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==== शिक्षा की स्थिरता एवं स्वायत्तता ====
 
==== शिक्षा की स्थिरता एवं स्वायत्तता ====
आये दिन शिक्षाशास्त्री कहते हैं कि शिक्षा सरकार के नियन्त्रण से मुक्त होनी चाहिये । देशभर के शैक्षिक संगठन माँग कर रहे हैं कि शिक्षा सरकारी नियन्त्रण से मुक्त होनी चाहिये और स्वायत्त होनी चाहिये । ये सब कहते हैं कि आज शिक्षा बिल्कुल मुक्त नहीं है, सबकुछ सरकार के
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आये दिन शिक्षाशास्त्री कहते हैं कि शिक्षा सरकार के नियन्त्रण से मुक्त होनी चाहिये । देशभर के शैक्षिक संगठन माँग कर रहे हैं कि शिक्षा सरकारी नियन्त्रण से मुक्त होनी चाहिये और स्वायत्त होनी चाहिये । ये सब कहते हैं कि आज शिक्षा बिल्कुल मुक्त नहीं है, सबकुछ सरकार के नियन्त्रण में है । इनका तो आगे जाकर कहना है कि सरकार राजकीय पक्षों की बनती है, राजकीय पक्ष विभिन्न विचारधाराओं वाले होते हैं इसलिये जैसे ही सरकार बनाने वाला पक्ष बदलता है शिक्षा के मार्गदर्शक और नियामक तत्त्व भी बदलते हैं। नीतियाँ बदलती हैं, योजनायें बदलती हैं, व्यवस्थायें बदलती हैं, व्यक्ति भी बदलते हैं। कभी तो उसी पक्ष की सरकार पुनः बने परन्तु मन्त्री परिषद बदल जाय तब भी सीधा शिक्षा पर परिणाम होता है। ऐसे में स्थिरता कैसे बनेगी ? शिक्षा जैसे क्षेत्र में यदि स्थिरता नहीं रही तो समाज भी कैसे स्थिर बनकर प्रगति कर सकता है?
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यह एक छोर है। दूसरे छोर पर स्थिति कैसी है ? सरकार का दावा है कि शिक्षा की सारी संस्थायें स्वायत्त हैं। युजीसी, उसके साथ सम्बन्धित मान्यता देनेवाली संस्थायें, सभी प्रबन्धन संस्थान, विज्ञान संस्थान, तन्त्रज्ञान के संस्थान, अनुसन्धान संस्थान स्वायत्त हैं। सारे विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं। सारे शिक्षा बोर्ड, परीक्षा बोर्ड, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक बनाने वाले बोर्ड स्वायत्त हैं । इन सभी संस्थानों, बोर्डों, परिषदों एवं विश्वविद्यालयों की रचना के लिये कानून बन जाने के बाद उन्हें स्वायत्त बना दिया जाता है। सरकार उनके काम में दखल नहीं करती। उल्टे उन्हें पूर्ण आर्थिक सहायता करती है। और क्या चाहिये । उनके द्वारा दिये जाने वाले प्रमाणपत्रों पर सरकार के किसी भी अधिकारी के हस्ताक्षर नहीं होते, कुलपति के ही होते हैं।
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कुछ बुद्धिमान और वास्तववादी लोग कहते हैं कि सरकारी नियन्त्रण यदि नहीं रहा तो अराजक फैल जायेगा। हमारे देश में इतने अलग अलग प्रकार के समूह हैं, इतने विभिन्न सम्प्रदाय और विचारधारायें हैं, इतने अलग अलग निहित स्वार्थ हैं कि यदि नियन्त्रण नहीं रहा तो अपनी मर्जी के मालिक बन जायेंगे और शिक्षा का तो कोई स्तर ही नहीं रहेगा इसलिये नियन्त्रण तो चाहिये ।
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==== स्वायत्तता की वस्तुस्थिति ====
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इतने विभिन्न दावों में वस्तुस्थिति क्या है ?
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मुख्य रूप से दो बातें दिखाई देती हैं।
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१. सरकार दावा करती है ऐसी स्वायत्तता नहीं है । कार्य करने का दायित्व और हस्ताक्षर करने का अधिकार भले ही उस संस्थान के निदेशक का हो तो भी सर्वोच्च अधिकार सरकार के पास है। उदाहरण के लिये सभी राज्यस्तरीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति राज्यपाल और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति राष्ट्रपति होते हैं। सभी कुलपतियों की नियुक्तियाँ मन्त्री परिषद की अनुशंसा से राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति करते हैं। सभी शिक्षा बोर्डों के अध्यक्ष, सचिव आदि सरकार के मन्त्री और सचिव होते हैं। सभी विश्वविद्यालयों के कार्यकारी मण्डल और सेनेट में चुनाव द्वारा आये हुए अथवा सरकार द्वारा नियुक्त लोग होते हैं। इसके बाद कोई भी संस्थान स्वायत्त कैसे हो सकता है ? इन संस्थानों को स्वायत्त अवश्य कहा जाता है। यह स्वायत्तता केवल आन्तरिक होती है, सम्पूर्ण नहीं ।
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दूसरा मुद्दा यह है कि पाठ्य पुस्तकें और पाठ्यक्रम निर्मिति में विश्वविद्यालयों के अभ्यास मण्डल और पाठ्यपुस्तक मण्डल जो कर सकते हैं वह भी वे करते नहीं है क्योंकि अध्ययन की परम्परा और उत्साह दोनों नष्ट हो चुके हैं, इसलिये पढाने की स्वतन्त्रता होने पर भी कोई पढाता नहीं है, बाध्यता होने पर भी पढाता नहीं है। इसलिये शिक्षा को मुक्त करो यह बात तो ठीक है लेकिन मुक्त होकर शिक्षा क्या करेगी यह भी एक बड़ा प्रश्न है।
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कल्पना करें कि एक अच्छा मुहूर्त देखकर सरकारने शिक्षा को मुक्त कर दिया और कह दिया कि जो करना है सो करो, कोई आपको रोकेगा नहीं, टोकेगा नहीं। तो क्या स्थिति होगी ? सरकार पाठ्यपुस्तकें नहीं देगी, पाठ्यक्रम नहीं देगी। सरकार नियुक्ति नहीं करेगी, बढोतरी नहीं करेगी। सरकार मान्यता देने वाली सारी संस्थायें बन्द कर देगी क्योंकि अब किसी को सरकारी मान्यता की आवश्यकता नहीं रहेगी। सरकार अपनी सांविधानिक बाध्यता के अनुसार प्राथमिक विद्यालय चलायेगी। एक दिन संविधान में बदल कर इस बाध्यता को भी समाप्त कर देगी। सरकारी विद्यालय भी बन्द हो जायेंगे। फिर क्या होगा?
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
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