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सबसे बड़ी अनवस्था हुई है व्यवसाय के क्षेत्र में। ब्राह्मण का काम पढ़ाने का है। पैसे लेकर पढ़ाने वाले ब्राह्मण को ज्ञान का व्यापार करने वाला वणिज कहा गया है। आज ब्राह्मण पैसे लेकर पढ़ाता है। उसने वैश्यवृत्ति को स्वीकार कर लिया है। उससे भी आगे वह पढ़ाने का स्वतन्त्र व्यवसाय नहीं करता है। वह नौकरी करता है । नौकरी करना शूद्र का काम है। ब्राह्मण ने आज शुूद्र होना भी स्वीकार कर लिया है । उसने अपनी तो हानि की ही है, परन्तु ज्ञान की पवित्रता भी नष्ट कर दी है । उसके नौकर होने के कारण से विद्या का गौरव नष्ट हुआ है । जिस समाज में विद्या, स्वाध्याय, पवित्रता, शुद्धता नहीं रहती है उस समाज की अधोगति होना स्वाभाविक है । ब्राह्मण के वणिज होने के कारण से समाज ज्ञाननिष्ठ के स्थान पर अर्थनिष्ठ हो गया है। पवित्रता नहीं रहने से समाज भोगप्रधान और कामप्रधान हो गया है। भोगप्रधानता केवल ब्राह्मण वर्ग में ही है ऐसा नहीं है। चारों वर्णों का पूरा समाज ही भोगप्रधान बन गया है, परन्तु इसमें ब्राह्मण का दायित्व सबसे बड़ा है क्योंकि संसार का नियम है कि जैसा बड़े और श्रेष्ठ करते हैं वैसा ही कनिष्ठ करते हैं। सामान्य लोगों को बड़ों का आचरण ही प्रेरक और मार्गदर्शक होता है । ब्राह्मणों ने यदि ज्ञान की श्रेष्ठता नहीं रखी तो और लोग क्या करेंगे? वे तो उनका अनुसरण ही करेंगे । अतः श्रेष्ठों के पतन से सारे समाज का पतन होता है ।
 
सबसे बड़ी अनवस्था हुई है व्यवसाय के क्षेत्र में। ब्राह्मण का काम पढ़ाने का है। पैसे लेकर पढ़ाने वाले ब्राह्मण को ज्ञान का व्यापार करने वाला वणिज कहा गया है। आज ब्राह्मण पैसे लेकर पढ़ाता है। उसने वैश्यवृत्ति को स्वीकार कर लिया है। उससे भी आगे वह पढ़ाने का स्वतन्त्र व्यवसाय नहीं करता है। वह नौकरी करता है । नौकरी करना शूद्र का काम है। ब्राह्मण ने आज शुूद्र होना भी स्वीकार कर लिया है । उसने अपनी तो हानि की ही है, परन्तु ज्ञान की पवित्रता भी नष्ट कर दी है । उसके नौकर होने के कारण से विद्या का गौरव नष्ट हुआ है । जिस समाज में विद्या, स्वाध्याय, पवित्रता, शुद्धता नहीं रहती है उस समाज की अधोगति होना स्वाभाविक है । ब्राह्मण के वणिज होने के कारण से समाज ज्ञाननिष्ठ के स्थान पर अर्थनिष्ठ हो गया है। पवित्रता नहीं रहने से समाज भोगप्रधान और कामप्रधान हो गया है। भोगप्रधानता केवल ब्राह्मण वर्ग में ही है ऐसा नहीं है। चारों वर्णों का पूरा समाज ही भोगप्रधान बन गया है, परन्तु इसमें ब्राह्मण का दायित्व सबसे बड़ा है क्योंकि संसार का नियम है कि जैसा बड़े और श्रेष्ठ करते हैं वैसा ही कनिष्ठ करते हैं। सामान्य लोगों को बड़ों का आचरण ही प्रेरक और मार्गदर्शक होता है । ब्राह्मणों ने यदि ज्ञान की श्रेष्ठता नहीं रखी तो और लोग क्या करेंगे? वे तो उनका अनुसरण ही करेंगे । अतः श्रेष्ठों के पतन से सारे समाज का पतन होता है ।
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ब्राह्मणों ने विद्या को तो पण्य अर्थात्‌ व्यापार की वस्तु बना दी है । परन्तु उनका आर्थिक क्षेत्र का अपराध इतना ही नहीं है । उन्होंने अपना व्यवसाय छोड़कर दूसरे वर्णों के व्यवसाय ले लिये । आज ब्राह्मण नौकरी भी करता है, दुकान भी चलाता है, कारख़ाना भी चलाता है, मजदूरी भी करता है । इससे उसे तो अथर्जिन के अच्छे अवसर मिल जाते हैं । जो तपश्चर्या छोड़ देता है उसकी सांस्कारिक या आध्यात्मिक हानि होती है परन्तु जिनके व्यवसाय छिन जाते हैं उनकी तो सभी प्रकार की हानि होती है । ज्ञान और संस्कार के क्षेत्र में मार्गदर्शक नहीं रहने से सांस्कारिक हानि भी होती है और व्यवसाय छिन जाने से आर्थिक या भौतिक हानि होती है ।
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ब्राह्मणों ने विद्या को तो पण्य अर्थात्‌ व्यापार की वस्तु बना दी है । परन्तु उनका आर्थिक क्षेत्र का अपराध इतना ही नहीं है । उन्होंने अपना व्यवसाय छोड़कर दूसरे वर्णों के व्यवसाय ले लिये । आज ब्राह्मण नौकरी भी करता है, दुकान भी चलाता है, कारख़ाना भी चलाता है, मजदूरी भी करता है । इससे उसे तो अर्थार्जन के अच्छे अवसर मिल जाते हैं । जो तपश्चर्या छोड़ देता है उसकी सांस्कारिक या आध्यात्मिक हानि होती है परन्तु जिनके व्यवसाय छिन जाते हैं उनकी तो सभी प्रकार की हानि होती है । ज्ञान और संस्कार के क्षेत्र में मार्गदर्शक नहीं रहने से सांस्कारिक हानि भी होती है और व्यवसाय छिन जाने से आर्थिक या भौतिक हानि होती है ।
    
परम्परा से ब्राह्मण की श्रेष्ठता रही है । उसका क्षेत्र ज्ञान का रहा है । वह सबका मार्गदर्शक और प्रेरक रहा है । वह ज्ञान का उपासक रहा है । इसलिये वह जब अपने स्थान से च्युत होता है तब उसे मार्गदर्शन करने वाला या उसे रोकने वाला कोई नहीं रहता है । उसे अपने से नीचे के स्तर के सभी लाभ मिल जाते हैं । स्थिति ऐसी होती है कि उसका मूल काम तो कोई नहीं कर सकता पर वह दूसरों का काम कर सकता है ।
 
परम्परा से ब्राह्मण की श्रेष्ठता रही है । उसका क्षेत्र ज्ञान का रहा है । वह सबका मार्गदर्शक और प्रेरक रहा है । वह ज्ञान का उपासक रहा है । इसलिये वह जब अपने स्थान से च्युत होता है तब उसे मार्गदर्शन करने वाला या उसे रोकने वाला कोई नहीं रहता है । उसे अपने से नीचे के स्तर के सभी लाभ मिल जाते हैं । स्थिति ऐसी होती है कि उसका मूल काम तो कोई नहीं कर सकता पर वह दूसरों का काम कर सकता है ।
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आज यदि किसी वर्ण का बोलबाला है तो वह है वैश्य वर्ण । पूरा समाज अर्थाधिष्टित हो गया है । सभी वर्णों के लोग अपने अपने वर्णधर्म को छोड़कर वैश्यवृत्ति ही अपनाने लगे हैं। शिक्षक का ज्ञान, चिकित्सक की चिकित्सा, पुरोहित का पौरोहित्य सब वैश्यवृत्ति के अधीन हो गया है ।
 
आज यदि किसी वर्ण का बोलबाला है तो वह है वैश्य वर्ण । पूरा समाज अर्थाधिष्टित हो गया है । सभी वर्णों के लोग अपने अपने वर्णधर्म को छोड़कर वैश्यवृत्ति ही अपनाने लगे हैं। शिक्षक का ज्ञान, चिकित्सक की चिकित्सा, पुरोहित का पौरोहित्य सब वैश्यवृत्ति के अधीन हो गया है ।
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वैश्य वास्तव में समाज का पोषण करने वाला होता है। परन्तु उसने यह दायित्व छोड़ दिया है । वह अपनी कमाई की सोचता है, समाज की आवश्यकताओं का विचार नहीं करता है । अथर्जिन के क्षेत्र में, उत्पादन के क्षेत्र में और वितरण के क्षेत्र में आज अनेक प्रकार से विपरीत परिस्थिति पैदा हो गई है । वास्तव में वैश्य वर्ण को इस बात की चिन्ता करनी चाहिये पर वह नहीं करता है।  
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वैश्य वास्तव में समाज का पोषण करने वाला होता है। परन्तु उसने यह दायित्व छोड़ दिया है । वह अपनी कमाई की सोचता है, समाज की आवश्यकताओं का विचार नहीं करता है । अर्थार्जन के क्षेत्र में, उत्पादन के क्षेत्र में और वितरण के क्षेत्र में आज अनेक प्रकार से विपरीत परिस्थिति पैदा हो गई है । वास्तव में वैश्य वर्ण को इस बात की चिन्ता करनी चाहिये पर वह नहीं करता है।  
    
समाज के पोषण के लिये अन्न को सबसे अधिक महत्त्व देना चाहिये । इसलिये कृषि सबसे प्रमुख उद्योग बनना चाहिये । परन्तु आज सब कृषि से कतराते हैं । कृषकों की संख्या धीरे धीरे कम हो रही है । यान्त्रिकीकरण के चलते कृषि अब कृषकों के लिये कठिन भी हो गई है । रासायनिक खाद, कीटनाशक और यन्त्र तीनों ने मिलकर कृषि को, कृषि के साथ कृषक को और अन्न की आवश्यकता है ऐसे समाज को गहरे संकट में डाल दिया है। रासायनिक खाद से भूमि रसहीन बन रही है, महँगे खाद और यन्त्रों के कारण कृषक बरबाद हो रहा है और प्रजा को दूषित अन्न, सागसब्जी और फल खाने पड रहे हैं, इसलिये उसके स्वास्थ्य का संकट पैदा हो गया है । कृषि ट्रेक्टर जैसे यन्त्रों से होने के कारण गोवंश की हत्या हो रही है । सांस्कृतिक संकट इससे बढ़ता है, प्रजा पाप की भागी बनती है । आहार से शरीर, मन, बुद्धि, चित्त सभी प्रभावित होते हैं।
 
समाज के पोषण के लिये अन्न को सबसे अधिक महत्त्व देना चाहिये । इसलिये कृषि सबसे प्रमुख उद्योग बनना चाहिये । परन्तु आज सब कृषि से कतराते हैं । कृषकों की संख्या धीरे धीरे कम हो रही है । यान्त्रिकीकरण के चलते कृषि अब कृषकों के लिये कठिन भी हो गई है । रासायनिक खाद, कीटनाशक और यन्त्र तीनों ने मिलकर कृषि को, कृषि के साथ कृषक को और अन्न की आवश्यकता है ऐसे समाज को गहरे संकट में डाल दिया है। रासायनिक खाद से भूमि रसहीन बन रही है, महँगे खाद और यन्त्रों के कारण कृषक बरबाद हो रहा है और प्रजा को दूषित अन्न, सागसब्जी और फल खाने पड रहे हैं, इसलिये उसके स्वास्थ्य का संकट पैदा हो गया है । कृषि ट्रेक्टर जैसे यन्त्रों से होने के कारण गोवंश की हत्या हो रही है । सांस्कृतिक संकट इससे बढ़ता है, प्रजा पाप की भागी बनती है । आहार से शरीर, मन, बुद्धि, चित्त सभी प्रभावित होते हैं।
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# शास्त्रीय अध्ययन हेतु आवश्यक आचारों की शिक्षा उसे घर में ही प्राप्त होनी चाहिए क्योंकि वह घर में ही प्राप्त हो सकती है । शास्त्रों की शिक्षा उसे गुरुकुल में प्राप्त हो सकती है । गुरुकुल यदि आवासीय है तो वह गुरुगृहवास है इसलिए आचार की शिक्षा उसे वहाँ भी प्राप्त हो सकती है।
 
# शास्त्रीय अध्ययन हेतु आवश्यक आचारों की शिक्षा उसे घर में ही प्राप्त होनी चाहिए क्योंकि वह घर में ही प्राप्त हो सकती है । शास्त्रों की शिक्षा उसे गुरुकुल में प्राप्त हो सकती है । गुरुकुल यदि आवासीय है तो वह गुरुगृहवास है इसलिए आचार की शिक्षा उसे वहाँ भी प्राप्त हो सकती है।
 
# ब्राह्मण को पौरोहित्य करना होता है । इसलिए मंत्रों का उच्चारण और गान, यज्ञ की विधि, संस्कारों की विधि, विभिन्न पूजाओं की विधि उसे सीखनी है। संस्कारों के सारे कर्मकांड आज की तरह समाज में बिना समझे किए जाते हैं ऐसी स्थिति न रहे इस दृष्टि से उसे अध्ययन करना है और पौरोहित्य करना है।
 
# ब्राह्मण को पौरोहित्य करना होता है । इसलिए मंत्रों का उच्चारण और गान, यज्ञ की विधि, संस्कारों की विधि, विभिन्न पूजाओं की विधि उसे सीखनी है। संस्कारों के सारे कर्मकांड आज की तरह समाज में बिना समझे किए जाते हैं ऐसी स्थिति न रहे इस दृष्टि से उसे अध्ययन करना है और पौरोहित्य करना है।
# शास्त्रों के अध्ययन के साथ साथ उसे अध्यापन भी करना है इसलिए अध्यापन शास्त्र की शिक्षा भी उसे प्राप्त करनी चाहिए । पारम्परिक रूप में उसे अध्यापन या पौरोहित्य को अथर्जिन का विषय नहीं बनाना है । यह केवल प्राचीन काल में ही सम्भव था ऐसा नहीं है । आज के समय में भी उसे सम्भव बनाना है । सादगी, संयम और तपश्चर्या विवशता नहीं है, चरित्र का उन्नयन है, यह विश्वास समाज में जागृत करना और प्रतिष्ठित करना उसका काम है । इसके लिए समाज पर भरोसा रखने की आवश्यकता होती है।
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# शास्त्रों के अध्ययन के साथ साथ उसे अध्यापन भी करना है इसलिए अध्यापन शास्त्र की शिक्षा भी उसे प्राप्त करनी चाहिए । पारम्परिक रूप में उसे अध्यापन या पौरोहित्य को अर्थार्जन का विषय नहीं बनाना है । यह केवल प्राचीन काल में ही सम्भव था ऐसा नहीं है । आज के समय में भी उसे सम्भव बनाना है । सादगी, संयम और तपश्चर्या विवशता नहीं है, चरित्र का उन्नयन है, यह विश्वास समाज में जागृत करना और प्रतिष्ठित करना उसका काम है । इसके लिए समाज पर भरोसा रखने की आवश्यकता होती है।
 
# शास्त्रों को युगानुकूल बनाने हेतु व्यावहारिक अनुसन्धान करना उसका काम है । यह भी उसकी शिक्षा का प्रमुख हिस्सा है।
 
# शास्त्रों को युगानुकूल बनाने हेतु व्यावहारिक अनुसन्धान करना उसका काम है । यह भी उसकी शिक्षा का प्रमुख हिस्सा है।
 
# वर्तमान सन्दर्भ में इसे उच्च शिक्षा कहते हैं । उच्च शिक्षा के दो प्रमुख आयाम तत्त्वचिन्तन और अनुसन्धान हैं । आज ये दोनों बातें कोई भी करता है। केवल ब्राह्मण ही करे इस बात का सार्वत्रिक विरोध होगा । हम कह सकते हैं कि जो भी आचार विचार में, आहार विहार में शुद्धता और पवित्रता रख सकता है, संयम और सादगी अपना सकता है, तपश्चर्या कर सकता है, विद्याप्रीति, ज्ञाननिष्ठा और ज्ञान कि श्रेष्ठता और पवित्रता हेतु कष्ट सह सकता है और अपने निर्वाह के लिए समाज पर भरोसा कर सकता है वही उच्च शिक्षा का अधिकारी है । वह किसी भी वर्ण में जन्मा हो तो भी ब्राह्मण ही है। आज शिक्षाक्षेत्र में ऐसे लोग ही नहीं हैं यही समाज कि दुर्गति का कारण है । स्वाभाविक है कि ऐसे लोग संख्या में कम ही होंगे परन्तु कम संख्या में भी उनका होना अनिवार्य है । अपने आपको ब्राह्मण कहलाने वाले लोगों को सही अर्थ में ब्राह्मण बनना चाहिए |
 
# वर्तमान सन्दर्भ में इसे उच्च शिक्षा कहते हैं । उच्च शिक्षा के दो प्रमुख आयाम तत्त्वचिन्तन और अनुसन्धान हैं । आज ये दोनों बातें कोई भी करता है। केवल ब्राह्मण ही करे इस बात का सार्वत्रिक विरोध होगा । हम कह सकते हैं कि जो भी आचार विचार में, आहार विहार में शुद्धता और पवित्रता रख सकता है, संयम और सादगी अपना सकता है, तपश्चर्या कर सकता है, विद्याप्रीति, ज्ञाननिष्ठा और ज्ञान कि श्रेष्ठता और पवित्रता हेतु कष्ट सह सकता है और अपने निर्वाह के लिए समाज पर भरोसा कर सकता है वही उच्च शिक्षा का अधिकारी है । वह किसी भी वर्ण में जन्मा हो तो भी ब्राह्मण ही है। आज शिक्षाक्षेत्र में ऐसे लोग ही नहीं हैं यही समाज कि दुर्गति का कारण है । स्वाभाविक है कि ऐसे लोग संख्या में कम ही होंगे परन्तु कम संख्या में भी उनका होना अनिवार्य है । अपने आपको ब्राह्मण कहलाने वाले लोगों को सही अर्थ में ब्राह्मण बनना चाहिए |

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