Changes

Jump to navigation Jump to search
लेख सम्पादित किया
Line 1: Line 1:  +
{{One source|date=January 2021}}
 +
 
== ज्ञान की दो परम्परायें ==
 
== ज्ञान की दो परम्परायें ==
 
विद्यालय हो न हो लोक तो होता ही है । शास्त्रों का मार्गदर्शन न हो तो भी लोकव्यवहार चलता ही है । साधन और माध्यम हों न हों कलाओं का आविष्कार होता ही है ।वैद्य और उनका शास्त्र हो न हो बीमारियों का इलाज होता ही है । न्यायालय हों न हों झगडों टंटों के निकाल होते ही हैं। यहाँ तक कि साधु, सन्त, कथाकार हों न हों धर्मसाधना और मोक्षसाधना भी होती है । आदिकाल से भारत में ज्ञान की दो परम्परायें रही हैं । एक है वेदपरम्परा  और दूसरी है लोकपरम्परा । दोनों की समानरूप से मान्यता भी रही है । श्रीमद् भगवद्गीता का यह कथन<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 15.18</ref> देखें<blockquote>यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।</blockquote><blockquote>अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।</blockquote>अर्थात्‌ मैं क्षरपुरुष से भी परे हूँ और अक्षरपुरुष से भी उत्तम हूँ इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम कहा जाता हूँ । श्री भगवान के अनुसार ही यह गुद्यतम ज्ञान है । यह ज्ञान जितना और जैसा वेद में है वैसा ही लोक में भी है । जो विद्यालय में पढ़ने हेतु नहीं गया वह अनपढ़ है और जिसे शास्त्रों का पता नहीं वह अज्ञानी है ऐसा समीकरण हमारे मनमस्तिष्क में बैठ गया है परन्तु यह समीकरण ही अज्ञानजनित है ऐसा लोकव्यवहार सिद्ध करता है । उदाहरण के लिये कल्पना करें कि भारत के एक बड़े भूभाग में कोई विद्यालय नहीं है । कोई संचारमाध्यम वहाँ पहुँचे नहीं हैं । कोई साधुसन्त वहाँ बाहर से जाते नहीं हैं । कोई डॉक्टर, वकील, न्यायालय, पंचायत आदि की व्यवस्था नहीं है । व्यापार वाणिज्य आदि कुछ भी नहीं है। तो भी उस भूभाग का जीवन व्यवहार तो चलेगा ही । स्त्रीपुरुष सम्बन्ध होंगे, बच्चों के जन्म होंगे, उनका संगोपन होगा और घर भी बसेगा ।लोग बीमार होंगे तो पंचमहाभूतों और वृक्ष वनस्पति से उसे औषधि प्राप्त होगी । औषधि पहचानने की और प्राप्त करने की विद्या भी अन्दर से सूझेगी । अन्न के लिये खेती होगी । वस्त्र भी बनेंगे । एकदूसरे के मनोभावो की पहचान भी होगी । उसके अनुसार व्यवहार के सूत्र भी बनेंगे ।  
 
विद्यालय हो न हो लोक तो होता ही है । शास्त्रों का मार्गदर्शन न हो तो भी लोकव्यवहार चलता ही है । साधन और माध्यम हों न हों कलाओं का आविष्कार होता ही है ।वैद्य और उनका शास्त्र हो न हो बीमारियों का इलाज होता ही है । न्यायालय हों न हों झगडों टंटों के निकाल होते ही हैं। यहाँ तक कि साधु, सन्त, कथाकार हों न हों धर्मसाधना और मोक्षसाधना भी होती है । आदिकाल से भारत में ज्ञान की दो परम्परायें रही हैं । एक है वेदपरम्परा  और दूसरी है लोकपरम्परा । दोनों की समानरूप से मान्यता भी रही है । श्रीमद् भगवद्गीता का यह कथन<ref>श्रीमद् भगवद्गीता 15.18</ref> देखें<blockquote>यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।</blockquote><blockquote>अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः।।</blockquote>अर्थात्‌ मैं क्षरपुरुष से भी परे हूँ और अक्षरपुरुष से भी उत्तम हूँ इसलिये लोक में और वेद में पुरुषोत्तम कहा जाता हूँ । श्री भगवान के अनुसार ही यह गुद्यतम ज्ञान है । यह ज्ञान जितना और जैसा वेद में है वैसा ही लोक में भी है । जो विद्यालय में पढ़ने हेतु नहीं गया वह अनपढ़ है और जिसे शास्त्रों का पता नहीं वह अज्ञानी है ऐसा समीकरण हमारे मनमस्तिष्क में बैठ गया है परन्तु यह समीकरण ही अज्ञानजनित है ऐसा लोकव्यवहार सिद्ध करता है । उदाहरण के लिये कल्पना करें कि भारत के एक बड़े भूभाग में कोई विद्यालय नहीं है । कोई संचारमाध्यम वहाँ पहुँचे नहीं हैं । कोई साधुसन्त वहाँ बाहर से जाते नहीं हैं । कोई डॉक्टर, वकील, न्यायालय, पंचायत आदि की व्यवस्था नहीं है । व्यापार वाणिज्य आदि कुछ भी नहीं है। तो भी उस भूभाग का जीवन व्यवहार तो चलेगा ही । स्त्रीपुरुष सम्बन्ध होंगे, बच्चों के जन्म होंगे, उनका संगोपन होगा और घर भी बसेगा ।लोग बीमार होंगे तो पंचमहाभूतों और वृक्ष वनस्पति से उसे औषधि प्राप्त होगी । औषधि पहचानने की और प्राप्त करने की विद्या भी अन्दर से सूझेगी । अन्न के लिये खेती होगी । वस्त्र भी बनेंगे । एकदूसरे के मनोभावो की पहचान भी होगी । उसके अनुसार व्यवहार के सूत्र भी बनेंगे ।  
Line 29: Line 31:  
== लोक में शिक्षा यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है ==
 
== लोक में शिक्षा यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है ==
 
सामान्यरूप से व्यक्ति की शिक्षा विद्यालय में ही होती है ऐसा समझा जाता है । युवावस्था तक विभिन्न माध्यमों से विभिन्न विषयों की शिक्षा प्राप्त कर विश्वविद्यालय से प्रमाणपत्र प्राप्त किया तो पढ़ाई समाप्त हुई ऐसा माना जाता है। परन्तु यह पर्याप्त नहीं है । विवाह होने तक कुटुम्ब में भी अनेक विषयों की शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता होती है और यह शिक्षा कैसे देनी चाहिये इसकी चर्चा हमने पूर्व के अध्यायों में की है । यहाँ भी विवाह सम्पन्न होकर गृहस्थाश्रम शुरू हुआ तो पढ़ाई पूरी हुई ऐसा माना जाता है । परन्तु वास्तव में अधिक महत्त्वपूर्ण पढ़ाई अब शुरू होती है । वह है समाज में शिक्षा अथवा लोक में शिक्षा । अब तक की शिक्षा और अबकी शिक्षा में अन्तर यह है कि अबतक केवल पढ़ना था, अब पढ़ना और पढ़ाना दोनों शुरू हुआ । पंचपदी अध्ययन पद्धति की भाषा में कहें तो अबतक अधीति से लेकर प्रयोग तक के पद तो थे अब प्रसार का पद जुड़ गया । अर्थात्‌ अब पाँचों पदों से शिक्षा होगी जिसमें प्रयोग और प्रसार के पद विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण होंगे । अतः कुटुम्ब में शिक्षा यह विषय तो आगे भी चलेगा । साथ ही शिक्षा का दायरा अब विस्तृत होता है । कुटुम्ब समाज में व्यवहार करता है । यह समाज भी उसे पग पग पर सिखाता ही है । सीखने को मानसिकता रही तो व्यक्ति निरन्तर सीखता रहता है । लोकशिक्षा और लोक में शिक्षा की बात अब करेंगे ।<references />
 
सामान्यरूप से व्यक्ति की शिक्षा विद्यालय में ही होती है ऐसा समझा जाता है । युवावस्था तक विभिन्न माध्यमों से विभिन्न विषयों की शिक्षा प्राप्त कर विश्वविद्यालय से प्रमाणपत्र प्राप्त किया तो पढ़ाई समाप्त हुई ऐसा माना जाता है। परन्तु यह पर्याप्त नहीं है । विवाह होने तक कुटुम्ब में भी अनेक विषयों की शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता होती है और यह शिक्षा कैसे देनी चाहिये इसकी चर्चा हमने पूर्व के अध्यायों में की है । यहाँ भी विवाह सम्पन्न होकर गृहस्थाश्रम शुरू हुआ तो पढ़ाई पूरी हुई ऐसा माना जाता है । परन्तु वास्तव में अधिक महत्त्वपूर्ण पढ़ाई अब शुरू होती है । वह है समाज में शिक्षा अथवा लोक में शिक्षा । अब तक की शिक्षा और अबकी शिक्षा में अन्तर यह है कि अबतक केवल पढ़ना था, अब पढ़ना और पढ़ाना दोनों शुरू हुआ । पंचपदी अध्ययन पद्धति की भाषा में कहें तो अबतक अधीति से लेकर प्रयोग तक के पद तो थे अब प्रसार का पद जुड़ गया । अर्थात्‌ अब पाँचों पदों से शिक्षा होगी जिसमें प्रयोग और प्रसार के पद विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण होंगे । अतः कुटुम्ब में शिक्षा यह विषय तो आगे भी चलेगा । साथ ही शिक्षा का दायरा अब विस्तृत होता है । कुटुम्ब समाज में व्यवहार करता है । यह समाज भी उसे पग पग पर सिखाता ही है । सीखने को मानसिकता रही तो व्यक्ति निरन्तर सीखता रहता है । लोकशिक्षा और लोक में शिक्षा की बात अब करेंगे ।<references />
 +
 +
==References==
 +
<references />
 +
 +
[[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]]

Navigation menu