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शूद्र वस्तुओं का सृजन करता है। वैश्य उसकी व्यवस्था करता है। दोनों मिलकर समाज को समृद्ध बनाते हैं । इस दृष्टि से शूद्र वर्ण का महत्त्व अत्यधिक है । कोई भी समाज शूद्र वर्ण के बिना जी ही नहीं सकता । फिर भी शूद्र वर्ण को नीचा मानना यह अत्यन्त बेतुकी बात है । पर हमारे समाज ने ऐसा किया और शूद्र वर्ण को बहुत अपमानित किया। इसके परिणाम बहुत घातक हुए हैं। हमने फिर उसमें अस्पृश्यता का प्रश्न जोड़ दिया। इससे तो मामला बहुत उलझ गया । इसकी चर्चा पूर्व में हुई है इसलिये अभी पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है।
 
शूद्र वस्तुओं का सृजन करता है। वैश्य उसकी व्यवस्था करता है। दोनों मिलकर समाज को समृद्ध बनाते हैं । इस दृष्टि से शूद्र वर्ण का महत्त्व अत्यधिक है । कोई भी समाज शूद्र वर्ण के बिना जी ही नहीं सकता । फिर भी शूद्र वर्ण को नीचा मानना यह अत्यन्त बेतुकी बात है । पर हमारे समाज ने ऐसा किया और शूद्र वर्ण को बहुत अपमानित किया। इसके परिणाम बहुत घातक हुए हैं। हमने फिर उसमें अस्पृश्यता का प्रश्न जोड़ दिया। इससे तो मामला बहुत उलझ गया । इसकी चर्चा पूर्व में हुई है इसलिये अभी पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है।
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भले ही अपने आपको ब्राह्मण कहें और शूद्र न कहें तो भी ब्राह्मणों ने अपने आपको शुद्र ही बना दिया है। आर्थिक सुरक्षा यह शूद्रों का अधिकार है। आज ब्राह्मण भी आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार शूद्र जैसा है। _आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़ दिया है। मान्यता ऐसी है कि शूद्र गरीब, दलित और शोषित ही होते हैं । वास्तविकता इससे भिन्न है । शूद्र कारीगर होते हैं । वे वस्तुओं का सृजन करते हैं। कारीगर हमेशा समृद्ध ही होता है । कारीगरों से ही समाज समृद्ध बनता है।  
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भले ही अपने आपको ब्राह्मण कहें और शूद्र न कहें तो भी ब्राह्मणों ने अपने आपको शुद्र ही बना दिया है। आर्थिक सुरक्षा यह शूद्रों का अधिकार है। आज ब्राह्मण भी आर्थिक सुरक्षा ही खोजते हैं । इसलिये भी उनका व्यवहार शूद्र जैसा है। _आरक्षण के मामले ने भी समाज का सन्तुलन बिगाड़ दिया है। मान्यता ऐसी है कि शूद्र गरीब, दलित और शोषित ही होते हैं । वास्तविकता इससे भिन्न है । शूद्र कारीगर होते हैं । वे वस्तुओं का सृजन करते हैं। कारीगर सदा समृद्ध ही होता है । कारीगरों से ही समाज समृद्ध बनता है।  
    
इतिहास में प्रमाण मिलते हैं कि भारत कारीगरी के क्षेत्र में विश्व में अनन्य साधारण स्थान रखता था । लोहे का निर्माण हो या सिमेण्ट का, वस्त्र का निर्माण हो या आभूषणों का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था। यह प्रतिष्ठा शूद्रों के कारण ही थी। परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते कारीगरों ने अपने आपको शूद्र कहलाना बन्द कर दिया । आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। इन्होंने भी आर्थिक सुरक्षा की लालच में इसको स्वीकार कर लिया है । परन्तु यह शब्दावली ही बड़ी गड़बड़ है। भारत में वर्गों को लेकर कभी अगड़ा या पिछड़ा जैसा वर्गीकरण नहीं हुआ है, न अवर्ण और सवर्ण का । नीतिनिर्धारकों की उलटी समझ ने ये शब्द प्रयुक्त किये और निरर्थक और अनर्थक विखवाद और विवाद खड़े कर दिये । सभी वर्गों का अपना अपना दायित्व होता है और उसके अनुसार इसका महत्त्व भी होता है । जिस प्रकार ब्राह्मण वर्ण ज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत है उसी प्रकार शूद्र वर्ण भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत है। जिस प्रकार ज्ञान के बिना नहीं चलता उसी प्रकार भौतिक वस्तुओं के बिना भी नहीं चलता है। दोनों अनिवार्य हैं। दोनों का समान महत्त्व है। एक समृद्धि का क्षेत्र है, दूसरा संस्कृति का । समृद्धि और संस्कृति साथ ही साथ रहने चाहिये। तभी अच्छा समाजजीवन सम्भव है । इस तथ्य को भूलने और भुलाने के कारण बहुत अनर्थ हुआ है । हमें अब इस अनर्थ को समाप्त कर पुन: सुस्थिति लाने का प्रयास करना चाहिये ।
 
इतिहास में प्रमाण मिलते हैं कि भारत कारीगरी के क्षेत्र में विश्व में अनन्य साधारण स्थान रखता था । लोहे का निर्माण हो या सिमेण्ट का, वस्त्र का निर्माण हो या आभूषणों का, वस्तु का निर्माण हो या औजारों का, भारत के कारीगरों ने विश्व में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया था। यह प्रतिष्ठा शूद्रों के कारण ही थी। परन्तु अस्पृश्यता के प्रश्न के चलते कारीगरों ने अपने आपको शूद्र कहलाना बन्द कर दिया । आज अब आरक्षण की नीति में इन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग कहा जाता है। इन्होंने भी आर्थिक सुरक्षा की लालच में इसको स्वीकार कर लिया है । परन्तु यह शब्दावली ही बड़ी गड़बड़ है। भारत में वर्गों को लेकर कभी अगड़ा या पिछड़ा जैसा वर्गीकरण नहीं हुआ है, न अवर्ण और सवर्ण का । नीतिनिर्धारकों की उलटी समझ ने ये शब्द प्रयुक्त किये और निरर्थक और अनर्थक विखवाद और विवाद खड़े कर दिये । सभी वर्गों का अपना अपना दायित्व होता है और उसके अनुसार इसका महत्त्व भी होता है । जिस प्रकार ब्राह्मण वर्ण ज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत है उसी प्रकार शूद्र वर्ण भौतिक उत्पादन के क्षेत्र में कार्यरत है। जिस प्रकार ज्ञान के बिना नहीं चलता उसी प्रकार भौतिक वस्तुओं के बिना भी नहीं चलता है। दोनों अनिवार्य हैं। दोनों का समान महत्त्व है। एक समृद्धि का क्षेत्र है, दूसरा संस्कृति का । समृद्धि और संस्कृति साथ ही साथ रहने चाहिये। तभी अच्छा समाजजीवन सम्भव है । इस तथ्य को भूलने और भुलाने के कारण बहुत अनर्थ हुआ है । हमें अब इस अनर्थ को समाप्त कर पुन: सुस्थिति लाने का प्रयास करना चाहिये ।

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