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इन युद्धों से भी एक अन्य भीषण बात स्थानीय अमेरिका वासियों के लिए यह थी कि यूरोप से आनेवाले नवागन्तुक अपने साथ रोग भी लाए जो इन स्थानीय लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ यूरोप के देशों मे उस समय शीतला, चेचक, क्षय, मलेरिया, पीतज्वर, विषमज्वर के विभिन्न प्रकार तथा अनेक संसर्गजन्य गुप्त रोगों ने भीषण जानहानि की। इसके साथ ही सन् १६१८ के आसपास उत्तर अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड में प्लेग की महामारी फैली। यूरोपीयों के संसर्ग में आने से पहले अमेरिका के स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के रोगों के जीवाणुओं का सामना नहीं किया था, इसलिए उनमें रोग प्रतिकारक शक्ति का अभाव था। परिणाम स्वरूप स्थानीय लोगों की बस्तियों का सफाया हो गया।<ref>बर्नार्ड डबल्यू शिहान, 'विनाश के बीज : जेफरसन की उदारता और अमेरिकन भारतीय : सीड्स ऑव् एक्स्टींक्शन : जेफरसोनियन फिलान्थ्रोपी एण्ड द अमेरिकन इण्डियन : Seeds of Extinction : Jeffersonian Philanthropy and the American Indian १९७३, पृ. २२७-२२८</ref>  
 
इन युद्धों से भी एक अन्य भीषण बात स्थानीय अमेरिका वासियों के लिए यह थी कि यूरोप से आनेवाले नवागन्तुक अपने साथ रोग भी लाए जो इन स्थानीय लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हुए। उदाहरणार्थ यूरोप के देशों मे उस समय शीतला, चेचक, क्षय, मलेरिया, पीतज्वर, विषमज्वर के विभिन्न प्रकार तथा अनेक संसर्गजन्य गुप्त रोगों ने भीषण जानहानि की। इसके साथ ही सन् १६१८ के आसपास उत्तर अमेरिका के न्यू इंग्लैण्ड में प्लेग की महामारी फैली। यूरोपीयों के संसर्ग में आने से पहले अमेरिका के स्थानीय लोगों ने इस प्रकार के रोगों के जीवाणुओं का सामना नहीं किया था, इसलिए उनमें रोग प्रतिकारक शक्ति का अभाव था। परिणाम स्वरूप स्थानीय लोगों की बस्तियों का सफाया हो गया।<ref>बर्नार्ड डबल्यू शिहान, 'विनाश के बीज : जेफरसन की उदारता और अमेरिकन भारतीय : सीड्स ऑव् एक्स्टींक्शन : जेफरसोनियन फिलान्थ्रोपी एण्ड द अमेरिकन इण्डियन : Seeds of Extinction : Jeffersonian Philanthropy and the American Indian १९७३, पृ. २२७-२२८</ref>  
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अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों का बड़े पैमाने पर होने वाला सफाया सन् १६२५ में न्यू इंग्लैण्ड में आनेवाले अंग्रेज के लिए तो जैसे 'ईश्वर की लीला' थी। उसने सोचा कि इस पतन के कारण 'यह पूरा प्रदेश अंग्रेजों को बसने के लिए एवं प्रभु की कीर्ति बढ़ानेवाले मंदिर बनवाने के लिए अधिक उत्तम हो गया है।' उसी समय एक अंग्रेज ने कहा कि 'प्रभु ने यह प्रदेश हमारे लिए ही खोज दिया है एवं अधिकांश स्थानीय लोगों को घातकी युद्धों द्वारा तथा जानलेवा बीमारियों के द्वारा मार डाला है।'<ref>एच. सी. पोर्टर, 'अस्थिर जंगली : इंग्लैण्ड और उत्तरी अमेरिकी भारतीय, १५०० से १६०० : द इन्कॉन्स्टण्ट सेवेज : इंग्लैण्ड एण्ड द नॉर्थ अमेरिकन इण्डियन १५०० - १६०० : The Inconstant Savage : England and the North American Indian 1500 - 1600' १९७९, पृ. ४२८</ref> पचास वर्ष बाद न्यूयोर्क के एक वर्णन में कहा गया 'सामान्य रूप से ऐसा देखा गया है कि जहाँ अंग्रेज स्थायी होना चाहते हैं वहाँ दैवी हाथ उनके लिए रास्ता बना देता है। या तो वे भारतीयों (अमेरिका के मूलनिवासी) कों आन्तरिक युद्धों के द्वारा या जानलेवा बीमारियों के द्वारा नष्ट कर देता है।' और लेखक ने जोड़ा, “यह सचमुच प्रशंसनीय है कि जब से अंग्रजों ने वहाँ निवास करना प्रारम्भ किया तब से ही वहाँ के निवासियों का आश्चर्यजनक रूप से ईश्वर के हाथों नाश हुआ एवं उनकी संख्या कम होती गई। क्यों कि हमारे समय में जहाँ छ: नगर थे उसकी जनसंख्या घटकर अब दो छोटे छोटे गाँवों में सिमटकर रह गई है।"<ref>6</ref> ।
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अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों का बड़े पैमाने पर होने वाला सफाया सन् १६२५ में न्यू इंग्लैण्ड में आनेवाले अंग्रेज के लिए तो जैसे 'ईश्वर की लीला' थी। उसने सोचा कि इस पतन के कारण 'यह पूरा प्रदेश अंग्रेजों को बसने के लिए एवं प्रभु की कीर्ति बढ़ानेवाले मंदिर बनवाने के लिए अधिक उत्तम हो गया है।' उसी समय एक अंग्रेज ने कहा कि 'प्रभु ने यह प्रदेश हमारे लिए ही खोज दिया है एवं अधिकांश स्थानीय लोगों को घातकी युद्धों द्वारा तथा जानलेवा बीमारियों के द्वारा मार डाला है।'<ref>एच. सी. पोर्टर, 'अस्थिर जंगली : इंग्लैण्ड और उत्तरी अमेरिकी भारतीय, १५०० से १६०० : द इन्कॉन्स्टण्ट सेवेज : इंग्लैण्ड एण्ड द नॉर्थ अमेरिकन इण्डियन १५०० - १६०० : The Inconstant Savage : England and the North American Indian 1500 - 1600' १९७९, पृ. ४२८</ref> पचास वर्ष बाद न्यूयोर्क के एक वर्णन में कहा गया 'सामान्य रूप से ऐसा देखा गया है कि जहाँ अंग्रेज स्थायी होना चाहते हैं वहाँ दैवी हाथ उनके लिए रास्ता बना देता है। या तो वे भारतीयों (अमेरिका के मूलनिवासी) कों आन्तरिक युद्धों के द्वारा या जानलेवा बीमारियों के द्वारा नष्ट कर देता है।' और लेखक ने जोड़ा, “यह सचमुच प्रशंसनीय है कि जब से अंग्रजों ने वहाँ निवास करना प्रारम्भ किया तब से ही वहाँ के निवासियों का आश्चर्यजनक रूप से ईश्वर के हाथों नाश हुआ एवं उनकी संख्या कम होती गई। क्यों कि हमारे समय में जहाँ छ: नगर थे उसकी जनसंख्या घटकर अब दो छोटे छोटे गाँवों में सिमटकर रह गई है।"<ref>डैण्टन्स न्यूयॉर्क : 'पूर्व में नया नेदरलेण्ड के नाम से पहचाने जाने वाले न्यू यॉर्क का संक्षिप्त विवरण : अ ब्रीफ डिस्क्रीप्शन ऑव् न्यू यॉर्क फॉर्मी कॉल्ड न्यू नेदरलैण्डस : A Brief Description of New York formerly called New Netherlands', १६७० (पुनर्मुद्रण १९०२), पृ. ४५
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अठारहवीं शताब्दी के मध्य में या कदाचित् उससे भी पूर्व, यूरोप से जानेवाले नवागन्तुकों ने अपना शीतला, प्लेग जैसा जानलेवा रोग उस समय के अमेरिका के स्थानीय लोगों में जानबूझकर फैलाया। ब्रिटन के सेनापति द्वारा सन् १७६३ में जानबूझकर शीतला का रोग उत्तर अमेरिका में डाला गया। वे कैदियों को बदमाश मानते थे एवं उनकी इच्छा ऐसी थी कि कोई भी बदमाश जीवित नहीं रहना चाहिए। उसे ऐसा समाचार भी मिला था कि फोर्ट पिट में शीतला का रोग फैल गया है तब उसे लगा कि यह रोग उनके लिए लाभदायी सिद्ध हो सकता है। यह जानकर ब्रिटन के सैन्य के एक अन्य अधिकारीने ऐसा भी कहा 'में इस रोग के जीवाणुओं को कैदियों के कम्बलों में फैला दूंगा जिससे यह रोग उन्हें मार डाले। साथ ही साथ मैं यह सावधानी भी रखूगाँ कि मुझे इस रोग का संक्रमण न लगे।'<ref>7</ref> इस प्रकार, बीसवीं शताब्दी की दुश्मन देशों में रहनेवाले मनुष्य, प्राणी तथा वनस्पति जगत में जानलेवा बीमारी फैलाने की प्रथा के मूल पुरानी यूरोपीय संस्कृति में रहे होंगे ऐसा लगता है।
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यूरोपीयों ने जब अमेरिका की खोज करने के बाद वहाँ बसना प्रारम्भ किया तब उन्हें मजदूरों की बहुत आवश्यकता पड़ने लगी। अमेरिका के जो थोडे बहुत निवासी बचे थे उनसे मजदूरी का काम नहीं करवाया जा सकता था। यूरोपीय स्वयं तो खदान में काम करने, जगंल काटने या खेतीबाड़ी का काम करने जैसे परिश्रमी काम करने के लिए सक्षम नहीं थे। इसलिए उन्होंने पश्चिम तथा मध्य आफ्रिका के काले युवकों और प्रौढों को पकडना शुरू किया। जो इस पकड़ने के हिंसक दौर से बचे उन्हें जोर जबरदस्ती से गुलाम बनाया गया। इन गुलामों को जहाजों द्वारा अमेरिका भेजा गया। सन् १५०० से सन् १८७० के दौरान अमेरिका या अटलान्टिक महासागर के द्वीपों पर वास्तविक पहुँचे हुए ऐसे गुलामों की संख्या उस समय की समुद्रयात्रा से सम्बन्धित टिप्पणियों के अनुसार १ करोड़ जितनी है।<ref>8</ref> यदि हम विभिन्न प्रक्रियाएँ जैसी कि गुलामों को पकडना, अन्दरूनी क्षेत्रों से आफ्रिका के समुद्रतट पर लाना, जहाजों पर चढाना और लम्बी समुद्री यात्रा करवाना इत्यादि के दौरान मरनेवाले लोगों की गिनती का एक सामान्य अनुमान लगाएँ तो गुलामी की इस प्रक्रिया से प्रभावित काली आफ्रिकन प्रजा की संख्या लगभग पाँच करोड़ तक पहुँचेगी। कदाचित् यह संख्या दस करोड़ जितनी भी होगी। यद्यपि इस अनुमान में आफ्रिका के प्रभावित क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुए विघटन या उनके समाज में हुई पुरुषों की संख्या की बहुत बड़ी मात्रा में कमी को या यूरोपीयों की घूसखोरी से प्रसूत नए रोगों को तो गिनती में लिया ही नहीं गया है।
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अठारहवीं शताब्दी के मध्य में या कदाचित् उससे भी पूर्व, यूरोप से जानेवाले नवागन्तुकों ने अपना शीतला, प्लेग जैसा जानलेवा रोग उस समय के अमेरिका के स्थानीय लोगों में जानबूझकर फैलाया। ब्रिटन के सेनापति द्वारा सन् १७६३ में जानबूझकर शीतला का रोग उत्तर अमेरिका में डाला गया। वे कैदियों को बदमाश मानते थे एवं उनकी इच्छा ऐसी थी कि कोई भी बदमाश जीवित नहीं रहना चाहिए। उसे ऐसा समाचार भी मिला था कि फोर्ट पिट में शीतला का रोग फैल गया है तब उसे लगा कि यह रोग उनके लिए लाभदायी सिद्ध हो सकता है। यह जानकर ब्रिटन के सैन्य के एक अन्य अधिकारीने ऐसा भी कहा 'में इस रोग के जीवाणुओं को कैदियों के कम्बलों में फैला दूंगा जिससे यह रोग उन्हें मार डाले। साथ ही साथ मैं यह सावधानी भी रखूगाँ कि मुझे इस रोग का संक्रमण न लगे।'<ref>जे. सी. लाँग, 'लॉर्ड जैफरी एम्हर्स्ट : राजा का सिपाही : लॉर्ड जैफरी एम्हर्स्ट : अ सोल्झर ऑव् द किंग : Lord Jeffery Emherst : A Soldier of the King', १९३३, पृ. १८६-१८७
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सन् १७७० में ऐसे गुलामों की प्रतिशत में संख्या उस काल के ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी केरेबियन में ९१ प्रतिशत थी वह उत्तर अमेरिका में २२ प्रतिशत एवं दक्षिणी यूनाइटेड स्टेटस में ४० प्रतिशत थी।<ref>9</ref> सन् १७९० में उस समय के यू.एस.ए. में गुलामों की संख्या कुल प्रजा के १९.३ प्रतिशत थी जबकि यूरोपीयों की संख्या ८० प्रतिशत थी। सन् १९०० तक यू.एस.ए. में आफ्रिकनों का अनुपात कम होकर ११.८ प्रतिशत जितना था।<ref>10</ref> अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों को १७९० और १९०० में गणना में नहीं लिया गया था।
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</ref> इस प्रकार, बीसवीं शताब्दी की दुश्मन देशों में रहनेवाले मनुष्य, प्राणी तथा वनस्पति जगत में जानलेवा बीमारी फैलाने की प्रथा के मूल पुरानी यूरोपीय संस्कृति में रहे होंगे ऐसा लगता है।
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इसके अतिरिक्त यूरोप के स्त्री पुरुष जिन्हें सन् १९०० तक ब्रिटन में नीचले वर्ग का माना जाता था, उन्हें भी कुछ वर्षों तक के करार पर जबरदस्ती नोकरी पर रखा गया एवं बाद में अमेरिका भेज दिया गया। यूरोपीयों के हमवतनी होने से उनकी स्थिति कम त्रासदीयुक्त तथा कुछ अच्छे भविष्य की वचनबद्धता से युक्त थी। निश्चित समयसीमा पूर्ण होने पर उन्हें मुक्त करके कुछ भूमि देकर स्वतन्त्रतापूर्वक काम करने की अनुमति दे दी जाती थी। सन् १६५५ से सन् १६७८ के दौरान बिस्टोल के इंग्लैण्ड के बन्दरगाह से उत्तर अमेरिका में ले जाए जानेवाले ऐसे नौकरीपेशा लोगों की वार्षिक संख्या अनुमानतः ४०० थी। सन् १६८४ में लंदन से लाए जानेवाले मजदूरों की संख्या ७६४ थी एवं सन् १७४५ से १७७५ के दौरान जो नौकरीपेशा लोग ब्रिटन से उत्तर अमेरिका के एनापोलिस शहर में पहुँचे उनकी संख्या १९,९२० थी उनमें ९,३६० ऐसे लोगों का समावेश था जिन्हें अपराधी होने का ठप्पा लगाया गया था।<ref>11</ref>
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यूरोपीयों ने जब अमेरिका की खोज करने के बाद वहाँ बसना प्रारम्भ किया तब उन्हें मजदूरों की बहुत आवश्यकता पड़ने लगी। अमेरिका के जो थोडे बहुत निवासी बचे थे उनसे मजदूरी का काम नहीं करवाया जा सकता था। यूरोपीय स्वयं तो खदान में काम करने, जगंल काटने या खेतीबाड़ी का काम करने जैसे परिश्रमी काम करने के लिए सक्षम नहीं थे। इसलिए उन्होंने पश्चिम तथा मध्य आफ्रिका के काले युवकों और प्रौढों को पकडना शुरू किया। जो इस पकड़ने के हिंसक दौर से बचे उन्हें जोर जबरदस्ती से गुलाम बनाया गया। इन गुलामों को जहाजों द्वारा अमेरिका भेजा गया। सन् १५०० से सन् १८७० के दौरान अमेरिका या अटलान्टिक महासागर के द्वीपों पर वास्तविक पहुँचे हुए ऐसे गुलामों की संख्या उस समय की समुद्रयात्रा से सम्बन्धित टिप्पणियों के अनुसार १ करोड़ जितनी है।<ref>अन्यों के साथ आर. उबल्यू. फोगेल और एस. एल. एंगरमन, 'समय क्रूस पर : अमेरिका के नीग्रो की गुलामी का अर्थकारण : टाइम ऑन क्रॉस : द इकनॉमिक्स ऑव् अमेरिकन नीग्रो स्लेवरी : Time on Cross. The economics of American Negro Slavery', १९८९, पृ. २१-२२। फोगेल और एंगरमन द्वारा निर्दिष्ट ९.५ लाख की संख्या अमेरिका में गुलामों के आयात को सूचित करती है।
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</ref> यदि हम विभिन्न प्रक्रियाएँ जैसी कि गुलामों को पकडना, अन्दरूनी क्षेत्रों से आफ्रिका के समुद्रतट पर लाना, जहाजों पर चढाना और लम्बी समुद्री यात्रा करवाना इत्यादि के दौरान मरनेवाले लोगों की गिनती का एक सामान्य अनुमान लगाएँ तो गुलामी की इस प्रक्रिया से प्रभावित काली आफ्रिकन प्रजा की संख्या लगभग पाँच करोड़ तक पहुँचेगी। कदाचित् यह संख्या दस करोड़ जितनी भी होगी। यद्यपि इस अनुमान में आफ्रिका के प्रभावित क्षेत्रों की सामाजिक व्यवस्था में पैदा हुए विघटन या उनके समाज में हुई पुरुषों की संख्या की बहुत बड़ी मात्रा में कमी को या यूरोपीयों की घूसखोरी से प्रसूत नए रोगों को तो गिनती में लिया ही नहीं गया है।
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सन् १७७० में ऐसे गुलामों की प्रतिशत में संख्या उस काल के ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी केरेबियन में ९१ प्रतिशत थी वह उत्तर अमेरिका में २२ प्रतिशत एवं दक्षिणी यूनाइटेड स्टेटस में ४० प्रतिशत थी।<ref>वही
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</ref> सन् १७९० में उस समय के यू.एस.ए. में गुलामों की संख्या कुल प्रजा के १९.३ प्रतिशत थी जबकि यूरोपीयों की संख्या ८० प्रतिशत थी। सन् १९०० तक यू.एस.ए. में आफ्रिकनों का अनुपात कम होकर ११.८ प्रतिशत जितना था।<ref>एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, ११ वां संस्करण, १९११, खण्ड २७ पृ. ६३६
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</ref> अमेरिका के मूल स्थानीय लोगों को १७९० और १९०० में गणना में नहीं लिया गया था।
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इसके अतिरिक्त यूरोप के स्त्री पुरुष जिन्हें सन् १९०० तक ब्रिटन में नीचले वर्ग का माना जाता था, उन्हें भी कुछ वर्षों तक के करार पर जबरदस्ती नोकरी पर रखा गया एवं बाद में अमेरिका भेज दिया गया। यूरोपीयों के हमवतनी होने से उनकी स्थिति कम त्रासदीयुक्त तथा कुछ अच्छे भविष्य की वचनबद्धता से युक्त थी। निश्चित समयसीमा पूर्ण होने पर उन्हें मुक्त करके कुछ भूमि देकर स्वतन्त्रतापूर्वक काम करने की अनुमति दे दी जाती थी। सन् १६५५ से सन् १६७८ के दौरान बिस्टोल के इंग्लैण्ड के बन्दरगाह से उत्तर अमेरिका में ले जाए जानेवाले ऐसे नौकरीपेशा लोगों की वार्षिक संख्या अनुमानतः ४०० थी। सन् १६८४ में लंदन से लाए जानेवाले मजदूरों की संख्या ७६४ थी एवं सन् १७४५ से १७७५ के दौरान जो नौकरीपेशा लोग ब्रिटन से उत्तर अमेरिका के एनापोलिस शहर में पहुँचे उनकी संख्या १९,९२० थी उनमें ९,३६० ऐसे लोगों का समावेश था जिन्हें अपराधी होने का ठप्पा लगाया गया था।<ref>ओबट इमर्सन स्मिथ, 'उपनिवेशी बंधन में : अमेरिका में गोरों की गुलामी और बंधुआ मजदूरी, १६१७ से १७७६ के दौरान : कोलोनिस्टस् इन बॉण्डेज : व्हाउट सर्विट्यूट एण्ड कन्विक्ट लेबर इन अमेरिका, १६१७ - १७७६ : Colonists in Bondage : White Servitude and Convict Labour in America, 1617-1776' १९४७, पृ. ३०८-३२५
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उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से ऐसे नोकरीपेशा लोगों को ब्रिटन के आधिपत्य में स्थित दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण आफ्रिका एवं अटलाण्टिक महासागर के टापुओं पर बड़े पैमाने पर भेजा गया वह इस यूरोपीय प्रथा की केवल नकल ही थी।
 
उन्नीसवीं शताब्दी में भारत से ऐसे नोकरीपेशा लोगों को ब्रिटन के आधिपत्य में स्थित दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण आफ्रिका एवं अटलाण्टिक महासागर के टापुओं पर बड़े पैमाने पर भेजा गया वह इस यूरोपीय प्रथा की केवल नकल ही थी।
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यूरोप में ऐसे गुलामों की संस्थाएँ प्राचीनकाल से ही अस्तित्व में थीं। प्राचीन ग्रीस के तथा ईसा पूर्व के रोम के राज्य में गुलामी की प्रथा बड़े पैमाने पर अमल में थी। ईसा पूर्व ४३२ या उससे भी पूर्व के एथेन्स में अर्थात् लगभग सोक्रेटिस के समय में गुलामों की संख्या १,१५,००० थी, जबकि उस समय उसकी समग्र जनसंख्या ३,१७,००० थी। इसके अतिरिक्त वहाँ ३८,००० मेटीक (एक गुलाम जाति) एवं उनके परिवार भी थे। ऐसा अनुमान है कि स्पार्टा में गुलामों का अनुपात बहुत अधिक था। सन् ३७१ इसा पूर्व में स्पार्टा में अर्थात् प्लेटो के युग में गुलाम (जो कि हेलोट कहलाते थे) की संख्या १,४०,००० से २,००,००० तक थी एवं पेरीओकी, गुलाम के समान, की संख्या ४०,००० से ६०,००० थी। जब कि वहाँ कुल जनसंख्या १,९०,००० से २,७०,००० थी। इसमें स्पार्टा के सम्पूर्ण नागरिक अधिकार युक्त लोगों की संख्या तो केवल २५०० से ३००० थी एवं सीमित अधिकार वाले स्पार्टा के लोगों की संख्या १५०० से २००० थी।<ref>12</ref>
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यूरोप में ऐसे गुलामों की संस्थाएँ प्राचीनकाल से ही अस्तित्व में थीं। प्राचीन ग्रीस के तथा ईसा पूर्व के रोम के राज्य में गुलामी की प्रथा बड़े पैमाने पर अमल में थी। ईसा पूर्व ४३२ या उससे भी पूर्व के एथेन्स में अर्थात् लगभग सोक्रेटिस के समय में गुलामों की संख्या १,१५,००० थी, जबकि उस समय उसकी समग्र जनसंख्या ३,१७,००० थी। इसके अतिरिक्त वहाँ ३८,००० मेटीक (एक गुलाम जाति) एवं उनके परिवार भी थे। ऐसा अनुमान है कि स्पार्टा में गुलामों का अनुपात बहुत अधिक था। सन् ३७१ इसा पूर्व में स्पार्टा में अर्थात् प्लेटो के युग में गुलाम (जो कि हेलोट कहलाते थे) की संख्या १,४०,००० से २,००,००० तक थी एवं पेरीओकी, गुलाम के समान, की संख्या ४०,००० से ६०,००० थी। जब कि वहाँ कुल जनसंख्या १,९०,००० से २,७०,००० थी। इसमें स्पार्टा के सम्पूर्ण नागरिक अधिकार युक्त लोगों की संख्या तो केवल २५०० से ३००० थी एवं सीमित अधिकार वाले स्पार्टा के लोगों की संख्या १५०० से २००० थी।<ref>डी. जी. ई. हॉल के उद्धरण, 'बर्मा के साथ अंग्रेजों का प्रारम्भिक सम्बन्ध : अर्ली इंग्लीश इन्टरकोर्स विद बर्मा : Early English Intercourse with Burma', १९२८, पृ. २५०</ref>
    
== एशिया में यूरोप का बढ़ता हुआ वर्चस्व ==
 
== एशिया में यूरोप का बढ़ता हुआ वर्चस्व ==
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ऐसा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी में तो यूरोपने आफ्रिका के दक्षिण तथा पूर्व समुद्री किनारों के प्रदेशों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। यह सब भिन्न भिन्न इस्ट इंडिया कंपनियों के माध्यम से किया गया था। यूरोप के भिन्न भिन्न राज्यों के द्वारा प्रेरणा दी गयी या उन प्रदेशों में कम्पनी चलाने के लिए लिखित परवाने दिए गए। साथ ही इन कंपनियों को यूरोप की स्थलसेना तथा नौसेना द्वारा संरक्षण दिया गया।
 
ऐसा लगता है कि सत्रहवीं शताब्दी में तो यूरोपने आफ्रिका के दक्षिण तथा पूर्व समुद्री किनारों के प्रदेशों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर दिया था। यह सब भिन्न भिन्न इस्ट इंडिया कंपनियों के माध्यम से किया गया था। यूरोप के भिन्न भिन्न राज्यों के द्वारा प्रेरणा दी गयी या उन प्रदेशों में कम्पनी चलाने के लिए लिखित परवाने दिए गए। साथ ही इन कंपनियों को यूरोप की स्थलसेना तथा नौसेना द्वारा संरक्षण दिया गया।
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उस काल के एक लेखक के मतानुसार 'सन् १६८७ से भी बहुत पहले से ही सियाम (थाइलैण्ड) सरकार की दीवानी तथा लश्करी शाखाओं में अंग्रेजों ने विश्वास सम्पादित किया था।' एक अंग्रेज मिरजू तथा ताना करीम में 'शोबंदर या आयात विभाग का उपरी अधिकारी' था तो दूसरा अंग्रेज 'राजा के नौकादल के सेनापति' के समान ऊँची पदवी पर था।<ref>13</ref> सत्रहवीं शताब्दी में जब डच एवं पुर्तगालियों की प्रमुख सत्ता दक्षिण पूर्वी एशिया पर थी तब उन्होंने अपने वर्चस्वयुक्त क्षेत्रों में ऐसे अनगिनत पद प्राप्त किए थे।
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उस काल के एक लेखक के मतानुसार 'सन् १६८७ से भी बहुत पहले से ही सियाम (थाइलैण्ड) सरकार की दीवानी तथा लश्करी शाखाओं में अंग्रेजों ने विश्वास सम्पादित किया था।' एक अंग्रेज मिरजू तथा ताना करीम में 'शोबंदर या आयात विभाग का उपरी अधिकारी' था तो दूसरा अंग्रेज 'राजा के नौकादल के सेनापति' के समान ऊँची पदवी पर था।<ref>अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में जो भी टक्कर हुई उसके विषय में पुरातन लेख और अन्य सामग्री व्यापक रूप में उपलब्ध है। उसमें अधिकांश सामग्री भारतीय पुरातन लेख के रूप में भी निरूपित है। सन् १८१०-११ में आवास कर के विरोध में उठे जनआंदोलन का ब्यौरा 'भारतीय परम्परा में असहयोग', पुनरुत्थान, २००७ में उपलब्ध है।</ref> सत्रहवीं शताब्दी में जब डच एवं पुर्तगालियों की प्रमुख सत्ता दक्षिण पूर्वी एशिया पर थी तब उन्होंने अपने वर्चस्वयुक्त क्षेत्रों में ऐसे अनगिनत पद प्राप्त किए थे।
    
आफ्रिका का यूरोप के राष्ट्रों के बीच बड़े पैमाने पर किया गया विभाजन तो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ, परन्तु यूरोप की आफ्रिका में घूसखोरी एवं उसके वर्चस्व का बीज तो सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही पड़ गया था। भारत, दक्षिण पूर्व तथा दक्षिण एशिया पहुँचने का मार्ग खोजे जाने के तुरन्त बाद ही आफ्रिका के पश्चिम, दक्षिण एवं पूर्वी समुद्री किनारों पर थोडी थोडी दूरी पर उनकी छावनी स्थापित की गईं। लगभग १४५० से अस्तित्व में रही आफ्रिकनों को गुलाम बनाकर पहले भूमध्य सागर के टापुओं पर एवं वहाँ से अमेरिका ले जाने की प्रथा के कारण यूरोप की घूसखोरी आफ्रिका के हार्द तक पहँच गई। इसके बाद यूरोपीय वसाहतों के अनुकूल स्थान सर्व प्रथम दक्षिण आफ्रिका में खोजे गये। सन् १७०० तक बहुत स्थानों पर ऐसी बस्तियाँ बन गईं जिसके कारण वहाँ यूरोपीयों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हुआ।
 
आफ्रिका का यूरोप के राष्ट्रों के बीच बड़े पैमाने पर किया गया विभाजन तो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ, परन्तु यूरोप की आफ्रिका में घूसखोरी एवं उसके वर्चस्व का बीज तो सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही पड़ गया था। भारत, दक्षिण पूर्व तथा दक्षिण एशिया पहुँचने का मार्ग खोजे जाने के तुरन्त बाद ही आफ्रिका के पश्चिम, दक्षिण एवं पूर्वी समुद्री किनारों पर थोडी थोडी दूरी पर उनकी छावनी स्थापित की गईं। लगभग १४५० से अस्तित्व में रही आफ्रिकनों को गुलाम बनाकर पहले भूमध्य सागर के टापुओं पर एवं वहाँ से अमेरिका ले जाने की प्रथा के कारण यूरोप की घूसखोरी आफ्रिका के हार्द तक पहँच गई। इसके बाद यूरोपीय वसाहतों के अनुकूल स्थान सर्व प्रथम दक्षिण आफ्रिका में खोजे गये। सन् १७०० तक बहुत स्थानों पर ऐसी बस्तियाँ बन गईं जिसके कारण वहाँ यूरोपीयों का पूर्ण वर्चस्व स्थापित हुआ।
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इस से लगता है कि भारतीय समाज एक मंद गति से बहता हुआ अचल प्रवाह है जो घटनाओं रूपी अवरोधों से अपनी दिशा नहीं बदलता है। आपसी सहमति, समानता एवं सन्तुलन भारत के लिए नवीन भविष्य के अतिशय मोहक प्रतिबिम्ब से भी अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कोई बदलाव या परिवर्तन ही नहीं है, परन्तु वे भारतीय समाज में तभी आवकार्य रहे जब उन्होंने उनकी आपसी सहमति या सन्तुलन को बनाए रखा। इसलिए भारतीय राजकर्ता की भूमिका केवल एक मार्गदर्शक की या फिर प्लेटो द्वारा दर्शाए गए आदर्श पुरुष की या तो एक नियामक की है जो एक प्रबन्धकर्ता के रूप में रहकर स्थानीय या प्रान्तीय लोगों के रीति  रिवाज एवं पसन्द, नापसन्द के अनुसार कार्य करे। यह एक ऐसी सांस्कृतिक राज्य व्यवस्था है जो अपने विविध भागों के बीच समान मूलभूत विचार तथा लक्ष्य से युक्त है। फिर भी उनके बीच का जोड सूत के तन्तु के समान नरम एवं मजबूत है। 'चक्रवर्ती' का विचार भारत के एक होकर मिलजुल कर रहने का स्वभाव तथा उसके अभिजात समाज का प्रतीक है ऐसा भासित होता है। चक्रवर्ती के प्रतीक ने कदाचित यह एकचक्री राज्यव्यवस्था को शक्ति एवं अजेयता प्रदान की है।
 
इस से लगता है कि भारतीय समाज एक मंद गति से बहता हुआ अचल प्रवाह है जो घटनाओं रूपी अवरोधों से अपनी दिशा नहीं बदलता है। आपसी सहमति, समानता एवं सन्तुलन भारत के लिए नवीन भविष्य के अतिशय मोहक प्रतिबिम्ब से भी अधिक महत्त्वपूर्ण रहे हैं। ऐसा नहीं है कि कोई बदलाव या परिवर्तन ही नहीं है, परन्तु वे भारतीय समाज में तभी आवकार्य रहे जब उन्होंने उनकी आपसी सहमति या सन्तुलन को बनाए रखा। इसलिए भारतीय राजकर्ता की भूमिका केवल एक मार्गदर्शक की या फिर प्लेटो द्वारा दर्शाए गए आदर्श पुरुष की या तो एक नियामक की है जो एक प्रबन्धकर्ता के रूप में रहकर स्थानीय या प्रान्तीय लोगों के रीति  रिवाज एवं पसन्द, नापसन्द के अनुसार कार्य करे। यह एक ऐसी सांस्कृतिक राज्य व्यवस्था है जो अपने विविध भागों के बीच समान मूलभूत विचार तथा लक्ष्य से युक्त है। फिर भी उनके बीच का जोड सूत के तन्तु के समान नरम एवं मजबूत है। 'चक्रवर्ती' का विचार भारत के एक होकर मिलजुल कर रहने का स्वभाव तथा उसके अभिजात समाज का प्रतीक है ऐसा भासित होता है। चक्रवर्ती के प्रतीक ने कदाचित यह एकचक्री राज्यव्यवस्था को शक्ति एवं अजेयता प्रदान की है।
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यह राज्य व्यवस्था भारत में पुरातन काल से चली आ रही है। यूरोपीयों की कल्पना ऐसी है कि भारतवासी मूल भारत के नहीं है। (उनके मतानुसार कदाचित् भारत में भी अमेरिका के समान आक्रमण हुए होंगे।) परन्तु ऐसा कहना अधिक सही होगा कि प्राचीन भारतवर्ष का एक भाग भारत, एक ऐसा देश है जिस पर कदाचित् कम से कम आक्रमण हुए होंगे। जब कि ऐसा भी नहीं है कि यहाँ के सभी भारतवासी एक ही स्रोत से आए हों। कुछेक परदेशियों ने समयान्तर में भारत में प्रवेश भी किया था। जिनमें सबसे बाद के विदेशी भारत के पश्चिम में स्थित सीमावर्ती प्रदेश से आए थे। फिर भी लगभग बारहवीं शताब्दी के अन्त तक तो भारत का शासन प्रशासन अपने ही राज्य कर्ताओं तथा अपनी ही राज्य व्यवस्था के द्वारा चला। तेरहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुगलों द्वारा किए गए आक्रमण या उनका वर्चस्च भारत पर होने के बावजूद भी वे भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था को हानि नहीं पहुंचा पाए थे। परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों मुगलों का हस्तक्षेप भारतीय समाज पर बढता गया। कुछ हद तक समाज दुर्बल व भीरू बनता गया। जिसके कारण वह अपनी आन्तरिक शक्ति के विषय में संशयग्रस्त बनता गया। यद्यपि इस दुर्बलता या अनिश्चितता के मनोभाव का मूल कदाचित भारत की प्राचीन पद्धति में भी हो। १९ वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत की शूरवीरता कुछ हद तक टिकी रही। ब्रिटन के आधिपत्य के प्रारम्भ के उसके राज्यप्रबन्ध के विषय में भारतवासियों द्वारा अवश्य विरोध किया गया, क्यों कि उनका व्यवहार भारतीय नियमों के अनुसार 'अन्यायपूर्ण' था। इस विरोध के द्वारा उन्हें समझाया गया कि वे जो कर रहे हैं उस 'अन्यायपूर्ण व्यवहार' को बदलकर भारतीय नियमों के अनुसार चलें। इसके लिए महात्मा गांधी द्वारा सूचित 'सत्याग्रह' के विशिष्ट प्रयोग जैसे असहयोग, बहिष्कार, या सविनय कानूनभंग इत्यादि भी शुरू हुए। किसानों, मजदूरों नगरवासियों, द्वारा ऐसे अनेक प्रकार के विरोध का प्रदर्शन किया गया। एक विशिष्ट उदाहरण के रूप में १८१०-११ में प्राचीन वाराणसी तथा वर्तमान उत्तरप्रदेश तथा बिहार के कुछ नगरों के आवासों पर ब्रिटिश राज्य द्वारा 'कर' लगाया गया। उस समय का वृत्तान्त दर्शाता है कि उस 'कर' के विरोध में किसानों, एवं मजदूरों, विशेष करके सुनार, लुहार जैसे धातु से सम्बन्धित कारीगरों एवं कुछ तन्त्रज्ञों ने भी भाग लिया था। जिसमें लगभग २०,००० लोगों ने कई दिनों तक वाराणसी में धरना दिया था और कहा जाता है कि पडोस के शहरों से लगभग २,००,००० लोग वहाँ एकत्र हुए थे। मरघट के डोम ने भी अपना काम बन्द कर दिया था एवं मृतदेहों को भी बिना अन्तिम संस्कार किए ही गंगा में प्रवाहित कर दिया गया था।<ref>14</ref> भारत के लगभग सभी प्रान्तों में ऐसे अनेकों विरोध ब्रिटिश राज्य के प्रारम्भ में किए गए। सन् १८४३ में सूरत शहर में ब्रिटिश सरकार द्वारा 'नमक पर कर' लगाया गया तब वहाँ भी उसका अप्रत्याशित विरोध किया गया था।<ref>15</ref>
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यह राज्य व्यवस्था भारत में पुरातन काल से चली आ रही है। यूरोपीयों की कल्पना ऐसी है कि भारतवासी मूल भारत के नहीं है। (उनके मतानुसार कदाचित् भारत में भी अमेरिका के समान आक्रमण हुए होंगे।) परन्तु ऐसा कहना अधिक सही होगा कि प्राचीन भारतवर्ष का एक भाग भारत, एक ऐसा देश है जिस पर कदाचित् कम से कम आक्रमण हुए होंगे। जब कि ऐसा भी नहीं है कि यहाँ के सभी भारतवासी एक ही स्रोत से आए हों। कुछेक परदेशियों ने समयान्तर में भारत में प्रवेश भी किया था। जिनमें सबसे बाद के विदेशी भारत के पश्चिम में स्थित सीमावर्ती प्रदेश से आए थे। फिर भी लगभग बारहवीं शताब्दी के अन्त तक तो भारत का शासन प्रशासन अपने ही राज्य कर्ताओं तथा अपनी ही राज्य व्यवस्था के द्वारा चला। तेरहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुगलों द्वारा किए गए आक्रमण या उनका वर्चस्च भारत पर होने के बावजूद भी वे भारत की सामाजिक अर्थव्यवस्था को हानि नहीं पहुंचा पाए थे। परन्तु ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों मुगलों का हस्तक्षेप भारतीय समाज पर बढता गया। कुछ हद तक समाज दुर्बल व भीरू बनता गया। जिसके कारण वह अपनी आन्तरिक शक्ति के विषय में संशयग्रस्त बनता गया। यद्यपि इस दुर्बलता या अनिश्चितता के मनोभाव का मूल कदाचित भारत की प्राचीन पद्धति में भी हो। १९ वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक भारत की शूरवीरता कुछ हद तक टिकी रही। ब्रिटन के आधिपत्य के प्रारम्भ के उसके राज्यप्रबन्ध के विषय में भारतवासियों द्वारा अवश्य विरोध किया गया, क्यों कि उनका व्यवहार भारतीय नियमों के अनुसार 'अन्यायपूर्ण' था। इस विरोध के द्वारा उन्हें समझाया गया कि वे जो कर रहे हैं उस 'अन्यायपूर्ण व्यवहार' को बदलकर भारतीय नियमों के अनुसार चलें। इसके लिए महात्मा गांधी द्वारा सूचित 'सत्याग्रह' के विशिष्ट प्रयोग जैसे असहयोग, बहिष्कार, या सविनय कानूनभंग इत्यादि भी शुरू हुए। किसानों, मजदूरों नगरवासियों, द्वारा ऐसे अनेक प्रकार के विरोध का प्रदर्शन किया गया। एक विशिष्ट उदाहरण के रूप में १८१०-११ में प्राचीन वाराणसी तथा वर्तमान उत्तरप्रदेश तथा बिहार के कुछ नगरों के आवासों पर ब्रिटिश राज्य द्वारा 'कर' लगाया गया। उस समय का वृत्तान्त दर्शाता है कि उस 'कर' के विरोध में किसानों, एवं मजदूरों, विशेष करके सुनार, लुहार जैसे धातु से सम्बन्धित कारीगरों एवं कुछ तन्त्रज्ञों ने भी भाग लिया था। जिसमें लगभग २०,००० लोगों ने कई दिनों तक वाराणसी में धरना दिया था और कहा जाता है कि पडोस के शहरों से लगभग २,००,००० लोग वहाँ एकत्र हुए थे। मरघट के डोम ने भी अपना काम बन्द कर दिया था एवं मृतदेहों को भी बिना अन्तिम संस्कार किए ही गंगा में प्रवाहित कर दिया गया था।<ref>अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में जो भी टक्कर हुई उसके विषय में पुरातन लेख और अन्य सामग्री व्यापक रूप में उपलब्ध है। उसमें अधिकांश सामग्री भारतीय पुरातन लेख के रूप में भी निरूपित है। सन् १८१०-११ में आवास कर के विरोध में उठे जनआंदोलन का ब्यौरा 'भारतीय परम्परा में असहयोग', पुनरुत्थान, २००७ में उपलब्ध है।
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</ref> भारत के लगभग सभी प्रान्तों में ऐसे अनेकों विरोध ब्रिटिश राज्य के प्रारम्भ में किए गए। सन् १८४३ में सूरत शहर में ब्रिटिश सरकार द्वारा 'नमक पर कर' लगाया गया तब वहाँ भी उसका अप्रत्याशित विरोध किया गया था।<ref>सन् १८४३ में नमक पर डाले गये कर के विरोध में सुरत में हुए आन्दोलन का विवरण उसी वर्ष के मुम्बई प्रेसीडेन्सी रिकार्ड में उपलब्ध है।
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ब्रिटिश एवं यूरोपीयों के मतानुसार सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत की आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी थी। उस समय प्रजा राज्यकर्ता के दबाव में नहीं थी। उल्टे राज्यकर्ता प्रजा के दबाव में रहता था।<ref>16</ref> राज्यकर्ता के अन्यायपूर्ण व्यवहार करने पर उस समय के नियम के अनुसार उसे बदल दिया जाता था। यही कानून राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों में आन्तरिक सभ्यता बनाए रखने में सहायक था। प्रथा ऐसी थी कि जब कोई मुलाकाती आए तो अतिथि तथा यजमान दोनों एकदूसरे को भेंट देते थे।उसमें मेहमान द्वारा लाई गई भेट सामान्य रूप से कम महंगी व छोटी होती थी परन्तु यजमान द्वारा उसे कीमती भेंटसौगातें दी जाती थीं। ऐसी ही सभ्यता न्यायालयों में भी कायम थी। वहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति जाते समय पान सुपारी की अपेक्षा करता था जो उसे अवश्य दिया जाता था।<ref>17</ref>
 
ब्रिटिश एवं यूरोपीयों के मतानुसार सत्रहवीं एवं अठारहवीं शताब्दी में भारत की आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी थी। उस समय प्रजा राज्यकर्ता के दबाव में नहीं थी। उल्टे राज्यकर्ता प्रजा के दबाव में रहता था।<ref>16</ref> राज्यकर्ता के अन्यायपूर्ण व्यवहार करने पर उस समय के नियम के अनुसार उसे बदल दिया जाता था। यही कानून राजा एवं प्रजा के सम्बन्धों में आन्तरिक सभ्यता बनाए रखने में सहायक था। प्रथा ऐसी थी कि जब कोई मुलाकाती आए तो अतिथि तथा यजमान दोनों एकदूसरे को भेंट देते थे।उसमें मेहमान द्वारा लाई गई भेट सामान्य रूप से कम महंगी व छोटी होती थी परन्तु यजमान द्वारा उसे कीमती भेंटसौगातें दी जाती थीं। ऐसी ही सभ्यता न्यायालयों में भी कायम थी। वहाँ आनेवाला प्रत्येक व्यक्ति जाते समय पान सुपारी की अपेक्षा करता था जो उसे अवश्य दिया जाता था।<ref>17</ref>
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भारत की स्वतन्त्रता विषयक अन्य विधेयकों के समान ही इस विधेयक का मुसद्दा भी महात्मा गांधी ने ही रचा था।<ref>25</ref> सन् १९२८ के जनवरी में महात्मा गांधी ने ऐसी भी आशा व्यक्त की कि भारत की स्वतन्त्रता अन्य उपनिवेशों एवं गुलाम बनाए गए लोगों की स्वतन्त्रता का सोपान बनेगी। वे कहते थे, 'भारत अपनी इच्छा के अनुसार जो प्राप्त करेगा वह अन्य देश भी प्राप्त करेंगे।'<ref>26</ref> हम भली प्रकार जानते हैं कि ब्रिटिश आधिपत्य से भारत के स्वतन्त्र होने के पन्द्रह वर्षों में विश्व के दक्षिणपूर्व एशिया, आफ्रिका, जैसे देश भी एक या दूसरे रूप से स्वतन्त्र हो ही गए हैं।
 
भारत की स्वतन्त्रता विषयक अन्य विधेयकों के समान ही इस विधेयक का मुसद्दा भी महात्मा गांधी ने ही रचा था।<ref>25</ref> सन् १९२८ के जनवरी में महात्मा गांधी ने ऐसी भी आशा व्यक्त की कि भारत की स्वतन्त्रता अन्य उपनिवेशों एवं गुलाम बनाए गए लोगों की स्वतन्त्रता का सोपान बनेगी। वे कहते थे, 'भारत अपनी इच्छा के अनुसार जो प्राप्त करेगा वह अन्य देश भी प्राप्त करेंगे।'<ref>26</ref> हम भली प्रकार जानते हैं कि ब्रिटिश आधिपत्य से भारत के स्वतन्त्र होने के पन्द्रह वर्षों में विश्व के दक्षिणपूर्व एशिया, आफ्रिका, जैसे देश भी एक या दूसरे रूप से स्वतन्त्र हो ही गए हैं।
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अधिकांश भारतवासियों की ऐसी मान्यता रही है कि ब्रिटिश शासनने भारत को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से चौपट कर दिया है। परन्तु कुछ लोग इस सोच से सहमत नहीं हैं। १९४७ में स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी वे असहमत ही रहे हैं। ऐसे आधुनिकों में जवाहरलालजी एक थे। यद्यपि सार्वजनिक रूप से वे ऐसे कथनों का आमना सामना करने से स्वंय को बचाते थे, परन्तु १९२८ के आसपास के दिनों में व्यक्तिगत रूप से वे अपने विचार व्यक्त करते रहे थे। महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'आपने कहीं पर कहा है कि भारत को पाश्चात्यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं है, उसने तो पहले से ही सयानेपन के शिखर सर कर लिए हैं। मैं आपके इस दृष्टिकोण से निश्चित रूप से सहमत नहीं हूँ। मेरे मतानुसार पश्चिम, विशेष कर औद्योगिक संस्कृति भारत को जीतने में समर्थ है। हाँ उसमें सुधार और परिवर्तन अवश्य होंगे। आपने औद्योगिकरण की कुछ कमियों की आलोचना तो की पर उसके लाभ तथा उत्तम पहलू को अनदेखा भी किया है। लोग कमियां समझते ही हैं फिर भी आदर्श राज्य व्यवस्था एवं सामाजिक सिद्धान्तों के द्वारा उसका निवारण सम्भव है ही। पश्चिम के कुछ बुद्धिजीवियों का मन्तव्य है कि ये कमियां औद्योगिकरण की नहीं हैं परन्तु पूंजीवादी प्रणाली की शोषणवृत्ति की पैदाइश है। आपने कहा है कि पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच संघर्ष नहीं होना चाहिए। मैं मानता हूँ कि पूंजीवादी प्रथा में ऐसा संघर्ष अनिवार्य है। पश्चिमी आधुनिकता विषयक सोच ही उस प्रकार की है, ऐसा पंद्रह वर्ष बाद गांधीजी को नेहरू ने बताया। अपने पत्र में नेहरू ने यह भी टिप्पणी की कि, 'क्यों गाँवों को सत्य एवं अहिंसा के साथ जोडना चाहिए ? गाँव तो सामान्य रूप से बौद्धिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछडे हुए हैं। पिछड़ेपन के वातावरण में विकास सम्भव नहीं है। संकुचित सोच रखनेवाले लोग अधिकांशतः झूठे एवं हिंसापूर्ण ही होते हैं।
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अधिकांश भारतवासियों की ऐसी मान्यता रही है कि ब्रिटिश शासनने भारत को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से चौपट कर दिया है। परन्तु कुछ लोग इस सोच से सहमत नहीं हैं। १९४७ में स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी वे असहमत ही रहे हैं। ऐसे आधुनिकों में जवाहरलालजी एक थे। यद्यपि सार्वजनिक रूप से वे ऐसे कथनों का आमना सामना करने से स्वंय को बचाते थे, परन्तु १९२८ के आसपास के दिनों में व्यक्तिगत रूप से वे अपने विचार व्यक्त करते रहे थे। महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'आपने कहीं पर कहा है कि भारत को पाश्चात्यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं है, उसने तो पहले से ही सयानेपन के शिखर सर कर लिए हैं। मैं आपके इस दृष्टिकोण से निश्चित रूप से सहमत नहीं हूँ। मेरे मतानुसार पश्चिम, विशेष कर औद्योगिक संस्कृति भारत को जीतने में समर्थ है। हाँ उसमें सुधार और परिवर्तन अवश्य होंगे। आपने औद्योगिकरण की कुछ कमियों की आलोचना तो की पर उसके लाभ तथा उत्तम पहलू को अनदेखा भी किया है। लोग कमियां समझते ही हैं फिर भी आदर्श राज्य व्यवस्था एवं सामाजिक सिद्धान्तों के द्वारा उसका निवारण सम्भव है ही। पश्चिम के कुछ बुद्धिजीवियों का मन्तव्य है कि ये कमियां औद्योगिकरण की नहीं हैं परन्तु पूंजीवादी प्रणाली की शोषणवृत्ति की पैदाइश है। आपने कहा है कि पूंजीपति एवं मजदूरों के बीच संघर्ष नहीं होना चाहिए। मैं मानता हूँ कि पूंजीवादी प्रथा में ऐसा संघर्ष अनिवार्य है।'<ref>27</ref> पश्चिमी आधुनिकता विषयक सोच ही उस प्रकार की है ऐसा पंद्रह वर्ष बाद गांधीजी को नेहरू ने बताया।<ref>28</ref> अपने पत्र में नेहरू ने यह भी टिप्पणी की कि, 'क्यों गाँवों को सत्य एवं अहिंसा के साथ जोडना चाहिए ? गाँव तो सामान्य रूप से बौद्धिक एवं सांस्कृतिक रूप से पिछडे हुए हैं। पिछड़ेपन के वातावरण में विकास सम्भव नहीं है। संकुचित सोच रखनेवाले लोग अधिकांशतः झूठे एवं हिंसापूर्ण ही होते हैं।'<ref>29</ref>
    
पश्चिम का सम्पूर्ण ज्ञान एवं विविध तथ्यों विषयक सिद्धांतीकरण किसी मूल तथ्यों का साररूप हो यह माना जा सकता है। यह केवल मानवता या समाजविद्या जैसी विद्या तक सीमित न रहकर भौतिक विज्ञान के लिए भी कहा जा सकता है। उनमें एक, मानव नृवंशशास्त्र है। मानववंश विज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो केवल गैर यूरोपीय और विजित लोगों के विषय में ही है। यह तथा इसके अनुषांगिक अन्य शास्त्र गैर यूरोपीय लोगों ने जो संज्ञा दी उसे केवल एक बीज समझ कर मूल्यांकन करते हैं। प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी इस शास्त्र का वर्णन इस प्रकार करते हैं -
 
पश्चिम का सम्पूर्ण ज्ञान एवं विविध तथ्यों विषयक सिद्धांतीकरण किसी मूल तथ्यों का साररूप हो यह माना जा सकता है। यह केवल मानवता या समाजविद्या जैसी विद्या तक सीमित न रहकर भौतिक विज्ञान के लिए भी कहा जा सकता है। उनमें एक, मानव नृवंशशास्त्र है। मानववंश विज्ञान एक ऐसा विज्ञान है जो केवल गैर यूरोपीय और विजित लोगों के विषय में ही है। यह तथा इसके अनुषांगिक अन्य शास्त्र गैर यूरोपीय लोगों ने जो संज्ञा दी उसे केवल एक बीज समझ कर मूल्यांकन करते हैं। प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी इस शास्त्र का वर्णन इस प्रकार करते हैं -
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'नृवंशशास्त्र कोई ऐसा शास्त्र या विज्ञान नहीं है जो खगोलशास्त्र के समान दूर सुदूर के पदार्थों के सिद्धान्त समझाता हो। वह तो इतिहास के ऐसे तथ्यों से रंजित शास्त्र है जिसमें मानव समूह का अधिकांश भाग अन्य किसी के अधिकार में रहा हो, जिस काल के दौरान लाखों लोगों ने अपने जीवन आधार को खो दिया हो, उनके संस्थागत ढाँचे टूट चुके हों, उन्हें क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारा गया हो, गुलामी में जकड़ दिया गया हो, और ऐसे शेर का शिकार बनाया गया हो जिसके सामने वे टिक न पाए हों। नृवंशशास्त्र हिंसा के इस युग की पुत्री है। मानव का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करने की उसकी पद्धति तो ज्ञानमीमांसा को भी पार कर जाती है। इसमें (करुणता तो यह है कि) मानव समूह का एक हिस्सा अपने जैसे ही दूसरे हिस्सेको वस्तु समझ कर सिद्धान्त बनाता है।
 
'नृवंशशास्त्र कोई ऐसा शास्त्र या विज्ञान नहीं है जो खगोलशास्त्र के समान दूर सुदूर के पदार्थों के सिद्धान्त समझाता हो। वह तो इतिहास के ऐसे तथ्यों से रंजित शास्त्र है जिसमें मानव समूह का अधिकांश भाग अन्य किसी के अधिकार में रहा हो, जिस काल के दौरान लाखों लोगों ने अपने जीवन आधार को खो दिया हो, उनके संस्थागत ढाँचे टूट चुके हों, उन्हें क्रूरतापूर्वक मौत के घाट उतारा गया हो, गुलामी में जकड़ दिया गया हो, और ऐसे शेर का शिकार बनाया गया हो जिसके सामने वे टिक न पाए हों। नृवंशशास्त्र हिंसा के इस युग की पुत्री है। मानव का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करने की उसकी पद्धति तो ज्ञानमीमांसा को भी पार कर जाती है। इसमें (करुणता तो यह है कि) मानव समूह का एक हिस्सा अपने जैसे ही दूसरे हिस्सेको वस्तु समझ कर सिद्धान्त बनाता है।
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'यह सरलता से भुलाई जा नहीं सकती। सब मिटाया भी नहीं जा सकता। यह केवल पश्चिम के विश्व द्वारा दिया गया मानवशास्त्र ही नहीं है अपितु विदेशी संस्कृति के प्रभाव में प्राप्त होनेवाली वस्तुनिष्ठ सोच का भी परिणाम है। उसी के अनुसार सभी बातों का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करना आवश्यक हो गया। हम यह भूल गए कि उनकी चिंताओं के प्रति हम क्या कर सकते थे। हमने वह नहीं किया। वे हमारे प्रति एवं उनके स्वयं के प्रति किए गए व्यवहार में कोई समानता नहीं रखते थे - न हो सकती थी।
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'यह सरलता से भुलाई जा नहीं सकती। सब मिटाया भी नहीं जा सकता। यह केवल पश्चिम के विश्व द्वारा दिया गया मानवशास्त्र ही नहीं है अपितु विदेशी संस्कृति के प्रभाव में प्राप्त होनेवाली वस्तुनिष्ठ सोच का भी परिणाम है। उसी के अनुसार सभी बातों का वस्तु के रूप में मूल्यांकन करना आवश्यक हो गया। हम यह भूल गए कि उनकी चिंताओं के प्रति हम क्या कर सकते थे। हमने वह नहीं किया। वे हमारे प्रति एवं उनके स्वयं के प्रति किए गए व्यवहार में कोई समानता नहीं रखते थे - न हो सकती थी।'<ref>30</ref> प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी ने जो कुछ भी कहा उसमें मानवशास्त्र के लिए कुछ भी नया नहीं है। इससे अस्सी वर्ष पूर्व सर एडवर्ड बरनेट टेलर ने इस शास्त्र की भूमिका को पुरानी संस्कृति के संहारक के रूप में गिनाया था। याद रहे एडवर्ड बरनेट को कुछ लोग नृवंशशास्त्र का पितामह कहते थे। वे इस धर्माधिपत्य वाली संस्कृति के विषय में अन्त में बताते हैं कि वह खूब निर्दयी, कठोर एवं कुछ दुःखदायी भी थी। इसलिए इस शास्त्र में माननेवालों की संस्था पुरानी संस्कृति में बची हुई क्रूरता को बाहर लाने के लिए आगे आयी। 'ऐसी क्रूरता अत्यधिक दुःखदायी एवं अत्याचारी होने के कारण उसका संहार करना ही उचित था। यह कार्य शुभ या उचित लगे या न लगे तो भी मानवजाति के हित के लिए तत्काल करना आवश्यक है।'<ref>31</ref>
 
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प्रोफेसर क्लाउड़ लेवी ने जो कुछ भी कहा उसमें मानवशास्त्र के लिए कुछ भी नया नहीं है। - इससे अस्सी वर्ष पूर्व सर एडवर्ड बरनेट टेलर ने इस शास्त्र की भूमिका को पुरानी संस्कृति के संहारक के रूप में गिनाया था। याद रहे एडवर्ड बरनेट को कुछ लोग नृवंशशास्त्र का पितामह कहते थे। वे इस धर्माधिपत्य वाली संस्कृति के विषय में अन्त में बताते हैं कि वह खूब निर्दयी, कठोर एवं कुछ दुःखदायी भी थी। इसलिए इस शास्त्र में माननेवालों की संस्था पुरानी संस्कृति में बची हुई क्रूरता को बाहर लाने के लिए आगे आयी। 'ऐसी क्रूरता अत्यधिक दुःखदायी एवं अत्याचारी होने के कारण उसका संहार करना ही उचित था। यह कार्य शुभ या उचित लगे या न लगे तो भी मानवजाति के हित के लिए तत्काल करना आवश्यक है।
      
नृवंशशास्त्र की यह परिभाषा तथा यूरोपीयों का उसके प्रति झुकाव, यूरोप से अतिरिक्त शेष विश्व को निगल गया।
 
नृवंशशास्त्र की यह परिभाषा तथा यूरोपीयों का उसके प्रति झुकाव, यूरोप से अतिरिक्त शेष विश्व को निगल गया।
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यूरोप के प्रभाव में आए गैरयूरोपीय समाज में भी कुछ लक्षण समान दिखाई देते हैं। इस समाज ने अपने आराध्य देवताओं या भावनाओं एवं तत्कालीन प्राणी जगत एवं वनस्पति सृष्टि के साथ सन्तुलन बनाए रखा। इन सभी को वे अपनी सभ्यता का भाग ही मानते थे। इस प्रकार का भाव सन् १४९२ के पूर्व आए हुए अमेरिकन, आफ्रिकन, दक्षिणपूर्व एशिया या भारतीय समाज में अधिक दिखाई देता था। भारत में तो यह बात अधिक दृढ़तापूर्वक प्रस्थापित दिखाई देती थी जिसके कारण भारतीय समाज की व्यापकता, विविधता एवं संकुलता का एक विशिष्ट चित्र उभर कर सामने आया है। इस समाज में ऐसा सन्तुलन स्थिर गुणधर्म या स्थाई स्वरूप का हो यह आवश्यक नहीं है। कदाचित् भारत के लिए यह सच हो, जहाँ प्रवाह विशिष्ट रूप से हमेशा बदलते रहते हैं। यह केवल भारतीय समाज का भिन्न भिन्न समयावधि का हूबहू वर्णन नहीं है। परन्तु भारतीय साहित्य की व्यापकता एवं उसके काल एवं चित्त की संकल्पना का परिचय भी है। एक लम्बे अन्तराल के बाद भारत जैसे समाज ने अपना सन्तुलन एक ओर से दूसरी ओर बदला है। परन्तु ऐसा बदलाव बहुत ही धीमा था। इसके विपरीत यूरोपीय समाज प्राचीन काल से आज तक ऐसे सन्तुलन से वंचित दिखाई देता है। इसलिए वहाँ हमेशा आन्तरिक तनाव रहा एवं इसीलिए उसके धर्मतन्त्र का ढाँचा सुदृढ बना। इससे विपरीत यूरोपीय सभ्यता का उद्देश्य समग्रता के मूल्य पर आंशिक उपलब्धि को महत्त्व देता दिखाइ रहा है। इसीलिए यूरोपीय समाज किसी निश्चित समय बिन्दु पर सन्तुलित हुआ नहीं जान पड़ता है। यदि ऐसा ही है तो वह यूरोप की आक्रमक एवं विध्वंसक प्रकृति का परिचायक ही माना जाएगा।
 
यूरोप के प्रभाव में आए गैरयूरोपीय समाज में भी कुछ लक्षण समान दिखाई देते हैं। इस समाज ने अपने आराध्य देवताओं या भावनाओं एवं तत्कालीन प्राणी जगत एवं वनस्पति सृष्टि के साथ सन्तुलन बनाए रखा। इन सभी को वे अपनी सभ्यता का भाग ही मानते थे। इस प्रकार का भाव सन् १४९२ के पूर्व आए हुए अमेरिकन, आफ्रिकन, दक्षिणपूर्व एशिया या भारतीय समाज में अधिक दिखाई देता था। भारत में तो यह बात अधिक दृढ़तापूर्वक प्रस्थापित दिखाई देती थी जिसके कारण भारतीय समाज की व्यापकता, विविधता एवं संकुलता का एक विशिष्ट चित्र उभर कर सामने आया है। इस समाज में ऐसा सन्तुलन स्थिर गुणधर्म या स्थाई स्वरूप का हो यह आवश्यक नहीं है। कदाचित् भारत के लिए यह सच हो, जहाँ प्रवाह विशिष्ट रूप से हमेशा बदलते रहते हैं। यह केवल भारतीय समाज का भिन्न भिन्न समयावधि का हूबहू वर्णन नहीं है। परन्तु भारतीय साहित्य की व्यापकता एवं उसके काल एवं चित्त की संकल्पना का परिचय भी है। एक लम्बे अन्तराल के बाद भारत जैसे समाज ने अपना सन्तुलन एक ओर से दूसरी ओर बदला है। परन्तु ऐसा बदलाव बहुत ही धीमा था। इसके विपरीत यूरोपीय समाज प्राचीन काल से आज तक ऐसे सन्तुलन से वंचित दिखाई देता है। इसलिए वहाँ हमेशा आन्तरिक तनाव रहा एवं इसीलिए उसके धर्मतन्त्र का ढाँचा सुदृढ बना। इससे विपरीत यूरोपीय सभ्यता का उद्देश्य समग्रता के मूल्य पर आंशिक उपलब्धि को महत्त्व देता दिखाइ रहा है। इसीलिए यूरोपीय समाज किसी निश्चित समय बिन्दु पर सन्तुलित हुआ नहीं जान पड़ता है। यदि ऐसा ही है तो वह यूरोप की आक्रमक एवं विध्वंसक प्रकृति का परिचायक ही माना जाएगा।
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यह सम्भव है कि विश्व अब कदाचित धीरे धीरे, परन्तु एक होने की दिशा में, बसुधैव कुटुम्बकम की नयी (?) सोच साथ लेकर, सृष्टिसर्जन की स्वचालित प्रक्रिया को स्वीकार करके विशुद्ध समझ के साथ आगे बढ़ रहा है। यह यदि सच है तो यह नूतन दृष्टि सबका नारा बन जाएगी। सभी को उसे अपनाना ही पडेगा। इसके लिए प्रत्येक को आत्मखोज करनी पड़ेगी। ऐसी खोज समग्र समाज, राज्य, राष्ट्र, यूरोप या अन्य सभी को करनी ही पडेगी। ऐसा आत्मदर्शन, आत्मनिवेदन, गत पाँच शाताब्दियों के हमारे भयानक कृत्यों के लिए पश्चाताप की भूमिका निभायेगा एवं अब तक जो भी हानि हुई है उसकी पूर्ति के या सुधार के उपाय का अवसर भी देगा।
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यह सम्भव है कि विश्व अब कदाचित धीरे धीरे, परन्तु एक होने की दिशा में, वसुधैव कुटुम्बकम की नयी (?) सोच साथ लेकर, सृष्टिसर्जन की स्वचालित प्रक्रिया को स्वीकार करके विशुद्ध समझ के साथ आगे बढ़ रहा है। यह यदि सच है तो यह नूतन दृष्टि सबका नारा बन जाएगी। सभी को उसे अपनाना ही पडेगा। इसके लिए प्रत्येक को आत्मखोज करनी पड़ेगी। ऐसी खोज समग्र समाज, राज्य, राष्ट्र, यूरोप या अन्य सभी को करनी ही पडेगी। ऐसा आत्मदर्शन, आत्मनिवेदन, गत पाँच शाताब्दियों के हमारे भयानक कृत्यों के लिए पश्चाताप की भूमिका निभायेगा एवं अब तक जो भी हानि हुई है उसकी पूर्ति के या सुधार के उपाय का अवसर भी देगा।
    
अन्त में इतना ही है कि जब ऐसे भयानक कृत्य शुरू हुए एवं यूरोप की चालाकी ने अग्नि में घी डालने का काम किया तब गैरयूरोपीय विश्व ने यूरोप को दोष दे देकर अपनी स्थिति को अधिक बिगड़ने दिया। यूरोप के प्रभाव से पूर्व गैरयूरोपीय लोग तो सृष्टिसर्जन को नैसर्गिक मानकर स्वयं को अन्यों का स्वामी नहीं मानते थे। वे तो सृष्टि के अन्य सभी के साथ सहअस्तित्व के सम्बन्ध बनाने में लगे थे। उनका ऐसा व्यवहार समयान्तर में भी तटस्थ नहीं बना। यूरोप को दोषित मानने में स्वंय ही पामर, दुःखदायी एवं लुटेरों के समान बन गया। अब विवेकपूर्ण सन्तुलन मात्र यूरोप के द्वारा आत्मखोज या पश्चाताप करने से प्राप्त नहीं होगा अपितु गैरयूरोपीय विश्व को भी इस प्रक्रिया में सहभागी बनना पडेगा।
 
अन्त में इतना ही है कि जब ऐसे भयानक कृत्य शुरू हुए एवं यूरोप की चालाकी ने अग्नि में घी डालने का काम किया तब गैरयूरोपीय विश्व ने यूरोप को दोष दे देकर अपनी स्थिति को अधिक बिगड़ने दिया। यूरोप के प्रभाव से पूर्व गैरयूरोपीय लोग तो सृष्टिसर्जन को नैसर्गिक मानकर स्वयं को अन्यों का स्वामी नहीं मानते थे। वे तो सृष्टि के अन्य सभी के साथ सहअस्तित्व के सम्बन्ध बनाने में लगे थे। उनका ऐसा व्यवहार समयान्तर में भी तटस्थ नहीं बना। यूरोप को दोषित मानने में स्वंय ही पामर, दुःखदायी एवं लुटेरों के समान बन गया। अब विवेकपूर्ण सन्तुलन मात्र यूरोप के द्वारा आत्मखोज या पश्चाताप करने से प्राप्त नहीं होगा अपितु गैरयूरोपीय विश्व को भी इस प्रक्रिया में सहभागी बनना पडेगा।
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==== संदर्भ ====
   
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# डैण्टन्स न्यूयॉर्क : 'पूर्व में नया नेदरलेण्ड के नाम से पहचाने जाने वाले न्यू यॉर्क का संक्षिप्त विवरण : अ ब्रीफ डिस्क्रीप्शन ऑव् न्यू यॉर्क फॉर्मी कॉल्ड न्यू नेदरलैण्डस : A Brief Description of New York formerly called New Netherlands', १६७० (पुनर्मुद्रण १९०२), पृ. ४५
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# जे. सी. लाँग, 'लॉर्ड जैफरी एम्हर्स्ट : राजा का सिपाही : लॉर्ड जैफरी एम्हर्स्ट : अ सोल्झर ऑव् द किंग : Lord Jeffery Emherst : A Soldier of the King', १९३३, पृ. १८६-१८७
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# अन्यों के साथ आर. उबल्यू. फोगेल और एस. एल. एंगरमन, 'समय क्रूस पर : अमेरिका के नीग्रो की गुलामी का अर्थकारण : टाइम ऑन क्रॉस : द इकनॉमिक्स ऑव् अमेरिकन नीग्रो स्लेवरी : Time on Cross. The economics of American Negro Slavery', १९८९,  पृ. २१-२२। फोगेल और एंगरमन द्वारा निर्दिष्ट ९.५ लाख की संख्या अमेरिका में गुलामों के आयात को सूचित करती है।
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# वही
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# एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, ११ वां संस्करण, १९११, खण्ड २७ पृ. ६३६
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# ओबट इमर्सन स्मिथ, 'उपनिवेशी बंधन में : अमेरिका में गोरों की गुलामी और बंधुआ मजदूरी, १६१७ से १७७६ के दौरान : कोलोनिस्टस् इन बॉण्डेज : व्हाउट सर्विट्यूट एण्ड कन्विक्ट लेबर इन अमेरिका, १६१७ - १७७६ : Colonists in Bondage : White Servitude and Convict Labour in America, 1617-1776' १९४७, पृ. ३०८-३२५
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# डी. जी. ई. हॉल के उद्धरण, 'बर्मा के साथ अंग्रेजों का प्रारम्भिक सम्बन्ध : अर्ली इंग्लीश इन्टरकोर्स विद बर्मा : Early English Intercourse with Burma', १९२८, पृ. २५०
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# अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में जो भी टक्कर हुई उसके विषय में पुरातन लेख और अन्य सामग्री व्यापक रूप में उपलब्ध है। उसमें अधिकांश सामग्री भारतीय पुरातन लेख के रूप में भी निरूपित है। सन् १८१०-११ में आवास कर के विरोध में उठे जनआंदोलन का ब्यौरा 'भारतीय परम्परा में असहयोग', पुनरुत्थान, २००७ में उपलब्ध है।
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# सन् १८४३ में नमक पर डाले गये कर के विरोध में सुरत में हुए आन्दोलन का विवरण उसी वर्ष के मुम्बई प्रेसीडेन्सी रिकार्ड में उपलब्ध है।
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# ब्रिटिशों के भारत में आने से पूर्व के शासक शासित सम्बन्धों के विषय में भारत सरकार के, बंगाल, मुंबई और मद्रास प्रेसीडेन्सी के अभिलेखागारों में ब्रिटिशों द्वारा निर्मित विपुल सामग्री उपलब्ध है। यही सामग्री अठारहवीं एवं उन्नीसवीं शताब्दी की है। इस काल के इंग्लैण्ड के भारत विषयक सरकारी कागजों में भी ऐसी सामग्री मिलती है। ब्रिटिश हाउस ऑव् कॉमन्स की सिलेक्ट कमिटी के समक्ष की हुई प्रस्तुति में इतिहासकार जेम्स मिल ने भी इस प्रकार की जानकारी दी है।
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# राजा और प्रजा के आपसी सम्बन्ध और भेंट के आदानप्रदान के विषय में सामग्री १८वीं एवं १९वीं शताब्दी के अभिलेखागारों में उपलब्ध है।
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# 'मोतरफा' और 'वीसाबुडी' नामक करों की जानकारी मद्रास प्रेसीडेन्सी के अभिलेखों में उपलब्ध है। इसमें गैरकृषक व्यवसायों और उद्योगों में जुड़े लोगों की संख्या है। विभिन्न जिलों में कितने करघे हैं उसकी भी संख्या है। भारत के और प्रदेशों में भी इसी प्रकार की जानकारी मिलती है। साथ ही १८७१, १८८१, १८९१ की जनगणना विषयक जानकारी भी उपलब्ध है।
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# भारत के सन् १८०० के आसपास के विज्ञान और तन्त्रज्ञान विषयक अभिलेखीय जानकारी भारत और इंग्लैण्ड दोनों में मिलती है।
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# १८वीं एवं १९वीं शताब्दी की भारतीय शिक्षाकी पद्धति और व्याप से सम्बन्धित जानकारी लेखक के रमणीय वृक्ष : १८वीं शताब्दी में भारतीय शिक्षा' पुस्तक में उपलब्ध है।
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# तमिलनाडु स्टेट आर्काइव्झ (टी एन एस ए), मद्रास बोर्ड ऑव् रेवन्यू प्रोसीडींग्स (BRP), खण्ड २०२५, कार्यवाही ८-६-१८४६, पृ. ७४५७, कडप्पा जिले के उपभोग विषयक सामग्री; खण्ड २०३०, कार्यवाही १३-७-१८४६ पृ. ९०३१- 2 ) ७२४७, बेलारी जिले की जानकारी के लिये।
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# चेंगलपटु जिले के लगभग २,२०० गांवों के विस्तृत सर्वेक्षण पर आधारित
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# इ. पी. स्टेबिंग, 'भारत के जंगल : द फॉरेस्ट्स ऑव्इ ण्डिया : The Forests of India', खण्ड १, १९२२.
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# टीएनएसए : बीआरपी, खण्ड २२१२, कार्यवाही १ १०-१८४९, पृ. १४२२४ - १४२६०, विशेष : अनुच्छेद ५४
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# सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ४२, पृ. ३८४-३८५ (अंग्रेजी), १० जनवरी, १९३०.
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# सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ३५, पृ. ४५७ (अंग्रेजी), १२ जनवरी १९२८
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# सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय, खण्ड ३५, पृ. ५४४ (अंग्रेजी), नेहरू का गांधीजी को पत्र, ११ जनवरी १९२८
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# सम्पूर्ण गांधी वाङ्य, खण्ड ८१, पृ. ३१९-३२१, ५ अक्टूबर १९४५, महात्मा गांधी का नेहरू को पत्र
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# जवाहरलाल नेहरू, 'सिलैक्टेड वर्क्स', खण्ड १४, पृ. ५५४-५५७, नेहरू का महात्मा गांधी को पत्र, ४ अक्टूबर १९४५
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# १७ नवम्बर १९६५ को अमेरिका के वॉशिंग्टन डी.सी. की स्मिथसोनिअन इन्स्टीट्यूट के अर्धशताब्दी समारोह के अवसर में प्रा. क्लॉड लेवी स्ट्रॉस की टिप्पणी, अप्रैल १९६६ में ‘करन्ट एन्थ्रोपोलॉजी' खण्ड २, अंक २ में प्रकाशित
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# एस. जे. ताल्बिआ द्वारा उद्धृत, 'जादू, विज्ञान, धर्म के परिप्रेक्ष्य में तर्क का औचित्य : मैजिक, साईन्स, रिलिजन एण्ड द स्कोप ऑव् रेशनालिटी : Magic, Science, Religion and the scope of Rationality', १९९०, पृ. ४४
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* अप्रैल १९९२ में जर्मनी के ब्रेमेन में आयोजित 'पर्यावरण एवं विकास (Environment and Development)' विषयक गोष्ठि में प्रस्तुत पत्र
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==References==
 
==References==
 
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
 
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे

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