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यदि सरकार सोचे कि शिक्षा का बोझ भले ही शिक्षक तथा अन्य संगठन वहन करे, कानून और नियम तो हमारे ही रहेंगे तो वह भी न सम्भव है न उचित ।
यदि सरकार सोचे कि शिक्षा का बोझ भले ही शिक्षक तथा अन्य संगठन वहन करे, कानून और नियम तो हमारे ही रहेंगे तो वह भी न सम्भव है न उचित ।
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धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन यदि सोचे कि हम खर्च भी करेंगे, व्यवस्था भी करेंगे, अपने अपने संगठन की विचारधारा को पढायेंगे, सरकार और समाज केवल इनमें पढे विद्यार्थियों को नौकरी दे तो वह भी न सम्भव है न
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धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन यदि सोचे कि हम खर्च भी करेंगे, व्यवस्था भी करेंगे, अपने अपने संगठन की विचारधारा को पढायेंगे, सरकार और समाज केवल इनमें पढे विद्यार्थियों को नौकरी दे तो वह भी न सम्भव है न उचित । विद्वज्जन यदि सोचें कि हमारी पुस्तकें लग जायेंगी, हमारे अनुसन्धान के ग्रन्थ प्रकाशित होंगे और हमें सम्मान, यश और धनप्राप्ति होगी तो यह भी उचित नहीं है, सम्भव भी नहीं है।
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सामान्य जन यदि कहे कि यह सब दिवास्वप्न है, इसमें से कुछ भी होने वाला नहीं है, तो यह भी न उचित है, न सम्भव । सबने मिलकर सामान्यजन को विश्वास दिलाना होगा कि यह सम्भव है और उचित है । तो यह सम्भव है क्योंकि इसका प्रथम लाभार्थी सामान्य जन है ।
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व्यावहारिकता के क्षेत्र में यह सबसे मूल का और
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सबसे कठिन प्रश्न है । इसे सुलझाने में अनेक अन्य छोटे मोटे प्रश्न भी सुलझाने की आवश्यकता होगी । परन्तु इसके सुलझने के बाद अनेक बडे बडे प्रश्न भी सुलझ जायेंगे।
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एक अत्यन्त प्रभावी परन्तु अत्यन्त साहसी निर्णय यदि सरकार करती है तो यह प्रश्न कदाचित जल्दी हल होगा । एक अच्छा दिन देखकर लाल किले से घोषणा करना कि कल से देश की समस्त शिक्षा संस्थायें बन्द हो जायेंगी। इसके बाद धीरे धीरे जो शैक्षिक वातावरण बनता जायेगा वह न केवल स्वायत्त होगा अपितु भारतीय भी होगा।
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=== अर्थ शिक्षाक्षेत्र को भी ग्रसित करता है ===
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अर्थार्जन हेतु शिक्षा प्रमुख शिक्षा है। अर्थव्यवस्था से परिवार विभक्त हो रहे हैं, दो पीढियाँ साथ साथ नहीं रह पाती, कहीं कहीं तो पतिपत्नी भी विभक्त हो रहे हैं।
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==== अर्थक्षेत्र के नियमन और निर्देशन के सूत्र ====
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यह बडा सांस्कृतिक संकट है। इसलिये सर्वप्रथम शिक्षा के अर्थक्षेत्र को ही व्यवस्थित करना होगा।
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शिक्षा को भारतीय बनाने हेतु स्थापित विश्वविद्यालयों ने समाज के अर्थक्षेत्र के नियमन और निर्देशन का प्रथम विचार करना चाहिये । इस दृष्टि से कुछ सूत्र इस प्रकार होंगे...
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१. समाज के प्रत्येक सक्षम व्यक्तिको अर्थार्जन करना ही चाहिये और उसे अर्थार्जन का अवसर भी मिलना चाहिये।
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२. पढ़ने वाले विद्यार्थी, पढानेवाले शिक्षक, वानप्रस्थी, संन्यासी, रोगी, धर्माचार्य, अपंग आदि लोगों को अर्थार्जन करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिये । उनके पोषण का दायित्व सरकार का नहीं अपितु परिवारजनों का होना चाहिये।
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३. अर्थार्जन करने वाले सभी लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा होनी चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थार्जन हेतु कोई किसी का नौकर नहीं होना चाहिये। किसी को नौकरी में रखना पडे इतना बडा उद्योग ही नहीं होना चाहिये । उद्योग बढाना है तो अपना परिवार बढाना चाहिये । छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं, बड़ा परिवार सुखी परिवार यह सही सूत्र है। उसी प्रकार बडा उद्योग अच्छा उद्योग नहीं, छोटा उद्योग अच्छा उद्योग यह सही सूत्र है । केवल कुछ खास काम ही ऐसे हैं जो वेतनभोगी कर्मचारियों की अपेक्षा करते हैं।
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४. अर्थार्जन या उद्योग उत्पादन केन्द्री होना चाहिये, सेवाकेन्द्री नहीं । 'सेवा' शब्द अर्थार्जन के क्षेत्र का है ही नहीं । उसका प्रयोग वहाँ करना ही नहीं चाहिये। उदाहरण के लिये शिक्षा उद्योग नहीं हो सकती, मैनेजमेण्ट सेवा नहीं हो सकता, चिकित्सा व्यवसाय नहीं हो सकता। यह धर्म के विरोधी है इसलिये मान्य नहीं है । भौतिक वस्तुओं के उत्पादन को ही अर्थक्षेत्र में केन्द्रवर्ती स्थान देना चाहिये ।
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५. भौतिक वस्तुओं के उत्पादक और उपभोक्ता के बीच कम से कम दूरी और कम से कम व्यवस्थायें होनी चाहिये । पैकिंग, संग्रह और सुरक्षा की व्यवस्था, परिवहन, बिचौलिये, वितरण की युक्ति प्रयुक्ति, विज्ञापन ये सब अनुत्पादक व्यवस्थायें हैं जो वस्तुओं की कीमतो में बिना गुणवत्ता बढे वृद्धि करती है और
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करने का है। विभिन्न शैक्षिक संगठनों, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों को यह काम
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करने के लिये सिद्ध करना होगा। १०. इस योजना में पढे लोगों को नौकरी देने की
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जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रहेगी। बाबूगीरी एकदम कम हो जायेगी। शिक्षा के साथ नौकरी वाला आर्थिक क्षेत्र भी स्वायत्त होना चाहिये । स्वायत्तता की यह योजना चरणों में होगी। नीचे की कोई शिक्षा अनिवार्य नहीं होगी परन्तु स्वास्थ्य सेवाओं, सैन्य सेवाओं तथा राजकीय सेवाओं का क्षेत्र सरकार के पास रहेगा। इस दृष्टि से सभी शाखाओं की प्रवेश परीक्षा होगी और जैसे चाहिये वैसे लोग तैयार कर लेना उन उन क्षेत्रों की जिम्मेदारी
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रहेगी। १२. अर्थक्षेत्र स्वायत्त होना आवश्यक है। हर उद्योग ने
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अपने उद्योग के लिये आवश्यक लोगों को शिक्षित
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कर लेने की सिद्धता करनी होगी। १३. शिक्षा संस्थानों को समाज से भिक्षा माँगनी पडेगी।
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प्राथमिक विद्यालय भी इसी तत्त्व पर चलेंगे। १४. इस योजना में सबसे बड़ा विरोध शिक्षक करेंगे
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क्योंकि उनकी सुरक्षा और वेतन समाप्त हो जायेंगे । शैक्षिक संगठनों को अपने बलबूते पर विद्यालय चलाने वाले शिक्षक तैयार करने पड़ेंगे। संगठनों के
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कार्यकर्ताओं को स्वयं विद्यालय शुरू करने होंगे। १५. इस देश में स्वायत्त शिक्षा के प्रयोग नहीं चल रहे हैं
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ऐसा तो नहीं है। परन्तु वे सरकारी तन्त्र के पूरक के रूप में चल रहे हैं। वे स्वायत्त चलें ऐसा मन बनाना
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चाहिये। १६. यह कार्य किसी भी एक पक्ष से होने वाला नहीं है।
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केवल सरकार चाहेगी, या संगठन चाहेंगे या शिक्षक चाहेंगे तो नहीं होगा। सरकार, शैक्षिक संगठन, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन, धर्माचार्य, विद्वज्जन सब मिलकर यदि चाहेंगे तो होगा। इसलिये इन सबमें प्रथम संवाद, मानसिकता और वैचारिक स्पष्टता बनानी चाहिये । यह काम भी सरल नहीं है। ये सब
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -