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कल्पना करें कि एक अच्छा मुहूर्त देखकर सरकारने शिक्षा को मुक्त कर दिया और कह दिया कि जो करना है सो करो, कोई आपको रोकेगा नहीं, टोकेगा नहीं। तो क्या स्थिति होगी ? सरकार पाठ्यपुस्तकें नहीं देगी, पाठ्यक्रम नहीं देगी। सरकार नियुक्ति नहीं करेगी, बढोतरी नहीं करेगी। सरकार मान्यता देने वाली सारी संस्थायें बन्द कर देगी क्योंकि अब किसी को सरकारी मान्यता की आवश्यकता नहीं रहेगी। सरकार अपनी सांविधानिक बाध्यता के अनुसार प्राथमिक विद्यालय चलायेगी। एक दिन संविधान में बदल कर इस बाध्यता को भी समाप्त कर देगी। सरकारी विद्यालय भी बन्द हो जायेंगे। फिर क्या होगा?
 
कल्पना करें कि एक अच्छा मुहूर्त देखकर सरकारने शिक्षा को मुक्त कर दिया और कह दिया कि जो करना है सो करो, कोई आपको रोकेगा नहीं, टोकेगा नहीं। तो क्या स्थिति होगी ? सरकार पाठ्यपुस्तकें नहीं देगी, पाठ्यक्रम नहीं देगी। सरकार नियुक्ति नहीं करेगी, बढोतरी नहीं करेगी। सरकार मान्यता देने वाली सारी संस्थायें बन्द कर देगी क्योंकि अब किसी को सरकारी मान्यता की आवश्यकता नहीं रहेगी। सरकार अपनी सांविधानिक बाध्यता के अनुसार प्राथमिक विद्यालय चलायेगी। एक दिन संविधान में बदल कर इस बाध्यता को भी समाप्त कर देगी। सरकारी विद्यालय भी बन्द हो जायेंगे। फिर क्या होगा?
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और, सरकार वेतन भी बन्द कर देगी। तब क्या होगा ? सरकार शिक्षा को मुक्त कर किसके हात में सौंपेगी ? लेने के लिये कोन तेयार होगा ?
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आज भी सरकार अपने माध्यमिक विद्यालय निजी संस्थाओं को सौंपना चाहती है। परन्तु कुछ गिनीचुनी संस्थायें ही लेने के लिये तैयार होती हैं, वे भी सरकार के खर्च पर । निजी विश्वविद्यालय बनते हैं परन्तु वे उद्योगगृहों के होते हैं जहाँ विश्वविद्यालय भी एक उद्योग है।
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तब समाज को विभिन्न विद्याशाखाओं में जो शिक्षक चाहिये, जो विभिन्न कामों के लिये शिक्षित लोग चाहिये वे कहाँ से मिलेंगे ?
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फिर योजना क्या है ? यदि शिक्षाक्षेत्र से सरकार निकल जाय तो इसे चलाने वाला कौन है ? इसका दायित्व लेनेवाला कौन है ?
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हम कहते हैं कि शिक्षा शिक्षक के अधीन होनी चाहिये । आज शिक्षक कहाँ है जिसका आश्रय शिक्षा ले सके ? आज विद्वान लोग पराकोटि की सुरक्षा के बिना अध्ययन अनुसन्धान का एक भी काम नहीं करते । तो फिर पाठ्यपुस्तकें कौन बनायेगा ? बिना वेतन के शिक्षक कैसे पढायेंगे ?
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आज स्वायत्तता की माँग करने वालों के पास भी कोई योजना नहीं है। कोई स्पष्टता भी नहीं है। कोई सिद्धता भी नहीं है।
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तो फिर क्या करना ? शिक्षा को स्वायत्त नहीं बनाना चाहिये ? या बनाने का प्रयास करना चाहिये ?
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मुद्दा यह है कि आज की स्थिति में शिक्षा स्वायत्त होने की कोई सम्भावना नहीं है। किसी की भी इसके लिये कोई वैचारिक या व्यावहारिक सिद्धता नहीं है ।
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==== शिक्षा स्वायत्त कैसे हो सकती है ====
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फिर भी शैक्षिक सिद्धान्त तो यही है कि शिक्षा स्वायत्त होनी ही चाहिये । यह कैसे होगी इसकी योजना करनी चाहिये।
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कुछ बातें इस प्रकार विचारणीय हैं...
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१. वर्तमान स्थिति में अन्य बातों में परिवर्तन नहीं होता तब तक शिक्षा स्वायत्त नहीं हो सकती । केवल इच्छा या अपेक्षा से शिक्षा स्वायत्त नहीं होती।
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२. शिक्षा को स्वायत्त बनाने हेतु प्रथम एक वैचारिक रूपरेखा शिक्षाशास्त्रियों की सहायता से शैक्षिक संगठनों को करनी चाहिये।
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३. स्वायत्तता के विषय में सरकार के साथ संवाद बनाना चाहिये । सरकार की भी शिक्षा को स्वायत्त बनाने की मानसिकता बननी चाहिये ।  रूपरेखा बनाने में सरकार की भी भूमिका सहभागिता की बननी चाहिये।
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४. सरकार से तात्पर्य है शासन और प्रशासन दोनों के प्रतिनिधि। शासन अपने पक्ष की विचारधारा के अनुसार चलता है, प्रशासन भारतीय संविधान की धारा नियमों और कानूनों के अनुसार।
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५. शैक्षिक संगठनों को विद्वज्जन, कार्यकर्ता, अध्यापक आदि का मिलकर एक गट बनाना चाहिये । देशभर के अन्यान्य लोगों और वर्गों के साथ मिलकर इस विषय पर जागृति निर्माण कर, उन्हें विचार करने हेतु प्रेरित कर प्रारूप बनाने का प्रयास करना चाहिये ।
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६. स्वायत्तता का प्रारूप भी सरकार के साथ संवाद बनाये रखते हुए होना चाहिये।
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७. स्वायत्तता के मामले में सरकार की भूमिका सहायक की, संरक्षक और समर्थक की होनी चाहिये नियंत्रक की नहीं । समाज को, शिक्षाक्षेत्र को अपने बलबुते पर ही खडा होना चाहिये । सरकार मार्ग में अवरोध निर्माण न करे और अवरोध आयें तो उन्हें दूर करे अथवा दूर करने में सहयोग करे इतनी होनी चाहिये ।
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८. सरकार को शिक्षाक्षेत्र को स्वायत्त करना कुछ कठिन हो सकता है क्योंकि शिक्षाक्षेत्र से उसे जो दूसरे लाभ मिलते हैं वे मिलने बन्द हो जायेंगे । राजकीय पक्षों का मानव संसाधन भी उन्हें खोना पडेगा । इस हानि को सहने के लिये सरकार को राजी करना बहुत बडा काम होगा।
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९. इससे भी बड़ा काम लोगों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करने का है। विभिन्न शैक्षिक संगठनों, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों को यह काम करने के लिये सिद्ध करना होगा।
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१०. इस योजना में पढे लोगों को नौकरी देने की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रहेगी। बाबूगीरी एकदम कम हो जायेगी। शिक्षा के साथ नौकरी वाला आर्थिक क्षेत्र भी स्वायत्त होना चाहिये ।
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११. स्वायत्तता की यह योजना चरणों में होगी। नीचे की कोई शिक्षा अनिवार्य नहीं होगी परन्तु स्वास्थ्य सेवाओं, सैन्य सेवाओं तथा राजकीय सेवाओं का क्षेत्र सरकार के पास रहेगा। इस दृष्टि से सभी शाखाओं की प्रवेश परीक्षा होगी और जैसे चाहिये वैसे लोग तैयार कर लेना उन उन क्षेत्रों की जिम्मेदारी रहेगी।
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१२. अर्थक्षेत्र स्वायत्त होना आवश्यक है। हर उद्योग ने अपने उद्योग के लिये आवश्यक लोगों को शिक्षित कर लेने की सिद्धता करनी होगी।
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१३. शिक्षा संस्थानों को समाज से भिक्षा माँगनी पडेगी। प्राथमिक विद्यालय भी इसी तत्त्व पर चलेंगे।
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१४. इस योजना में सबसे बड़ा विरोध शिक्षक करेंगे क्योंकि उनकी सुरक्षा और वेतन समाप्त हो जायेंगे । शैक्षिक संगठनों को अपने बलबूते पर विद्यालय चलाने वाले शिक्षक तैयार करने पड़ेंगे। संगठनों के कार्यकर्ताओं को स्वयं विद्यालय शुरू करने होंगे।
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१५. इस देश में स्वायत्त शिक्षा के प्रयोग नहीं चल रहे हैं ऐसा तो नहीं है। परन्तु वे सरकारी तन्त्र के पूरक के रूप में चल रहे हैं। वे स्वायत्त चलें ऐसा मन बनाना चाहिये।
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१६. यह कार्य किसी भी एक पक्ष से होने वाला नहीं है। केवल सरकार चाहेगी, या संगठन चाहेंगे या शिक्षक चाहेंगे तो नहीं होगा। सरकार, शैक्षिक संगठन, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन, धर्माचार्य, विद्वज्जन सब मिलकर यदि चाहेंगे तो होगा। इसलिये इन सबमें प्रथम संवाद, मानसिकता और वैचारिक स्पष्टता बनानी चाहिये । यह काम भी सरल नहीं है। ये सब समानान्तर काम करने वाले लोग हैं, एकदूसरे की बात सुनने वाले कम हैं।
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१७, इनमें शैक्षिक संगठनों का काम प्रारूप बनाने का और उसे समझाने का है, धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों को अपने अनुयायियों को यह प्रयोग करने हेतु सिद्ध करने का, धर्माचार्यों को समाज की मानसिकता बनाने का, विद्वज्जनों का पर्यायी पाठ्यक्रम और पाठ्यसामग्री बनाने का और सरकार को मार्ग के सारे अवरोध दर करने का है।
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१८. उद्योगगृहों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहेगी। वह होगी अर्थकरी शिक्षा का प्रबन्ध करने की। साथ ही शिक्षा की स्वायत्तता का प्रश्न हल हो सके इस अभियान में अर्थसहाय करने की जिम्मेदारी लेनी होगी।
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१९. इनके बाद भी यह रूपरेखा बने और क्रियान्वयन के स्तर पर पहुँचे इस हेतु एक पीढी का समय जायेगा। इतना धैर्य सबको रखना ही होगा।
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२०. तब तक जो जहाँ है वहाँ अपने अपने अधिकार क्षेत्र में अपनी अपनी क्षमता के अनुसार स्वायत्तता की दिशा में कार्य करे यह आवश्यक है।
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२१. एक बार यदि शिक्षा का प्रवाह मुक्त हुआ तो स्वयं भी शुद्ध होगा और अपने साथ अनेक प्रकार का कचरा भी बहा कर ले जायेगा।
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२२. सम सम्बन्धित पक्षों को अपनी अपनी मानसिकता भी ठीक करनी होगी...
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उदाहरण के लिये शैक्षिक संगठन सोचेंगे कि सरकार आर्थिक सहायता तो करे परन्तु शैक्षिक पक्ष और नियुक्तियाँ हमें दे दे, तो यह सम्भव नहीं होगा, उचित भी नहीं होगा।
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यदि सरकार सोचे कि शिक्षा का बोझ भले ही शिक्षक तथा अन्य संगठन वहन करे, कानून और नियम तो हमारे ही रहेंगे तो वह भी न सम्भव है न उचित ।
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धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन यदि सोचे कि हम खर्च भी करेंगे, व्यवस्था भी करेंगे, अपने अपने संगठन की विचारधारा को पढायेंगे, सरकार और समाज केवल इनमें पढे विद्यार्थियों को नौकरी दे तो वह भी न सम्भव है न
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
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