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==== ३. पवित्रता की रक्षा ====
 
==== ३. पवित्रता की रक्षा ====
१. भारत का सामान्य जन पवित्रता को जानता और मानता है। उसे समझाने की या उसके लिये व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु आधुनिक शिक्षित, प्रगतिशील व्यक्ति को पवित्रता के विषय में समझाने पर भी समझ में नहीं आता। यदि भाग्यवशात् समझ में आ भी गया तो वह उसका पालन नहीं करता।  
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# भारत का सामान्य जन पवित्रता को जानता और मानता है। उसे समझाने की या उसके लिये व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। परन्तु आधुनिक शिक्षित, प्रगतिशील व्यक्ति को पवित्रता के विषय में समझाने पर भी समझ में नहीं आता। यदि भाग्यवशात् समझ में आ भी गया तो वह उसका पालन नहीं करता।  
 
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# भारत के सामान्यजन के लिये भूमि, जल, अग्नि आदि पंचमहाभूत पवित्र हैं। गाय, तुलसी, पीपल, गंगा आदि पवित्र हैं। पुस्तक, लेखनी, बही पवित्र है। अन्न, विद्यालय, औषधि पवित्र हैं। तीर्थस्थान, मन्दिर, घर पवित्र हैं। इनकी पवित्रता की रक्षा करना हर कोई अपना कर्तव्य मानता है।  
२. भारत के सामान्यजन के लिये भूमि, जल, अग्नि आदि पंचमहाभूत पवित्र हैं। गाय, तुलसी, पीपल, गंगा आदि पवित्र हैं। पुस्तक, लेखनी, बही पवित्र है। अन्न, विद्यालय, औषधि पवित्र हैं। तीर्थस्थान, मन्दिर, घर पवित्र हैं। इनकी पवित्रता की रक्षा करना हर कोई अपना कर्तव्य मानता है।  
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# थोडा सा विचार करने पर समझ में आता है कि जो भी बात मनुष्य या प्राणियों के जीवन का रक्षण और पोषण करनेवाली है, जो भी पदार्थ, व्यक्ति या स्थान मनुष्य के जीवन को उन्नत बनानेवाला है वह पवित्र है। अर्थात् पवित्रता का सम्बन्ध सुरक्षा और संस्कार के साथ है।  
 
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# जो व्यक्ति, पदार्थ, स्थान आदि पवित्र हैं उनके साथ अत्यन्त आदरपूर्ण व्यवहार किया जाता है। उन्हें दूषित होने नहीं दिया जाता है। उनका रक्षण किया जाता है। उनके प्रति श्रद्धा दर्शाई जाती है। उन्हें पूज्य माना जाता है।
३. थोडा सा विचार करने पर समझ में आता है कि जो भी बात मनुष्य या प्राणियों के जीवन का रक्षण और पोषण करनेवाली है, जो भी पदार्थ, व्यक्ति या स्थान मनुष्य के जीवन को उन्नत बनानेवाला है वह पवित्र है। अर्थात् पवित्रता का सम्बन्ध सुरक्षा और संस्कार के साथ है।  
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# श्रद्धा, आदर आदि दर्शाने के कुछ संकेत हैं। उन्हें स्नान करके शुद्ध हुए बिना स्पर्श नहीं किया जाता । उन्हें गलती से भी पैर लग गया तो तुरन्त क्षमा माँगी जाती है। उन्हें अपवित्र वस्तुओं या व्यक्तियों का स्पर्श नहीं होने दिया जाता । उन्हें अपवित्र स्थान पर रखा नहीं जाता। उन्हें अपने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।  
 
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# रेल की यात्रा के समय भोजन के डिब्बे को बर्थ के नीचे नहीं रखा जाता । भगवान की मूर्ति के साथ जूते नहीं रखे जाते । पुस्तकों को मस्तक पर रखा जाता हैं, पैरों के नीचे नहीं। यज्ञ की वेदी को कुत्ते स्पर्श न करें इसका ध्यान रखा जाता है। गाय को डण्डा नहीं मारा जाता।  
४. जो व्यक्ति, पदार्थ, स्थान आदि पवित्र हैं उनके साथ अत्यन्त आदरपूर्ण व्यवहार किया जाता है। उन्हें दूषित होने नहीं दिया जाता है। उनका रक्षण किया जाता है। उनके प्रति श्रद्धा दर्शाई जाती है। उन्हें पूज्य माना जाता है।
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# एक खास बात यह है कि पवित्र वस्तुओं का व्यापार नहीं किया जाता। भारत की यह विशेष परम्परा रही है। अन्न, पानी, हवा, अग्नि आदि क्रियविक्रय के लिये नहीं हैं। ज्ञान, कला, सेवा भी पैसे के लेनदेन से मुक्त हैं । ग्रन्थ का पैसा उसके कागज और मुद्रण का होता है, उसमें संग्रहित ज्ञान का नहीं । कला की प्रस्तुति पैसे के कारण अच्छी या निकृष्ट नहीं होती। पढाना भी पैसे से नहीं होता।  
 
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# पवित्र पदार्थों का क्षुद्र हेतुओं के लिये उपयोग नहीं किया जाता। उनके विषय में घटिया बातें नहीं की जातीं। उनके साथ घटिया व्यवहार नहीं किया जाता । उनकी अवमानना नहीं की जाती।  
५. श्रद्धा, आदर आदि दर्शाने के कुछ संकेत हैं। उन्हें स्नान करके शुद्ध हुए बिना स्पर्श नहीं किया जाता । उन्हें गलती से भी पैर लग गया तो तुरन्त क्षमा माँगी जाती है। उन्हें अपवित्र वस्तुओं या व्यक्तियों का स्पर्श नहीं होने दिया जाता । उन्हें अपवित्र स्थान पर रखा नहीं जाता। उन्हें अपने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।  
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# ऐसे व्यवहार के व्यावहारिक परिणाम बहुत अच्छे होते हैं । पंचमहाभूतों को पवित्र मानने से उन्हें देवता माना जाता है। उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता है इसलिये पर्यावरण के प्रक्षण का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता । उल्टे हमेशा उनके रक्षण की ही बात सोची जाती है।  
 
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# पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध हमेशा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं।  
६. रेल की यात्रा के समय भोजन के डिब्बे को बर्थ के नीचे नहीं रखा जाता । भगवान की मूर्ति के साथ जूते नहीं रखे जाते । पुस्तकों को मस्तक पर रखा जाता हैं, पैरों के नीचे नहीं। यज्ञ की वेदी को कुत्ते स्पर्श न करें इसका ध्यान रखा जाता है। गाय को डण्डा नहीं मारा जाता।  
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# भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है।  
 
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# एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय शुरू करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है।  
७. एक खास बात यह है कि पवित्र वस्तुओं का व्यापार नहीं किया जाता। भारत की यह विशेष परम्परा रही है। अन्न, पानी, हवा, अग्नि आदि क्रियविक्रय के लिये नहीं हैं। ज्ञान, कला, सेवा भी पैसे के लेनदेन से मुक्त हैं । ग्रन्थ का पैसा उसके कागज और मुद्रण का होता है, उसमें संग्रहित ज्ञान का नहीं । कला की प्रस्तुति पैसे के कारण अच्छी या निकृष्ट नहीं होती। पढाना भी पैसे से नहीं होता।  
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# शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये।  
 
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# वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये।  
८. पवित्र पदार्थों का क्षुद्र हेतुओं के लिये उपयोग नहीं किया जाता। उनके विषय में घटिया बातें नहीं की जातीं। उनके साथ घटिया व्यवहार नहीं किया जाता । उनकी अवमानना नहीं की जाती।  
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# एक कुम्हार अपने चाक को, या एक रिक्षेवाला अपनी रिक्षा को केवल इसलिये पवित्र नहीं मानता कि उससे उसे रोजी मिलती है। वह इसे इसलिये पवित्र मानता है क्योंकि उससे वह लोगों की आवश्यकता की पूर्ति कर पायेगा। आज यदि कलियुग के या पश्चिम के प्रभाव से इस बात का विस्मरण हुआ है तो उसे पुनःस्मरण में लाना होगा।  
 
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# भारत के सांसद और विधायक, भारत के प्रशासकीय अधिकारी, भारत के उद्योजक, भारत के अध्यापक अपने कार्य के साथ पवित्रता की भावना जोड लें तो कैसा परिवर्तन होगा इसकी हम कल्पना कर सकते हैं। ये सब समस्त प्रजा पर परिणाम करनेवाले क्षेत्र हैं। आज उनमें से पवित्रता की भावना निष्कासित हो गई है। इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं । हम भुगत भी रहे हैं। अतः भारत के मानस में पवित्रता की भावना को, पवित्रता की दृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा।  
९. ऐसे व्यवहार के व्यावहारिक परिणाम बहुत अच्छे होते हैं । पंचमहाभूतों को पवित्र मानने से उन्हें देवता माना जाता है। उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता है इसलिये पर्यावरण के प्रक्षण का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता । उल्टे हमेशा उनके रक्षण की ही बात सोची जाती है।  
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# पवित्र पदार्थ, पवित्र विचार, पवित्र व्यक्ति दूसरों को भी पवित्र बनाते हैं। पवित्रता का यह प्रभाव है। पवित्र अन्तःकरण से किया गया कार्य अधिक प्रभावी होता है क्योंकि उसका प्रभाव अन्तःकरण के स्तर पर होता है। इसलिये भारत में आज अन्तःकरण की पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये । उससे ही हम विश्वस्थिति को प्रभावित कर सकते हैं।  
 
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# क्षुद्र दिखनेवाले पदार्थों में भी पवित्रता का भाव आरोपित किया जा सकता है। इससे उस क्षुद्र पदार्थ की महत्ता बढ़ती है और उसमें प्रेरक शक्ति आती है। उदाहरण के लिये महापुरुष जिस रास्ते पर चलकर गये उस रास्ते का धूलिकण पवित्र माना जाता है। अनेक दिवंगत महापुरुषों के वस्त्र, माला, जूते सुरक्षित रखे जाते हैं क्योंकि महापुरुषों के संसर्ग से उनमें प्रेरक शक्ति निर्माण हुई है। हम इन निर्जीव, क्षुद्र पदार्थों को भी प्रेरणा का वाहक मानते हैं।  
१०. पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध हमेशा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं।  
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# तात्पर्य यह है कि भौतिक स्तर पर जीने के स्थान पर भारत को अन्तःकरण के स्तर पर जीने का प्रारम्भ करना चाहिये । यह उन्नत अवस्था है। यह विकास की दिशा है। इससे श्रेष्ठता प्राप्त होती है। इससे प्रभाव निर्माण होता है।  
 
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# सामान्य जन में यह भावना है परन्तु उसकी प्रतिष्ठा नहीं है। विद्वज्जन में यह भावना नहीं है इसलिये वह उपेक्षित है। या तो विद्वज्जन को सामान्य और सामान्य को विद्वज्जन बनना चाहिये अथवा विद्वज्जन को पवित्रता की भावना अपने अन्तःकरण में प्रतिष्ठित करनी चाहिये । यह कार्य घरों में, मन्दिरों में और विद्यालयों में एक साथ होने से परिणामकारी पद्धति से हो सकेगा।
११. भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है।  
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१२. एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय शुरू करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है।  
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१३. शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये।  
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१४. वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये।  
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१५. एक कुम्हार अपने चाक को, या एक रिक्षेवाला अपनी रिक्षा को केवल इसलिये पवित्र नहीं मानता कि उससे उसे रोजी मिलती है। वह इसे इसलिये पवित्र मानता है क्योंकि उससे वह लोगों की आवश्यकता की पूर्ति कर पायेगा। आज यदि कलियुग के या पश्चिम के प्रभाव से इस बात का विस्मरण हुआ है तो उसे पुनःस्मरण में लाना होगा।  
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१६. भारत के सांसद और विधायक, भारत के प्रशासकीय अधिकारी, भारत के उद्योजक, भारत के अध्यापक अपने कार्य के साथ पवित्रता की भावना जोड लें तो कैसा परिवर्तन होगा इसकी हम कल्पना कर सकते हैं। ये सब समस्त प्रजा पर परिणाम करनेवाले क्षेत्र हैं। आज उनमें से पवित्रता की भावना निष्कासित हो गई है। इसके क्या दुष्परिणाम हो रहे हैं यह भी हम देख रहे हैं । हम भुगत भी रहे हैं। अतः भारत के मानस में पवित्रता की भावना को, पवित्रता की दृष्टि को पुनः प्रतिष्ठित करना होगा।  
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१७. पवित्र पदार्थ, पवित्र विचार, पवित्र व्यक्ति दूसरों को भी पवित्र बनाते हैं। पवित्रता का यह प्रभाव है। पवित्र अन्तःकरण से किया गया कार्य अधिक प्रभावी होता है क्योंकि उसका प्रभाव अन्तःकरण के स्तर पर होता है। इसलिये भारत में आज अन्तःकरण की पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये । उससे ही हम विश्वस्थिति को प्रभावित कर सकते हैं।  
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१८. क्षुद्र दिखनेवाले पदार्थों में भी पवित्रता का भाव आरोपित किया जा सकता है। इससे उस क्षुद्र पदार्थ की महत्ता बढ़ती है और उसमें प्रेरक शक्ति आती है। उदाहरण के लिये महापुरुष जिस रास्ते पर चलकर गये उस रास्ते का धूलिकण पवित्र माना जाता है। अनेक दिवंगत महापुरुषों के वस्त्र, माला, जूते सुरक्षित रखे जाते हैं क्योंकि महापुरुषों के संसर्ग से उनमें प्रेरक शक्ति निर्माण हुई है। हम इन निर्जीव, क्षुद्र पदार्थों को भी प्रेरणा का वाहक मानते हैं।  
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१९. तात्पर्य यह है कि भौतिक स्तर पर जीने के स्थान पर भारत को अन्तःकरण के स्तर पर जीने का प्रारम्भ करना चाहिये । यह उन्नत अवस्था है। यह विकास की दिशा है। इससे श्रेष्ठता प्राप्त होती है। इससे प्रभाव निर्माण होता है।  
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२०. सामान्य जन में यह भावना है परन्तु उसकी प्रतिष्ठा नहीं है। विद्वज्जन में यह भावना नहीं है इसलिये वह उपेक्षित है। या तो विद्वज्जन को सामान्य और सामान्य को विद्वज्जन बनना चाहिये अथवा विद्वज्जन को पवित्रता की भावना अपने अन्तःकरण में प्रतिष्ठित करनी चाहिये । यह कार्य घरों में, मन्दिरों में और विद्यालयों में एक साथ होने से परिणामकारी पद्धति से हो सकेगा।
      
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