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# गुरुदक्षिणा के बारे में कोई नियम, कोई कानून, कोई अनिवार्यता या कोई शर्त न होते हुए भी, हमारे सामने स्पष्ट है कि गुरु का जीवन निर्वाह इस पर ही निर्भर है फिर भी गुरु इसके बारे में तनिक भी चिन्ता करते नहीं । ऐसा होने पर भी गुरु का निर्वाह कभी रुकता नहीं। यह दर्शाता है कि विश्वास, श्रद्धा, आदर, कृतज्ञता और अपेक्षारहितता ये सब सामर्थ्य, कायदाकानून, नियम और शर्तों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हैं।  
 
# गुरुदक्षिणा के बारे में कोई नियम, कोई कानून, कोई अनिवार्यता या कोई शर्त न होते हुए भी, हमारे सामने स्पष्ट है कि गुरु का जीवन निर्वाह इस पर ही निर्भर है फिर भी गुरु इसके बारे में तनिक भी चिन्ता करते नहीं । ऐसा होने पर भी गुरु का निर्वाह कभी रुकता नहीं। यह दर्शाता है कि विश्वास, श्रद्धा, आदर, कृतज्ञता और अपेक्षारहितता ये सब सामर्थ्य, कायदाकानून, नियम और शर्तों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हैं।  
 
# गुरुदक्षिणा की संकल्पना श्रेष्ठ एवं संस्कारित समाज में ही सम्भव है। मनुष्य में निहित सद्वृत्ति के आधार पर ही ऐसी व्यवस्थाएँ सम्भव होती हैं। स्वार्थ, अप्रामाणिकता, कृतज्ञता का अभाव जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जब प्रबल बनती हैं तब शर्ते, कायदा-कानून भंग होते हैं, इसलिए दण्ड आदि सभी व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं।  
 
# गुरुदक्षिणा की संकल्पना श्रेष्ठ एवं संस्कारित समाज में ही सम्भव है। मनुष्य में निहित सद्वृत्ति के आधार पर ही ऐसी व्यवस्थाएँ सम्भव होती हैं। स्वार्थ, अप्रामाणिकता, कृतज्ञता का अभाव जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जब प्रबल बनती हैं तब शर्ते, कायदा-कानून भंग होते हैं, इसलिए दण्ड आदि सभी व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं।  
# समाज आधारित शिक्षण का यह उत्तम नमूना है। इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था में शिक्षक और विद्यार्थी-गुरु और शिष्य - के बीच में अथवा इन दोनों का नियमन करने वाला कोई तत्त्व, कोई व्यवस्था नहीं होती। फिर यह सरकारी अर्थात् राजकीय और प्रशासनिक व्यवस्था भी नहीं है। यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था है।  
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# समाज आधारित शिक्षण का यह उत्तम नमूना है। इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था में शिक्षक और विद्यार्थी-गुरु और शिष्य - के मध्य में अथवा इन दोनों का नियमन करने वाला कोई तत्त्व, कोई व्यवस्था नहीं होती। फिर यह सरकारी अर्थात् राजकीय और प्रशासनिक व्यवस्था भी नहीं है। यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था है।  
 
हमारा यह दृढ़ मत बना हुआ होता है कि आज के समय में ऐसी व्यवस्था सम्भव ही नहीं हो सकती। किसी भी प्रकार की अनिवार्यता न हो तो कोई पढ़ेगा नहीं, अनिवार्यता न हो तो कोई फीस ही न देगा, पहले से वेतन निश्चित नहीं होगा तो कोई पढ़ायेगा ही नहीं। परन्तु ऐसा मानना अपने आपको ही कम आँकना है। आज भी यह दुनियाँ जैसे भी चल रही है, वह कायदा-कानून, न्याय और दण्ड के आधार पर नहीं प्रत्युत मनुष्य में बची हुई अच्छाई के आधार पर ही चल रही है। ऐसी अच्छाई और संस्कारिता के आधार पर होने वाली व्यवस्थाओं को अधिक पारदर्शी बनाने के लिए और अधिक संस्कारित समाज निर्माण करने की ओर गति बढ़ानी होगी।
 
हमारा यह दृढ़ मत बना हुआ होता है कि आज के समय में ऐसी व्यवस्था सम्भव ही नहीं हो सकती। किसी भी प्रकार की अनिवार्यता न हो तो कोई पढ़ेगा नहीं, अनिवार्यता न हो तो कोई फीस ही न देगा, पहले से वेतन निश्चित नहीं होगा तो कोई पढ़ायेगा ही नहीं। परन्तु ऐसा मानना अपने आपको ही कम आँकना है। आज भी यह दुनियाँ जैसे भी चल रही है, वह कायदा-कानून, न्याय और दण्ड के आधार पर नहीं प्रत्युत मनुष्य में बची हुई अच्छाई के आधार पर ही चल रही है। ऐसी अच्छाई और संस्कारिता के आधार पर होने वाली व्यवस्थाओं को अधिक पारदर्शी बनाने के लिए और अधिक संस्कारित समाज निर्माण करने की ओर गति बढ़ानी होगी।
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# अर्थार्जन करने वाले सभी लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा होनी चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थार्जन हेतु कोई किसी का नौकर नहीं होना चाहिये। किसी को नौकरी में रखना पडे इतना बडा उद्योग ही नहीं होना चाहिये । उद्योग बढाना है तो अपना परिवार बढाना चाहिये । छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं, बड़ा परिवार सुखी परिवार यह सही सूत्र है। उसी प्रकार बडा उद्योग अच्छा उद्योग नहीं, छोटा उद्योग अच्छा उद्योग यह सही सूत्र है । केवल कुछ खास काम ही ऐसे हैं जो वेतनभोगी कर्मचारियों की अपेक्षा करते हैं।  
 
# अर्थार्जन करने वाले सभी लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा होनी चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थार्जन हेतु कोई किसी का नौकर नहीं होना चाहिये। किसी को नौकरी में रखना पडे इतना बडा उद्योग ही नहीं होना चाहिये । उद्योग बढाना है तो अपना परिवार बढाना चाहिये । छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं, बड़ा परिवार सुखी परिवार यह सही सूत्र है। उसी प्रकार बडा उद्योग अच्छा उद्योग नहीं, छोटा उद्योग अच्छा उद्योग यह सही सूत्र है । केवल कुछ खास काम ही ऐसे हैं जो वेतनभोगी कर्मचारियों की अपेक्षा करते हैं।  
 
# अर्थार्जन या उद्योग उत्पादन केन्द्री होना चाहिये, सेवाकेन्द्री नहीं । 'सेवा' शब्द अर्थार्जन के क्षेत्र का है ही नहीं । उसका प्रयोग वहाँ करना ही नहीं चाहिये। उदाहरण के लिये शिक्षा उद्योग नहीं हो सकती, मैनेजमेण्ट सेवा नहीं हो सकता, चिकित्सा व्यवसाय नहीं हो सकता। यह धर्म के विरोधी है इसलिये मान्य नहीं है । भौतिक वस्तुओं के उत्पादन को ही अर्थक्षेत्र में केन्द्रवर्ती स्थान देना चाहिये ।  
 
# अर्थार्जन या उद्योग उत्पादन केन्द्री होना चाहिये, सेवाकेन्द्री नहीं । 'सेवा' शब्द अर्थार्जन के क्षेत्र का है ही नहीं । उसका प्रयोग वहाँ करना ही नहीं चाहिये। उदाहरण के लिये शिक्षा उद्योग नहीं हो सकती, मैनेजमेण्ट सेवा नहीं हो सकता, चिकित्सा व्यवसाय नहीं हो सकता। यह धर्म के विरोधी है इसलिये मान्य नहीं है । भौतिक वस्तुओं के उत्पादन को ही अर्थक्षेत्र में केन्द्रवर्ती स्थान देना चाहिये ।  
# भौतिक वस्तुओं के उत्पादक और उपभोक्ता के बीच कम से कम दूरी और कम से कम व्यवस्थायें होनी चाहिये । पैकिंग, संग्रह और सुरक्षा की व्यवस्था, परिवहन, बिचौलिये, वितरण की युक्ति प्रयुक्ति, विज्ञापन ये सब अनुत्पादक व्यवस्थायें हैं जो वस्तुओं की कीमतो में बिना गुणवत्ता बढे वृद्धि करती है और बिना श्रम किये, बिना निवेश के अर्थार्जन के अवसर निर्माण करती है। इससे एक आभासी अर्थव्यवस्था पैदा होती है जो समृद्धि नहीं, समृद्धि का आभास उत्पन्न करती है । आभासी समृद्धि से दारिद्य बढ़ता है।  
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# भौतिक वस्तुओं के उत्पादक और उपभोक्ता के मध्य कम से कम दूरी और कम से कम व्यवस्थायें होनी चाहिये । पैकिंग, संग्रह और सुरक्षा की व्यवस्था, परिवहन, बिचौलिये, वितरण की युक्ति प्रयुक्ति, विज्ञापन ये सब अनुत्पादक व्यवस्थायें हैं जो वस्तुओं की कीमतो में बिना गुणवत्ता बढे वृद्धि करती है और बिना श्रम किये, बिना निवेश के अर्थार्जन के अवसर निर्माण करती है। इससे एक आभासी अर्थव्यवस्था पैदा होती है जो समृद्धि नहीं, समृद्धि का आभास उत्पन्न करती है । आभासी समृद्धि से दारिद्य बढ़ता है।  
 
# भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करने वालों को अर्थक्षेत्र में सबसे अधिक सम्मान और सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिये । उत्पादन में गुणवत्ता और उत्कृष्टता प्रतिष्ठा का विषय बनना चाहिये।  
 
# भौतिक वस्तुओं का उत्पादन करने वालों को अर्थक्षेत्र में सबसे अधिक सम्मान और सुरक्षा प्राप्त होनी चाहिये । उत्पादन में गुणवत्ता और उत्कृष्टता प्रतिष्ठा का विषय बनना चाहिये।  
 
# ज्ञानदान, आरोग्यदान और धर्मज्ञान अर्थक्षेत्र से परे होना चाहिये । अन्न और जल, व्यावहारिक जीवन का मार्गदर्शन निःशुल्क होना चाहिये । ज्ञान, आरोग्य और धर्म का ज्ञान देनेवालों की सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति ससम्मान उत्पादकों द्वारा होनी चाहिये।  
 
# ज्ञानदान, आरोग्यदान और धर्मज्ञान अर्थक्षेत्र से परे होना चाहिये । अन्न और जल, व्यावहारिक जीवन का मार्गदर्शन निःशुल्क होना चाहिये । ज्ञान, आरोग्य और धर्म का ज्ञान देनेवालों की सर्व प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति ससम्मान उत्पादकों द्वारा होनी चाहिये।  

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