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प्रारम्भ में मनोरम भूतकाल में रत रहना कदाचित देशी समाज को टिकाए रखने के लिए तिनके के सहारे के समान उपयोगी भले ही लगा हो, परन्तु आज भी अधिकांश भारतवासी इसी रोग को पाले हुए हैं। दूसरी ओर सामान्य लोगों में आर्थिक एवं सांस्कृतिक अनवस्था एवं हताशा, मानसिक उलझन या जटिलता जैसी स्थिति निर्माण हुई, जिससे लोग और जड़ हो गए। पण्डित या विद्वान एवं समृद्ध लोग यूरोपीय विद्वत्ता से प्रभावित होकर, उनकी सभ्यता को अपनाकर अपनी एक अलग पहचान बनाने में लग गए। हो सकता है कि इस प्रकार से प्राप्त की गई विद्वत्ता, बुद्धिचातुर्य या कौशल गैरयूरोपीय विश्व की तुलना में भारत में अधिक चमकीला लगता हो। यद्यपि उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में ऐसे लोगों में ही एक व्यक्ति - मोहनदास करमचंद गांधी - ऐसे भ्रामक प्रभाव से मुक्त ही रहे। उल्टे स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पर इसका बहुत गहरा प्रभाव देखने को मिलता था। ऐसे विरोधाभास के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
 
प्रारम्भ में मनोरम भूतकाल में रत रहना कदाचित देशी समाज को टिकाए रखने के लिए तिनके के सहारे के समान उपयोगी भले ही लगा हो, परन्तु आज भी अधिकांश भारतवासी इसी रोग को पाले हुए हैं। दूसरी ओर सामान्य लोगों में आर्थिक एवं सांस्कृतिक अनवस्था एवं हताशा, मानसिक उलझन या जटिलता जैसी स्थिति निर्माण हुई, जिससे लोग और जड़ हो गए। पण्डित या विद्वान एवं समृद्ध लोग यूरोपीय विद्वत्ता से प्रभावित होकर, उनकी सभ्यता को अपनाकर अपनी एक अलग पहचान बनाने में लग गए। हो सकता है कि इस प्रकार से प्राप्त की गई विद्वत्ता, बुद्धिचातुर्य या कौशल गैरयूरोपीय विश्व की तुलना में भारत में अधिक चमकीला लगता हो। यद्यपि उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी में ऐसे लोगों में ही एक व्यक्ति - मोहनदास करमचंद गांधी - ऐसे भ्रामक प्रभाव से मुक्त ही रहे। उल्टे स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पर इसका बहुत गहरा प्रभाव देखने को मिलता था। ऐसे विरोधाभास के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं
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१९३० से १९४७ के दौरान भारतीय राष्ट्रवादी २६ जनवरी के दिन को 'पूर्ण स्वराज्य की मांग के दिन' के रूप में मनाते रहे। १९५० से यह दिवस गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वतन्त्रता से पूर्व इनमें से ही किसी
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१९३० से १९४७ के दौरान भारतीय राष्ट्रवादी २६ जनवरी के दिन को 'पूर्ण स्वराज्य की मांग के दिन' के रूप में मनाते रहे। १९५० से यह दिवस गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। स्वतन्त्रता से पूर्व इनमें से ही किसी एक दिन एक शपथ ली गयी जिसमे  प्रतिज्ञा थी, 'भारत की ब्रिटिश सरकारने भारत के लोगों को न केवल स्वतन्त्रता से वंचित रखा है अपितु समग्र प्रजा के शोषण के लिए हम पर सवार होकर देशको आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से नष्ट किया है। ऐसे दुष्कृत्यों को हम मानव एवं ईश्वर के प्रति किया गया अपराध समझते हैं। हमारे देश का विनाश करनेवाले राज्य के सामने हम नहीं झुकेंगे।' देश की संस्कृति के विनाश के विषय में उसमें कहा गया था कि 'शिक्षा प्रणाली (ब्रिटिशरों द्वारा प्रस्थापित) ने हमें छिन्न भिन्न करके तोड़ कर ताराज कर दिया है। और हमें जकड़नेवाली शृंखला को ही हम चाहने लगे हैं।'
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भारत की स्वतन्त्रता विषयक अन्य विधेयकों के समान ही इस विधेयक का मुसद्दा भी महात्मा गांधी ने ही रचा था।२५ सन् १९२८ के जनवरी में महात्मा गांधी ने ऐसी भी आशा व्यक्त की कि भारत की स्वतन्त्रता अन्य उपनिवेशों एवं गुलाम बनाए गए लोगों की स्वतन्त्रता का सोपान बनेगी। वे कहते थे, 'भारत अपनी इच्छा के अनुसार जो प्राप्त करेगा वह अन्य देश भी प्राप्त करेंगे।'२६ हम भली प्रकार जानते हैं कि ब्रिटिश आधिपत्य से भारत के स्वतन्त्र होने के पन्द्रह वर्षों में विश्व के दक्षिणपूर्व एशिया, आफ्रिका, जैसे देश भी एक या दूसरे रूप से स्वतन्त्र हो ही गए हैं।
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अधिकांश भारतवासियों की ऐसी मान्यता रही है कि ब्रिटिश शासनने भारत को सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक रूप से चौपट कर दिया है। परन्तु कुछ लोग इस सोच से सहमत नहीं हैं। १९४७ में स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी वे असहमत ही रहे हैं। ऐसे आधुनिकों में जवाहरलालजी एक थे। यद्यपि सार्वजनिक रूप से वे ऐसे कथनों का आमना सामना करने से स्वंय को बचाते थे, परन्तु १९२८ के आसपास के दिनों में व्यक्तिगत रूप से वे अपने विचार व्यक्त करते रहे थे। महात्मा गांधी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, 'आपने कहीं पर कहा है कि भारत को पाश्चात्यों से सीखने लायक कुछ भी नहीं है, उसने तो पहले से ही सयानेपन के शिखर सर
    
==References==
 
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