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पूर्व के [[लोक शिक्षा के माध्यम|अध्याय]] में हमने लोकशिक्षा के माध्यमों का उल्लेख किया।
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पूर्व के [[लोक शिक्षा के माध्यम|अध्याय]] में हमने लोकशिक्षा के माध्यमों का उल्लेख किया<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>।
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... होता है यह निश्चित करता है मानस कैसा बनेगा । उदाहरण
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.''.. होता है यह निश्चित करता है मानस कैसा बनेगा । उदाहरण''
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उल्लेख किया । अब विचार यह करना है कि माध्यम कितने. के लिये उत्तम वक्तृत्वशैली और प्रभावी व्यक्तित्व के
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''उल्लेख किया । अब विचार यह करना है कि माध्यम कितने. के लिये उत्तम वक्तृत्वशैली और प्रभावी व्यक्तित्व के''
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भी प्रभावी हों तो भी लोकशिक्षा की विषयवस्तु कया है इस. करिश्मा से लोगों की भावनाओं को भड़काकर तोड़फोड भी
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''भी प्रभावी हों तो भी लोकशिक्षा की विषयवस्तु कया है इस. करिश्मा से लोगों की भावनाओं को भड़काकर तोड़फोड भी''
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के ऊपर ही निर्भर करता है कि लोक कैसा होगा ?. करवाई जा सकती है और सेवा के काम, देश के लिये
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''के ऊपर ही निर्भर करता है कि लोक कैसा होगा ?. करवाई जा सकती है और सेवा के काम, देश के लिये''
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उदाहरण के लिये विज्ञापन मानस को तत्काल प्रभावित. त्याग भी करने को प्रेरित किया जा सकता है । प्रचार के
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''उदाहरण के लिये विज्ञापन मानस को तत्काल प्रभावित. त्याग भी करने को प्रेरित किया जा सकता है । प्रचार के''
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करने वाला एक सशक्त माध्यम है । वह निरन्तर चलाया... माध्यम से “छोटा परिवार सुखी परिवार' या “बड़ा परिवार
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''करने वाला एक सशक्त माध्यम है । वह निरन्तर चलाया... माध्यम से “छोटा परिवार सुखी परिवार' या “बड़ा परिवार''
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जाय तो मानस में गहरा भी बैठता है । परन्तु किस पदार्थ. सुखी परिवार' दोनों बातें मानस में बिठाई जा सकती हैं ।
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''जाय तो मानस में गहरा भी बैठता है । परन्तु किस पदार्थ. सुखी परिवार' दोनों बातें मानस में बिठाई जा सकती हैं ।''
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या विचार का विज्ञापन है और किस रूप में वह प्रस्तुत इसलिये माध्यमों से भी अधिक लोकशिक्षा की विषयवस्तु
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''या विचार का विज्ञापन है और किस रूप में वह प्रस्तुत इसलिये माध्यमों से भी अधिक लोकशिक्षा की विषयवस्तु''
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का विचार करना चाहिये । इसका
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का विचार करना चाहिये । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है
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विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है
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== लोकशिक्षा धर्मप्रधान है ==
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यह सबसे अहम‌ बात है । समाज को अच्छा बनाने  शिक्षा की सर्वप्रथम आवश्यकता है । व्यक्तिगत रूप से अच्छा बनने की शिक्षा सज्जन व्यक्तियों का निर्माण तो करती है परन्तु अच्छाई की सामुदायिक शिक्षा की भी आवश्यकता होती है । अनेक बातें ऐसी होती हैं जो अकेले में सीखी नहीं जातीं । उदाहरण के लिये संगठित होकर, एक समूह बनकर किसी बड़े संकल्प को सिद्ध करने का कार्य सामुदायिक शिक्षा से ही सम्भव है । अतः समाज को अन्य प्रकार की शिक्षा देने से पहले सज्जन बनने की शिक्षा देने की आवश्यकता है। सज्जन बनने की शिक्षा ही धर्मशिक्षा है। सज्जनता में मनुष्य के मनुष्य के प्रति, व्यक्तिगत स्तर पर व्यवहार, मनुष्य को समस्त मानव समुदाय के प्रति व्यवहार, मनुष्य के सृष्टि के प्रति व्यवहार और मनुष्य के परमेष्ठी के प्रति व्यवहार का समावेश होता है। अतः दान, सेवा, यज्ञ, प्रेम आदि की शिक्षा लोकशिक्षा का आधारभूत पाठ्यक्रम है । सदाब्रतों, प्याऊ, नदियों पर घाट, धर्मशाला, मन्दिर, बगीचे आदि बनवाने की प्रेरणा देना लोकशिक्षा है । आज इसकी सम्यक्‌ शिक्षा के अभाव में ये सारे काम सरकार की जिम्मेदारी बन गये हैं। वास्तव में सज्जन समाज को इन सभी बातों की जिम्मेदारी लेकर सरकार को दायित्व से मुक्त करना चाहिए, यह समाज की स्वायत्तता है। भारतीय समाज हमेशा स्वायत्त समाज रहा है । समाज की सज्जनता के सूत्रसंचालक धर्माचार्य ही होते हैं । छोटे गाँव में भी पुरोहित होता है जो इन बातों का नियमन और निर्देशन करता है । राजा और राजकुल का पुरोहित होता है जो राजा के प्रजा के प्रति धर्म की सुरक्षा करता है । मठपति, संन्यासी, साधु, सन्त सभी समाज को धर्मप्रवण बनने का उपदेश देते हैं, साथ ही समाजसेवा के कार्यों का निर्देशन भी करते हैं। कर्तव्यधर्म और सम्प्रदायधर्म दोनों का निर्दशन धर्माचार्य ही करते हैं ।
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, लोकशिक्षा धर्मप्रधान है
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समाज यदि धर्मशील नहीं है तो धर्माचार्यों का प्रभाव कम हुआ है और अधर्म का बढ़ा है यही कहना चाहिये । अतः लोकशिक्षा हेतु धर्माचार्यों को समर्थ बनना चाहिये । लोकमानस को प्रभावित करने की शक्ति ही सामर्थ्य है । लोकमानस को तत्काल प्रभावित करना और लोकमानस को संस्कारित कर अच्छा बनने की दिशा में परिवर्तित करना भिन्न बातें हैं । करिश्माई व्यक्तित्व से, आकर्षक प्रस्तुति से, वाकचातुरी से मानस को प्रभावित करना सरल है । विज्ञापन, चुनावी भाषण, नकली सन्त आदि लोगों के ये तरीके होते हैं । समाज को बहकाना, दिग्श्रमित करना, अपना कार्य साध लेना आदि इनके काम होते हैं । इनसे तत्काल प्रयोजन तो सिद्ध हो जाते हैं परन्तु यह शिक्षा नहीं है, यह छल है
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यह सबसे अहम्‌ बात है । समाज को अच्छा बनाने
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लोकमानस पर सही प्रभाव होता है सच्चरित्र का, तप का, सद्भाव का, त्याग का । इसलिये तपस्वी संन्यासी लोकशिक्षा का काम उत्तम पद्धति से कर सकते हैं । धर्मतत्त्व को केवल जानने से प्रभाव निर्माण नहीं होता, उसके आचरण से सामर्थ्य प्राप्त होता है । वास्तव में धर्माचरणी को ही धर्माचार्य कहा जाता है । समाज में यदि सामर्थ्यवान धर्माचार्य नहीं होते हैं तो समाज की दुर्गति होती है ।
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की शिक्षा की सर्वप्रथम आवश्यकता है । व्यक्तिगत रूप से
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== वर्तमान समस्याओं के बारे में कर्तव्यविचार ==
 
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कभी कभी, अथवा अधिकांश, एसा होता है कि व्यक्ति अपने आप में सज्जन होता है, अन्य व्यक्तियों के साथ सज्जनता से ही व्यवहार करना है, नीतिमान और सदूभावनापूर्ण होता है तो भी समाज संकटों से घिरा हुआ ही रहता है । वर्तमान भारत का ही उदाहरण लें । राष्ट्र में अभी हीनताबोध का भीषण संकट व्याप्त है । भारतीय मानस पश्चिमीकरण के प्रभाव से ग्रस्त है । इस स्थिति में सांस्कृतिक परतन्त्रता का संकट समझना सज्जन व्यक्ति के लिये भी कठिन हो जाता है । वह दान करता है, गरीबों की सहायता करता है, कभी असत्य नहीं बोलता परन्तु अंग्रेजी माध्यम में अपने बच्चों को पढ़ाने में उसे संकोच नहीं होता । अपने बच्चों को डॉक्टर, इन्जिनीयर, संगणक निष्णात बनाने में वह पैसा खर्च करता है, उसमें सफलता मिलने पर उसे हर्ष होता है। अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ने और कमाने हेतु भेजने में भी उसे गर्व का ही अनुभव होता है । वह बढ़ती हुई यान्त्रिकता, प्रदूषण आदि से अपने आपको बचाने का तो प्रयास करता है, कदाचित पानी और बिजली बचाने का प्रयास भी करता है परन्तु प्रदूषण के मूल किस में है उसे जानने का प्रयास नहीं करता, देश की गरीबी क्यों बढ रही है, लोगों का स्वास्थ्य क्यों गिर रहा है, देश अधिक से अधिकतर गुलामी के गर्त में क्यों जा रहा है आदि बातों का उसे भान नहीं है, ज्ञान नहीं है और उसे कुछ करना चाहिये ऐसा उसे लगता नहीं है । अर्थात्‌ सारा जीवनव्यवहार दो भागों में बट गया है। एक ओर तो एकदूसरे के प्रति भावनाओं की सज्जनता है दूसरी ओर गहरे अर्थों में निष्क्रिता है जो समाज का नुकसान कर रही है । इन गहरे संकटों का जाल बड़ा जटिल है । इसका हल कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता । सामूहिक रूप में, विद्वज्जन, धर्माचार्य और सरकार मिलकर यदि कुछ करते हैं तो हल हो सकता है। अर्थात्‌ राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक संकटों के बारे में लोकशिक्षा की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक होती है । समय समय पर ऐसे संकट निर्माण होते ही हैं । साथ ही ऐसे संकट निर्माण न हों इस दृष्टि से भी लोकशिक्षा की आवश्यकता रहती है । इस दृष्टि से लोकशिक्षा का जिम्मा तो धर्माचार्यों और विद्वज्जनों का ही होता है ।
अच्छा बनने की शिक्षा सज्जन व्यक्तियों का निर्माण तो
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करती है परन्तु अच्छाई की सामुदायिक शिक्षा की भी
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आवश्यकता होती है । अनेक बातें ऐसी होती हैं जो अकेले
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में सीखी नहीं जातीं । उदाहरण के लिये संगठित होकर,
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एक समूह बनकर किसी बड़े संकल्प को सिद्ध करने का
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कार्य सामुदायिक शिक्षा से ही सम्भव है । अतः समाज को
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अन्य प्रकार की शिक्षा देने से पहले सज्जन बनने की शिक्षा
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देने की आवश्यकता है। सज्जन बनने की शिक्षा ही
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धर्मशिक्षा है। सज्जनता में मनुष्य के मनुष्य के प्रति,
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व्यक्तिगत स्तर पर व्यवहार, मनुष्य को समस्त मानव
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समुदाय के प्रति व्यवहार, मनुष्य के सृष्टि के प्रति व्यवहार
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और मनुष्य के परमेष्ठी के प्रति व्यवहार का समावेश होता
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है। अतः दान, सेवा, यज्ञ, प्रेम आदि की शिक्षा
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लोकशिक्षा का आधारभूत पाठ्यक्रम है । सदाब्रतों, प्याऊ,
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नदियों पर घाट, धर्मशाला, मन्दिर, बगीचे आदि बनवाने
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की प्रेरणा देना लोकशिक्षा है । आज इसकी सम्यक्‌ शिक्षा
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के अभाव में ये सारे काम सरकार की जिम्मेदारी बन गये
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हैं। वास्तव में सज्जन समाज को इन सभी बातों की
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जिम्मेदारी लेकर सरकार को दायित्व से मुक्त करना चाहिए,
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यह समाज की स्वायत्तता है। भारतीय समाज हमेशा
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स्वायत्त समाज रहा है ।
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समाज की सज्जनता के सूत्रसंचालक धर्माचार्य ही
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होते हैं । छोटे गाँव में भी पुरोहित होता है जो इन बातों का
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नियमन और निर्देशन करता है । राजा और राजकुल का
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पुरोहित होता है जो राजा के प्रजा के प्रति धर्म की सुरक्षा
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करता है । मठपति, संन्यासी, साधु, सन्त सभी समाज को
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धर्मप्रवण बनने का उपदेश देते हैं, साथ ही समाजसेवा के
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कार्यों का निर्देशन भी करते हैं। कर्तव्यधर्म और
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सम्प्रदायधर्म दोनों का निर्दशन धर्माचार्य ही करते हैं ।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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समाज यदि धर्मशील नहीं है तो धर्माचार्यों का प्रभाव कम
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हुआ है और अधर्म का बढ़ा है यही कहना चाहिये । अतः
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लोकशिक्षा हेतु धर्माचार्यों को समर्थ बनना चाहिये ।
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लोकमानस को प्रभावित करने की शक्ति ही सामर्थ्य है ।
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लोकमानस को तत्काल प्रभावित करना और
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लोकमानस को संस्कारित कर अच्छा बनने की दिशा में
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परिवर्तित करना भिन्न बातें हैं । करिश्माई व्यक्तित्व से,
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आकर्षक प्रस्तुति से, वाकचातुरी से मानस को प्रभावित
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करना सरल है । विज्ञापन, चुनावी भाषण, नकली सन्त
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आदि लोगों के ये तरीके होते हैं । समाज को बहकाना,
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दिग्श्रमित करना, अपना कार्य साध लेना आदि इनके काम
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होते हैं । इनसे तत्काल प्रयोजन तो सिद्ध हो जाते हैं परन्तु
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यह शिक्षा नहीं है, यह छल है ।
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लोकमानस पर सही प्रभाव होता है सच्चरित्र का, तप
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का, सदूभाव का, त्याग का । इसलिये तपस्वी संन्यासी
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लोकशिक्षा का काम उत्तम पद्धति से कर सकते हैं । धर्मतत्त्व
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को केवल जानने से प्रभाव निर्माण नहीं होता, उसके
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आचरण से सामर्थ्य प्राप्त होता है । वास्तव में धर्माचरणी को
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ही धर्माचार्य कहा जाता है । समाज में यदि सामर्थ्यवान
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धर्माचार्य नहीं होते हैं तो समाज की दुर्गति होती है ।
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२. वर्तमान समस्याओं के बारे में कर्तव्यविचार
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कभी कभी, अथवा अधिकांश, एसा होता है कि
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व्यक्ति अपने आप में सज्जन होता है, अन्य व्यक्तियों के साथ
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सज्जनता से ही व्यवहार करना है, नीतिमान और
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सदूभावनापूर्ण होता है तो भी समाज संकटों से घिरा हुआ ही
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रहता है । वर्तमान भारत का ही उदाहरण लें । राष्ट्र में अभी
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हीनताबोध का भीषण संकट व्याप्त है । भारतीय मानस
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पश्चिमीकरण के प्रभाव से ग्रस्त है । इस स्थिति में सांस्कृतिक
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परतन्त्रता का संकट समझना सज्जन व्यक्ति के लिये भी
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कठिन हो जाता है । वह दान करता है, गरीबों की सहायता
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करता है, कभी असत्य नहीं बोलता परन्तु अंग्रेजी माध्यम में
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अपने बच्चों को पढ़ाने में उसे संकोच नहीं होता । अपने
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बच्चों को डॉक्टर, इन्जिनीयर, संगणक निष्णात बनाने में वह
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पैसा खर्च करता है, उसमें सफलता मिलने पर उसे हर्ष होता
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पर्व ५ : कुटुम्बशिक्षा एवं लोकशिक्षा
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है। अपने बच्चों को विदेशों में पढ़ने और कमाने हेतु भेजने
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में भी उसे गर्व का ही अनुभव होता है । वह बढ़ती हुई
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यान्त्रिकता, प्रदूषण आदि से अपने आपको बचाने का तो
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प्रयास करता है, कदाचित पानी और बिजली बचाने का
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प्रयास भी करता है परन्तु प्रदूषण के मूल किस में है उसे
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जानने का प्रयास नहीं करता, देश की गरीबी क्यों बढ रही
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है, लोगों का स्वास्थ्य क्यों गिर रहा है, देश अधिक से
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अधिकतर गुलामी के गर्त में क्यों जा रहा है आदि बातों का
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उसे भान नहीं है, ज्ञान नहीं है और उसे कुछ करना चाहिये
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ऐसा उसे लगता नहीं है । अर्थात्‌ सारा जीवनव्यवहार दो
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भागों में बट गया है। एक ओर तो एकदूसरे के प्रति
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भावनाओं की सज्जनता है दूसरी ओर गहरे sat में
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निष्क्रिता है जो समाज का नुकसान कर रही है । इन गहरे
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संकटों का जाल बड़ा जटिल है । इसका हल कोई एक
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व्यक्ति नहीं कर सकता । सामूहिक रूप में, विट्रज्जन,
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धर्माचार्य और सरकार मिलकर यदि कुछ करते हैं तो हल हो
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सकता है । अर्थात्‌ राष्ट्रीय, सामाजिक, सांस्कृतिक संकरटों के
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बारे में लोकशिक्षा की व्यवस्था अत्यन्त आवश्यक होती
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है । समय समय पर ऐसे संकट निर्माण होते ही हैं । साथ ही
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ऐसे संकट निर्मान न हों इस दृष्टि से भी लोकशिक्षा की
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आवश्यकता रहती है । इस दृष्टि से लोकशिक्षा का जिम्मा तो
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धर्माचार्यों और विट्रज्जनों का ही होता है ।
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३. सामाजिक संकटो का स्वरूप मनोवैज्ञानिक
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== सामाजिक संकटो का स्वरूप मनोवैज्ञानिक ==
 
समाज जब संकटों से घिरता है तो वे आर्थिक,
 
समाज जब संकटों से घिरता है तो वे आर्थिक,
  

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