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अतः वेदज्ञान और लोकज्ञान का मूल स्रोत एक ही है यह कहने में कोई अनौचित्य नहीं है । दोनों का मार्गक्रमण भिन्न है, प्रस्तुति भिन्न है। लोकज्ञान परिष्कृत होते होते शास्त्र बनता है । वेदज्ञान बुद्धि के स्तर पर उतरकर शास्त्र बनता है । दोनों की परिणति लोकहित ही है । जिस प्रकार वेदज्ञान का विस्तार बहुत बडा है उसी प्रकार से लोकज्ञान का भी है । लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोककला, लोक कौशल, लोक पूजापरम्परा, लोक खानपान आदि हैं तो लोक आयुर्वेद, लोक वनस्पतिविज्ञान, लोक मूर्तिविधान, लोककारीगरी, लोकइन्जिनीयरींग आदि आयामों से युक्त भी है । शास्त्र और लोक का स्रोत तो एक ही है यह हमने अभी देखा, केवल अभिव्यक्ति और उसकी प्रक्रिया भिन्न है ।
 
अतः वेदज्ञान और लोकज्ञान का मूल स्रोत एक ही है यह कहने में कोई अनौचित्य नहीं है । दोनों का मार्गक्रमण भिन्न है, प्रस्तुति भिन्न है। लोकज्ञान परिष्कृत होते होते शास्त्र बनता है । वेदज्ञान बुद्धि के स्तर पर उतरकर शास्त्र बनता है । दोनों की परिणति लोकहित ही है । जिस प्रकार वेदज्ञान का विस्तार बहुत बडा है उसी प्रकार से लोकज्ञान का भी है । लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य, लोककला, लोक कौशल, लोक पूजापरम्परा, लोक खानपान आदि हैं तो लोक आयुर्वेद, लोक वनस्पतिविज्ञान, लोक मूर्तिविधान, लोककारीगरी, लोकइन्जिनीयरींग आदि आयामों से युक्त भी है । शास्त्र और लोक का स्रोत तो एक ही है यह हमने अभी देखा, केवल अभिव्यक्ति और उसकी प्रक्रिया भिन्न है ।
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शास्त्र ज्ञान से भी लोकज्ञान अधिक व्यापक है । समाज में केवल पाँच से दस प्रतिशत लोक शास्त्रज्ञान और शास्त्र के अनुसार व्यवहार करने वाले होते हैं । शेष तो लोकज्ञान का ही अनुसरण करते हैं । उनके लिये प्रमाण भी लोकमत ही है । यह उक्ति प्रसिद्ध है{{Citation needed}}  
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शास्त्र ज्ञान से भी लोकज्ञान अधिक व्यापक है । समाज में केवल पाँच से दस प्रतिशत लोक शास्त्रज्ञान और शास्त्र के अनुसार व्यवहार करने वाले होते हैं । शेष तो लोकज्ञान का ही अनुसरण करते हैं । उनके लिये प्रमाण भी लोकमत ही है । यह उक्ति प्रसिद्ध है {{Citation needed}}<blockquote>यद्यपि सत्यम लोक विरुद्धम् नाचरणीयम्</blockquote>अर्थात्‌
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यद्यपि सत्यम लोक विरुद्धम् नाचरणीयम्
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बात कितनी भी सत्य हो तो भी लोक का समर्थन नहीं है तो नहीं करनी चाहिये । वैसा आचरण करना चाहिये । दूसरा भी कथन है{{Citation needed}},<blockquote>'शास्त्रात् रूढिः बलीयसी' </blockquote>अर्थात्‌ शास्त्र से भी रुढि अधिक प्रभावी है । ये दोनों कथन दर्शाते हैं कि लोक समर्थन कितना आवश्यक है ।
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अर्थात्‌
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== वेदज्ञान और लोकज्ञान के संकट ==
 
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वेदज्ञान और लोकज्ञान के सामने संकट कौन से हैं ? वेदज्ञान का प्रारम्भ शास्त्रों से होता है । शास्त्र दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं सिद्धान्तशास्त्र और दूसरे होते हैं व्यवहारशास्त्र । व्यवहारशास्त्र सिद्धान्तशास्त्र का अनुसरण करते हैं । सिद्धान्त देशकाल निरपेक्ष होते हैं, व्यवहार देशकाल सापेक्ष । देशकाल सापेक्षता को आज की भाषा में युगानुकूलता कहा जाता है । व्यवहारशास्त्र को भारतीय परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति देशकालसापेक्ष होने के कारण ही परिवर्तनशील होती है । यदि परिवर्तन नहीं हुआ तो वह निरर्थक और अनर्थक बन जाती है । हर युग को अपनी स्मृति नये से बनानी होती है । अर्थात्‌ स्मृति के सामने स्थगित हो जाने का, देशकालानुरूप नहीं होने का संकट होता है। लोकज्ञान अनुभूति और प्रयोग से प्रारंभ होता है। वह भी नित्यनूतन, नित्यपरिवर्तनशील होना चाहिये । वह यदि परिवर्तनशील नहीं रहा तो अन्धविश्वास और बिना समझी हुई, बिना प्रयोजन की रूढ़ि बन जाती है । अर्थात लोकज्ञान के लिये रूढ़िवादिता का संकट है । वेदज्ञान और लोकज्ञान दोनों के लिये नित्यजाग्रत, नित्य चिन्तनशील, नित्य अध्ययनशील, नित्य व्यवहारदक्ष, नित्य लोकज्ञ विद्वानों की आवश्यकता होती है । तभी दोनों परम्परायें कल्याणकारी सिद्ध होती है ।
बात कितनी भी सत्य हो तो भी लोक का समर्थन नहीं है तो नहीं करनी चाहिये । वैसा आचरण करना चाहिये । दूसरा भी कथन है{{Citation needed}},'शास्त्रात् रूढिः बलीयसी' अर्थात्‌ शास्त्र से भी रुढि अधिक प्रभावी है । ये दोनों कथन दर्शाते हैं कि लोक समर्थन कितना आवश्यक है ।
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== बेदज्ञान और लोकज्ञान के संकट ==
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वेदज्ञान और लोकज्ञान के सामने संकट कौन से हैं ?
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वेदज्ञान का प्रारम्भ शास्त्रों से होता है ।
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शास्त्र दो प्रकार के होते हैं । एक होते हैं सिद्धान्तशास्त्र और
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दूसरे होते हैं व्यवहारशास्त्र । व्यवहारशाख््र सिद्धान्तशास्त्र का
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अनुसरण करते हैं । सिद्धान्त देशकाल निरपेक्ष होते हैं,
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भाषा में युगानुकूलता कहा जाता है । व्यवहारशास्त्र को
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भारतीय परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति
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जाती है । हर युग को अपनी स्मृति नये से बनानी होती है ।
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प्रयोग a wey होता है। वह भी नित्यनूतन,
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नित्यपरिवर्तनशील होना चाहिये । वह यदि परिवर्तनशील
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नहीं रहा तो अन्धविश्वास और बिना समझी हुई, बिना
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प्रयोजन की रूढ़ि बन जाती है । अर्तात्‌ लोकज्ञान के लिये
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रूढ़िवादिता का संकट है । वेदज्ञान और लोकज्ञान दोनों के
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लिये नित्यजाग्रत, नित्य चिन्तनशील, नित्य अध्ययनशील,
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नित्य व्यवहारदक्ष, नित्य लोकज्ञ विद्वानों की आवश्यकता
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होती है । तभी दोनों परम्परायें कल्याणकारी सिद्ध होती है ।
      
== दोनों में समन्वय आवश्यक ==
 
== दोनों में समन्वय आवश्यक ==
ज्ञान के क्षेत्र में दोनों परम्पराओं को एकदूसरे को
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ज्ञान के क्षेत्र में दोनों परम्पराओं को एकदूसरे को समझने की, दोनों का स्वीकार करने की और दोनों में समन्वय करने की आवश्यकता है। दोनों एकदूसरे को परखने और परिष्कृत करने में उपयोगी सिद्ध होती हैं। वेदज्ञ और लोकज्ञ को एकदूसरे का सम्मान करना चाहिये। आज स्थिति विपरीत है। लोकज्ञान को ज्ञान ही नहीं माना जाता । उसे जादू टोना, जन्तर-मन्तर, झाड़फूँक, डोरा- धागा आदि नाम देकर हेय करार दिया जाता है। उसे अशास्त्रीय बताकर अनधिकृत माना जाता है और कई किस्सों में तो दण्डनीय अपराध माना जाता है। भारत में इसे दुहरी मार पड़ रही है । एक तो यह परम्परा खण्डित हो रही है। दूसरी ओर यूरोअमेरिकी विचारधारा के प्रभाव में आकर इसका विरोध किया जाता है। नृत्य, गीत, कला आदि को दैनन्दिन जीवन से हटाकर प्रदर्शन के विषय बनाये जाते हैं। भारत के शास्त्रीय ज्ञान की परम्परा भी खण्डित हो गई है। युगानुकूल बनाने की एक स्वाभाविक चुनौती तो है ही, साथ ही परम्परा बचाये रखने की आपतित चुनौती भी है। पश्चिमी ज्ञान दोनों को अलग अलग तरीकों से ग्रस रहा है। उस स्थिति में प्रथम तो इन्हें संकटमुक्त करने की आवश्यकता है। भारतीय शास्त्रीय ज्ञान और भारतीय लोकज्ञान की परम्परा को प्रथम परिष्कृत करने के उपाय करने चाहिये। बाद में दोनों में समन्वय करना चाहिये। शास्त्र को लोकाभिमुख और लोक को शास्त्राभिमुख बनाना चाहिये
 
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समझने की, दोनों का स्वीकार करने की और दोनों में
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समन्वय करने की आवश्यकता है । दोनों एकदूसरे को
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परखने और परिष्कृत करने में उपयोगी सिद्ध होती हैं seat
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और लोकज्ञ को एकदूसरे का सम्मान करना चाहिये । आज
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सर्वसामान्य व्यवहार में लोक का अर्थ होता है जनसामान्य। जनसामान्य संख्या में बहुत बड़ा है। उसकी अपनी समझ होती है, आकलन करने की पद्धति होती है। वह भला होता है, श्रद्धावान होता है। उसका अन्तःकरण श्रद्धावान होता है। कुछ तो भारत की मिट्टी और जलवायु के प्रभाव से, कुछ हजारों वर्षों की परम्परा के संस्कार से, कुछ अपने पूर्वजों के संस्कार, मातापिता की सीख और उनके व्यवहार के अनुकरण से और कुछ साधुसन्तों के उपदेश से उसका मानस और व्यवहार बनता है। इस जनसामान्य का जो लोक है उसके द्वारा भी शिक्षा दी जाती है और उसे भी शिक्षा की आवश्यकता होती है। लोक में शिक्षा और लोक की शिक्षा ऐसे इसके दो आयाम हैं। लोक शिक्षा को लोकप्रबोधन, समाजप्रबोधन, लोकजागरण, लोक मतपरिष्कार आदि विभिन्न नामों से समझा जाता है। आज भी उसके प्रयोग हो ही रहे हैं।
 
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स्थिति विपरीत है। लोकज्ञान को ज्ञान ही नहीं माना
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जाता । उसे जादू टोना, जन्तर-मन्तर, झाड़फूँक, डोरा-
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धागा आदि नाम देकर हेय करार दिया जाता है । उसे
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किस्सों में तो दण्डनीय अपराध माना जाता है । भारत में
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इसे दुहरी मार पड़ रही है । एक तो यह परम्परा खण्डित हो
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रही है । दूसरी ओर यूरोअमेरिकी विचारधारा के प्रभाव में
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आकार इसका विरोध किया जाता है । नृत्य, गीत, कला
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अलग अलग तरीकों से ग्रस रहा है । उस स्थिति में प्रथम
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तो इन्हें संकटमुक्त करने की आवश्यकता है । भारतीय
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शास्त्रीय ज्ञान और भारतीय लोकज्ञान की परम्परा को प्रथम
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को शाख््राभिमुख बनाना चाहिये ।
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जनसामान्य । जनसामान्य संख्या में बहुत बड़ा है । उसकी
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अपनी समझ होती है, आकलन करने की पद्धति होती है ।
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लोक मतपरिष्कार आदि विभिन्न नामों से समझा जाता है ।
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
      
== लोक में शिक्षा यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है ==
 
== लोक में शिक्षा यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है ==
सामान्यरूप से व्यक्ति की शिक्षा विद्यालय में ही होती
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सामान्यरूप से व्यक्ति की शिक्षा विद्यालय में ही होती है ऐसा समझा जाता है । युवावस्था तक विभिन्न माध्यमों से विभिन्न विषयों की शिक्षा प्राप्त कर विश्वविद्यालय से प्रमाणपत्र प्राप्त किया तो पढ़ाई समाप्त हुई ऐसा माना जाता है। परन्तु यह पर्याप्त नहीं है । विवाह होने तक कुटुम्ब में भी अनेक विषयों की शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता होती है और यह शिक्षा कैसे देनी चाहिये इसकी चर्चा हमने पूर्व के अध्यायों में की है । यहाँ भी विवाह सम्पन्न होकर गृहस्थाश्रम शुरू हुआ तो पढ़ाई पूरी हुई ऐसा माना जाता है । परन्तु वास्तव में अधिक महत्त्वपूर्ण पढ़ाई अब शुरू होती है । वह है समाज में शिक्षा अथवा लोक में शिक्षा । अब तक की शिक्षा और अबकी शिक्षा में अन्तर यह है कि अबतक केवल पढ़ना था, अब पढ़ना और पढ़ाना दोनों शुरू हुआ । पंचपदी अध्ययन पद्धति की भाषा में कहें तो अबतक अधीति से लेकर प्रयोग तक के पद तो थे अब प्रसार का पद जुड़ गया । अर्थात्‌ अब पाँचों पदों से शिक्षा होगी जिसमें प्रयोग और प्रसार के पद विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण होंगे । अतः कुटुम्ब में शिक्षा यह विषय तो आगे भी चलेगा । साथ ही शिक्षा का दायरा अब विस्तृत होता है । कुटुम्ब समाज में व्यवहार करता है । यह समाज भी उसे पग पग पर सिखाता ही है । सीखने को मानसिकता रही तो व्यक्ति निरन्तर सीखता रहता है । लोकशिक्षा और लोक में शिक्षा की बात अब करेंगे ।<references />
 
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है ऐसा समझा जाता है । युवावस्था तक विभिन्न माध्यमों से
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विभिन्न विषयों की शिक्षा प्राप्त कर विश्वविद्यालय से
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प्रमाणपत्र प्राप्त किया तो पढ़ाई समाप्त हुई ऐसा माना जाता
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भी अनेक विषयों की शिक्षा प्राप्त करने की आवश्यकता
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होती है और यह शिक्षा कैसे देनी चाहिये इसकी चर्चा
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परन्तु वास्तव में अधिक महत्त्वपूर्ण पढ़ाई अब शुरू
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होती है । वह है समाज में शिक्षा अथवा लोक में शिक्षा ।
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अब तक की शिक्षा और अबकी शिक्षा में अन्तर यह है कि
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अबतक केवल पढ़ना था, अब पढ़ना और पढ़ाना दोनों
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अबतक अधीति से लेकर प्रयोग तक के पद तो थे अब
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प्रसार का पद जुड़ गया । अर्थात्‌ अब पाँचों पदों से शिक्षा
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महत्त्वपूर्ण होंगे । अतः कुट्म्ब में शिक्षा यह विषय तो आगे
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भी चलेगा । साथ ही शिक्षा का दायरा अब विस्तृत होता
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रही तो व्यक्ति निरन्तर सीखता रहता है । लोकशिक्षा और
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लोक में शिक्षा की बात अब करेंगे ।
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