Changes

Jump to navigation Jump to search
proof-read
Line 39: Line 39:  
इंग्लैण्ड के द्वारा अपनाई गई विजयप्राप्ति की अजीबोगरीब रीतियों का रोचक दृष्टान्त उसके पडोसी देश आयलैंण्ड के साथ के उसके सम्बन्धों से मिलता है। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आयलैंण्ड के एटर्नी जनरल सर होन डेविस ने अपने लेखों द्वारा आयलैंण्ड के लिए अधिक प्रभावशाली राजनीति के सम्बन्ध में यह सूचित किया है कि आयलैन्ड के विजय में अवरोधक दो प्रमुख कारकों में एक, युद्ध के लिए की गई ढीली कार्यवाही एवं दूसरा राजनीति में शिथिलता है। क्योंकि जमीन को बुआई के लिए तैयार करने के लिए प्रथम तो किसान को उसे अच्छी तरह से जोतना पड़ता है। और जब पूर्ण रूप से जुताई हो जाए एवं उसमें खाद एवं पानी अच्छी तरह से डाल दिए जाएँ तब यदि वह उसमें अच्छे बीज न बोए तो जमीन ऊसर बन जाती है एवं उसमें खरपतवार के सिवा कुछ पैदा नहीं होता। इसलिए असंस्कृत प्रजा को अच्छी सरकार की रचना के लिए सक्षम बनाने के लिये पहले ही उसका सामना करके उसे तोड़ना आवश्यक है। जब वह पूर्णतः नियन्त्रण में आ जाए तब यदि उसे नियमन के द्वारा व्यवस्थित न किया जाए तो वह प्रजा बहुत जल्दी ही अपनी असंस्कारिता पर उतर आती है।<ref>सर ज्हॉन डेविस, 'नामदार सम्राट के सुशासन के प्रारम्भ होने तक आयलैंण्ड को पूर्ण रूप से परास्त कर अंग्रेज सत्ता के आधिपत्य में नहीं लाया जा सका उसके सही कारणों की खोज : अ डिस्कवरी ऑव् द टु कोदोदा व्हाय आयलैंण्ट बाँदा नेबर एण्टायरली सबट्यूट एण्ड ब्रॉट अण्डर ओबेडिअन्स ऑव् द क्राउन ऑव् इंग्लैण्ड अण्टील द बिगिनिंग ऑव् हिझ मैजेस्टीझ हैपी रेइन : A Discovery of True Causes, Why Ireland was never entirely subdued and brought under obedience of the Crown of England until the beginning of His Majesty's happy reign, 1630 (पुनर्मुद्रण १८६०)</ref>
 
इंग्लैण्ड के द्वारा अपनाई गई विजयप्राप्ति की अजीबोगरीब रीतियों का रोचक दृष्टान्त उसके पडोसी देश आयलैंण्ड के साथ के उसके सम्बन्धों से मिलता है। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आयलैंण्ड के एटर्नी जनरल सर होन डेविस ने अपने लेखों द्वारा आयलैंण्ड के लिए अधिक प्रभावशाली राजनीति के सम्बन्ध में यह सूचित किया है कि आयलैन्ड के विजय में अवरोधक दो प्रमुख कारकों में एक, युद्ध के लिए की गई ढीली कार्यवाही एवं दूसरा राजनीति में शिथिलता है। क्योंकि जमीन को बुआई के लिए तैयार करने के लिए प्रथम तो किसान को उसे अच्छी तरह से जोतना पड़ता है। और जब पूर्ण रूप से जुताई हो जाए एवं उसमें खाद एवं पानी अच्छी तरह से डाल दिए जाएँ तब यदि वह उसमें अच्छे बीज न बोए तो जमीन ऊसर बन जाती है एवं उसमें खरपतवार के सिवा कुछ पैदा नहीं होता। इसलिए असंस्कृत प्रजा को अच्छी सरकार की रचना के लिए सक्षम बनाने के लिये पहले ही उसका सामना करके उसे तोड़ना आवश्यक है। जब वह पूर्णतः नियन्त्रण में आ जाए तब यदि उसे नियमन के द्वारा व्यवस्थित न किया जाए तो वह प्रजा बहुत जल्दी ही अपनी असंस्कारिता पर उतर आती है।<ref>सर ज्हॉन डेविस, 'नामदार सम्राट के सुशासन के प्रारम्भ होने तक आयलैंण्ड को पूर्ण रूप से परास्त कर अंग्रेज सत्ता के आधिपत्य में नहीं लाया जा सका उसके सही कारणों की खोज : अ डिस्कवरी ऑव् द टु कोदोदा व्हाय आयलैंण्ट बाँदा नेबर एण्टायरली सबट्यूट एण्ड ब्रॉट अण्डर ओबेडिअन्स ऑव् द क्राउन ऑव् इंग्लैण्ड अण्टील द बिगिनिंग ऑव् हिझ मैजेस्टीझ हैपी रेइन : A Discovery of True Causes, Why Ireland was never entirely subdued and brought under obedience of the Crown of England until the beginning of His Majesty's happy reign, 1630 (पुनर्मुद्रण १८६०)</ref>
   −
लगभग सन् १५०० से यूरोप का विस्तार केवल पश्चिम ही नहीं, पूर्व की ओर भी हुआ। पश्चिम की ओर उसका ध्यान अमेरिका की विशाल जमीन, उसकी खनिज सम्पत्ति तथा वन्य सम्पत्ति पर था। जिसके कारण अमेरिका के समीप स्थित द्वीपों पर तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के पूर्वी खण्ड के प्रदेशों पर यूरोपवासियों की बस्तियाँ बढ़ने लगीं। कहा जाता है कि सन् १४९२ में जब यूरोप को अमेरिका खण्ड की जानकारी हुई तब वहाँ रहनेवालों की संख्या लगभग ९ से ११.२ करोड़ थी। जब कि यूरोप की जनसंख्या उस समय लगभग ६से ७ करोड थी।<ref>एच. एफ. डोबिन्स, 'अमेरिका के मूल निवासियों की जनसंख्या का अनुमान : एस्टीमेटिंग अबोरिजिनल अमेरिकन पोप्युलेशन : Estimating Aboriginal American Population' करण्ट एंथ्रोपोलॉजी, खण्ड ७, क्र.  ४, अक्टूबर १९६६, पृ. ३९५-४४९</ref>
+
लगभग सन् १५०० से यूरोप का विस्तार केवल पश्चिम ही नहीं, पूर्व की ओर भी हुआ। पश्चिम की ओर उसका ध्यान अमेरिका की विशाल जमीन, उसकी खनिज सम्पत्ति तथा वन्य सम्पत्ति पर था। जिसके कारण अमेरिका के समीप स्थित द्वीपों पर तथा उत्तर, मध्य एवं दक्षिण अमेरिका के पूर्वी खण्ड के प्रदेशों पर यूरोपवासियों की बस्तियाँ बढ़ने लगीं। कहा जाता है कि सन् १४९२ में जब यूरोप को अमेरिका खण्ड की जानकारी हुई तब वहाँ रहनेवालों की संख्या लगभग ९ से ११.२ करोड़ थी। जब कि यूरोप की जनसंख्या उस समय लगभग ६से ७ करोड थी।<ref>एच. एफ. डोबिन्स, 'अमेरिका के मूल निवासियों की जनसंख्या का अनुमान : एस्टीमेटिंग अबोरिजिनल अमेरिकन पोप्युलेशन : Estimating Aboriginal American Population' करण्ट एंथ्रोपोलॉजी, खण्ड ७, क्र.  ४, अक्टूबर १९६६, पृ. ३९५-४४९</ref>
    
उस समय अमेरिका के निवासी स्थानीय लोगों का जब तक लगभग सर्वनाश नहीं हुआ तब तक अर्थात् अनुमानतः ४०० वर्ष तक यूरोप ने उनसे असंख्य युद्ध किए। उन्हें गुलाम बनाने तथा उन्हें खदानों में तथा नए शुरू किए गए खेती इत्यादि काममें मजदूर के रूप में उपयोग में लेने के बहुत प्रयास किये। परन्तु उनकी यह योजना यशस्वी नहीं हुई; क्योंकि गुलाम बनने की अपेक्षा अपने विनाश को उन्होंने अधिक श्रेष्ठ माना।  
 
उस समय अमेरिका के निवासी स्थानीय लोगों का जब तक लगभग सर्वनाश नहीं हुआ तब तक अर्थात् अनुमानतः ४०० वर्ष तक यूरोप ने उनसे असंख्य युद्ध किए। उन्हें गुलाम बनाने तथा उन्हें खदानों में तथा नए शुरू किए गए खेती इत्यादि काममें मजदूर के रूप में उपयोग में लेने के बहुत प्रयास किये। परन्तु उनकी यह योजना यशस्वी नहीं हुई; क्योंकि गुलाम बनने की अपेक्षा अपने विनाश को उन्होंने अधिक श्रेष्ठ माना।  
Line 45: Line 45:  
इन युद्धों से भी एक अन्य भीषण बात स्थानीय अमेरिका वासियों के लिए यह थी कि यूरोप से आनेवाले नवागन्तुक अपने साथ रोग भी लाए जो इन स्थानीय लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ यूरोप के देशों मे उस समय शीतला, चेचक, क्षय, मलेरिया, पीतज्वर, विषमज्वर के विभिन्न प्रकार तथा अनेक संसर्गजन्य गुप्त रोगों ने भीषण जानहानि की। इसके साथ ही सन् १६१८ के आसपास उत्तर अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड में प्लेग की महामारी फैली। यूरोपीयों के संसर्ग में आने से पहले अमेरिका के स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के रोगों के जीवाणुओं का सामना नहीं किया था, इसलिए उनमें रोग प्रतिकारक शक्ति का अभाव था। परिणाम स्वरूप स्थानीय लोगों की बस्तियों का सफाया हो गया।<ref>बर्नार्ड डबल्यू शिहान, 'विनाश के बीज : जेफरसन की उदारता और अमेरिकन भारतीय : सीड्स ऑव् एक्स्टींक्शन : जेफरसोनियन फिलान्थ्रोपी एण्ड द अमेरिकन इण्डियन : Seeds of Extinction : Jeffersonian Philanthropy and the American Indian १९७३, पृ. २२७-२२८</ref>  
 
इन युद्धों से भी एक अन्य भीषण बात स्थानीय अमेरिका वासियों के लिए यह थी कि यूरोप से आनेवाले नवागन्तुक अपने साथ रोग भी लाए जो इन स्थानीय लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ यूरोप के देशों मे उस समय शीतला, चेचक, क्षय, मलेरिया, पीतज्वर, विषमज्वर के विभिन्न प्रकार तथा अनेक संसर्गजन्य गुप्त रोगों ने भीषण जानहानि की। इसके साथ ही सन् १६१८ के आसपास उत्तर अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड में प्लेग की महामारी फैली। यूरोपीयों के संसर्ग में आने से पहले अमेरिका के स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के रोगों के जीवाणुओं का सामना नहीं किया था, इसलिए उनमें रोग प्रतिकारक शक्ति का अभाव था। परिणाम स्वरूप स्थानीय लोगों की बस्तियों का सफाया हो गया।<ref>बर्नार्ड डबल्यू शिहान, 'विनाश के बीज : जेफरसन की उदारता और अमेरिकन भारतीय : सीड्स ऑव् एक्स्टींक्शन : जेफरसोनियन फिलान्थ्रोपी एण्ड द अमेरिकन इण्डियन : Seeds of Extinction : Jeffersonian Philanthropy and the American Indian १९७३, पृ. २२७-२२८</ref>  
   −
अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों का बड़े पैमाने पर होने वाला सफाया सन् १६२५ में न्यू इंग्लैण्ड में आनेवाले अंग्रेज के लिए तो जैसे 'ईश्वर की लीला' थी। उसने सोचा कि इस पतन के कारण 'यह पूरा प्रदेश अंग्रेजों को बसने के लिए एवं प्रभु की कीर्ति बढ़ानेवाले मंदिर बनवाने के लिए अधिक उत्तम हो गया है। उसी समय एक अंग्रेज ने कहा कि 'प्रभु ने यह प्रदेश हमारे लिए ही खोज दिया है एवं अधिकांश स्थानीय लोगों को घातकी युद्धों द्वारा तथा जानलेवा बीमारियों के द्वारा मार डाला है। पचास वर्ष बाद न्यूयोर्क के एक वर्णन में कहा गया 'सामान्य रूप से ऐसा देखा गया है कि जहाँ अंग्रेज स्थायी होना चाहते हैं वहाँ दैवी हाथ उनके लिए रास्ता बना देता है। या तो वे भारतीयों (अमेरिका के मूलनिवासी) कों आन्तरिक युद्धों के द्वारा या जानलेवा बीमारियों के द्वारा नष्ट कर देता है।' और लेखक ने जोड़ा, “यह सचमुच प्रशंसनीय है कि जब से अंग्रजों ने वहाँ निवास करना प्रारम्भ किया तब से ही वहाँ के निवासियों का आश्चर्यजनक रूप से ईश्वर के हाथों नाश हुआ एवं उनकी संख्या कम होती गई। क्यों कि हमारे समय में जहाँ छ: नगर थे उसकी जनसंख्या घटकर अब दो छोटे छोटे गाँवों में सिमटकर रह गई है।"
+
अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों का बड़े पैमाने पर होने वाला सफाया सन् १६२५ में न्यू इंग्लैण्ड में आनेवाले अंग्रेज के लिए तो जैसे 'ईश्वर की लीला' थी। उसने सोचा कि इस पतन के कारण 'यह पूरा प्रदेश अंग्रेजों को बसने के लिए एवं प्रभु की कीर्ति बढ़ानेवाले मंदिर बनवाने के लिए अधिक उत्तम हो गया है।' उसी समय एक अंग्रेज ने कहा कि 'प्रभु ने यह प्रदेश हमारे लिए ही खोज दिया है एवं अधिकांश स्थानीय लोगों को घातकी युद्धों द्वारा तथा जानलेवा बीमारियों के द्वारा मार डाला है।'<ref>एच. सी. पोर्टर, 'अस्थिर जंगली : इंग्लैण्ड और उत्तरी अमेरिकी भारतीय, १५०० से १६०० : द इन्कॉन्स्टण्ट सेवेज : इंग्लैण्ड एण्ड द नॉर्थ अमेरिकन इण्डियन १५०० - १६०० : The Inconstant Savage : England and the North American Indian 1500 - 1600' १९७९, पृ. ४२८</ref> पचास वर्ष बाद न्यूयोर्क के एक वर्णन में कहा गया 'सामान्य रूप से ऐसा देखा गया है कि जहाँ अंग्रेज स्थायी होना चाहते हैं वहाँ दैवी हाथ उनके लिए रास्ता बना देता है। या तो वे भारतीयों (अमेरिका के मूलनिवासी) कों आन्तरिक युद्धों के द्वारा या जानलेवा बीमारियों के द्वारा नष्ट कर देता है।' और लेखक ने जोड़ा, “यह सचमुच प्रशंसनीय है कि जब से अंग्रजों ने वहाँ निवास करना प्रारम्भ किया तब से ही वहाँ के निवासियों का आश्चर्यजनक रूप से ईश्वर के हाथों नाश हुआ एवं उनकी संख्या कम होती गई। क्यों कि हमारे समय में जहाँ छ: नगर थे उसकी जनसंख्या घटकर अब दो छोटे छोटे गाँवों में सिमटकर रह गई है।"<ref>6</ref>
   −
अठारहवीं शताब्दी के मध्य में या कदाचित् उससे भी पूर्व, यूरोप से जानेवाले नवागन्तुकों ने अपना शीतला, प्लेग जैसा जानलेवा रोग उस समय के अमेरिका के स्थानीय लोगों में जानबूझकर फैलाया। ब्रिटन के सेनापति द्वारा सन् १७६३ में जानबूझकर शीतला का रोग उत्तर अमेरिका में डाला गया। वे कैदियों को बदमाश मानते थे एवं उनकी इच्छा ऐसी थी कि कोई भी बदमाश जीवित नहीं रहना चाहिए। उसे ऐसा समाचार भी मिला था कि फोर्ट पिट में शीतला का रोग फैल गया है तब उसे लगा कि यह रोग उनके लिए लाभदायी सिद्ध हो सकता है। यह जानकर ब्रिटन के सैन्य के एक अन्य अधिकारीने ऐसा भी कहा में इस रोग के जीवाणुओं को कैदियों के कम्बलों में फैला दूंगा जिससे यह रोग उन्हें मार डाले। साथ ही साथ मैं यह सावधानी भी रखूगाँ कि मुझे इस रोग का संक्रमण न लगे। इस प्रकार, बीसवीं शताब्दी की दुश्मन देशों में रहनेवाले मनुष्य, प्राणी तथा वनस्पति जगत में जानलेवा बीमारी फैलाने की प्रथा के मूल पुरानी यूरोपीय संस्कृति में रहे होंगे ऐसा लगता है।
+
अठारहवीं शताब्दी के मध्य में या कदाचित् उससे भी पूर्व, यूरोप से जानेवाले नवागन्तुकों ने अपना शीतला, प्लेग जैसा जानलेवा रोग उस समय के अमेरिका के स्थानीय लोगों में जानबूझकर फैलाया। ब्रिटन के सेनापति द्वारा सन् १७६३ में जानबूझकर शीतला का रोग उत्तर अमेरिका में डाला गया। वे कैदियों को बदमाश मानते थे एवं उनकी इच्छा ऐसी थी कि कोई भी बदमाश जीवित नहीं रहना चाहिए। उसे ऐसा समाचार भी मिला था कि फोर्ट पिट में शीतला का रोग फैल गया है तब उसे लगा कि यह रोग उनके लिए लाभदायी सिद्ध हो सकता है। यह जानकर ब्रिटन के सैन्य के एक अन्य अधिकारीने ऐसा भी कहा 'में इस रोग के जीवाणुओं को कैदियों के कम्बलों में फैला दूंगा जिससे यह रोग उन्हें मार डाले। साथ ही साथ मैं यह सावधानी भी रखूगाँ कि मुझे इस रोग का संक्रमण न लगे।'<ref>7</ref> इस प्रकार, बीसवीं शताब्दी की दुश्मन देशों में रहनेवाले मनुष्य, प्राणी तथा वनस्पति जगत में जानलेवा बीमारी फैलाने की प्रथा के मूल पुरानी यूरोपीय संस्कृति में रहे होंगे ऐसा लगता है।
   −
यूरोपीयों ने जब अमेरिका की खोज करने के बाद वहाँ बसना प्रारम्भ किया तब उन्हें मजदूरों की बहुत आवश्यकता पड़ने लगी। अमेरिका के जो थोडे बहुत निवासी बचे थे उनसे मजदूरी का काम नहीं करवाया जा सकता था। यूरोपीय स्वयं तो खदान में काम करने, जगंल काटने या खेतीबाड़ी का काम करने जैसे परिश्रमी काम करने के लिए सक्षम नहीं थे। इसलिए उन्होंने पश्चिम तथा मध्य आफ्रिका के काले युवकों और प्रौढों को पकडना शुरू किया। जो इस पकड़ने के हिंसक दौर से बचे उन्हें जोर जबरदस्ती से गुलाम बनाया गया। इन गुलामों को जहाजों द्वारा अमेरिका भेजा गया। सन् १५०० से सन् १८७० के दौरान अमेरिका या अटलान्टिक महासागर के द्वीपों पर वास्तविक पहुँचे हुए ऐसे गुलामों की संख्या उस समय की समुद्रयात्रा से सम्बन्धित टिप्पणियों के अनुसार १ करोड़ जितनी है। यदि हम विभिन्न प्रक्रियाएँ जैसी कि गुलामों को पकडना, अन्दरूनी क्षेत्रों से आफ्रिका के समुद्रतट पर लाना, जहाजों पर चढाना और लम्बी समुद्री यात्रा करवाना इत्यादि के दौरान मरनेवाले लोगों की गिनती का एक सामान्य अनुमान लगाएँ तो गुलामी की इस प्रक्रिया से प्रभावित काली आफ्रिकन प्रजा की संख्या लगभग पाँच करोड़ तक पहुँचेगी। कदाचित् यह संख्या दस करोड़ जितनी भी होगी। यद्यपि इस अनुमान में आफ्रिका के प्रभावित क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुए विघटन या उनके समाज में हुई पुरुषों की संख्या की बहुत बड़ी मात्रा में कमी को या यूरोपीयों की घूसखोरी से प्रसूत नए रोगों को तो गिनती में लिया ही नहीं गया है।
+
यूरोपीयों ने जब अमेरिका की खोज करने के बाद वहाँ बसना प्रारम्भ किया तब उन्हें मजदूरों की बहुत आवश्यकता पड़ने लगी। अमेरिका के जो थोडे बहुत निवासी बचे थे उनसे मजदूरी का काम नहीं करवाया जा सकता था। यूरोपीय स्वयं तो खदान में काम करने, जगंल काटने या खेतीबाड़ी का काम करने जैसे परिश्रमी काम करने के लिए सक्षम नहीं थे। इसलिए उन्होंने पश्चिम तथा मध्य आफ्रिका के काले युवकों और प्रौढों को पकडना शुरू किया। जो इस पकड़ने के हिंसक दौर से बचे उन्हें जोर जबरदस्ती से गुलाम बनाया गया। इन गुलामों को जहाजों द्वारा अमेरिका भेजा गया। सन् १५०० से सन् १८७० के दौरान अमेरिका या अटलान्टिक महासागर के द्वीपों पर वास्तविक पहुँचे हुए ऐसे गुलामों की संख्या उस समय की समुद्रयात्रा से सम्बन्धित टिप्पणियों के अनुसार १ करोड़ जितनी है।<ref>8</ref> यदि हम विभिन्न प्रक्रियाएँ जैसी कि गुलामों को पकडना, अन्दरूनी क्षेत्रों से आफ्रिका के समुद्रतट पर लाना, जहाजों पर चढाना और लम्बी समुद्री यात्रा करवाना इत्यादि के दौरान मरनेवाले लोगों की गिनती का एक सामान्य अनुमान लगाएँ तो गुलामी की इस प्रक्रिया से प्रभावित काली आफ्रिकन प्रजा की संख्या लगभग पाँच करोड़ तक पहुँचेगी। कदाचित् यह संख्या दस करोड़ जितनी भी होगी। यद्यपि इस अनुमान में आफ्रिका के प्रभावित क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुए विघटन या उनके समाज में हुई पुरुषों की संख्या की बहुत बड़ी मात्रा में कमी को या यूरोपीयों की घूसखोरी से प्रसूत नए रोगों को तो गिनती में लिया ही नहीं गया है।
   −
सन् १७७० में ऐसे गुलामों की प्रतिशत में संख्या उस काल के ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी केरेबियन में ९१ प्रतिशत थी वह उत्तर अमेरिका में २२ प्रतिशत एवं दक्षिणी यूनाइटेड स्टेटस में ४० प्रतिशत थी। सन् १७९० में उस समय के यू.एस.ए. में गुलामों की संख्या कुल प्रजा के १९.३ प्रतिशत थी जबकि यूरोपीयों की संख्या ८० प्रतिशत थी। सन् १९०० तक यू.एस.ए. में आफ्रिकनों का अनुपात कम होकर ११.८ प्रतिशत जितना था।१० अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों को १७९० और १९०० में गणना में नहीं लिया गया था।
+
सन् १७७० में ऐसे गुलामों की प्रतिशत में संख्या उस काल के ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी केरेबियन में ९१ प्रतिशत थी वह उत्तर अमेरिका में २२ प्रतिशत एवं दक्षिणी यूनाइटेड स्टेटस में ४० प्रतिशत थी।<ref>9</ref> सन् १७९० में उस समय के यू.एस.ए. में गुलामों की संख्या कुल प्रजा के १९.३ प्रतिशत थी जबकि यूरोपीयों की संख्या ८० प्रतिशत थी। सन् १९०० तक यू.एस.ए. में आफ्रिकनों का अनुपात कम होकर ११.८ प्रतिशत जितना था।<ref>10</ref> अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों को १७९० और १९०० में गणना में नहीं लिया गया था।
   −
इसके अतिरिक्त यूरोप के स्त्री पुरुष जिन्हें सन् १९०० तक ब्रिटन में नीचले वर्ग का माना जाता था, उन्हें भी कुछ वर्षों तक के करार पर जबरदस्ती नोकरी पर रखा गया एवं बाद में अमेरिका भेज दिया गया। यूरोपीयों के हमवतनी होने से उनकी स्थिति कम त्रासदीयुक्त तथा कुछ अच्छे भविष्य की वचनबद्धता से युक्त थी। निश्चित समयसीमा पूर्ण होने पर उन्हें मुक्त करके कुछ भूमि देकर स्वतन्त्रतापूर्वक काम करने की अनुमति दे दी जाती थी। सन् १६५५ से सन् १६७८ के दौरान बिस्टोल के इंग्लैण्ड के बन्दरगाह से उत्तर अमेरिका में ले जाए जानेवाले ऐसे नौकरीपेशा लोगों की वार्षिक संख्या अनुमानतः ४०० थी। सन् १६८४ में लंदन से लाए जानेवाले मजदूरों की संख्या ७६४ थी एवं सन् १७४५ से १७७५ के दौरान जो नौकरीपेशा लोग ब्रिटन से उत्तर अमेरिका के एनापोलिस शहर में पहुँचे उनकी संख्या १९,९२० थी उनमें ९,३६० ऐसे लोगों का समावेश था जिन्हें अपराधी होने का ठप्पा लगाया गया था।
+
इसके अतिरिक्त यूरोप के स्त्री पुरुष जिन्हें सन् १९०० तक ब्रिटन में नीचले वर्ग का माना जाता था, उन्हें भी कुछ वर्षों तक के करार पर जबरदस्ती नोकरी पर रखा गया एवं बाद में अमेरिका भेज दिया गया। यूरोपीयों के हमवतनी होने से उनकी स्थिति कम त्रासदीयुक्त तथा कुछ अच्छे भविष्य की वचनबद्धता से युक्त थी। निश्चित समयसीमा पूर्ण होने पर उन्हें मुक्त करके कुछ भूमि देकर स्वतन्त्रतापूर्वक काम करने की अनुमति दे दी जाती थी। सन् १६५५ से सन् १६७८ के दौरान बिस्टोल के इंग्लैण्ड के बन्दरगाह से उत्तर अमेरिका में ले जाए जानेवाले ऐसे नौकरीपेशा लोगों की वार्षिक संख्या अनुमानतः ४०० थी। सन् १६८४ में लंदन से लाए जानेवाले मजदूरों की संख्या ७६४ थी एवं सन् १७४५ से १७७५ के दौरान जो नौकरीपेशा लोग ब्रिटन से उत्तर अमेरिका के एनापोलिस शहर में पहुँचे उनकी संख्या १९,९२० थी उनमें ९,३६० ऐसे लोगों का समावेश था जिन्हें अपराधी होने का ठप्पा लगाया गया था।<ref>11</ref>
    
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से ऐसे नोकरीपेशा लोगों को ब्रिटन के आधिपत्य में स्थित दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण आफ्रिका एवं अटलाण्टिक महासागर के टापुओं पर बड़े पैमाने पर भेजा गया वह इस यूरोपीय प्रथा की केवल नकल ही थी।
 
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से ऐसे नोकरीपेशा लोगों को ब्रिटन के आधिपत्य में स्थित दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण आफ्रिका एवं अटलाण्टिक महासागर के टापुओं पर बड़े पैमाने पर भेजा गया वह इस यूरोपीय प्रथा की केवल नकल ही थी।
   −
यूरोप में ऐसे गुलामों की संस्थाएँ प्राचीनकाल से ही अस्तित्व में थीं। प्राचीन ग्रीस के तथा ईसा पूर्व के रोम के राज्य में गुलामी की प्रथा बड़े पैमाने पर अमल में थी। ईसा पूर्व ४३२ या उससे भी पूर्व के एथेन्स में अर्थात् लगभग सोक्रेटिस के समय में गुलामों की संख्या १,१५,००० थी, जबकि उस समय उसकी समग्र जनसंख्या ३,१७,००० थी। इसके अतिरिक्त वहाँ ३८,००० मेटीक (एक गुलाम जाति) एवं उनके परिवार भी थे। ऐसा अनुमान है कि स्पार्टा में गुलामों का अनुपात बहुत अधिक था। सन् ३७१ इसा पूर्व में स्पार्टा में अर्थात् प्लेटो के युग में गुलाम (जो कि हेलोट कहलाते थे) की संख्या १,४०,००० से २,००,००० तक थी एवं पेरीओकी, गुलाम के समान, की संख्या ४०,००० से ६०,००० थी। जब कि वहाँ कुल जनसंख्या १,९०,००० से २,७०,००० थी। इसमें स्पार्टा के सम्पूर्ण नागरिक अधिकार युक्त लोगों की संख्या तो केवल २५०० से ३००० थी एवं सीमित अधिकार वाले स्पार्टा के लोगों की संख्या १५०० से २००० थी।१२
+
यूरोप में ऐसे गुलामों की संस्थाएँ प्राचीनकाल से ही अस्तित्व में थीं। प्राचीन ग्रीस के तथा ईसा पूर्व के रोम के राज्य में गुलामी की प्रथा बड़े पैमाने पर अमल में थी। ईसा पूर्व ४३२ या उससे भी पूर्व के एथेन्स में अर्थात् लगभग सोक्रेटिस के समय में गुलामों की संख्या १,१५,००० थी, जबकि उस समय उसकी समग्र जनसंख्या ३,१७,००० थी। इसके अतिरिक्त वहाँ ३८,००० मेटीक (एक गुलाम जाति) एवं उनके परिवार भी थे। ऐसा अनुमान है कि स्पार्टा में गुलामों का अनुपात बहुत अधिक था। सन् ३७१ इसा पूर्व में स्पार्टा में अर्थात् प्लेटो के युग में गुलाम (जो कि हेलोट कहलाते थे) की संख्या १,४०,००० से २,००,००० तक थी एवं पेरीओकी, गुलाम के समान, की संख्या ४०,००० से ६०,००० थी। जब कि वहाँ कुल जनसंख्या १,९०,००० से २,७०,००० थी। इसमें स्पार्टा के सम्पूर्ण नागरिक अधिकार युक्त लोगों की संख्या तो केवल २५०० से ३००० थी एवं सीमित अधिकार वाले स्पार्टा के लोगों की संख्या १५०० से २००० थी।<ref>12</ref>
   −
==== एशिया में यूरोप का बढ़ता हुआ वर्चस्व ====
+
== एशिया में यूरोप का बढ़ता हुआ वर्चस्व ==
यूरोप ने अमेरिका में अपने आधिपत्य का विस्तार किया एवं आफ्रिका में भी घूसखोरी शुरू की इसके साथ ही उसने पूर्व की ओर स्थित एशिया में भी अपना विस्तार शुरू किया। भारत पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा गया उसके दस बारह वर्षों में ही यूरोप ने गोवा तथा उसके आसपास के प्रदेशों पर अपना कब्जा जमा लिया। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में विशाल विजयनगर के राजकर्मियों ने शत्रों के लिए पुर्तगालियों का आधार लिया, तो सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल सम्राट जहांगीर, एक ओर पश्चिम भारत एवं पर्शिया की खाडी तो दूसरी ओर अरेबिया के समुद्री मार्ग में अवरोध रूप बने हुए समुद्री डाकुओं को दूर करने के लिए अंग्रेजों की सहायता ले रहा था। इससे भारत पर यूरोप का उस समय कैसा प्रभाव था इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन् १५५० तक तो श्रीलंका, मलेशिया, थाईलैण्ड एवं इण्डोनेशिया के टाप् तथा उसके आसपास के प्रदेशों में यूरोप की उपस्थिति दिखने लगी थी।
+
यूरोप ने अमेरिका में अपने आधिपत्य का विस्तार किया एवं आफ्रिका में भी घूसखोरी शुरू की इसके साथ ही उसने पूर्व की ओर स्थित एशिया में भी अपना विस्तार शुरू किया। भारत पहुँचने का समुद्री मार्ग खोजा गया उसके दस बारह वर्षों में ही यूरोप ने गोवा तथा उसके आसपास के प्रदेशों पर अपना कब्जा जमा लिया। सोलहवीं शताब्दी के मध्य में विशाल विजयनगर के राजकर्मियों ने शस्ञों के लिए पुर्तगालियों का आधार लिया, तो सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मुगल सम्राट जहांगीर, एक ओर पश्चिम भारत एवं पर्शिया की खाडी तो दूसरी ओर अरेबिया के समुद्री मार्ग में अवरोध रूप बने हुए समुद्री डाकुओं को दूर करने के लिए अंग्रेजों की सहायता ले रहा था। इससे भारत पर यूरोप का उस समय कैसा प्रभाव था इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सन् १५५० तक तो श्रीलंका, मलेशिया, थाईलैण्ड एवं इण्डोनेशिया के टापु तथा उसके आसपास के प्रदेशों में यूरोप की उपस्थिति दिखने लगी थी।
    
ऐसा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी में तो यूरोपने आफ्रिका के दक्षिण तथा पूर्व समुद्री किनारों के प्रदेशों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। यह सब भिन्न भिन्न इस्ट इंडिया कंपनियों के माध्यम से किया गया था। यूरोप के भिन्न भिन्न राज्यों के द्वारा प्रेरणा दी गयी या उन प्रदेशों में कम्पनी चलाने के लिए लिखित परवाने दिए गए। साथ ही इन कंपनियों को यूरोप की स्थलसेना तथा नौसेना द्वारा संरक्षण दिया गया।
 
ऐसा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी में तो यूरोपने आफ्रिका के दक्षिण तथा पूर्व समुद्री किनारों के प्रदेशों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। यह सब भिन्न भिन्न इस्ट इंडिया कंपनियों के माध्यम से किया गया था। यूरोप के भिन्न भिन्न राज्यों के द्वारा प्रेरणा दी गयी या उन प्रदेशों में कम्पनी चलाने के लिए लिखित परवाने दिए गए। साथ ही इन कंपनियों को यूरोप की स्थलसेना तथा नौसेना द्वारा संरक्षण दिया गया।
   −
उस काल के एक लेखक के मतानुसार सन् १६८७ से भी बहुत पहले से ही सियाम (थाइलैण्ड) सरकार की दीवानी तथा लश्करी शाखाओं में अंग्रेजों ने विश्वास सम्पादित किया था। एक अंग्रेज मिरजू तथा ताना करीम में 'शोबंदर या आयात विभाग का उपरी अधिकारी' था तो दूसरा अंग्रेज 'राजा के नौकादल के सेनापति' के समान ऊँची पदवी पर था।१३ सत्रहवीं शताब्दी में जब डच एवं पुर्तगालियों की प्रमुख सत्ता दक्षिण पूर्वी एशिया पर थी तब उन्होंने अपने वर्चस्वयुक्त क्षेत्रों में ऐसे अनगिनत पद प्राप्त किए थे।
+
उस काल के एक लेखक के मतानुसार 'सन् १६८७ से भी बहुत पहले से ही सियाम (थाइलैण्ड) सरकार की दीवानी तथा लश्करी शाखाओं में अंग्रेजों ने विश्वास सम्पादित किया था।' एक अंग्रेज मिरजू तथा ताना करीम में 'शोबंदर या आयात विभाग का उपरी अधिकारी' था तो दूसरा अंग्रेज 'राजा के नौकादल के सेनापति' के समान ऊँची पदवी पर था।<ref>13</ref> सत्रहवीं शताब्दी में जब डच एवं पुर्तगालियों की प्रमुख सत्ता दक्षिण पूर्वी एशिया पर थी तब उन्होंने अपने वर्चस्वयुक्त क्षेत्रों में ऐसे अनगिनत पद प्राप्त किए थे।
    
आफ्रिका का यूरोप के राष्ट्रों के बीच बड़े पैमाने पर किया गया विभाजन तो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ, परन्तु यूरोप की आफ्रिका में घूसखोरी एवं उसके वर्चस्व का बीज तो सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही पड़ गया था। भारत, दक्षिण पूर्व तथा दक्षिण एशिया पहुँचने का मार्ग खोजे जाने के तुरन्त बाद ही आफ्रिका के पश्चिम, दक्षिण एवं पूर्वी समुद्री किनारों पर थोडी थोडी दूरी पर उनकी छावनी स्थापित की गईं। लगभग १४५० से अस्तित्व में रही आफ्रिकनों को गुलाम बनाकर पहले भूमध्य सागर के टापुओं पर एवं वहाँ से अमेरिका ले जाने की प्रथा के कारण यूरोप की घूसखोरी आफ्रिका के हार्द तक पहँच गई। इसके बाद यूरोपीय वसाहतों के अनुकूल स्थान सर्व प्रथम दक्षिण आफ्रिका में खोजे गये। सन् १७०० तक बहुत स्थानों पर ऐसी बस्तियाँ बन गईं जिसके कारण वहाँ यूरोपीयों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हुआ।
 
आफ्रिका का यूरोप के राष्ट्रों के बीच बड़े पैमाने पर किया गया विभाजन तो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ, परन्तु यूरोप की आफ्रिका में घूसखोरी एवं उसके वर्चस्व का बीज तो सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही पड़ गया था। भारत, दक्षिण पूर्व तथा दक्षिण एशिया पहुँचने का मार्ग खोजे जाने के तुरन्त बाद ही आफ्रिका के पश्चिम, दक्षिण एवं पूर्वी समुद्री किनारों पर थोडी थोडी दूरी पर उनकी छावनी स्थापित की गईं। लगभग १४५० से अस्तित्व में रही आफ्रिकनों को गुलाम बनाकर पहले भूमध्य सागर के टापुओं पर एवं वहाँ से अमेरिका ले जाने की प्रथा के कारण यूरोप की घूसखोरी आफ्रिका के हार्द तक पहँच गई। इसके बाद यूरोपीय वसाहतों के अनुकूल स्थान सर्व प्रथम दक्षिण आफ्रिका में खोजे गये। सन् १७०० तक बहुत स्थानों पर ऐसी बस्तियाँ बन गईं जिसके कारण वहाँ यूरोपीयों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हुआ।
Line 72: Line 72:  
लगभग सन् १७०० तक तो भारत के प्रमुख क्षेत्रों में यूरोप द्वारा कोई बड़ा हस्तक्षेप नहीं किया गया था। कदाचित् भारत बहुत विशाल एवं विविधतापूर्ण देश था एवं चीन तो उससे भी अधिक, इसलिए प्रयास कदाचित यही हुए होंगे कि पहले भारत को बाहर की तरफ से घेरा जाए, उसके अन्य प्रदेशों के साथ सम्पर्क काट दिए जाएँ एवं मौका मिलने पर उस पर सीधा आक्रमण किया जाए। ऐसी हलचल भले ही अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हुई हो, परन्तु प्रमुख आक्रमक क्रियाकलाप तो सन् १७५० के आसपास ही शुरू हुए। प्रारम्भ में मद्रास एवं उसके दस वर्ष बाद बंगाल में इसका प्रारम्भ हुआ। इसके बाद इस विजय प्राप्ति का सिलसिला एक शतक तक अर्थात् १८५० तक अविरत चलता रहा। चीन भारत की अपेक्षा अधिक विशाल एवं दुर्गम होने के कारण यूरोप का चीन में हस्तक्षेप १८०० के बाद ही शुरू हुआ। १८५० तक तो यूरोप ने समग्र विश्व पर अपना प्रभुत्व प्राप्त कर लिया।
 
लगभग सन् १७०० तक तो भारत के प्रमुख क्षेत्रों में यूरोप द्वारा कोई बड़ा हस्तक्षेप नहीं किया गया था। कदाचित् भारत बहुत विशाल एवं विविधतापूर्ण देश था एवं चीन तो उससे भी अधिक, इसलिए प्रयास कदाचित यही हुए होंगे कि पहले भारत को बाहर की तरफ से घेरा जाए, उसके अन्य प्रदेशों के साथ सम्पर्क काट दिए जाएँ एवं मौका मिलने पर उस पर सीधा आक्रमण किया जाए। ऐसी हलचल भले ही अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही हुई हो, परन्तु प्रमुख आक्रमक क्रियाकलाप तो सन् १७५० के आसपास ही शुरू हुए। प्रारम्भ में मद्रास एवं उसके दस वर्ष बाद बंगाल में इसका प्रारम्भ हुआ। इसके बाद इस विजय प्राप्ति का सिलसिला एक शतक तक अर्थात् १८५० तक अविरत चलता रहा। चीन भारत की अपेक्षा अधिक विशाल एवं दुर्गम होने के कारण यूरोप का चीन में हस्तक्षेप १८०० के बाद ही शुरू हुआ। १८५० तक तो यूरोप ने समग्र विश्व पर अपना प्रभुत्व प्राप्त कर लिया।
   −
==== भारतीय समाज एवं राज्य व्यवस्था में प्रवेश ====
+
== भारतीय समाज एवं राज्य व्यवस्था में प्रवेश ==
 
अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों का लगभग सम्पूर्ण विनाश, पश्चिम एवं मध्य आफ्रिका के राजनैतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन में भयंकर दखल, जहाँ युवकों तथा वयस्क पुरुषों को व्यापार की वस्तु के रूप में गिना जाता था, उन सब की तुलना में यूरोप का एशिया के प्रति व्यवहार बहुत ही 'सुसंस्कृत' कहा जा सकता है। सन् १४९८ से पूर्व के ऐशिया के मूल निवासियों के उत्तराधिकारी, यूरोप ने वहाँ पहुँचने का मार्ग खोजा उसके ५०० वर्ष बाद भी उसी भूमि पर निवास करते हैं। एशिया के प्रदेशों पर यूरोप का प्रभाव निरन्तर दिखाई देता रहा । वहाँ के लोग यूरोपीयों के हमलों के सामने टिक तो पाए परन्तु मानसिक तथा सामाजिक स्तर पर वे टूट गए।
 
अमेरिका एवं आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों का लगभग सम्पूर्ण विनाश, पश्चिम एवं मध्य आफ्रिका के राजनैतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन में भयंकर दखल, जहाँ युवकों तथा वयस्क पुरुषों को व्यापार की वस्तु के रूप में गिना जाता था, उन सब की तुलना में यूरोप का एशिया के प्रति व्यवहार बहुत ही 'सुसंस्कृत' कहा जा सकता है। सन् १४९८ से पूर्व के ऐशिया के मूल निवासियों के उत्तराधिकारी, यूरोप ने वहाँ पहुँचने का मार्ग खोजा उसके ५०० वर्ष बाद भी उसी भूमि पर निवास करते हैं। एशिया के प्रदेशों पर यूरोप का प्रभाव निरन्तर दिखाई देता रहा । वहाँ के लोग यूरोपीयों के हमलों के सामने टिक तो पाए परन्तु मानसिक तथा सामाजिक स्तर पर वे टूट गए।
    
भारत का एक प्रमुख लक्षण है जातिव्यवस्था। यह व्यवस्था भौगोलिक रूप से स्थान से सम्बन्धित है एवं सामाजिक रूप से समूह अथवा समुदाय केन्द्रित है। इसकी तुलना में यूरोप की रचना व्यक्ति केन्द्रित है। सन् १९४७ में ऐसी बस्तियों की संख्या लगभग ७,००,००० थी। यह संख्या हजार या दो हजार वर्ष पूर्व भी कदाचित् बहुत भिन्न नहीं होगी। भिन्न भिन्न बस्तियों में विभाजित एवं भारत के भिन्न भिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न नामों से पहचानी जाने वाली ऐसी मूल जातियों की संख्या कदाचित् १०० से अधिक नहीं है। ऐसी जातियों की भिन्न भिन्न उपजातियों एवं बस्तियों के सम्बन्ध एवं परस्परावलम्बन से ही भारत की समाज रचना बनी है। यह केवल हिन्दुओं की ही (जो कि भारत के ८५ प्रतिशत लोग हैं) बात नहीं है। जो इस्लाम या इसाई पन्थ में क्रमशः गत ८०० से २०० वर्षों में धर्मान्तरित हुए हैं वे भी लगभग इसी प्रकार की समाज रचना में संगठित हुए हैं।
 
भारत का एक प्रमुख लक्षण है जातिव्यवस्था। यह व्यवस्था भौगोलिक रूप से स्थान से सम्बन्धित है एवं सामाजिक रूप से समूह अथवा समुदाय केन्द्रित है। इसकी तुलना में यूरोप की रचना व्यक्ति केन्द्रित है। सन् १९४७ में ऐसी बस्तियों की संख्या लगभग ७,००,००० थी। यह संख्या हजार या दो हजार वर्ष पूर्व भी कदाचित् बहुत भिन्न नहीं होगी। भिन्न भिन्न बस्तियों में विभाजित एवं भारत के भिन्न भिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न नामों से पहचानी जाने वाली ऐसी मूल जातियों की संख्या कदाचित् १०० से अधिक नहीं है। ऐसी जातियों की भिन्न भिन्न उपजातियों एवं बस्तियों के सम्बन्ध एवं परस्परावलम्बन से ही भारत की समाज रचना बनी है। यह केवल हिन्दुओं की ही (जो कि भारत के ८५ प्रतिशत लोग हैं) बात नहीं है। जो इस्लाम या इसाई पन्थ में क्रमशः गत ८०० से २०० वर्षों में धर्मान्तरित हुए हैं वे भी लगभग इसी प्रकार की समाज रचना में संगठित हुए हैं।
   −
जाति विषयक इतनी जानकारी से स्पष्ट है कि भारत अपने प्रत्येक प्रान्त या बस्ती में रहनेवाले समूह की सहमति के आधार पर स्थापित समाज है। भारत की राज्य व्यवस्था जो गत २००० वर्षों से भी अधिक वर्षों से रचित है वह, इन बस्तियों तथा प्रान्तो में बसने वाले समूहों के आपसी सम्बन्ध, तथा उससे उद्भूत सहमति ही भारतीय ‘धर्म की संकल्पना के मुख्य तत्त्व हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ बस्तियों या प्रान्तों के बीच या धर्म के विभिन्न अर्थघटनों को लेकर कोई मतभेद नहीं था, परन्तु भारतीय मानस जीवन के प्रति इस प्रकार के सर्वसामान्य एवं मूलभूत दृष्टिकोण के द्वारा रचित है जो स्थानीय तनाव तथा आपसी मतभेदों पर स्वाभाविक रूपसे ही नियन्त्रण कर सकता है।
+
जाति विषयक इतनी जानकारी से स्पष्ट है कि भारत अपने प्रत्येक प्रान्त या बस्ती में रहनेवाले समूह की सहमति के आधार पर स्थापित समाज है। भारत की राज्य व्यवस्था जो गत २००० वर्षों से भी अधिक वर्षों से रचित है वह, इन बस्तियों तथा प्रान्तो में बसने वाले समूहों के आपसी सम्बन्ध, तथा उससे उद्भूत सहमति ही भारतीय ‘धर्म' की संकल्पना के मुख्य तत्त्व हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि वहाँ बस्तियों या प्रान्तों के बीच या धर्म के विभिन्न अर्थघटनों को लेकर कोई मतभेद नहीं था, परन्तु भारतीय मानस जीवन के प्रति इस प्रकार के सर्वसामान्य एवं मूलभूत दृष्टिकोण के द्वारा रचित है जो स्थानीय तनाव तथा आपसी मतभेदों पर स्वाभाविक रूपसे ही नियन्त्रण कर सकता है।
    
इस से लगता है कि भारतीय समाज एक मंद गति से बहता हुआ अचल प्रवाह है जो घटनाओं रूपी अवरोधों से अपनी दिशा नहीं बदलता है। आपसी सहमति, समानता एवं सन्तुलन भारत के लिए नवीन भविष्य के अतिशय मोहक प्रतिबिम्ब से भी अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कोई बदलाव या परिवर्तन ही नहीं है, परन्तु वे भारतीय समाज में तभी आवकार्य रहे जब उन्होंने उनकी आपसी सहमति या सन्तुलन को बनाए रखा। इसलिए भारतीय राजकर्ता की भूमिका केवल एक मार्गदर्शक की या फिर प्लेटो द्वारा दर्शाए गए आदर्श पुरुष की या तो एक नियामक की है जो एक प्रबन्धकर्ता के रूप में रहकर स्थानीय या प्रान्तीय लोगों के रीति  रिवाज एवं पसन्द, नापसन्द के अनुसार कार्य करे। यह एक ऐसी सांस्कृतिक राज्य व्यवस्था है जो अपने विविध भागों के बीच समान मूलभूत विचार तथा लक्ष्य से युक्त है। फिर भी उनके बीच का जोड सूत के तन्तु के समान नरम एवं मजबूत है। 'चक्रवर्ती' का विचार भारत के एक होकर मिलजुल कर रहने का स्वभाव तथा उसके अभिजात समाज का प्रतीक है ऐसा भासित होता है। चक्रवर्ती के प्रतीक ने कदाचित यह एकचक्री राज्यव्यवस्था को शक्ति एवं अजेयता प्रदान की है।
 
इस से लगता है कि भारतीय समाज एक मंद गति से बहता हुआ अचल प्रवाह है जो घटनाओं रूपी अवरोधों से अपनी दिशा नहीं बदलता है। आपसी सहमति, समानता एवं सन्तुलन भारत के लिए नवीन भविष्य के अतिशय मोहक प्रतिबिम्ब से भी अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कोई बदलाव या परिवर्तन ही नहीं है, परन्तु वे भारतीय समाज में तभी आवकार्य रहे जब उन्होंने उनकी आपसी सहमति या सन्तुलन को बनाए रखा। इसलिए भारतीय राजकर्ता की भूमिका केवल एक मार्गदर्शक की या फिर प्लेटो द्वारा दर्शाए गए आदर्श पुरुष की या तो एक नियामक की है जो एक प्रबन्धकर्ता के रूप में रहकर स्थानीय या प्रान्तीय लोगों के रीति  रिवाज एवं पसन्द, नापसन्द के अनुसार कार्य करे। यह एक ऐसी सांस्कृतिक राज्य व्यवस्था है जो अपने विविध भागों के बीच समान मूलभूत विचार तथा लक्ष्य से युक्त है। फिर भी उनके बीच का जोड सूत के तन्तु के समान नरम एवं मजबूत है। 'चक्रवर्ती' का विचार भारत के एक होकर मिलजुल कर रहने का स्वभाव तथा उसके अभिजात समाज का प्रतीक है ऐसा भासित होता है। चक्रवर्ती के प्रतीक ने कदाचित यह एकचक्री राज्यव्यवस्था को शक्ति एवं अजेयता प्रदान की है।
   −
यह राज्य व्यवस्था भारत में पुरातन काल से चली आ रही है। यूरोपीयों की कल्पना ऐसी है कि भारतवासी मूल भारत के नहीं है। (उनके मतानुसार कदाचित् भारत में भी अमेरिका के समान आक्रमण हुए होंगे।) परन्तु ऐसा कहना अधिक सही होगा कि प्राचीन भारतवर्ष का एक भाग भारत, एक ऐसा देश है जिस पर कदाचित् कम से कम आक्रमण हुए होंगे। जब कि ऐसा भी नहीं है कि यहाँ के सभी भारतवासी एक ही स्रोत से आए हों। कुछेक परदेशियों ने समयान्तर में भारत में प्रवेश भी किया था। जिनमें सबसे बाद के विदेशी भारत के पश्चिम में स्थित सीमावर्ती प्रदेश से आए थे। फिर भी लगभग बारहवीं शताब्दी के अन्त तक तो भारत का शासन प्रशासन अपने ही राज्य कर्ताओं तथा अपनी ही राज्य व्यवस्था के द्वारा चला। तेरहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुगलों द्वारा किए गए आक्रमण या उनका वर्चस्च भारत पर होने के बावजूद भी वे भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था को हानि नहीं पहुंचा पाए थे। परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों मुगलों का हस्तक्षेप भारतीय समाज पर बढता गया। कुछ हद तक समाज दुर्बल व भीरू बनता गया। जिसके कारण वह अपनी आन्तरिक शक्ति के विषय में संशयग्रस्त बनता गया। यद्यपि इस दुर्बलता या अनिश्चितता के मनोभाव का मूल कदाचित भारत की प्राचीन पद्धति में भी हो। १९ वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत की शूरवीरता कुछ हद तक टिकी रही। ब्रिटन के आधिपत्य के प्रारम्भ के उसके राज्यप्रबन्ध के विषय में भारतवासियों द्वारा अवश्य विरोध किया गया, क्यों कि उनका व्यवहार भारतीय नियमों के अनुसार 'अन्यायपूर्णथा। इस विरोध के द्वारा उन्हें समझाया गया कि वे जो कर रहे हैं उस 'अन्यायपूर्ण व्यवहार' को बदलकर भारतीय नियमों के अनुसार चलें। इसके लिए महात्मा गांधी द्वारा सूचित 'सत्याग्रह' के विशिष्ट प्रयोग जैसे असहयोग, बहिष्कार, या सविनय कानूनभंग इत्यादि भी शुरू हुए। किसानों, मजदूरों नगरवासियों, द्वारा ऐसे अनेक प्रकार के विरोध का प्रदर्शन किया गया। एक विशिष्ट उदाहरण के रूप में १८१०-११ में प्राचीन वाराणसी तथा वर्तमान उत्तरप्रदेश तथा बिहार के कुछ नगरों के आवासों पर ब्रिटिश राज्य द्वारा कर' लगाया गया। उस समय का वृत्तान्त दर्शाता है कि उस 'कर' के विरोध में किसानों, एवं मजदूरों, विशेष करके सुनार, लुहार जैसे धातु से सम्बन्धित कारीगरों एवं कुछ तन्त्रज्ञों ने भी भाग लिया था। जिसमें लगभग २०,००० लोगों ने कई दिनों तक वाराणसी में धरना दिया था और कहा जाता है कि पडोस के शहरों से लगभग २,००,००० लोग वहाँ एकत्र हुए थे। मरघट के डोम ने भी अपना काम बन्द कर दिया था एवं मृतदेहों को भी बिना अन्तिम संस्कार किए ही गंगा में प्रवाहित कर दिया गया था।१४ भारत के लगभग सभी प्रान्तों में ऐसे अनेकों विरोध ब्रिटिश राज्य के प्रारम्भ में किए गए। सन् १८४३ में सूरत शहर में ब्रिटिश सरकार द्वारा 'नमक पर कर' लगाया गया तब वहाँ भी उसका अप्रत्याशित विरोध किया गया था।१५।।
+
यह राज्य व्यवस्था भारत में पुरातन काल से चली आ रही है। यूरोपीयों की कल्पना ऐसी है कि भारतवासी मूल भारत के नहीं है। (उनके मतानुसार कदाचित् भारत में भी अमेरिका के समान आक्रमण हुए होंगे।) परन्तु ऐसा कहना अधिक सही होगा कि प्राचीन भारतवर्ष का एक भाग भारत, एक ऐसा देश है जिस पर कदाचित् कम से कम आक्रमण हुए होंगे। जब कि ऐसा भी नहीं है कि यहाँ के सभी भारतवासी एक ही स्रोत से आए हों। कुछेक परदेशियों ने समयान्तर में भारत में प्रवेश भी किया था। जिनमें सबसे बाद के विदेशी भारत के पश्चिम में स्थित सीमावर्ती प्रदेश से आए थे। फिर भी लगभग बारहवीं शताब्दी के अन्त तक तो भारत का शासन प्रशासन अपने ही राज्य कर्ताओं तथा अपनी ही राज्य व्यवस्था के द्वारा चला। तेरहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुगलों द्वारा किए गए आक्रमण या उनका वर्चस्च भारत पर होने के बावजूद भी वे भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था को हानि नहीं पहुंचा पाए थे। परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों मुगलों का हस्तक्षेप भारतीय समाज पर बढता गया। कुछ हद तक समाज दुर्बल व भीरू बनता गया। जिसके कारण वह अपनी आन्तरिक शक्ति के विषय में संशयग्रस्त बनता गया। यद्यपि इस दुर्बलता या अनिश्चितता के मनोभाव का मूल कदाचित भारत की प्राचीन पद्धति में भी हो। १९ वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत की शूरवीरता कुछ हद तक टिकी रही। ब्रिटन के आधिपत्य के प्रारम्भ के उसके राज्यप्रबन्ध के विषय में भारतवासियों द्वारा अवश्य विरोध किया गया, क्यों कि उनका व्यवहार भारतीय नियमों के अनुसार 'अन्यायपूर्ण' था। इस विरोध के द्वारा उन्हें समझाया गया कि वे जो कर रहे हैं उस 'अन्यायपूर्ण व्यवहार' को बदलकर भारतीय नियमों के अनुसार चलें। इसके लिए महात्मा गांधी द्वारा सूचित 'सत्याग्रह' के विशिष्ट प्रयोग जैसे असहयोग, बहिष्कार, या सविनय कानूनभंग इत्यादि भी शुरू हुए। किसानों, मजदूरों नगरवासियों, द्वारा ऐसे अनेक प्रकार के विरोध का प्रदर्शन किया गया। एक विशिष्ट उदाहरण के रूप में १८१०-११ में प्राचीन वाराणसी तथा वर्तमान उत्तरप्रदेश तथा बिहार के कुछ नगरों के आवासों पर ब्रिटिश राज्य द्वारा 'कर' लगाया गया। उस समय का वृत्तान्त दर्शाता है कि उस 'कर' के विरोध में किसानों, एवं मजदूरों, विशेष करके सुनार, लुहार जैसे धातु से सम्बन्धित कारीगरों एवं कुछ तन्त्रज्ञों ने भी भाग लिया था। जिसमें लगभग २०,००० लोगों ने कई दिनों तक वाराणसी में धरना दिया था और कहा जाता है कि पडोस के शहरों से लगभग २,००,००० लोग वहाँ एकत्र हुए थे। मरघट के डोम ने भी अपना काम बन्द कर दिया था एवं मृतदेहों को भी बिना अन्तिम संस्कार किए ही गंगा में प्रवाहित कर दिया गया था।<ref>14</ref> भारत के लगभग सभी प्रान्तों में ऐसे अनेकों विरोध ब्रिटिश राज्य के प्रारम्भ में किए गए। सन् १८४३ में सूरत शहर में ब्रिटिश सरकार द्वारा 'नमक पर कर' लगाया गया तब वहाँ भी उसका अप्रत्याशित विरोध किया गया था।<ref>15</ref>
   −
ब्रिटिश एवं यूरोपीयों के मतानुसार सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत की आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी थी। उस समय प्रजा राज्यकर्ता के दबाव में नहीं थी। उल्टे राज्यकर्ता प्रजा के दबाव में रहता था।१६ राज्यकर्ता के अन्यायपूर्ण व्यवहार करने पर उस समय के नियम के अनुसार उसे बदल दिया जाता था। यही कानून राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों में आन्तरिक सभ्यता बनाए रखने में सहायक था। प्रथा ऐसी थी कि जब कोई मुलाकाती आए तो अतिथि तथा यजमान दोनों एकदूसरे को भेंट देते थे।
+
ब्रिटिश एवं यूरोपीयों के मतानुसार सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत की आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी थी। उस समय प्रजा राज्यकर्ता के दबाव में नहीं थी। उल्टे राज्यकर्ता प्रजा के दबाव में रहता था।<ref>16</ref> राज्यकर्ता के अन्यायपूर्ण व्यवहार करने पर उस समय के नियम के अनुसार उसे बदल दिया जाता था। यही कानून राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों में आन्तरिक सभ्यता बनाए रखने में सहायक था। प्रथा ऐसी थी कि जब कोई मुलाकाती आए तो अतिथि तथा यजमान दोनों एकदूसरे को भेंट देते थे।उसमें मेहमान द्वारा लाई गई भेट सामान्य रूप से कम महंगी व छोटी होती थी परन्तु यजमान द्वारा उसे कीमती भेंटसौगातें दी जाती थीं। ऐसी ही सभ्यता न्यायालयों में भी कायम थी। वहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति जाते समय पान सुपारी की अपेक्षा करता था जो उसे अवश्य दिया जाता था।<ref>17</ref>
 
  −
उसमें मेहमान द्वारा लाई गई भेट सामान्य रूप से कम महंगी व छोटी होती थी परन्तु यजमान द्वारा उसे कीमती भेंटसौगातें दी जाती थीं। ऐसी ही सभ्यता न्यायालयों में भी कायम थी। वहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति जाते समय पान सुपारी की अपेक्षा करता था जो उसे अवश्य दिया जाता था।१७
      
आज भारत में जो विद्यमान एवं दृश्यमान हैं वैसे सोलहवीं शताब्दी में बनवाए गए भव्य मन्दिर, दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मद्रास के पास उत्तर मैसूर में स्थित भारत की राज्यव्यवस्था से सम्बन्धित असंख्य शिलालेख, वहाँ के छोटेबडे फव्वारों की कला-कारीगरी, दिल्ली के अशोकस्तम्भ जैसे अनेकानेक लोहस्तम्भ, ये सब भारतीय संस्कृति के भौतिक चिह्न हैं। यद्यपि भारत के या पश्चिम के साहित्य में इसका बहुत उल्लेख नहीं है, तो भी सन् १८०० तक भारत की अधिकांश बस्तियों में तथा कई प्रान्तों में ऐसे सांस्कृतिक चिह्नों के निर्माण का काम हो रहा था। सम्भव है कि इस संस्कृति की जो भव्यता बारहवीं शताब्दी में चरम उत्कर्ष पर थी उसकी सुन्दरता एवं व्यापकता धीरे धीरे कम होने लगी थी। लगभग सन् १८०० तक भले ही ये कलाकृतियाँ अपनी भव्यता खो चुकी थीं फिर भी व्यापकता यथावत् थी।
 
आज भारत में जो विद्यमान एवं दृश्यमान हैं वैसे सोलहवीं शताब्दी में बनवाए गए भव्य मन्दिर, दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मद्रास के पास उत्तर मैसूर में स्थित भारत की राज्यव्यवस्था से सम्बन्धित असंख्य शिलालेख, वहाँ के छोटेबडे फव्वारों की कला-कारीगरी, दिल्ली के अशोकस्तम्भ जैसे अनेकानेक लोहस्तम्भ, ये सब भारतीय संस्कृति के भौतिक चिह्न हैं। यद्यपि भारत के या पश्चिम के साहित्य में इसका बहुत उल्लेख नहीं है, तो भी सन् १८०० तक भारत की अधिकांश बस्तियों में तथा कई प्रान्तों में ऐसे सांस्कृतिक चिह्नों के निर्माण का काम हो रहा था। सम्भव है कि इस संस्कृति की जो भव्यता बारहवीं शताब्दी में चरम उत्कर्ष पर थी उसकी सुन्दरता एवं व्यापकता धीरे धीरे कम होने लगी थी। लगभग सन् १८०० तक भले ही ये कलाकृतियाँ अपनी भव्यता खो चुकी थीं फिर भी व्यापकता यथावत् थी।
   −
भारत का इतिहास दर्शाता है कि उसका विकेन्द्रीकरण अभी जिसे जिला कहते हैं ऐसे ४०० छोटे प्रान्तों में एवं भाषा तथा संस्कृति के आधार पर १५ से २० प्रान्तों में बहुत पहले से ही हुआ था। भारत के कई प्रान्त तथा जिलों में सूत, रेशम तथा ऊन कातने, रंगने, उसका कपडा बुनने एवं उसे छापने का काम बहुत बड़े पैमाने पर चलता रहा। लगभग सभी अर्थात् ४०० जिलों में कपडा तैयार किया जाता था। सन् १८१० के आसपास दक्षिण भारत के सभी जिलों में १०,००० से २०,००० के लगभग हथकरघे थे। एक सामान्य अनुमान के अनुसार उस समय भारत में लोहे तथा फौलाद के उत्पादन के लिए १०,००० के लगभग भठ्ठियाँ थीं। उन्नसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के दशकों में भारत में उत्पादित फौलाद बहुत उच्च गुणवत्तायुक्त माना जाता था। ब्रिटिश लोग शल्यक्रिया के साधन (Surgical Instruments) बनाने में उसी फौलाद का उपयोग करते थे। यह फौलाद एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जा सके ऐसी भट्टियों में बना हुआ था जिन की क्षमता एक वर्ष में ४० सप्ताह काम करके २० टन जितने उत्तम कक्षा के लोहे का उत्पादन करने की थी। उस समय सोना, चांदी, पीतल एवं कांसे का काम करनेवाले कई कारीगर थे। साथ ही अन्य धातुओं का काम करनेवाले कारीगर भी थे। ऐसे लोग भी थे जो कच्ची धातु की खानों में काम करते थे और विभिन्न धातु का उत्पादन करते थे। कुछ लोग पत्थरों की खान में काम करते थे। उस समय शिल्पियों, चित्रकार, मकान बनानेवाले कारीगर भी थे। साथ ही चीनी, नमक, तेल तथा अन्य वस्तु का उत्पादन करनेवाले (लगभग एक प्रतिशत लोग) भी थे। सन् १८०० से एवं उसके आसपास हस्तकला तथा अन्य उद्योगों के १५ से २५ प्रतिशत भारतीय विभिन्न प्रान्तों में कम अधिक मात्रा में थे। इसके अतिरिक्त कुछ समय सूत कातने का काम भी चलता था। चरखे पर २५ घण्टे कातकर जितना सूत बनता था उससे कपडा बुनने के लिए ८-घण्टे लगते थे। बुनाई में लगभग सम्पूर्ण बस्ती के ५ प्रतिशत लोग लगे हुए थे। इस से लगता है कि भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में चरखा चलाने का काम वर्ष भर चलता होगा।
+
भारत का इतिहास दर्शाता है कि उसका विकेन्द्रीकरण अभी जिसे जिला कहते हैं ऐसे ४०० छोटे प्रान्तों में एवं भाषा तथा संस्कृति के आधार पर १५ से २० प्रान्तों में बहुत पहले से ही हुआ था। भारत के कई प्रान्त तथा जिलों में सूत, रेशम तथा ऊन कातने, रंगने, उसका कपडा बुनने एवं उसे छापने का काम बहुत बड़े पैमाने पर चलता रहा। लगभग सभी अर्थात् ४०० जिलों में कपडा तैयार किया जाता था। सन् १८१० के आसपास दक्षिण भारत के सभी जिलों में १०,००० से २०,००० के लगभग हथकरघे थे।<ref>18</ref> एक सामान्य अनुमान के अनुसार उस समय भारत में लोहे तथा फौलाद के उत्पादन के लिए १०,००० के लगभग भठ्ठियाँ थीं। उन्नसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के दशकों में भारत में उत्पादित फौलाद बहुत उच्च गुणवत्तायुक्त माना जाता था। ब्रिटिश लोग शल्यक्रिया के साधन (Surgical Instruments) बनाने में उसी फौलाद का उपयोग करते थे। यह फौलाद एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जा सके ऐसी भट्टियों में बना हुआ था जिन की क्षमता एक वर्ष में ४० सप्ताह काम करके २० टन जितने उत्तम कक्षा के लोहे का उत्पादन करने की थी। उस समय सोना, चांदी, पीतल एवं कांसे का काम करनेवाले कई कारीगर थे। साथ ही अन्य धातुओं का काम करनेवाले कारीगर भी थे। ऐसे लोग भी थे जो कच्ची धातु की खानों में काम करते थे और विभिन्न धातु का उत्पादन करते थे। कुछ लोग पत्थरों की खान में काम करते थे। उस समय शिल्पियों, चित्रकार, मकान बनानेवाले कारीगर भी थे। साथ ही चीनी, नमक, तेल तथा अन्य वस्तु का उत्पादन करनेवाले (लगभग एक प्रतिशत लोग) भी थे। सन् १८०० से एवं उसके आसपास हस्तकला तथा अन्य उद्योगों के १५ से २५ प्रतिशत भारतीय विभिन्न प्रान्तों में कम अधिक मात्रा में थे। इसके अतिरिक्त कुछ समय सूत कातने का काम भी चलता था। चरखे पर २५ घण्टे कातकर जितना सूत बनता था उससे कपडा बुनने के लिए ८-घण्टे लगते थे। बुनाई में लगभग सम्पूर्ण बस्ती के ५ प्रतिशत लोग लगे हुए थे। इस से लगता है कि भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में चरखा चलाने का काम वर्ष भर चलता होगा।
   −
मनुष्य तथा पशुधन के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भारत के पास ओषधियां तथा शल्य क्रियाकी सप्रस्थापित प्राचीन पद्धति थी। सन् १८०० के आसपास के समय में मोतियाबिन्दु तथा प्लास्टिक सर्जरी का काम भारत के भिन्न प्रान्तों में होता ही था। ब्रिटन में एक शोधक ने कहा है कि लगभग १७९० के बाद भारतीय प्लास्टिक सर्जरी के अध्ययन के आधार पर ब्रिटन में वर्तमान आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी की पद्धति का विकास किया गया।
+
मनुष्य तथा पशुधन के स्वास्थ्य के सम्बन्ध में भारत के पास ओषधियां तथा शल्य क्रियाकी सुप्रस्थापित प्राचीन पद्धति थी। सन् १८०० के आसपास के समय में मोतियाबिन्दु तथा प्लास्टिक सर्जरी का काम भारत के भिन्न प्रान्तों में होता ही था। ब्रिटन में एक शोधक ने कहा है कि लगभग १७९० के बाद भारतीय प्लास्टिक सर्जरी के अध्ययन के आधार पर ब्रिटन में वर्तमान आधुनिक प्लास्टिक सर्जरी की पद्धति का विकास किया गया।
    
चेचक निवारण टीकाकरण की व्यापक भारतीय पद्धति का ब्रिटिश मुलाकातियों ने या अठारहवीं शताब्दी के मध्यमें भारत में रहनेवाले ब्रिटिश लोगों ने उपयोग किया एवं ब्रिटन के चिकित्साकर्मियों के लिए उपयोगी बनाने के उद्देश्य से उसका विस्तार से वर्णन किया है।
 
चेचक निवारण टीकाकरण की व्यापक भारतीय पद्धति का ब्रिटिश मुलाकातियों ने या अठारहवीं शताब्दी के मध्यमें भारत में रहनेवाले ब्रिटिश लोगों ने उपयोग किया एवं ब्रिटन के चिकित्साकर्मियों के लिए उपयोगी बनाने के उद्देश्य से उसका विस्तार से वर्णन किया है।
   −
विशेष बात यह है कि ब्रिटिश मुलाकातियों या विशेषज्ञों द्वारा जिस किसी भी भारतीय पद्धति का विवरण किया गया है वह सब उस समय की ब्रिटिश पद्धतियों में सुधार करने हेतु था। अमुक पद्धतियाँ कितनी लाभकारी हैं यह सूचित करने हेतु उसका विवरण किया गया। लगभग १७७० के आसपास बंगाल के ब्रिटिश कमाण्डर इन चीफ की ओर से ब्रिटिश रोयल सोसायटी को विस्तार से दी गई जानकारी एक पत्र के रूप में थी। उसमें प्रमुख रूप से - इलाहाबाद के गरम जलवायु को ध्यान में रखकर कृत्रिम बर्फ के उत्पादन की प्रक्रिया बताई गई थी। ऐसे उदाहरण तो अनेक हैं। उदाहरण के तौर पर बोर्ड ऑव् एग्रीकल्चर, लन्दनको, ब्रिटनमें १७९५ में प्रारम्भ हुए बीज तथा बीजांकुरण विषयक प्रयोगों के लिए उपयोगी, दक्षिण भारत में होनेवाले कुछेक बीजप्रयोगों का विवरण भेजा गया था। भारतीय चूना एवं कपडे के रंगों के घटक तथा उसकी समग्र पद्धति तथा लोहे के उत्पादन की पद्धति का निरूपण ब्रिटन __ में अपनाई जानेवाली तत्कालीन पद्धति में सुधार लाने हेतु भेजा गया था। जब ब्रिटन में लगभग सन् १८०० के आसपास साधारण बच्चों की शिक्षा हेतु प्रयास प्रारम्भ किए गए तब भारत में सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी के दौरान प्रचलित 'प्रमुख छात्र पद्धति' (Monitor System) की ओर कुछ यूरोपीयों का ध्यान गया था। ब्रिटन को प्रारम्भ में इसी पद्धति पर निर्भर रहना पड़ा था।२० ।
+
विशेष बात यह है कि ब्रिटिश मुलाकातियों या विशेषज्ञों द्वारा जिस किसी भी भारतीय पद्धति का विवरण किया गया है वह सब उस समय की ब्रिटिश पद्धतियों में सुधार करने हेतु था। अमुक पद्धतियाँ कितनी लाभकारी हैं यह सूचित करने हेतु उसका विवरण किया गया। लगभग १७७० के आसपास बंगाल के ब्रिटिश कमाण्डर इन चीफ की ओर से ब्रिटिश रोयल सोसायटी को विस्तार से दी गई जानकारी एक पत्र के रूप में थी। उसमें प्रमुख रूप से इलाहाबाद के गरम जलवायु को ध्यान में रखकर कृत्रिम बर्फ के उत्पादन की प्रक्रिया बताई गई थी। ऐसे उदाहरण तो अनेक हैं। उदाहरण के तौर पर बोर्ड ऑव् एग्रीकल्चर, लन्दनको, ब्रिटनमें १७९५ में प्रारम्भ हुए बीज तथा बीजांकुरण विषयक प्रयोगों के लिए उपयोगी, दक्षिण भारत में होनेवाले कुछेक बीजप्रयोगों का विवरण भेजा गया था। भारतीय चूना एवं कपडे के रंगों के घटक तथा उसकी समग्र पद्धति तथा लोहे के उत्पादन की पद्धति का निरूपण ब्रिटन में अपनाई जानेवाली तत्कालीन पद्धति में सुधार लाने हेतु भेजा गया था।<ref>19</ref> जब ब्रिटन में लगभग सन् १८०० के आसपास साधारण बच्चों की शिक्षा हेतु प्रयास प्रारम्भ किए गए तब भारत में सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी के दौरान प्रचलित 'प्रमुख छात्र पद्धति' (Monitor System) की ओर कुछ यूरोपीयों का ध्यान गया था। ब्रिटन को प्रारम्भ में इसी पद्धति पर निर्भर रहना पड़ा था।<ref>20</ref>
    
हिन्दुस्तानी बस्ती का अधिकांश भाग खेती एवं पशुपालन पर निर्भर था। जबकि अधिकांश प्रदेशों में आधे से अधिक जनसंख्या खेती के व्यवसाय में ही थी। पूर्व में उल्लेख हुआ है उसके अनुसार खेती के उपकरण आधुनिक युक्तिपूर्वक तैयार करके उपयोग में लाए जाते थे। खेती की पद्धतियों में बहुत वैविध्य दिखाई देता था। जैसे कि बीज का चयन, उसकी देखभाल, विविध उर्वरक, बुआई, तथा सिंचन इत्यादि पद्धतियों की विभिन्न विकसित एवं युक्तिपूर्ण पद्धतियाँ अपनाकर भारत का किसान प्रचुर मात्रा में फसल प्राप्त करता था। १८०३ के ब्रिटिश अहवाल के अनुसार इलाहाबाद वाराणसी क्षेत्र की खेती की उपज एवं ब्रिटन की खेती की उपज की तुलना करने पर ब्रिटन में गेहूँ की पैदावार से यहाँ तीन गुना अधिक पैदावार दर्ज की गई थी। तमिलनाडु के चेंगलपट्ट जिले में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार १७७० के लगभग की धान की प्रति हेक्टर औसत पैदावार ३ से ४ टन थी। जब कि जिले की उत्तम प्रकार की जमीन में यह पैदावार ६ टन जितनी थी। उल्लेखनीय है कि विश्व में आज भी धान का सर्वश्रेष्ठ उत्पादन प्रति हेक्टर ६ टन ही दर्ज किया गया है।
 
हिन्दुस्तानी बस्ती का अधिकांश भाग खेती एवं पशुपालन पर निर्भर था। जबकि अधिकांश प्रदेशों में आधे से अधिक जनसंख्या खेती के व्यवसाय में ही थी। पूर्व में उल्लेख हुआ है उसके अनुसार खेती के उपकरण आधुनिक युक्तिपूर्वक तैयार करके उपयोग में लाए जाते थे। खेती की पद्धतियों में बहुत वैविध्य दिखाई देता था। जैसे कि बीज का चयन, उसकी देखभाल, विविध उर्वरक, बुआई, तथा सिंचन इत्यादि पद्धतियों की विभिन्न विकसित एवं युक्तिपूर्ण पद्धतियाँ अपनाकर भारत का किसान प्रचुर मात्रा में फसल प्राप्त करता था। १८०३ के ब्रिटिश अहवाल के अनुसार इलाहाबाद वाराणसी क्षेत्र की खेती की उपज एवं ब्रिटन की खेती की उपज की तुलना करने पर ब्रिटन में गेहूँ की पैदावार से यहाँ तीन गुना अधिक पैदावार दर्ज की गई थी। तमिलनाडु के चेंगलपट्ट जिले में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार १७७० के लगभग की धान की प्रति हेक्टर औसत पैदावार ३ से ४ टन थी। जब कि जिले की उत्तम प्रकार की जमीन में यह पैदावार ६ टन जितनी थी। उल्लेखनीय है कि विश्व में आज भी धान का सर्वश्रेष्ठ उत्पादन प्रति हेक्टर ६ टन ही दर्ज किया गया है।
   −
सन् १८०० के आसपास देखी जाने वाली खर्च एवं उपभोग प्रणाली से भी कुछ तुलना एवं सन्तुलन बिठाया जा सकता है। इसके लिए १८०६ में दर्ज की गई बेलारी एवं कुडाप्पा जिले की विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। पूरा जनसमाज तीन भागों में बँटा है। उच्च वर्ग, मध्यम कक्षा के निर्वाहक साधनों से परिपूर्ण मध्यम वर्ग, निकृष्ट साधनों से निर्वाह करनेवाला निम्न वर्ग। बेलारी जिले में उच्च वर्ग में समाविष्ट लोगों की संख्या २,५९,५६८ थी। मध्यम वर्ग की ३,७२,८७७ एवं निम्न वर्ग की संख्या २,१८,६८४ थी। इन वर्गों का प्रति परिवार वार्षिक औसत उपभोक्ता खर्च ६९:३७:३० के अनुपात में था। सभी परिवारोमें अनाज का उपभोग समान था। परन्तु अनाज की गुणवत्ता एवं भिन्नता के कारण उपभोक्ता खर्च का अनुपात भिन्न दिखाई देता है। उपभोग की सामग्री की सूची में २३ वस्तुओं के नाम थे, जिसमें घी, एवं खाद्यतेल का अनुपात लगभग ३:१:१ था, जबकि दाल तथा अनाज ८:३:३ के अनुपात में खर्च होता था।
+
सन् १८०० के आसपास देखी जाने वाली खर्च एवं उपभोग प्रणाली से भी कुछ तुलना एवं सन्तुलन बिठाया जा सकता है। इसके लिए १८०६ में दर्ज की गई बेलारी एवं कुडाप्पा जिले की विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। पूरा जनसमाज तीन भागों में बँटा है। उच्च वर्ग, मध्यम कक्षा के निर्वाहक साधनों से परिपूर्ण मध्यम वर्ग, निकृष्ट साधनों से निर्वाह करनेवाला निम्न वर्ग। बेलारी जिले में उच्च वर्ग में समाविष्ट लोगों की संख्या २,५९,५६८ थी। मध्यम वर्ग की ३,७२,८७७ एवं निम्न वर्ग की संख्या २,१८,६८४ थी। इन वर्गों का प्रति परिवार वार्षिक औसत उपभोक्ता खर्च ६९:३७:३० के अनुपात में था। सभी परिवारोमें अनाज का उपभोग समान था। परन्तु अनाज की गुणवत्ता एवं भिन्नता के कारण उपभोक्ता खर्च का अनुपात भिन्न दिखाई देता है। उपभोग की सामग्री की सूची में २३ वस्तुओं के नाम थे, जिसमें घी, एवं खाद्यतेल का अनुपात लगभग ३:१:१ था, जबकि दाल तथा अनाज ८:३:३ के अनुपात में खर्च होता था।<ref>21</ref>
   −
अठारहवीं शताब्दी के मध्य के भारतीय समाज की राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति को १७६७-१७७४ के दौरान तमिलनाडु के चेंगलपट्ट जिले के ब्यौरेवार सर्वेक्षण के द्वारा समझा जा सकता है।२२ जबकि यह ब्रिटिशरों के द्वारा बहुत विस्तार से किया गया प्रथम सर्वेक्षण था। उस समय वे हिन्दुस्तान की तत्कालीन सामाजिक स्थिति, उत्पादन प्रणालियों एवं औद्योगिक ढाँचे के आन्तर्सम्बन्धों से लगभग अनजान थे। इसलिए यह सम्भव है कि यह सर्वेक्षण एक अनुमानित स्थिति ही हो जिसमें प्रवर्तमान बहुत सी वास्तविकताओं एवं तत्कालीन स्थिति ध्यान में न आई हो। इसका सटीक उदाहरण नमक पकाने वाले लोगों की संख्या का ही है जो केवल ३९ जितना ही बताया गया है। जबकि वास्तव में केवल चेंगलपट्ट जिले का ही १०० कि.मी. लम्बा समुद्रकिनारा है, जिसके आसपास लगभग २००० हेक्टर में नमक पकाने के अगर स्थित थे। ऐसा भी हो सकता है कि सर्वेक्षण में केवल नमक पकाने में व्यस्त एवं देखभाल रखनेवालों की ही गणना की गई हो, समग्र उत्पादन प्रक्रिया के साथ सम्बन्धित लोगों की गणना न की गई हो।
+
अठारहवीं शताब्दी के मध्य के भारतीय समाज की राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति को १७६७-१७७४ के दौरान तमिलनाडु के चेंगलपट्ट जिले के ब्यौरेवार सर्वेक्षण के द्वारा समझा जा सकता है।<ref>22</ref> जबकि यह ब्रिटिशरों के द्वारा बहुत विस्तार से किया गया प्रथम सर्वेक्षण था। उस समय वे हिन्दुस्तान की तत्कालीन सामाजिक स्थिति, उत्पादन प्रणालियों एवं औद्योगिक ढाँचे के आन्तर्सम्बन्धों से लगभग अनजान थे। इसलिए यह सम्भव है कि यह सर्वेक्षण एक अनुमानित स्थिति ही हो जिसमें प्रवर्तमान बहुत सी वास्तविकताओं एवं तत्कालीन स्थिति ध्यान में न आई हो। इसका सटीक उदाहरण नमक पकाने वाले लोगों की संख्या का ही है जो केवल ३९ जितना ही बताया गया है। जबकि वास्तव में केवल चेंगलपट्ट जिले का ही १०० कि.मी. लम्बा समुद्रकिनारा है, जिसके आसपास लगभग २००० हेक्टर में नमक पकाने के अगर स्थित थे। ऐसा भी हो सकता है कि सर्वेक्षण में केवल नमक पकाने में व्यस्त एवं देखभाल रखनेवालों की ही गणना की गई हो, समग्र उत्पादन प्रक्रिया के साथ सम्बन्धित लोगों की गणना न की गई हो।
    
निम्न लिखित सारिणी में जो निरूपण दिया गया है उससे चेंगलपट्ट क्षेत्र के सम्पूर्ण समाज की तत्कालीन (१७७० के आसपास) स्थिति को समझने में सहायता मिलने की सम्भावना है। यह चित्र तत्कालीन भारतीय समाज की अठारहवीं शताब्दी के अन्त भाग की स्थिति को भी दर्शाता है।  
 
निम्न लिखित सारिणी में जो निरूपण दिया गया है उससे चेंगलपट्ट क्षेत्र के सम्पूर्ण समाज की तत्कालीन (१७७० के आसपास) स्थिति को समझने में सहायता मिलने की सम्भावना है। यह चित्र तत्कालीन भारतीय समाज की अठारहवीं शताब्दी के अन्त भाग की स्थिति को भी दर्शाता है।  
Line 125: Line 123:  
===== कलाम =====
 
===== कलाम =====
 
[[File:Capture१०९ .png|none|thumb|303x303px]]
 
[[File:Capture१०९ .png|none|thumb|303x303px]]
[[File:Capture१०९.png|none|thumb|371x371px]]भारतवासियों की प्रतिष्ठा का जो उत्तरोत्तर क्षरण होता गया उसके साथ खेतीबाड़ी, शिक्षा, उद्योग एवं टेक्नोलोजी के स्तर पर भी स्थिति बिगड गई। साथ ही भौतिक संसाधनों की भी बहुत खानाखराबी हुई। पर्यावरण को भी बहुत सहना पड़ा। स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। यहाँ तक कि भारत के अधिकांश जंगल एवं जल संपत्ति बेहाल हुई। विदेशी आधिपत्य के कारण इन की ओर ध्यान देना बन्द हो गया एवं लोगों से इन सभी को छीन लिया गया। यह इस बरबादी का प्रमुख कारण है। यह भी उतना ही सत्य है कि अन्य स्थानों की यूरोपीय नीति के समान ही ब्रिटिश भारतीय वन नीति भी भारतीय वन को कुबेर का भण्डार मानने लगी एवं सारी संपत्ति यूरोप की ओर खींचने का प्रयास करने लगी। सन् १७५० - १८०० के दौरान यूरोपीयों की एक निजी टिम्बर सिन्डीकेट भारत के अधिकांश भागों में अस्तित्व में रही। विशेष रूपसे मलबार में, जहाँ का वन अक्षय संपत्ति के समान था। लगभग १८०५ के आसपास लन्दन से आदेश आया था कि सभी
+
[[File:Capture१०९.png|none|thumb|371x371px]]भारतवासियों की प्रतिष्ठा का जो उत्तरोत्तर क्षरण होता गया उसके साथ खेतीबाड़ी, शिक्षा, उद्योग एवं टेक्नोलोजी के स्तर पर भी स्थिति बिगड गई। साथ ही भौतिक संसाधनों की भी बहुत खानाखराबी हुई। पर्यावरण को भी बहुत सहना पड़ा। स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी। यहाँ तक कि भारत के अधिकांश जंगल एवं जल संपत्ति बेहाल हुई। विदेशी आधिपत्य के कारण इन की ओर ध्यान देना बन्द हो गया एवं लोगों से इन सभी को छीन लिया गया। यह इस बरबादी का प्रमुख कारण है। यह भी उतना ही सत्य है कि अन्य स्थानों की यूरोपीय नीति के समान ही ब्रिटिश भारतीय वन नीति भी भारतीय वन को कुबेर का भण्डार मानने लगी एवं सारी संपत्ति यूरोप की ओर खींचने का प्रयास करने लगी। सन् १७५० - १८०० के दौरान यूरोपीयों की एक निजी टिम्बर सिन्डीकेट भारत के अधिकांश भागों में अस्तित्व में रही। विशेष रूपसे मलबार में, जहाँ का वन अक्षय संपत्ति के समान था। लगभग १८०५ के आसपास लन्दन से आदेश आया था कि सभी निजी वनों को सरकारी नियन्त्रण में लाया जाए। सन् १८२६ की बर्मा की लडाई के बाद बर्मा हिन्दुस्तानी ब्रिटिश आधिपत्य में आ गया, एवं वहाँ के वनों को सीधे सरकारी नियन्त्रण में ले लिया गया। सन् १८०० से सन् १८४८ के दौरान अकेले ही एक मिलियन टन साग की लकडी का निकास करनेवाले मोलमेन बंदरगाह को भी सरकारी नियन्त्रण मे ले लिया गया ।<ref>23</ref> सन् १८५० के बाद भारत में रेल तथा अन्य औद्योगिक विकास के बहाने भारत के वनों की मांग बढा दी गई। साथ ही वननीति एवं कानून अस्तित्व में आए जिससे २५ वर्ष की कम अवधि में ही समग्र भारत की वनसम्पत्ति ब्रिटिश राज्य के हाथों में चली गई। परन्तु इसके बाद इस विपुल सम्पति का अन्धाधुन्ध निकन्दन होता रहा। यह उस समय की हिन्दुस्तानी ब्रिटिश नीति के अनुरूप ही था। उसमें यूरोप या अमेरिका में जो हुआ उसी का विकृत रूप दिखाई देता था। यही नहीं भारत में तो उसका अनापशनाप अमल होता रहा। यूरोप ने इस प्राकृतिक सम्पदा को भौतिक सम्पदा के रूप में ही देखा जो कि मानव शोषण का एक साधन बनती रही। ऐसी भ्रान्त धारणा के कारण ही यूरोप के जंगल नामशेष हुए। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक इग्लैण्ड वनाच्छादित भूखण्ड़ था, जो सन् १८२३ तक एक तिहाई भाग ही रह गया, जब कि फ्रान्स में सन् १५०० में बारहवें भाग का ही जंगल बचा था।
 
  −
निजी वनों को सरकारी नियन्त्रण में लाया जाए। सन् १८२६ की बर्मा की लडाई के बाद बर्मा हिन्दुस्तानी ब्रिटिश आधिपत्य में आ गया, एवं वहाँ के वनों को सीधे सरकारी नियन्त्रण में ले लिया गया। सन् १८०० से सन् १८४८ के दौरान अकेले ही एक मिलियन टन साग की लकडी का निकास करनेवाले मोलमेन बंदरगाह को भी सरकारी नियन्त्रण मे ले लिया गया ।२३ सन् १८५० के बाद भारत में रेल तथा अन्य औद्योगिक विकास के बहाने भारत के वनों की मांग बढा दी गई। साथ ही वननीति एवं कानून अस्तित्व में आए जिससे २५ वर्ष की कम अवधि में ही समग्र भारत की वनसम्पत्ति ब्रिटिश राज्य के हाथों में चली गई। परन्तु इसके बाद इस विपुल सम्पति का अन्धाधुन्ध निकन्दन होता रहा। यह उस समय की हिन्दुस्तानी ब्रिटिश नीति के अनुरूप ही था। उसमें यूरोप या अमेरिका में जो हुआ उसी का विकृत रूप दिखाई देता था। यही नहीं भारत में तो उसका अनापशनाप अमल होता रहा। यूरोप ने इस प्राकृतिक सम्पदा को भौतिक सम्पदा के रूप में ही देखा जो कि मानव शोषण का एक साधन बनती रही। ऐसी भ्रान्त धारणा के कारण ही यूरोप के जंगल नामशेष हुए। सत्रहवीं शताब्दी के अन्त तक इग्लैण्ड वनाच्छादित भूखण्ड़ था, जो सन् १८२३ तक एक तिहाई भाग ही रह गया, जब कि फ्रान्स में सन् १५०० में बारहवें भाग का ही जंगल बचा था।
      
सन् १८४० के समय में भारत में राजकीय अर्थतन्त्र बहुत तेजी से नष्ट हो रहा था। उस अवधि में उत्तर अमेरिका से लन्दन आनेवाले अहवाल के अनुसार वनों के व्यापक विनाश के कारण वर्षा कम हो रही थी। इसलिए लन्दन चौंक उठा एवं बंगाल, मुंबई एवं मद्रास स्थित अपनी सरकार को उसने इस विषय पर गहरी छानबीन करने का आदेश दिया। मद्रास प्रेसीडेन्सी एवं उसके अधिकांश अधिकारी इस बात पर एकमत हुए कि पर्वतीय क्षेत्रों की तुलना में जहाँ जंगल कटे हैं ऐसे क्षेत्रों में वर्षा का अनुपात कम हुआ है। जब कि सन् १८४९ में मद्रास रेवन्यू बोर्ड एवं मद्रास सरकार का निष्कर्ष कुछ अलग ही था -
 
सन् १८४० के समय में भारत में राजकीय अर्थतन्त्र बहुत तेजी से नष्ट हो रहा था। उस अवधि में उत्तर अमेरिका से लन्दन आनेवाले अहवाल के अनुसार वनों के व्यापक विनाश के कारण वर्षा कम हो रही थी। इसलिए लन्दन चौंक उठा एवं बंगाल, मुंबई एवं मद्रास स्थित अपनी सरकार को उसने इस विषय पर गहरी छानबीन करने का आदेश दिया। मद्रास प्रेसीडेन्सी एवं उसके अधिकांश अधिकारी इस बात पर एकमत हुए कि पर्वतीय क्षेत्रों की तुलना में जहाँ जंगल कटे हैं ऐसे क्षेत्रों में वर्षा का अनुपात कम हुआ है। जब कि सन् १८४९ में मद्रास रेवन्यू बोर्ड एवं मद्रास सरकार का निष्कर्ष कुछ अलग ही था -
 
# देश के वे मैदान जो वृक्षों से  आच्छादित रहते हैं, वर्षा लाने में सक्षम नहीं है।  
 
# देश के वे मैदान जो वृक्षों से  आच्छादित रहते हैं, वर्षा लाने में सक्षम नहीं है।  
 
# उसका जलवायु पर प्रभाव एवं क्षेत्र की उत्पादन क्षमता पर पेचीदा प्रश्न उठता है एवं जंगल की स्वाभाविक जलवायु जानलेवा मलेरिया के लिए जिम्मेदार है।  
 
# उसका जलवायु पर प्रभाव एवं क्षेत्र की उत्पादन क्षमता पर पेचीदा प्रश्न उठता है एवं जंगल की स्वाभाविक जलवायु जानलेवा मलेरिया के लिए जिम्मेदार है।  
# यदि देश में अधिक जंगल रहें या उनका विस्तार बढ़ाया जाय तो कदाचित् अधिक वर्षा में सहायता मिल भी सकती है। परन्तु दूसरी ओर स्वास्थ्य की दृष्टि से जलवायु बहुत ही खतरनाक बन सकती है। भारत ने बहुत सी हानिकारक महामारी का अनुभव किया है। ऐसी महामारी में घर जंगल बन जाएँगे।
+
# यदि देश में अधिक जंगल रहें या उनका विस्तार बढ़ाया जाय तो कदाचित् अधिक वर्षा में सहायता मिल भी सकती है। परन्तु दूसरी ओर स्वास्थ्य की दृष्टि से जलवायु बहुत ही खतरनाक बन सकती है। भारत ने बहुत सी हानिकारक महामारी का अनुभव किया है। ऐसी महामारी में घर जंगल बन जाएँगे।<ref>24</ref>
 
इन तर्को को मान्यता मिली। वातावरण को शुद्ध रखने के विचार से यह स्वीकृत हुआ एवं फलस्वरूप 'जंगल हटाओ' अभियान को मान्यता मिल गई।
 
इन तर्को को मान्यता मिली। वातावरण को शुद्ध रखने के विचार से यह स्वीकृत हुआ एवं फलस्वरूप 'जंगल हटाओ' अभियान को मान्यता मिल गई।
   −
==== '''भारतीय समाज का जबरदस्ती से''' होनेवाला क्षरण ====
+
== '''भारतीय समाज का जबरदस्ती से''' होनेवाला क्षरण ==
 
भारत में समय समय पर ब्रिटन, फ्रान्स एवं उससे भी पूर्व पुर्तगालियों के द्वारा देश के विभिन्न भागों में युद्ध हुए एवं फलस्वरूप लूटमार एवं अराजक की घटनाएँ बार बार घटती रहीं। सन् १७५० - १८०० के दौरान ही देशी राजाओं ने अपनी प्रजा एवं क्षेत्र को बचाने के लिए ब्रिटिशों एवं फ्रन्सीसियों को बड़ी राशि देने की बात दर्ज की गई है। यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो हमलावर उन्हें लूट कर छीन लेते। जो लोग विजेताओं की शरणागति स्वीकार नहीं करते थे उन्हे विजेताओं की सेना का खर्चा उठाना पड़ता था एवं ब्रिटिश या फ्रान्सीसी वरिष्ठ अधिकारियों को हँसकर स्वीकार करना पड़ता था। जिन लोगों के पास रूपए नहीं थे उन्हें ब्रिटिश सैन्य के कमाण्डर से उधार लेना पड़ता था। एकत्रित की गई सम्पति उन्हें भेंट कर देना पड़ता था। अन्त में ऐसा खर्चा चुकाने के एवज में राजनैतिक भुगतान पत्र लिखने के लिए बाध्य किया जाता था। उधार ली गई राशि वार्षिक ५० प्रतिशत व्याज की दर से भरपाई करनी पडती थी। व्याज का इतना ऊँचा दर चुकाने के लिए देशी राज्यों को कर - विशेषरूप से जमीन पर कर - बढ़ाने के लिए बाध्य होना पडता था या ली गई राशि एवं भारी व्याज की राशि चुकाने के लिए अपने राज्य का कुछ हिस्सा उस लेनदार के पास गिरवी रखना पड़ता था, जिससे वह लेनदार अपनी ऋण की राशि मनमाने रूप से वसूल कर सकता था।
 
भारत में समय समय पर ब्रिटन, फ्रान्स एवं उससे भी पूर्व पुर्तगालियों के द्वारा देश के विभिन्न भागों में युद्ध हुए एवं फलस्वरूप लूटमार एवं अराजक की घटनाएँ बार बार घटती रहीं। सन् १७५० - १८०० के दौरान ही देशी राजाओं ने अपनी प्रजा एवं क्षेत्र को बचाने के लिए ब्रिटिशों एवं फ्रन्सीसियों को बड़ी राशि देने की बात दर्ज की गई है। यदि उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो हमलावर उन्हें लूट कर छीन लेते। जो लोग विजेताओं की शरणागति स्वीकार नहीं करते थे उन्हे विजेताओं की सेना का खर्चा उठाना पड़ता था एवं ब्रिटिश या फ्रान्सीसी वरिष्ठ अधिकारियों को हँसकर स्वीकार करना पड़ता था। जिन लोगों के पास रूपए नहीं थे उन्हें ब्रिटिश सैन्य के कमाण्डर से उधार लेना पड़ता था। एकत्रित की गई सम्पति उन्हें भेंट कर देना पड़ता था। अन्त में ऐसा खर्चा चुकाने के एवज में राजनैतिक भुगतान पत्र लिखने के लिए बाध्य किया जाता था। उधार ली गई राशि वार्षिक ५० प्रतिशत व्याज की दर से भरपाई करनी पडती थी। व्याज का इतना ऊँचा दर चुकाने के लिए देशी राज्यों को कर - विशेषरूप से जमीन पर कर - बढ़ाने के लिए बाध्य होना पडता था या ली गई राशि एवं भारी व्याज की राशि चुकाने के लिए अपने राज्य का कुछ हिस्सा उस लेनदार के पास गिरवी रखना पड़ता था, जिससे वह लेनदार अपनी ऋण की राशि मनमाने रूप से वसूल कर सकता था।
   Line 146: Line 142:  
ऐसी भौतिक दुर्दशा एवं आर्थिक बेहाली के साथ ही देशी राज्यों का संगठन टूट गया, विद्वान मूक हो गये और समृद्धि का ह्रास होने लगा। भारतीय समाज में फूट एवं विघटन की स्थिति निर्माण होने लगी। दीर्घ काल की इस दासता के फलस्वरूप लोगों में हीनता दृढ होने लगी। परिणामस्वरूप लोग अपने भव्य भूतकाल में जीने लगे और यूरोप ने स्वयं पर तथा पड़ोसियों पर किस प्रकार एवं क्यों प्रभुत्व जमाया इसकी मनघडन्त बातें फैलाने लगे।
 
ऐसी भौतिक दुर्दशा एवं आर्थिक बेहाली के साथ ही देशी राज्यों का संगठन टूट गया, विद्वान मूक हो गये और समृद्धि का ह्रास होने लगा। भारतीय समाज में फूट एवं विघटन की स्थिति निर्माण होने लगी। दीर्घ काल की इस दासता के फलस्वरूप लोगों में हीनता दृढ होने लगी। परिणामस्वरूप लोग अपने भव्य भूतकाल में जीने लगे और यूरोप ने स्वयं पर तथा पड़ोसियों पर किस प्रकार एवं क्यों प्रभुत्व जमाया इसकी मनघडन्त बातें फैलाने लगे।
   −
प्रारम्भ में मनोरम भूतकाल में रत रहना कदाचित देशी समाज को टिकाए रखने के लिए तिनके के सहारे के समान उपयोगी भले ही लगा हो, परन्तु आज भी अधिकांश भारतवासी इसी रोग को पाले हुए हैं। दूसरी ओर सामान्य लोगों में आर्थिक एवं सांस्कृतिक अनवस्था एवं हताशा, मानसिक उलझन या जटिलता जैसी स्थिति निर्माण हुई, जिससे लोग और जड़ हो गए। पण्डित या विद्वान एवं समृद्ध लोग यूरोपीय विद्वत्ता से प्रभावित होकर, उनकी सभ्यता को अपनाकर अपनी एक अलग पहचान बनाने में लग गए। हो सकता है कि इस प्रकार से प्राप्त की गई विद्वत्ता, बुद्धिचातुर्य या कौशल गैरयूरोपीय विश्व की तुलना में भारत में अधिक चमकीला लगता हो। यद्यपि उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में ऐसे लोगों में ही एक व्यक्ति - मोहनदास करमचंद गांधी - ऐसे भ्रामक प्रभाव से मुक्त ही रहे। उल्टे स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पर इसका बहुत गहरा प्रभाव देखने को मिलता था। ऐसे विरोधाभास के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
+
प्रारम्भ में मनोरम भूतकाल में रत रहना कदाचित देशी समाज को टिकाए रखने के लिए तिनके के सहारे के समान उपयोगी भले ही लगा हो, परन्तु आज भी अधिकांश भारतवासी इसी रोग को पाले हुए हैं। दूसरी ओर सामान्य लोगों में आर्थिक एवं सांस्कृतिक अनवस्था एवं हताशा, मानसिक उलझन या जटिलता जैसी स्थिति निर्माण हुई, जिससे लोग और जड़ हो गए। पण्डित या विद्वान एवं समृद्ध लोग यूरोपीय विद्वत्ता से प्रभावित होकर, उनकी सभ्यता को अपनाकर अपनी एक अलग पहचान बनाने में लग गए। हो सकता है कि इस प्रकार से प्राप्त की गई विद्वत्ता, बुद्धिचातुर्य या कौशल गैरयूरोपीय विश्व की तुलना में भारत में अधिक चमकीला लगता हो। यद्यपि उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में ऐसे लोगों में ही एक व्यक्ति - मोहनदास करमचंद गांधी - ऐसे भ्रामक प्रभाव से मुक्त ही रहे। उल्टे स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पर इसका बहुत गहरा प्रभाव देखने को मिलता था। ऐसे विरोधाभास के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-
   −
१९३० से १९४७ के दौरान भारतीय राष्ट्रवादी २६ जनवरी के दिन को 'पूर्ण स्वराज्य की मांग के दिन' के रूप में मनाते रहे। १९५० से यह दिवस गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वतन्त्रता से पूर्व इनमें से ही किसी एक दिन एक शपथ ली गयी जिसमे  प्रतिज्ञा थी, 'भारत की ब्रिटिश सरकारने भारत के लोगों को न केवल स्वतन्त्रता से वंचित रखा है अपितु समग्र प्रजा के शोषण के लिए हम पर सवार होकर देशको आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से नष्ट किया है। ऐसे दुष्कृत्यों को हम मानव एवं ईश्वर के प्रति किया गया अपराध समझते हैं। हमारे देश का विनाश करनेवाले राज्य के सामने हम नहीं झुकेंगे।' देश की संस्कृति के विनाश के विषय में उसमें कहा गया था कि 'शिक्षा प्रणाली (ब्रिटिशरों द्वारा प्रस्थापित) ने हमें छिन्न भिन्न करके तोड़ कर ताराज कर दिया है। और हमें जकड़नेवाली शृंखला को ही हम चाहने लगे हैं।'
+
१९३० से १९४७ के दौरान भारतीय राष्ट्रवादी २६ जनवरी के दिन को 'पूर्ण स्वराज्य की मांग के दिन' के रूप में मनाते रहे। १९५० से यह दिवस गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वतन्त्रता से पूर्व इनमें से ही किसी एक दिन एक शपथ ली गयी, जिसमे  प्रतिज्ञा थी, 'भारत की ब्रिटिश सरकारने भारत के लोगों को न केवल स्वतन्त्रता से वंचित रखा है अपितु समग्र प्रजा के शोषण के लिए हम पर सवार होकर देशको आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से नष्ट किया है। ऐसे दुष्कृत्यों को हम मानव एवं ईश्वर के प्रति किया गया अपराध समझते हैं। हमारे देश का विनाश करनेवाले राज्य के सामने हम नहीं झुकेंगे।' देश की संस्कृति के विनाश के विषय में उसमें कहा गया था कि 'शिक्षा प्रणाली (ब्रिटिशरों द्वारा प्रस्थापित) ने हमें छिन्न भिन्न करके तोड़ कर ताराज कर दिया है। और हमें जकड़नेवाली शृंखला को ही हम चाहने लगे हैं।'
   −
भारत की स्वतन्त्रता विषयक अन्य विधेयकों के समान ही इस विधेयक का मुसद्दा भी महात्मा गांधी ने ही रचा था। सन् १९२८ के जनवरी में महात्मा गांधी ने ऐसी भी आशा व्यक्त की कि भारत की स्वतन्त्रता अन्य उपनिवेशों एवं गुलाम बनाए गए लोगों की स्वतन्त्रता का सोपान बनेगी। वे कहते थे, 'भारत अपनी इच्छा के अनुसार जो प्राप्त करेगा वह अन्य देश भी प्राप्त करेंगे। हम भली प्रकार जानते हैं कि ब्रिटिश आधिपत्य से भारत के स्वतन्त्र होने के पन्द्रह वर्षों में विश्व के दक्षिणपूर्व एशिया, आफ्रिका, जैसे देश भी एक या दूसरे रूप से स्वतन्त्र हो ही गए हैं।
+
भारत की स्वतन्त्रता विषयक अन्य विधेयकों के समान ही इस विधेयक का मुसद्दा भी महात्मा गांधी ने ही रचा था।<ref>25</ref> सन् १९२८ के जनवरी में महात्मा गांधी ने ऐसी भी आशा व्यक्त की कि भारत की स्वतन्त्रता अन्य उपनिवेशों एवं गुलाम बनाए गए लोगों की स्वतन्त्रता का सोपान बनेगी। वे कहते थे, 'भारत अपनी इच्छा के अनुसार जो प्राप्त करेगा वह अन्य देश भी प्राप्त करेंगे।'<ref>26</ref> हम भली प्रकार जानते हैं कि ब्रिटिश आधिपत्य से भारत के स्वतन्त्र होने के पन्द्रह वर्षों में विश्व के दक्षिणपूर्व एशिया, आफ्रिका, जैसे देश भी एक या दूसरे रूप से स्वतन्त्र हो ही गए हैं।
    
अधिकांश भारतवासियों की ऐसी मान्यता रही है कि ब्रिटिश शासनने भारत को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से चौपट कर दिया है। परन्तु कुछ लोग इस सोच से सहमत नहीं हैं। १९४७ में स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी वे असहमत ही रहे हैं। ऐसे आधुनिकों में जवाहरलालजी एक थे। यद्यपि सार्वजनिक रूप से वे ऐसे कथनों का आमना सामना करने से स्वंय को बचाते थे, परन्तु १९२८ के आसपास के दिनों में व्यक्तिगत रूप से वे अपने विचार व्यक्त करते रहे थे। महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'आपने कहीं पर कहा है कि भारत को पाश्चात्यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं है, उसने तो पहले से ही सयानेपन के शिखर सर कर लिए हैं। मैं आपके इस दृष्टिकोण से निश्चित रूप से सहमत नहीं हूँ। मेरे मतानुसार पश्चिम, विशेष कर औद्योगिक संस्कृति भारत को जीतने में समर्थ है। हाँ उसमें सुधार और परिवर्तन अवश्य होंगे। आपने औद्योगिकरण की कुछ कमियों की आलोचना तो की पर उसके लाभ तथा उत्तम पहलू को अनदेखा भी किया है। लोग कमियां समझते ही हैं फिर भी आदर्श राज्य व्यवस्था एवं सामाजिक सिद्धान्तों के द्वारा उसका निवारण सम्भव है ही। पश्चिम के कुछ बुद्धिजीवियों का मन्तव्य है कि ये कमियां औद्योगिकरण की नहीं हैं परन्तु पूंजीवादी प्रणाली की शोषणवृत्ति की पैदाइश है। आपने कहा है कि पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच संघर्ष नहीं होना चाहिए। मैं मानता हूँ कि पूंजीवादी प्रथा में ऐसा संघर्ष अनिवार्य है। पश्चिमी आधुनिकता विषयक सोच ही उस प्रकार की है, ऐसा पंद्रह वर्ष बाद गांधीजी को नेहरू ने बताया। अपने पत्र में नेहरू ने यह भी टिप्पणी की कि, 'क्यों गाँवों को सत्य एवं अहिंसा के साथ जोडना चाहिए ? गाँव तो सामान्य रूप से बौद्धिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछडे हुए हैं। पिछड़ेपन के वातावरण में विकास सम्भव नहीं है। संकुचित सोच रखनेवाले लोग अधिकांशतः झूठे एवं हिंसापूर्ण ही होते हैं।
 
अधिकांश भारतवासियों की ऐसी मान्यता रही है कि ब्रिटिश शासनने भारत को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से चौपट कर दिया है। परन्तु कुछ लोग इस सोच से सहमत नहीं हैं। १९४७ में स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी वे असहमत ही रहे हैं। ऐसे आधुनिकों में जवाहरलालजी एक थे। यद्यपि सार्वजनिक रूप से वे ऐसे कथनों का आमना सामना करने से स्वंय को बचाते थे, परन्तु १९२८ के आसपास के दिनों में व्यक्तिगत रूप से वे अपने विचार व्यक्त करते रहे थे। महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'आपने कहीं पर कहा है कि भारत को पाश्चात्यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं है, उसने तो पहले से ही सयानेपन के शिखर सर कर लिए हैं। मैं आपके इस दृष्टिकोण से निश्चित रूप से सहमत नहीं हूँ। मेरे मतानुसार पश्चिम, विशेष कर औद्योगिक संस्कृति भारत को जीतने में समर्थ है। हाँ उसमें सुधार और परिवर्तन अवश्य होंगे। आपने औद्योगिकरण की कुछ कमियों की आलोचना तो की पर उसके लाभ तथा उत्तम पहलू को अनदेखा भी किया है। लोग कमियां समझते ही हैं फिर भी आदर्श राज्य व्यवस्था एवं सामाजिक सिद्धान्तों के द्वारा उसका निवारण सम्भव है ही। पश्चिम के कुछ बुद्धिजीवियों का मन्तव्य है कि ये कमियां औद्योगिकरण की नहीं हैं परन्तु पूंजीवादी प्रणाली की शोषणवृत्ति की पैदाइश है। आपने कहा है कि पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच संघर्ष नहीं होना चाहिए। मैं मानता हूँ कि पूंजीवादी प्रथा में ऐसा संघर्ष अनिवार्य है। पश्चिमी आधुनिकता विषयक सोच ही उस प्रकार की है, ऐसा पंद्रह वर्ष बाद गांधीजी को नेहरू ने बताया। अपने पत्र में नेहरू ने यह भी टिप्पणी की कि, 'क्यों गाँवों को सत्य एवं अहिंसा के साथ जोडना चाहिए ? गाँव तो सामान्य रूप से बौद्धिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछडे हुए हैं। पिछड़ेपन के वातावरण में विकास सम्भव नहीं है। संकुचित सोच रखनेवाले लोग अधिकांशतः झूठे एवं हिंसापूर्ण ही होते हैं।
Line 175: Line 171:  
#   
 
#   
 
#  
 
#  
# एच. सी. पोर्टर, 'अस्थिर जंगली : इंग्लैण्ड और उत्तरी अमेरिकी भारतीय, १५०० से १६०० : द इन्कॉन्स्टण्ट सेवेज : इंग्लैण्ड एण्ड द नॉर्थ अमेरिकन इण्डियन १५०० - १६०० : The Inconstant Savage : England and the North American Indian 1500 - 1600' १९७९, पृ. ४२८
+
#  
 
# डैण्टन्स न्यूयॉर्क : 'पूर्व में नया नेदरलेण्ड के नाम से पहचाने जाने वाले न्यू यॉर्क का संक्षिप्त विवरण : अ ब्रीफ डिस्क्रीप्शन ऑव् न्यू यॉर्क फॉर्मी कॉल्ड न्यू नेदरलैण्डस : A Brief Description of New York formerly called New Netherlands', १६७० (पुनर्मुद्रण १९०२), पृ. ४५  
 
# डैण्टन्स न्यूयॉर्क : 'पूर्व में नया नेदरलेण्ड के नाम से पहचाने जाने वाले न्यू यॉर्क का संक्षिप्त विवरण : अ ब्रीफ डिस्क्रीप्शन ऑव् न्यू यॉर्क फॉर्मी कॉल्ड न्यू नेदरलैण्डस : A Brief Description of New York formerly called New Netherlands', १६७० (पुनर्मुद्रण १९०२), पृ. ४५  
 
# जे. सी. लाँग, 'लॉर्ड जैफरी एम्हर्स्ट : राजा का सिपाही : लॉर्ड जैफरी एम्हर्स्ट : अ सोल्झर ऑव् द किंग : Lord Jeffery Emherst : A Soldier of the King', १९३३, पृ. १८६-१८७  
 
# जे. सी. लाँग, 'लॉर्ड जैफरी एम्हर्स्ट : राजा का सिपाही : लॉर्ड जैफरी एम्हर्स्ट : अ सोल्झर ऑव् द किंग : Lord Jeffery Emherst : A Soldier of the King', १९३३, पृ. १८६-१८७  

Navigation menu