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== ज्ञान की दो परम्परायें ==
 
== ज्ञान की दो परम्परायें ==
विद्यालय हो न हो लोक तो होता ही है । शास्त्रों का मार्गदर्शन न हो तो भी लोकव्यवहार चलता ही है । साधन और माध्यम हों न हों कलाओं का आविष्कार होता ही है ।वैद्य और उनका शास्त्र हो न हो बीमारियों का इलाज होता ही है । न्यायालय हों न हों झगडों टंटों के निकाल होते ही हैं। यहाँ तक कि साधु, सन्त, कथाकार हों न हों धर्मसाधना और मोक्षसाधना भी होती है । आदिकाल से भारत में ज्ञान की दो परम्परायें रही हैं । एक है वेदपरम्परा  और दूसरी है लोकपरम्परा । दोनों की समानरूप से मान्यता भी रही है । श्रीमद् भगवद्गीता का यह कथन<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 15.18</ref> देखें<blockquote>यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।</blockquote><blockquote>अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।</blockquote>अर्थात्‌ मैं क्षरपुरुष से भी परे हूँ और अक्षरपुरुष से भी उत्तम हूँ इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम कहा जाता हूँ । श्री भगवान के अनुसार ही यह गुद्यतम ज्ञान है । यह ज्ञान जितना और जैसा वेद में है वैसा ही लोक में भी है । जो विद्यालय में पढ़ने हेतु नहीं गया वह अनपढ़ है और जिसे शास्त्रों का पता नहीं वह अज्ञानी है ऐसा समीकरण हमारे मनमस्तिष्क में बैठ गया है परन्तु यह समीकरण ही अज्ञानजनित है ऐसा लोकव्यवहार सिद्ध करता है । उदाहरण के लिये कल्पना करें कि भारत के एक बड़े भूभाग में कोई विद्यालय नहीं है । कोई संचारमाध्यम वहाँ पहुँचे नहीं हैं । कोई साधुसन्त वहाँ बाहर से जाते नहीं हैं । कोई डॉक्टर, वकील, न्यायालय, पंचायत आदि की व्यवस्था नहीं है । व्यापार वाणिज्य आदि कुछ भी नहीं है। तो भी उस भूभाग का जीवन व्यवहार तो चलेगा ही । स्त्रीपुरुष सम्बन्ध होंगे, बच्चों के जन्म होंगे, उनका संगोपन होगा और घर भी बसेगा ।लोग बीमार होंगे तो पंचमहाभूतों और वृक्ष वनस्पति से उसे औषधि प्राप्त होगी । औषधि पहचानने की और प्राप्त करने की विद्या भी अन्दर से सूझेगी । अन्न के लिये खेती होगी । वस्त्र भी बनेंगे । एकदूसरे के मनोभावो की पहचान भी होगी । उसके अनुसार व्यवहार के सूत्र भी बनेंगे ।  
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विद्यालय हो न हो लोक तो होता ही है<ref>धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। शास्त्रों का मार्गदर्शन न हो तो भी लोकव्यवहार चलता ही है । साधन और माध्यम हों न हों कलाओं का आविष्कार होता ही है ।वैद्य और उनका शास्त्र हो न हो बीमारियों का इलाज होता ही है । न्यायालय हों न हों झगडों टंटों के निकाल होते ही हैं। यहाँ तक कि साधु, सन्त, कथाकार हों न हों धर्मसाधना और मोक्षसाधना भी होती है । आदिकाल से भारत में ज्ञान की दो परम्परायें रही हैं । एक है वेदपरम्परा  और दूसरी है लोकपरम्परा । दोनों की समानरूप से मान्यता भी रही है । श्रीमद् भगवद्गीता का यह कथन<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 15.18</ref> देखें<blockquote>यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।</blockquote><blockquote>अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।</blockquote>अर्थात्‌ मैं क्षरपुरुष से भी परे हूँ और अक्षरपुरुष से भी उत्तम हूँ इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम कहा जाता हूँ । श्री भगवान के अनुसार ही यह गुद्यतम ज्ञान है । यह ज्ञान जितना और जैसा वेद में है वैसा ही लोक में भी है । जो विद्यालय में पढ़ने हेतु नहीं गया वह अनपढ़ है और जिसे शास्त्रों का पता नहीं वह अज्ञानी है ऐसा समीकरण हमारे मनमस्तिष्क में बैठ गया है परन्तु यह समीकरण ही अज्ञानजनित है ऐसा लोकव्यवहार सिद्ध करता है । उदाहरण के लिये कल्पना करें कि भारत के एक बड़े भूभाग में कोई विद्यालय नहीं है । कोई संचारमाध्यम वहाँ पहुँचे नहीं हैं । कोई साधुसन्त वहाँ बाहर से जाते नहीं हैं । कोई डॉक्टर, वकील, न्यायालय, पंचायत आदि की व्यवस्था नहीं है । व्यापार वाणिज्य आदि कुछ भी नहीं है। तो भी उस भूभाग का जीवन व्यवहार तो चलेगा ही । स्त्रीपुरुष सम्बन्ध होंगे, बच्चों के जन्म होंगे, उनका संगोपन होगा और घर भी बसेगा ।लोग बीमार होंगे तो पंचमहाभूतों और वृक्ष वनस्पति से उसे औषधि प्राप्त होगी । औषधि पहचानने की और प्राप्त करने की विद्या भी अन्दर से सूझेगी । अन्न के लिये खेती होगी । वस्त्र भी बनेंगे । एकदूसरे के मनोभावो की पहचान भी होगी । उसके अनुसार व्यवहार के सूत्र भी बनेंगे ।  
    
आनन्द की अभिव्यक्ति के लिये नृत्य और संगीत भी विकसित होंगे और लोभ, द्वेष, मत्सर आदि मनोविकारों का इलाज करने हेतु रक्षमात्मक और उपचारात्मक व्यवस्था भी होगी । सामाजिक जीवन विकसित होगा और शासन की व्यवस्था भी बनेगी । इतिहास कहता है कि सत्ययुग में राज्यव्यवस्था नहीं थी । न कोई दण्ड था न दण्ड देने वाला । प्रजा धर्म के अनुसार ही जीती थी और परस्पर की रक्षा करती थी । त्रेतायुग में बिना दण्ड के, दण्ड देनेवाले के प्रजा का सहज जीवन असम्भव हो गया तो लोगों ने अपने में से ही राजा का चयन किया और राज्य व्यवस्था बनी । राज्यव्यवस्था के बनते ही न्यायव्यवस्था, दण्डविधान, करव्यवस्था आदि भी बनने लगीं । तात्पर्य यह है कि लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपनी परिस्थिति के अनुसार अपने में से ही व्यवस्थाओं का निर्माण कर लेते हैं । यह है लोक परम्परा । यह है लोकज्ञान । इस लोकज्ञान का विश्व भी बहुत व्यापक है समावेशक है । इससे ही शास्त्रों की भी रचना होती है ।
 
आनन्द की अभिव्यक्ति के लिये नृत्य और संगीत भी विकसित होंगे और लोभ, द्वेष, मत्सर आदि मनोविकारों का इलाज करने हेतु रक्षमात्मक और उपचारात्मक व्यवस्था भी होगी । सामाजिक जीवन विकसित होगा और शासन की व्यवस्था भी बनेगी । इतिहास कहता है कि सत्ययुग में राज्यव्यवस्था नहीं थी । न कोई दण्ड था न दण्ड देने वाला । प्रजा धर्म के अनुसार ही जीती थी और परस्पर की रक्षा करती थी । त्रेतायुग में बिना दण्ड के, दण्ड देनेवाले के प्रजा का सहज जीवन असम्भव हो गया तो लोगों ने अपने में से ही राजा का चयन किया और राज्य व्यवस्था बनी । राज्यव्यवस्था के बनते ही न्यायव्यवस्था, दण्डविधान, करव्यवस्था आदि भी बनने लगीं । तात्पर्य यह है कि लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार, अपनी परिस्थिति के अनुसार अपने में से ही व्यवस्थाओं का निर्माण कर लेते हैं । यह है लोक परम्परा । यह है लोकज्ञान । इस लोकज्ञान का विश्व भी बहुत व्यापक है समावेशक है । इससे ही शास्त्रों की भी रचना होती है ।

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