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==== अभिमत ====
 
==== अभिमत ====
पूरी बातचीत से शुल्क अनिवार्य है, यही समझ मन में बैठ गयी है ऐसा लगता है । विद्या का दान नही होता तो हमने उसे बेचने की चीज बना दी है । दक्षिणा स्वैच्छिक होती है । शुल्क को दक्षिणा मानना यह अनुचित बात को अच्छा लेबल लगाने जैसा होता है । विद्यालयों में सबका शुल्क समान एवं अनिवार्य ही होता है । शिक्षा की गुणवत्ता और शुल्क का कोई सम्बन्ध कही दिखाई ही नहीं देता । ज्यादा शुल्क वाले विद्यालय में अच्छी पढाई होती है यह आभासी विचार ज्यादातर लोगोंं का है । अभिभावक भी आजकल अपने इकलौते बेटे को ए.सी., मिनरल वोटर, बैठने की स्वतंत्र सुंदर व्यवस्था ऐसी सुविधाएँ विद्यालय में भी मिले ऐसा सोचते है, इसलिये ज्यादा शुल्क देने की उनकी तैयारी है। मध्यमवर्गीय लोग बालक को पढाते है तो इतना शुल्क देना ही पडेगा ऐसा सोचते हैं । जितना ज्यादा शुल्क इतनी ज्यादा सुविधायें यह समझ आज सर्वत्र दृढ हुई है। सरकार की ओर से अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षकों का वेतन निवृत्ति वेतन तक निश्चित होता है । उस विचार से हमारा अन्नदाता सरकार है अभिभावक नहीं अतः शिक्षा की कोई गुणवत्ता टिकानी चाहिये यह बात वे भूल गये है। निजी विद्यालयों में अभी गुणवत्ता के संबंध से आपस में बहोत होड़ लगी रहती है। परंतु वह शिक्षकोंने अच्छा पढाना अनिवार्य नहीं होता, ज्यादा गुण देने से विद्यालय की गुणवत्ता वे सिद्ध करते है। आज समाज में निःशुल्क शिक्षा निकृष्ट शिक्षा और उंचे शुल्क लेनेवाली उत्कृष्ट शिक्षा ऐसा मापदण्ड निश्चित किया है। वेतन ज्यादा देने से अध्यापन की गुणवत्ता बढेगी यह संभव नहीं होता।
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पूरी बातचीत से शुल्क अनिवार्य है, यही समझ मन में बैठ गयी है ऐसा लगता है । विद्या का दान नही होता तो हमने उसे बेचने की चीज बना दी है । दक्षिणा स्वैच्छिक होती है । शुल्क को दक्षिणा मानना यह अनुचित बात को अच्छा लेबल लगाने जैसा होता है । विद्यालयों में सबका शुल्क समान एवं अनिवार्य ही होता है । शिक्षा की गुणवत्ता और शुल्क का कोई सम्बन्ध कही दिखाई ही नहीं देता । ज्यादा शुल्क वाले विद्यालय में अच्छी पढाई होती है यह आभासी विचार ज्यादातर लोगोंं का है । अभिभावक भी आजकल अपने इकलौते बेटे को ए.सी., मिनरल वोटर, बैठने की स्वतंत्र सुंदर व्यवस्था ऐसी सुविधाएँ विद्यालय में भी मिले ऐसा सोचते है, इसलिये ज्यादा शुल्क देने की उनकी तैयारी है। मध्यमवर्गीय लोग बालक को पढाते है तो इतना शुल्क देना ही पड़ेगा ऐसा सोचते हैं । जितना ज्यादा शुल्क इतनी ज्यादा सुविधायें यह समझ आज सर्वत्र दृढ हुई है। सरकार की ओर से अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षकों का वेतन निवृत्ति वेतन तक निश्चित होता है । उस विचार से हमारा अन्नदाता सरकार है अभिभावक नहीं अतः शिक्षा की कोई गुणवत्ता टिकानी चाहिये यह बात वे भूल गये है। निजी विद्यालयों में अभी गुणवत्ता के संबंध से आपस में बहोत होड़ लगी रहती है। परंतु वह शिक्षकोंने अच्छा पढाना अनिवार्य नहीं होता, ज्यादा गुण देने से विद्यालय की गुणवत्ता वे सिद्ध करते है। आज समाज में निःशुल्क शिक्षा निकृष्ट शिक्षा और उंचे शुल्क लेनेवाली उत्कृष्ट शिक्षा ऐसा मापदण्ड निश्चित किया है। वेतन ज्यादा देने से अध्यापन की गुणवत्ता बढेगी यह संभव नहीं होता।
    
शुल्क के विषय में धार्मिक मानस और वर्तमान व्यवस्था एकदूसरे से सर्वथा विपरीत हैं । मूल धार्मिक विचार में शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये। इसका कारण यह है कि शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ से अधिक है। अर्थ शिक्षा का मापदण्ड नहीं हो सकता। अर्थ केवल भौतिक पदार्थों का ही मापदण्ड हो सकता है। अधिक पैसा देने से अधिक अच्छा पढ़ाया जाता है और कम पैसे से नहीं यह सम्भव नहीं है। अच्छा पढाया इसलिये अधिक पैसा दिया जाना चाहिये ऐसा भी नहीं होता। इस स्वाभाविक बात को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था अर्थनिरपेक्ष बनाई गई थी। परन्तु आज का मानस कहता है कि जिसके पैसे नहीं दिये जाते उसकी कोई कीमत नहीं होती। जिसे पैसा नहीं दिया जाता उस पर कोई बन्धन या दबाव भी नहीं होता। इसलिये शिक्षा का शुल्क होना चाहिये यह सबका मत बनता है।
 
शुल्क के विषय में धार्मिक मानस और वर्तमान व्यवस्था एकदूसरे से सर्वथा विपरीत हैं । मूल धार्मिक विचार में शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये। इसका कारण यह है कि शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ से अधिक है। अर्थ शिक्षा का मापदण्ड नहीं हो सकता। अर्थ केवल भौतिक पदार्थों का ही मापदण्ड हो सकता है। अधिक पैसा देने से अधिक अच्छा पढ़ाया जाता है और कम पैसे से नहीं यह सम्भव नहीं है। अच्छा पढाया इसलिये अधिक पैसा दिया जाना चाहिये ऐसा भी नहीं होता। इस स्वाभाविक बात को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था अर्थनिरपेक्ष बनाई गई थी। परन्तु आज का मानस कहता है कि जिसके पैसे नहीं दिये जाते उसकी कोई कीमत नहीं होती। जिसे पैसा नहीं दिया जाता उस पर कोई बन्धन या दबाव भी नहीं होता। इसलिये शिक्षा का शुल्क होना चाहिये यह सबका मत बनता है।
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# नारियल के छिलकों का बर्तन साफ करने के ब्रश के रूप में उपयोग हो सकता है। उसके कठोर आवरणों के टुकडों का गिनती करने के साधन के रूप में उपयोग हो सकता है।  
 
# नारियल के छिलकों का बर्तन साफ करने के ब्रश के रूप में उपयोग हो सकता है। उसके कठोर आवरणों के टुकडों का गिनती करने के साधन के रूप में उपयोग हो सकता है।  
 
# इस प्रकार अनेक पदार्थ ऐसे हैं जिनका अन्यान्य कामों के लिये पुनः पुनः उपयोग किया जा सकता है।  
 
# इस प्रकार अनेक पदार्थ ऐसे हैं जिनका अन्यान्य कामों के लिये पुनः पुनः उपयोग किया जा सकता है।  
# बिजली का उपयोग कम करना दूसरी बड़ी आवश्यकता है। दिन में भी बिजली के लैम्प चालू रखना पडे ऐसी भवन रचना फूहड वास्तु का नमूना है। पंखों का, ए.सी. का, कूलर का, पानी शुद्धीकरण का इतना अधिक उपयोग करने से बिजली का संकट निर्माण होता है। इसका हम कितना कम उपयोग कर सकते हैं इसका विचार करना चाहिये । इस विषय में अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग करना चाहिये।  
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# बिजली का उपयोग कम करना दूसरी बड़ी आवश्यकता है। दिन में भी बिजली के लैम्प चालू रखना पड़े ऐसी भवन रचना फूहड वास्तु का नमूना है। पंखों का, ए.सी. का, कूलर का, पानी शुद्धीकरण का इतना अधिक उपयोग करने से बिजली का संकट निर्माण होता है। इसका हम कितना कम उपयोग कर सकते हैं इसका विचार करना चाहिये । इस विषय में अपनी कल्पनाशक्ति का उपयोग करना चाहिये।  
 
# इसी प्रकार वाहन का प्रयोग कम करने के रास्ते ढूँढना चाहिये । घर के समीप से ही दूध, सब्जी, अखबार आदि लाने के लिये स्कूटर का प्रयोग नहीं करना चाहिये । विद्यालय आने के लिये साइकिल का प्रयोग ही करना चाहिये । ओटो रिक्षा या स्कूटर पर यदि अकेले जा रहे हैं तो अन्य किसी को साथ में बिठा लेना चाहिये।  
 
# इसी प्रकार वाहन का प्रयोग कम करने के रास्ते ढूँढना चाहिये । घर के समीप से ही दूध, सब्जी, अखबार आदि लाने के लिये स्कूटर का प्रयोग नहीं करना चाहिये । विद्यालय आने के लिये साइकिल का प्रयोग ही करना चाहिये । ओटो रिक्षा या स्कूटर पर यदि अकेले जा रहे हैं तो अन्य किसी को साथ में बिठा लेना चाहिये।  
 
# विद्यालयों में, कार्यालयों में झेरोक्स प्रतियाँ, निमन्त्रण पत्रिका, सूचना पत्रक, सी.डी. सदा आवश्यकता से अधिक बनाने का ही प्रचलन हो गया है। इससे अनावश्यक खर्च बढता है। अधिक बनाने का ही प्रचलन हो गया है। इससे अनावश्यक खर्च बढता है।  
 
# विद्यालयों में, कार्यालयों में झेरोक्स प्रतियाँ, निमन्त्रण पत्रिका, सूचना पत्रक, सी.डी. सदा आवश्यकता से अधिक बनाने का ही प्रचलन हो गया है। इससे अनावश्यक खर्च बढता है। अधिक बनाने का ही प्रचलन हो गया है। इससे अनावश्यक खर्च बढता है।  
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# मोबाइल, कम्प्यूटर, इण्टरनेट, टी.वी.का अन्धाधुन्ध उपयोग बुद्धिहीनता का लक्षण है। इनका विडियो गेम्स, चैटिंग, फैसबुक, वॉट्सअप हेतु इतना अधिक प्रयोग मन को सदैव चंचल, उत्तेजित और अस्तव्यस्त रखता है, उससे चिन्तनशीलता का विकास होना असम्भव बन जाता है। पैसा तो खर्च होता ही है।  
 
# मोबाइल, कम्प्यूटर, इण्टरनेट, टी.वी.का अन्धाधुन्ध उपयोग बुद्धिहीनता का लक्षण है। इनका विडियो गेम्स, चैटिंग, फैसबुक, वॉट्सअप हेतु इतना अधिक प्रयोग मन को सदैव चंचल, उत्तेजित और अस्तव्यस्त रखता है, उससे चिन्तनशीलता का विकास होना असम्भव बन जाता है। पैसा तो खर्च होता ही है।  
 
# बोलने और सुनने की शक्ति इतनी कम हुई हैं, भवनों की ध्वनिव्यवस्था ऐसी विपरीत है और बाहर के वातावरण में इतना कोलाहल है कि कम संख्या में भी ध्वनिवर्धक यन्त्र का प्रयोग करना पडता है। यह भी एक अनावश्यक खर्च ही है।  
 
# बोलने और सुनने की शक्ति इतनी कम हुई हैं, भवनों की ध्वनिव्यवस्था ऐसी विपरीत है और बाहर के वातावरण में इतना कोलाहल है कि कम संख्या में भी ध्वनिवर्धक यन्त्र का प्रयोग करना पडता है। यह भी एक अनावश्यक खर्च ही है।  
# वर्षभर में प्रयुक्त जूते, कपडे, पुस्तकें, लेखनसामग्री, नास्ते के डिब्बे, पानी की बोतलें आदि का यदि हिसाब करें तो हम अब तक पूर्ण दिवालिये नहीं हो गये यह बहुत बडा चमत्कार है ऐसा ही लगेगा।  
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# वर्षभर में प्रयुक्त जूते, कपड़े, पुस्तकें, लेखनसामग्री, नास्ते के डिब्बे, पानी की बोतलें आदि का यदि हिसाब करें तो हम अब तक पूर्ण दिवालिये नहीं हो गये यह बहुत बडा चमत्कार है ऐसा ही लगेगा।  
 
# एक लिटर पानी पन्द्रह रूपये खर्च करने वाली और उसकी खाली बोतलें धडाधड फैंकने वाली संस्कृति संस्कृति नाम के लायक नहीं है, वह अपसंस्कृति है। संसाधनों की ऐसी बरबादी किसी भी प्रकार से क्षमा करने योग्य नहीं है।  
 
# एक लिटर पानी पन्द्रह रूपये खर्च करने वाली और उसकी खाली बोतलें धडाधड फैंकने वाली संस्कृति संस्कृति नाम के लायक नहीं है, वह अपसंस्कृति है। संसाधनों की ऐसी बरबादी किसी भी प्रकार से क्षमा करने योग्य नहीं है।  
 
# किसी भी विषय को सीखने में लगने वाला समय ध्यान देने योग्य विषय है। किसी भी काम को करने में लगने वाला अधिक समय चिन्ता का विषय है। समय की बचत करना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये अनावश्यक बातों के लिये समय का अपव्यय नहीं करना चाहिये ।  
 
# किसी भी विषय को सीखने में लगने वाला समय ध्यान देने योग्य विषय है। किसी भी काम को करने में लगने वाला अधिक समय चिन्ता का विषय है। समय की बचत करना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये अनावश्यक बातों के लिये समय का अपव्यय नहीं करना चाहिये ।  
 
# किसी वस्तु का जतन नहीं करना, उसे खराब करना, खो देना, तोडना, उसका दरुपयोग करना अधिक वस्तुओं की आवश्यकता निर्माण करता है और परिणामतः खर्च बढता है ।  
 
# किसी वस्तु का जतन नहीं करना, उसे खराब करना, खो देना, तोडना, उसका दरुपयोग करना अधिक वस्तुओं की आवश्यकता निर्माण करता है और परिणामतः खर्च बढता है ।  
# थाली में जूठन नहीं छोडना, कपडे गन्दे नहीं करना, विद्यालय की दरी को गन्दा नहीं करना, कापी के कागज नहीं फाडना, कक्ष से बाहर जाते समय पंखे बन्द करना, एकाग्रतापूर्वक पढना और एक बार में याद कर लेना अच्छी आदते हैं । ये मितव्ययिता की और तथा मितव्ययिता संस्कारी समृद्धि की ओर ले जाती है।
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# थाली में जूठन नहीं छोडना, कपड़े गन्दे नहीं करना, विद्यालय की दरी को गन्दा नहीं करना, कापी के कागज नहीं फाडना, कक्ष से बाहर जाते समय पंखे बन्द करना, एकाग्रतापूर्वक पढना और एक बार में याद कर लेना अच्छी आदते हैं । ये मितव्ययिता की और तथा मितव्ययिता संस्कारी समृद्धि की ओर ले जाती है।
 
इतना पढकर ध्यान में आता है कि हमारी सम्पूर्ण जीवनशैली मितव्ययिता के स्थान पर अपव्ययिता की बन गई है। हम विचारशील नहीं विचारहीन सिद्ध हो रहे हैं। हम समृद्धि की ओर नहीं दरिद्रता की ओर बढ़ रहे हैं । ऐसा ही चलता रहा तो कोई हमें संकटों से उबार नहीं सकता। हमें बदलना ही होगा। यह बदल विद्यालयों से आरम्भ होगा। विद्यालय को विचार और व्यवहार की दिशा बदलनी होगी। शिक्षकों और विद्यार्थियों के मानस बदलने होंगे।
 
इतना पढकर ध्यान में आता है कि हमारी सम्पूर्ण जीवनशैली मितव्ययिता के स्थान पर अपव्ययिता की बन गई है। हम विचारशील नहीं विचारहीन सिद्ध हो रहे हैं। हम समृद्धि की ओर नहीं दरिद्रता की ओर बढ़ रहे हैं । ऐसा ही चलता रहा तो कोई हमें संकटों से उबार नहीं सकता। हमें बदलना ही होगा। यह बदल विद्यालयों से आरम्भ होगा। विद्यालय को विचार और व्यवहार की दिशा बदलनी होगी। शिक्षकों और विद्यार्थियों के मानस बदलने होंगे।
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==== परिवर्तन के बिन्दु ====
 
==== परिवर्तन के बिन्दु ====
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को धार्मिक जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पडेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
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महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को धार्मिक जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पड़ेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
# मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पडेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये। इस दष्टि से हर व्यक्ति को अपने अर्थार्जन हेतु स्वतन्त्र व्यवसाय मिलना चाहिये।  
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# मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पड़ेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये। इस दष्टि से हर व्यक्ति को अपने अर्थार्जन हेतु स्वतन्त्र व्यवसाय मिलना चाहिये।  
 
# हर मनुष्य को चाहिये कि अपना स्वामित्व युक्त व्यवसाय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु होना चाहिये, आवश्यकता नहीं है ऐसी वस्तुयें विज्ञापन के माध्यम से लोगोंं को खरीदने हेतु बाध्य करने हेतु नहीं।  
 
# हर मनुष्य को चाहिये कि अपना स्वामित्व युक्त व्यवसाय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु होना चाहिये, आवश्यकता नहीं है ऐसी वस्तुयें विज्ञापन के माध्यम से लोगोंं को खरीदने हेतु बाध्य करने हेतु नहीं।  
 
# ऐसा करना है तो केन्द्रीकृत उत्पादन की व्यवस्था बदलनी होगी। छोटे छोटे उद्योग बढाने होंगे।  
 
# ऐसा करना है तो केन्द्रीकृत उत्पादन की व्यवस्था बदलनी होगी। छोटे छोटे उद्योग बढाने होंगे।  
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यह सारा काम आज के आज नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट है । यह लोकमानस को परिवर्तित करने की बात है। वह धीरे धीरे ही होता है। अतः हमें दो पीढियों तक निरन्तर रूप से इसे करने की आवश्यकता रहेगी।
 
यह सारा काम आज के आज नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट है । यह लोकमानस को परिवर्तित करने की बात है। वह धीरे धीरे ही होता है। अतः हमें दो पीढियों तक निरन्तर रूप से इसे करने की आवश्यकता रहेगी।
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धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना करने में अर्थक्षेत्र की पुनर्रचना भी करनी पडेगी। इसके लिये प्रथम पर्यायी अर्थतन्त्र की संकल्पना, बाद में उसकी रचना और उसके साथ ही अर्थतन्त्र के वर्तमान मांधाताओं के साथ संवाद करने की आवश्यकता रहेगी।
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धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना करने में अर्थक्षेत्र की पुनर्रचना भी करनी पड़ेगी। इसके लिये प्रथम पर्यायी अर्थतन्त्र की संकल्पना, बाद में उसकी रचना और उसके साथ ही अर्थतन्त्र के वर्तमान मांधाताओं के साथ संवाद करने की आवश्यकता रहेगी।
    
=== सरकार की भूमिका ===
 
=== सरकार की भूमिका ===
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# स्वायत्तता का प्रारूप भी सरकार के साथ संवाद बनाये रखते हुए होना चाहिये।  
 
# स्वायत्तता का प्रारूप भी सरकार के साथ संवाद बनाये रखते हुए होना चाहिये।  
 
# स्वायत्तता के मामले में सरकार की भूमिका सहायक की, संरक्षक और समर्थक की होनी चाहिये नियंत्रक की नहीं । समाज को, शिक्षाक्षेत्र को अपने बलबुते पर ही खडा होना चाहिये । सरकार मार्ग में अवरोध निर्माण न करे और अवरोध आयें तो उन्हें दूर करे अथवा दूर करने में सहयोग करे इतनी होनी चाहिये ।  
 
# स्वायत्तता के मामले में सरकार की भूमिका सहायक की, संरक्षक और समर्थक की होनी चाहिये नियंत्रक की नहीं । समाज को, शिक्षाक्षेत्र को अपने बलबुते पर ही खडा होना चाहिये । सरकार मार्ग में अवरोध निर्माण न करे और अवरोध आयें तो उन्हें दूर करे अथवा दूर करने में सहयोग करे इतनी होनी चाहिये ।  
# सरकार को शिक्षाक्षेत्र को स्वायत्त करना कुछ कठिन हो सकता है क्योंकि शिक्षाक्षेत्र से उसे जो दूसरे लाभ मिलते हैं वे मिलने बन्द हो जायेंगे । राजकीय पक्षों का मानव संसाधन भी उन्हें खोना पडेगा । इस हानि को सहने के लिये सरकार को राजी करना बहुत बडा काम होगा।  
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# सरकार को शिक्षाक्षेत्र को स्वायत्त करना कुछ कठिन हो सकता है क्योंकि शिक्षाक्षेत्र से उसे जो दूसरे लाभ मिलते हैं वे मिलने बन्द हो जायेंगे । राजकीय पक्षों का मानव संसाधन भी उन्हें खोना पड़ेगा । इस हानि को सहने के लिये सरकार को राजी करना बहुत बडा काम होगा।  
 
# इससे भी बड़ा काम लोगोंं के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करने का है। विभिन्न शैक्षिक संगठनों, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों को यह काम करने के लिये सिद्ध करना होगा।  
 
# इससे भी बड़ा काम लोगोंं के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करने का है। विभिन्न शैक्षिक संगठनों, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों को यह काम करने के लिये सिद्ध करना होगा।  
 
# इस योजना में पढे लोगोंं को नौकरी देने की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रहेगी। बाबूगीरी एकदम कम हो जायेगी। शिक्षा के साथ नौकरी वाला आर्थिक क्षेत्र भी स्वायत्त होना चाहिये ।  
 
# इस योजना में पढे लोगोंं को नौकरी देने की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रहेगी। बाबूगीरी एकदम कम हो जायेगी। शिक्षा के साथ नौकरी वाला आर्थिक क्षेत्र भी स्वायत्त होना चाहिये ।  
 
# स्वायत्तता की यह योजना चरणों में होगी। नीचे की कोई शिक्षा अनिवार्य नहीं होगी परन्तु स्वास्थ्य सेवाओं, सैन्य सेवाओं तथा राजकीय सेवाओं का क्षेत्र सरकार के पास रहेगा। इस दृष्टि से सभी शाखाओं की प्रवेश परीक्षा होगी और जैसे चाहिये वैसे लोग तैयार कर लेना उन उन क्षेत्रों की जिम्मेदारी रहेगी।  
 
# स्वायत्तता की यह योजना चरणों में होगी। नीचे की कोई शिक्षा अनिवार्य नहीं होगी परन्तु स्वास्थ्य सेवाओं, सैन्य सेवाओं तथा राजकीय सेवाओं का क्षेत्र सरकार के पास रहेगा। इस दृष्टि से सभी शाखाओं की प्रवेश परीक्षा होगी और जैसे चाहिये वैसे लोग तैयार कर लेना उन उन क्षेत्रों की जिम्मेदारी रहेगी।  
 
# अर्थक्षेत्र स्वायत्त होना आवश्यक है। हर उद्योग ने अपने उद्योग के लिये आवश्यक लोगोंं को शिक्षित कर लेने की सिद्धता करनी होगी।  
 
# अर्थक्षेत्र स्वायत्त होना आवश्यक है। हर उद्योग ने अपने उद्योग के लिये आवश्यक लोगोंं को शिक्षित कर लेने की सिद्धता करनी होगी।  
# शिक्षा संस्थानों को समाज से भिक्षा माँगनी पडेगी। प्राथमिक विद्यालय भी इसी तत्त्व पर चलेंगे।  
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# शिक्षा संस्थानों को समाज से भिक्षा माँगनी पड़ेगी। प्राथमिक विद्यालय भी इसी तत्त्व पर चलेंगे।  
 
# इस योजना में सबसे बड़ा विरोध शिक्षक करेंगे क्योंकि उनकी सुरक्षा और वेतन समाप्त हो जायेंगे । शैक्षिक संगठनों को अपने बलबूते पर विद्यालय चलाने वाले शिक्षक तैयार करने पड़ेंगे। संगठनों के कार्यकर्ताओं को स्वयं विद्यालय आरम्भ करने होंगे।  
 
# इस योजना में सबसे बड़ा विरोध शिक्षक करेंगे क्योंकि उनकी सुरक्षा और वेतन समाप्त हो जायेंगे । शैक्षिक संगठनों को अपने बलबूते पर विद्यालय चलाने वाले शिक्षक तैयार करने पड़ेंगे। संगठनों के कार्यकर्ताओं को स्वयं विद्यालय आरम्भ करने होंगे।  
 
# इस देश में स्वायत्त शिक्षा के प्रयोग नहीं चल रहे हैं ऐसा तो नहीं है। परन्तु वे सरकारी तन्त्र के पूरक के रूप में चल रहे हैं। वे स्वायत्त चलें ऐसा मन बनाना चाहिये।  
 
# इस देश में स्वायत्त शिक्षा के प्रयोग नहीं चल रहे हैं ऐसा तो नहीं है। परन्तु वे सरकारी तन्त्र के पूरक के रूप में चल रहे हैं। वे स्वायत्त चलें ऐसा मन बनाना चाहिये।  
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# समाज के प्रत्येक सक्षम व्यक्तिको अर्थार्जन करना ही चाहिये और उसे अर्थार्जन का अवसर भी मिलना चाहिये।  
 
# समाज के प्रत्येक सक्षम व्यक्तिको अर्थार्जन करना ही चाहिये और उसे अर्थार्जन का अवसर भी मिलना चाहिये।  
 
# पढ़ने वाले विद्यार्थी, पढानेवाले शिक्षक, वानप्रस्थी, संन्यासी, रोगी, धर्माचार्य, अपंग आदि लोगोंं को अर्थार्जन करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिये । उनके पोषण का दायित्व सरकार का नहीं अपितु परिवारजनों का होना चाहिये।  
 
# पढ़ने वाले विद्यार्थी, पढानेवाले शिक्षक, वानप्रस्थी, संन्यासी, रोगी, धर्माचार्य, अपंग आदि लोगोंं को अर्थार्जन करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिये । उनके पोषण का दायित्व सरकार का नहीं अपितु परिवारजनों का होना चाहिये।  
# अर्थार्जन करने वाले सभी लोगोंं की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा होनी चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थार्जन हेतु कोई किसी का नौकर नहीं होना चाहिये। किसी को नौकरी में रखना पडे इतना बडा उद्योग ही नहीं होना चाहिये । उद्योग बढाना है तो अपना परिवार बढाना चाहिये । छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं, बड़ा परिवार सुखी परिवार यह सही सूत्र है। उसी प्रकार बडा उद्योग अच्छा उद्योग नहीं, छोटा उद्योग अच्छा उद्योग यह सही सूत्र है । केवल कुछ खास काम ही ऐसे हैं जो वेतनभोगी कर्मचारियों की अपेक्षा करते हैं।  
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# अर्थार्जन करने वाले सभी लोगोंं की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा होनी चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थार्जन हेतु कोई किसी का नौकर नहीं होना चाहिये। किसी को नौकरी में रखना पड़े इतना बडा उद्योग ही नहीं होना चाहिये । उद्योग बढाना है तो अपना परिवार बढाना चाहिये । छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं, बड़ा परिवार सुखी परिवार यह सही सूत्र है। उसी प्रकार बडा उद्योग अच्छा उद्योग नहीं, छोटा उद्योग अच्छा उद्योग यह सही सूत्र है । केवल कुछ खास काम ही ऐसे हैं जो वेतनभोगी कर्मचारियों की अपेक्षा करते हैं।  
 
# अर्थार्जन या उद्योग उत्पादन केन्द्री होना चाहिये, सेवाकेन्द्री नहीं । 'सेवा' शब्द अर्थार्जन के क्षेत्र का है ही नहीं । उसका प्रयोग वहाँ करना ही नहीं चाहिये। उदाहरण के लिये शिक्षा उद्योग नहीं हो सकती, मैनेजमेण्ट सेवा नहीं हो सकता, चिकित्सा व्यवसाय नहीं हो सकता। यह धर्म के विरोधी है इसलिये मान्य नहीं है । भौतिक वस्तुओं के उत्पादन को ही अर्थक्षेत्र में केन्द्रवर्ती स्थान देना चाहिये ।  
 
# अर्थार्जन या उद्योग उत्पादन केन्द्री होना चाहिये, सेवाकेन्द्री नहीं । 'सेवा' शब्द अर्थार्जन के क्षेत्र का है ही नहीं । उसका प्रयोग वहाँ करना ही नहीं चाहिये। उदाहरण के लिये शिक्षा उद्योग नहीं हो सकती, मैनेजमेण्ट सेवा नहीं हो सकता, चिकित्सा व्यवसाय नहीं हो सकता। यह धर्म के विरोधी है इसलिये मान्य नहीं है । भौतिक वस्तुओं के उत्पादन को ही अर्थक्षेत्र में केन्द्रवर्ती स्थान देना चाहिये ।  
 
# भौतिक वस्तुओं के उत्पादक और उपभोक्ता के मध्य कम से कम दूरी और कम से कम व्यवस्थायें होनी चाहिये । पैकिंग, संग्रह और सुरक्षा की व्यवस्था, परिवहन, बिचौलिये, वितरण की युक्ति प्रयुक्ति, विज्ञापन ये सब अनुत्पादक व्यवस्थायें हैं जो वस्तुओं की कीमतो में बिना गुणवत्ता बढे वृद्धि करती है और बिना श्रम किये, बिना निवेश के अर्थार्जन के अवसर निर्माण करती है। इससे एक आभासी अर्थव्यवस्था पैदा होती है जो समृद्धि नहीं, समृद्धि का आभास उत्पन्न करती है । आभासी समृद्धि से दारिद्य बढ़ता है।  
 
# भौतिक वस्तुओं के उत्पादक और उपभोक्ता के मध्य कम से कम दूरी और कम से कम व्यवस्थायें होनी चाहिये । पैकिंग, संग्रह और सुरक्षा की व्यवस्था, परिवहन, बिचौलिये, वितरण की युक्ति प्रयुक्ति, विज्ञापन ये सब अनुत्पादक व्यवस्थायें हैं जो वस्तुओं की कीमतो में बिना गुणवत्ता बढे वृद्धि करती है और बिना श्रम किये, बिना निवेश के अर्थार्जन के अवसर निर्माण करती है। इससे एक आभासी अर्थव्यवस्था पैदा होती है जो समृद्धि नहीं, समृद्धि का आभास उत्पन्न करती है । आभासी समृद्धि से दारिद्य बढ़ता है।  

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