाते समय छात्र किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री लेकर ही जाते थे। यह एक आवश्यक आचार माना जाता था । देव, गुरु, स्नेही, राजा आदि आदरणीय व्यक्तियों के सम्मुख कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये, ऐसा आग्रह था। यह आग्रह हमारे समाज जीवन में अभी भी देखने को मिलता है । हम मन्दिर में जाते हैं तो द्रव्य और धान्य लेकर ही जाते हैं। किसीके घर जाते हैं तो बच्चों के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाते हैं। किसी विद्वान के पास जाते हैं तो भी खाली हाथ नहीं  जाते हैं। गाँवों में अभी भी बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है तब शिक्षक को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है और छात्रों को भोजन या जलपान कराया जाता है। यह एक बहुत व्यापक सामाजिक व्यवहार का हिस्सा है, जहाँ अपने व्यक्तिगत अच्छे अवसर पर अधिकाधिक लोगोंं को सहभागी बनाया जाता है और खुशी से कुछ न कुछ दिया जाता है। यह देकर, बाँटकर कर खुश होने की संस्कृति का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि विद्यालय प्रवेश के समय पर छात्र द्वारा गुरु और गुरुकुल को किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री देने की व्यवस्था थी।
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समित्पाणि शब्द दो शब्दों से बना है । एक है समित, और दूसरा है पाणि । समित का अर्थ है, समिधा और पाणि का अर्थ है, हाथ । छात्र जब गुरुकुल में अध्ययन हेतु प्रथम बार जाते थे, तब हाथ में समिधा लेकर जाते थे । समिधा यज्ञ में होम करने हेतु उपयोग में ली जाने वाली लकड़ी को कहते हैं । गुरुकुल में यज्ञ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गतिविधि होती थी और छात्रों को समिधा एकत्रित करनी होती थी। अतः गुरु के समक्ष हाथ में समिधा लेकर ही उपस्थित होने का प्रचलन था । यह समिधा शब्द सांकेतिक है । उसका लाक्षणिक अर्थ है गुरुकुल वास हेतु उपयोगी सामग्री । गुरुकुल में अध्ययन हेतु जाते समय छात्र किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री लेकर ही जाते थे। यह एक आवश्यक आचार माना जाता था । देव, गुरु, स्नेही, राजा आदि आदरणीय व्यक्तियों के सम्मुख कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये, ऐसा आग्रह था। यह आग्रह हमारे समाज जीवन में अभी भी देखने को मिलता है । हम मन्दिर में जाते हैं तो द्रव्य और धान्य लेकर ही जाते हैं। किसीके घर जाते हैं तो बच्चोंं के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाते हैं। किसी विद्वान के पास जाते हैं तो भी खाली हाथ नहीं  जाते हैं। गाँवों में अभी भी बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है तब शिक्षक को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है और छात्रों को भोजन या जलपान कराया जाता है। यह एक बहुत व्यापक सामाजिक व्यवहार का हिस्सा है, जहाँ अपने व्यक्तिगत अच्छे अवसर पर अधिकाधिक लोगोंं को सहभागी बनाया जाता है और खुशी से कुछ न कुछ दिया जाता है। यह देकर, बाँटकर कर खुश होने की संस्कृति का लक्षण है। तात्पर्य यह है कि विद्यालय प्रवेश के समय पर छात्र द्वारा गुरु और गुरुकुल को किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री देने की व्यवस्था थी।
    
कौन कितनी और कैसी सामग्री देगा इसके कोई नियम नहीं थे। निर्धन व्यक्ति केवल समिधा की दो लकड़ियाँ देता था और धनवान व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार अधिक देता था। अपनी क्षमता के अनुसार कम देने में लज्जा का भाव नहीं था और अपनी क्षमता के अनुसार अधिक देने में अहंकार का भाव नहीं था। हाँ, अपनी क्षमता से कम देने में लज्जा का भाव अवश्य होता था। अपनी क्षमता से कम देना विद्या और शिक्षक की अवमानना मानी जाती थी और सज्जन इससे सदा बचते थे। यह समित्पाणि व्यवस्था गुरुकुल के निर्वाह हेतु उपयोगी थी।
 
कौन कितनी और कैसी सामग्री देगा इसके कोई नियम नहीं थे। निर्धन व्यक्ति केवल समिधा की दो लकड़ियाँ देता था और धनवान व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार अधिक देता था। अपनी क्षमता के अनुसार कम देने में लज्जा का भाव नहीं था और अपनी क्षमता के अनुसार अधिक देने में अहंकार का भाव नहीं था। हाँ, अपनी क्षमता से कम देने में लज्जा का भाव अवश्य होता था। अपनी क्षमता से कम देना विद्या और शिक्षक की अवमानना मानी जाती थी और सज्जन इससे सदा बचते थे। यह समित्पाणि व्यवस्था गुरुकुल के निर्वाह हेतु उपयोगी थी।
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इसके बाद अब शिक्षाक्षेत्र को अर्थनिरपेक्ष बनाने का विचार करना चाहिये।  
 
इसके बाद अब शिक्षाक्षेत्र को अर्थनिरपेक्ष बनाने का विचार करना चाहिये।  
 
# पहला चरण पढने हेतु शुल्क नहीं देने की व्यवस्था का विचार करना चाहिये । बडे बडे संस्थान भी इस व्यवस्था में आज भी चल रहे हैं। धर्माचार्यों के पीठों  में ऐसी व्यवस्था होती है । उदाहरण के लिये सरकार प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क चलाती है। अनेक मठों और धार्मिक संस्थाओं में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होती है। यदि उत्पादन केन्द्र अपने उत्पादन के लिये आवश्यक व्यक्तियों की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तो बहुत बड़ी मात्रा में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो जायेगी। सरकार को जैसे व्यक्ति चाहिये उनका प्रथम चयन हो और बाद में उनकी शिक्षा की व्यवस्था सरकार स्वयं करे । जो इस व्यवस्था में अपने व्यवसाय निश्चित करना चाहें वे स्वयं अपने बलबूते पर अपने लिये शिक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं । उन्हें आजीविका देने की जिम्मेदारी किसी की नहीं रहेगी। इस व्यवस्था में शिक्षा भी ठीक रहेगी और रोजगारी का क्षेत्र भी ठीक हो जायेगा।  
 
# पहला चरण पढने हेतु शुल्क नहीं देने की व्यवस्था का विचार करना चाहिये । बडे बडे संस्थान भी इस व्यवस्था में आज भी चल रहे हैं। धर्माचार्यों के पीठों  में ऐसी व्यवस्था होती है । उदाहरण के लिये सरकार प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क चलाती है। अनेक मठों और धार्मिक संस्थाओं में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होती है। यदि उत्पादन केन्द्र अपने उत्पादन के लिये आवश्यक व्यक्तियों की निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करते हैं तो बहुत बड़ी मात्रा में निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था हो जायेगी। सरकार को जैसे व्यक्ति चाहिये उनका प्रथम चयन हो और बाद में उनकी शिक्षा की व्यवस्था सरकार स्वयं करे । जो इस व्यवस्था में अपने व्यवसाय निश्चित करना चाहें वे स्वयं अपने बलबूते पर अपने लिये शिक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं । उन्हें आजीविका देने की जिम्मेदारी किसी की नहीं रहेगी। इस व्यवस्था में शिक्षा भी ठीक रहेगी और रोजगारी का क्षेत्र भी ठीक हो जायेगा।  
# मातापिता यदि शिक्षित हैं तो साक्षरता अभियान के अन्तर्गत जिस शिक्षा को हम अनिवार्य मानते हैं वह शिक्षा अपने बालकों को देने की जिम्मेदारी स्वयं लें ऐसा उन्हें आग्रह करना । जो लोग ऐसा नहीं कर सकते हैं ऐसे बच्चों को साक्षर करने का काम सामाजिक संगठनों को करना चाहिये । परन्तु इसमें अपने बच्चों को साक्षर होने के लिये भेजना शिक्षित मातापिता के लिये ऐसा माना जाना चाहिये जैसे अच्छा अर्थार्जन करने वाले सदाव्रत में भोजन करने के लिये जायें।
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# मातापिता यदि शिक्षित हैं तो साक्षरता अभियान के अन्तर्गत जिस शिक्षा को हम अनिवार्य मानते हैं वह शिक्षा अपने बालकों को देने की जिम्मेदारी स्वयं लें ऐसा उन्हें आग्रह करना । जो लोग ऐसा नहीं कर सकते हैं ऐसे बच्चोंं को साक्षर करने का काम सामाजिक संगठनों को करना चाहिये । परन्तु इसमें अपने बच्चोंं को साक्षर होने के लिये भेजना शिक्षित मातापिता के लिये ऐसा माना जाना चाहिये जैसे अच्छा अर्थार्जन करने वाले सदाव्रत में भोजन करने के लिये जायें।
# हर सोसायटी हर कोलोनी अपने बच्चों के लिये विद्यालय का प्रावधान करे । एक सोसायटी के बच्चे वहीं पढ़ें । सोसायटी के लोग ही उन्हें पढायें । अच्छे, कम अच्छे, बहुत अच्छे शिक्षक उनमें हो सकते हैं । आपसी समझौते से श्रेष्ठ शिक्षक अधिक सेवा करें ऐसी व्यवस्था हो सकती है। दो सोसायटी आपसी समायोजन भी कर सकती हैं ।  
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# हर सोसायटी हर कोलोनी अपने बच्चोंं के लिये विद्यालय का प्रावधान करे । एक सोसायटी के बच्चे वहीं पढ़ें । सोसायटी के लोग ही उन्हें पढायें । अच्छे, कम अच्छे, बहुत अच्छे शिक्षक उनमें हो सकते हैं । आपसी समझौते से श्रेष्ठ शिक्षक अधिक सेवा करें ऐसी व्यवस्था हो सकती है। दो सोसायटी आपसी समायोजन भी कर सकती हैं ।  
 
# परिवार का अपना व्यवसाय होता है तब शिक्षा के लिये बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।  
 
# परिवार का अपना व्यवसाय होता है तब शिक्षा के लिये बाहर जाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।  
 
# संस्कारों की शिक्षा का काम मठ-मन्दिरों को करना चाहिये। वह अनिवार्य रूप से निःशुल्क रहेगी। इनका नौकरी से कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा। इन विद्याकेन्द्रों में जाने हेतु नैतिक अनिवार्यता बनाना मातापिता और धर्माचार्यों का काम होगा।  
 
# संस्कारों की शिक्षा का काम मठ-मन्दिरों को करना चाहिये। वह अनिवार्य रूप से निःशुल्क रहेगी। इनका नौकरी से कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा। इन विद्याकेन्द्रों में जाने हेतु नैतिक अनिवार्यता बनाना मातापिता और धर्माचार्यों का काम होगा।  

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