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==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ====
 
==== नई शिक्षा-प्रणाली असफल क्यों ? ====
इस विश्लेषण के पश्चात्‌ श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि नई शिक्षा-प्रणाली सफल नहीं हो सकी तो उसका एक कारण तो यह था कि उसके अध्यापकों को नई प्रणाली की आवश्यकताओं का सम्यक्‌ बोध नहीं था, दूसरा यह था कि “उसके नियंत्रणकर्ता एवं निर्देशकगण पुरानी (अंग्रेजी) शिक्षा-प्रणाली की मान्यताओं से चिपके हुए थे ।' उन्होंने कहा कि “इस प्रयोग ने अपने लिए ‘usta’ नाम धारण तो कर लिया, किंतु इसमें पूर्वजों की महान्‌ उपलब्धियों की आधारशिला अर्थात्‌ ज्ञान के उपकरणों के चरम विकास के सिद्धांत की पूर्ण उपेक्षा की गई ।' श्री अरविंद ने अंत में लिखा - “हमारा यह कहना कदापि नहीं है कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली के बाह्य रूप को ज्यों-का- त्यों पुनरुज्जीवित किया जाए, जैसा कि अतीत के अनेक भावुक भक्त माँग करते देखे जाते हैं, क्योंकि प्राचीन शिक्षा- पद्धति की अनेक बातें आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं; किंतु उसके मूलभूत सिद्धांत सब कालों के लिए समान रूप से लागू होते हैं और जब तक उससे अधिक प्रभावकारी शिक्षा-पद्धति का आविष्कार नहीं होता तब तक उसे त्यागना उचित नहीं है । निश्चय ही यूरोपीय शिक्षा-पद्धति हमें वह विकल्प प्रदान नहीं करती ।'
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इस विश्लेषण के पश्चात्‌ श्री अरविंद इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि यदि नई शिक्षा-प्रणाली सफल नहीं हो सकी तो उसका एक कारण तो यह था कि उसके अध्यापकों को नई प्रणाली की आवश्यकताओं का सम्यक्‌ बोध नहीं था, दूसरा यह था कि “उसके नियंत्रणकर्ता एवं निर्देशकगण पुरानी (अंग्रेजी) शिक्षा-प्रणाली की मान्यताओं से चिपके हुए थे ।' उन्होंने कहा कि “इस प्रयोग ने अपने लिए ‘usta’ नाम धारण तो कर लिया, किंतु इसमें पूर्वजों की महान‌ उपलब्धियों की आधारशिला अर्थात्‌ ज्ञान के उपकरणों के चरम विकास के सिद्धांत की पूर्ण उपेक्षा की गई ।' श्री अरविंद ने अंत में लिखा - “हमारा यह कहना कदापि नहीं है कि प्राचीन शिक्षा-प्रणाली के बाह्य रूप को ज्यों-का- त्यों पुनरुज्जीवित किया जाए, जैसा कि अतीत के अनेक भावुक भक्त माँग करते देखे जाते हैं, क्योंकि प्राचीन शिक्षा- पद्धति की अनेक बातें आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हैं; किंतु उसके मूलभूत सिद्धांत सब कालों के लिए समान रूप से लागू होते हैं और जब तक उससे अधिक प्रभावकारी शिक्षा-पद्धति का आविष्कार नहीं होता तब तक उसे त्यागना उचित नहीं है । निश्चय ही यूरोपीय शिक्षा-पद्धति हमें वह विकल्प प्रदान नहीं करती ।'
    
युगानुकूल पद्धति की खोज
 
युगानुकूल पद्धति की खोज
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शिक्षाप्रणाली में अनेक तत्त्वों का विचार करना पड़ता है विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की खोज, विभिन्न प्रकार के ज्ञान का उपयुक्त मात्रा में आत्मसातीकरण और स्वयं मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण । निस्संदेह इन सब में यह अंतिम तत्त्व ही है । मनुष्य के अंदर भी उसके आदर्श ही सर्वोपरि निर्णायक तत्त्व होते हैं । किसी भी मनुष्य को ऐसा कुछ सिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है, जिसे सीखने को वह इच्छुक नहीं है । जिस लाभ को वह लेना ही नहीं चाहता, उसे उस पर लादना मुूर्खता है । शिक्षा का काम खान खोदने के समान है, वह भी ऊपरी सतह से आदर्शों से आरम्भ होता है ।
 
शिक्षाप्रणाली में अनेक तत्त्वों का विचार करना पड़ता है विशेष प्रकार की शिक्षण विधियों की खोज, विभिन्न प्रकार के ज्ञान का उपयुक्त मात्रा में आत्मसातीकरण और स्वयं मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण । निस्संदेह इन सब में यह अंतिम तत्त्व ही है । मनुष्य के अंदर भी उसके आदर्श ही सर्वोपरि निर्णायक तत्त्व होते हैं । किसी भी मनुष्य को ऐसा कुछ सिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है, जिसे सीखने को वह इच्छुक नहीं है । जिस लाभ को वह लेना ही नहीं चाहता, उसे उस पर लादना मुूर्खता है । शिक्षा का काम खान खोदने के समान है, वह भी ऊपरी सतह से आदर्शों से आरम्भ होता है ।
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पुराने आदर्शों के माध्यम से ही नए आदर्शों तक पहुँचा जा सकता है । “अज्ञात' की यात्रा 'ज्ञात' से ही आरम्भ होती है । वास्तव में एक तो “आदर्श' है और एक उसे अभिव्यक्ति देनेवाला कोई स्थूल रूप होता है ale हम उस आदर्श तक पहुँच गए तो समझ लो कि हमने अनंत को प्राप्त कर लिया । यहाँ सारी मानवता एक हो जाती है । यहां न कुछ पुराना है, न नया है; न अपना है, न पराया है । आदर्श को सीमाबद्ध करनेवाले स्थूल रूप भले ही नए पुराने हो सकते हैं, परंतु आदर्श स्वयं में “कालातीत' होता है । फिर भी “नए आदर्श' जैसी शब्दावली का एक विशिष्ट अर्थ होता है । उदाहरणार्थ, यूरोपीय काव्य में सगाई हो चुकी हुई कुमारी को महानता और दिव्यता प्रदान की गई है; धार्मिक काव्य पतितव्रता पत्नी का वैसा ही गुणगान करता है । ये दोनों ही परंपरागत रूप हैं, जिनके माध्यम से 'नारी की पवित्रता के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । फिर भी किसी यूरोपीय रूपक के माध्यम से धार्मिक बालक की कल्पना को इस आदर्श तक ले जाना उसी प्रकार निष्फल रहेगा जिस प्रकार कि भारत में प्रचलित किसी रूपक के माध्यम से यूरोपीय बालक की कल्पना का उद्बुद्ध करना । परंतु जब शिक्षा के द्वारा कल्पना का उदात्तीकरण होकर नारीत्व के महान्‌ तथा दिव्य स्वरूप का दर्शन हो जाता है तो नए रूपों में भी उस आदर्श को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । कोई प्रशिक्षित एवं विकसित हृदय टेनीसन अथवा ब्राउनिंग के काव्य को उसकी समस्त ऊँचाइयों व गहराइयों के साथ सुगमता से समझ सकेगा; परंतु इन Heat के माध्यम से किसी धार्मिक बालक के विकास का प्रयास करना भारी अपराध होगा । उसी प्रकार किसी यूरोपीय बालक को बीट्रिस या जॉन ऑफ आर्क के बजाय सीता और सातित्री के चरित्र के माध्यम से शिक्षा देना उतना ही मुूर्खतापूर्ण होगा यद्यपि वही बालक बड़ा होने पर पौर्वात्य नारी रत्नों के प्रति सहज सहानुभूति से अभिभूत होकर अपनी संस्कृति की गहराई को आँक सकेगा ।
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पुराने आदर्शों के माध्यम से ही नए आदर्शों तक पहुँचा जा सकता है । “अज्ञात' की यात्रा 'ज्ञात' से ही आरम्भ होती है । वास्तव में एक तो “आदर्श' है और एक उसे अभिव्यक्ति देनेवाला कोई स्थूल रूप होता है ale हम उस आदर्श तक पहुँच गए तो समझ लो कि हमने अनंत को प्राप्त कर लिया । यहाँ सारी मानवता एक हो जाती है । यहां न कुछ पुराना है, न नया है; न अपना है, न पराया है । आदर्श को सीमाबद्ध करनेवाले स्थूल रूप भले ही नए पुराने हो सकते हैं, परंतु आदर्श स्वयं में “कालातीत' होता है । फिर भी “नए आदर्श' जैसी शब्दावली का एक विशिष्ट अर्थ होता है । उदाहरणार्थ, यूरोपीय काव्य में सगाई हो चुकी हुई कुमारी को महानता और दिव्यता प्रदान की गई है; धार्मिक काव्य पतितव्रता पत्नी का वैसा ही गुणगान करता है । ये दोनों ही परंपरागत रूप हैं, जिनके माध्यम से 'नारी की पवित्रता के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है । फिर भी किसी यूरोपीय रूपक के माध्यम से धार्मिक बालक की कल्पना को इस आदर्श तक ले जाना उसी प्रकार निष्फल रहेगा जिस प्रकार कि भारत में प्रचलित किसी रूपक के माध्यम से यूरोपीय बालक की कल्पना का उद्बुद्ध करना । परंतु जब शिक्षा के द्वारा कल्पना का उदात्तीकरण होकर नारीत्व के महान‌ तथा दिव्य स्वरूप का दर्शन हो जाता है तो नए रूपों में भी उस आदर्श को हृदयंगम करने में कोई कठिनाई नहीं होगी । कोई प्रशिक्षित एवं विकसित हृदय टेनीसन अथवा ब्राउनिंग के काव्य को उसकी समस्त ऊँचाइयों व गहराइयों के साथ सुगमता से समझ सकेगा; परंतु इन Heat के माध्यम से किसी धार्मिक बालक के विकास का प्रयास करना भारी अपराध होगा । उसी प्रकार किसी यूरोपीय बालक को बीट्रिस या जॉन ऑफ आर्क के बजाय सीता और सातित्री के चरित्र के माध्यम से शिक्षा देना उतना ही मुूर्खतापूर्ण होगा यद्यपि वही बालक बड़ा होने पर पौर्वात्य नारी रत्नों के प्रति सहज सहानुभूति से अभिभूत होकर अपनी संस्कृति की गहराई को आँक सकेगा ।
    
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या
 
राष्ट्रीय शिक्षा की व्याख्या

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