Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "हमेशा" to "सदा"
Line 80: Line 80:  
# एक खास बात यह है कि पवित्र वस्तुओं का व्यापार नहीं किया जाता। भारत की यह विशेष परम्परा रही है। अन्न, पानी, हवा, अग्नि आदि क्रियविक्रय के लिये नहीं हैं। ज्ञान, कला, सेवा भी पैसे के लेनदेन से मुक्त हैं । ग्रन्थ का पैसा उसके कागज और मुद्रण का होता है, उसमें संग्रहित ज्ञान का नहीं । कला की प्रस्तुति पैसे के कारण अच्छी या निकृष्ट नहीं होती। पढाना भी पैसे से नहीं होता।  
 
# एक खास बात यह है कि पवित्र वस्तुओं का व्यापार नहीं किया जाता। भारत की यह विशेष परम्परा रही है। अन्न, पानी, हवा, अग्नि आदि क्रियविक्रय के लिये नहीं हैं। ज्ञान, कला, सेवा भी पैसे के लेनदेन से मुक्त हैं । ग्रन्थ का पैसा उसके कागज और मुद्रण का होता है, उसमें संग्रहित ज्ञान का नहीं । कला की प्रस्तुति पैसे के कारण अच्छी या निकृष्ट नहीं होती। पढाना भी पैसे से नहीं होता।  
 
# पवित्र पदार्थों का क्षुद्र हेतुओं के लिये उपयोग नहीं किया जाता। उनके विषय में घटिया बातें नहीं की जातीं। उनके साथ घटिया व्यवहार नहीं किया जाता । उनकी अवमानना नहीं की जाती।  
 
# पवित्र पदार्थों का क्षुद्र हेतुओं के लिये उपयोग नहीं किया जाता। उनके विषय में घटिया बातें नहीं की जातीं। उनके साथ घटिया व्यवहार नहीं किया जाता । उनकी अवमानना नहीं की जाती।  
# ऐसे व्यवहार के व्यावहारिक परिणाम बहुत अच्छे होते हैं । पंचमहाभूतों को पवित्र मानने से उन्हें देवता माना जाता है। उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता है इसलिये पर्यावरण के प्रक्षण का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता । उल्टे हमेशा उनके रक्षण की ही बात सोची जाती है।  
+
# ऐसे व्यवहार के व्यावहारिक परिणाम बहुत अच्छे होते हैं । पंचमहाभूतों को पवित्र मानने से उन्हें देवता माना जाता है। उनके साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाता है इसलिये पर्यावरण के प्रक्षण का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता । उल्टे सदा उनके रक्षण की ही बात सोची जाती है।  
# पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध हमेशा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं।  
+
# पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध सदा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं।  
 
# भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है।  
 
# भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है।  
 
# एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय आरम्भ करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है।  
 
# एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय आरम्भ करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है।  
Line 103: Line 103:  
# भारत की आत्मा, एकात्मता और आध्यात्मिकता, पुनर्जन्म, जन्मान्तर और मोक्ष, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति और सभ्यता, कुटुम्बभावना, संस्कार और विवेक की संकल्पना किसी के पास नहीं है । इन संकल्पनाओं के आधार पर भारत ने अपना सुसंस्कृत जीवन विकसित किया है । ऐसा देश विश्व का अग्रणी होने की पात्रता रखता है इसमें क्या आश्चर्य है ?  
 
# भारत की आत्मा, एकात्मता और आध्यात्मिकता, पुनर्जन्म, जन्मान्तर और मोक्ष, धर्म, सम्प्रदाय, संस्कृति और सभ्यता, कुटुम्बभावना, संस्कार और विवेक की संकल्पना किसी के पास नहीं है । इन संकल्पनाओं के आधार पर भारत ने अपना सुसंस्कृत जीवन विकसित किया है । ऐसा देश विश्व का अग्रणी होने की पात्रता रखता है इसमें क्या आश्चर्य है ?  
 
# जो लेने से अधिक देने में विश्वास करता हो, अपने से पहले दूसरों का विचार करता हो, अपने से छोटों का रक्षण और पोषण करने को अपना कर्तव्य मानता हो, किसी की भी स्वतन्त्रता को छीनता न हो उस देश को विश्वास होना चाहिये कि वह अन्यों को भी अच्छा जीवन जीने की राह दिखा सकता है।  
 
# जो लेने से अधिक देने में विश्वास करता हो, अपने से पहले दूसरों का विचार करता हो, अपने से छोटों का रक्षण और पोषण करने को अपना कर्तव्य मानता हो, किसी की भी स्वतन्त्रता को छीनता न हो उस देश को विश्वास होना चाहिये कि वह अन्यों को भी अच्छा जीवन जीने की राह दिखा सकता है।  
# जो देश हमेशा चराचर के हित की ही कामना करता हो, सम्पूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मानता हो, सबको अपना मानता हो वह देश विश्व को हितकारी मार्ग पर चलना सिखा सकता है। जो कभी किसी को पराजित करने की कामना न करता हो, किसी पर अत्याचार न करता हो उससे किसी को भय नहीं हो सकता । उस पर सब भरोसा कर सकते है।  
+
# जो देश सदा चराचर के हित की ही कामना करता हो, सम्पूर्ण पृथ्वी को कुटुम्ब मानता हो, सबको अपना मानता हो वह देश विश्व को हितकारी मार्ग पर चलना सिखा सकता है। जो कभी किसी को पराजित करने की कामना न करता हो, किसी पर अत्याचार न करता हो उससे किसी को भय नहीं हो सकता । उस पर सब भरोसा कर सकते है।  
 
# जिस देश को आत्मज्ञानी पूर्वजोंसे ज्ञान का, तपस्वी ऋषियों से तप का, पराक्रमी राजाओं से शौर्य का, हरिश्चन्द्र जैसे राजओं से सत्यनिष्ठा का, वेदव्यास, याज्ञवल्क्य जैसे शास्त्रज्ञों का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ हो उस देश से विश्व के अन्य देश भी लाभान्वित हो सकते हैं, अपने लिये प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।  
 
# जिस देश को आत्मज्ञानी पूर्वजोंसे ज्ञान का, तपस्वी ऋषियों से तप का, पराक्रमी राजाओं से शौर्य का, हरिश्चन्द्र जैसे राजओं से सत्यनिष्ठा का, वेदव्यास, याज्ञवल्क्य जैसे शास्त्रज्ञों का उत्तराधिकार प्राप्त हुआ हो उस देश से विश्व के अन्य देश भी लाभान्वित हो सकते हैं, अपने लिये प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।  
 
# जहाँ धन कमाने वाला अपने लिये बाद में और अपनों के लिये पहले खर्च करता हो, भोजन बनाने वाला सबको खिलाकर खाता हो, अन्न ऊगाने वाला सबके लिये अन्न की चिन्ता करता हो, जहाँ चींटियों से लेकर समस्त प्राणी और वनस्पति के आहार और सुरक्षा की व्यवस्था करना गृहस्थ धर्म का अंग हो वह कैसे पिछडा हो सकता है । कैसे दरिद्र हो सकता है ?  
 
# जहाँ धन कमाने वाला अपने लिये बाद में और अपनों के लिये पहले खर्च करता हो, भोजन बनाने वाला सबको खिलाकर खाता हो, अन्न ऊगाने वाला सबके लिये अन्न की चिन्ता करता हो, जहाँ चींटियों से लेकर समस्त प्राणी और वनस्पति के आहार और सुरक्षा की व्यवस्था करना गृहस्थ धर्म का अंग हो वह कैसे पिछडा हो सकता है । कैसे दरिद्र हो सकता है ?  
Line 113: Line 113:  
# जो स्वतन्त्रता को स्वैराचार नहीं मानता, समानता के लिये एकरूपता का आग्रह नहीं रखता, जिसका विश्वनागरिकत्व कानून से नहीं, एकात्मभाव से सिद्ध होता है, जिसकी न्यायदेवता अन्धी नहीं विवेक के चक्षु से युक्त है जिसकी बुद्धि आत्मनिष्ठ है, वह विश्व को शास्त्रों से नहीं अपितु प्रेम से जीतता है, उसके सामने जीता गया भी पराजित नहीं होता।  
 
# जो स्वतन्त्रता को स्वैराचार नहीं मानता, समानता के लिये एकरूपता का आग्रह नहीं रखता, जिसका विश्वनागरिकत्व कानून से नहीं, एकात्मभाव से सिद्ध होता है, जिसकी न्यायदेवता अन्धी नहीं विवेक के चक्षु से युक्त है जिसकी बुद्धि आत्मनिष्ठ है, वह विश्व को शास्त्रों से नहीं अपितु प्रेम से जीतता है, उसके सामने जीता गया भी पराजित नहीं होता।  
 
# जिस देश के धर्म और संस्कृति की विश्व के अनेक चिन्तकों ने प्रसंसा की, जिस देश की विज्ञान और तन्त्रज्ञान की उपलब्धियों पर यूरोप के अनेक तन्त्रज्ञान निष्णात विस्मित हुए, जिस देश की कलाकारीगरी की आजतक विश्व में कहीं बराबरी नहीं हो सकी उस देश को दरिद्रता का भय कैसे हो सकता है। ऐसा देश विश्व को चिरन्तर समृद्धि के उपाय बता सकता है।  
 
# जिस देश के धर्म और संस्कृति की विश्व के अनेक चिन्तकों ने प्रसंसा की, जिस देश की विज्ञान और तन्त्रज्ञान की उपलब्धियों पर यूरोप के अनेक तन्त्रज्ञान निष्णात विस्मित हुए, जिस देश की कलाकारीगरी की आजतक विश्व में कहीं बराबरी नहीं हो सकी उस देश को दरिद्रता का भय कैसे हो सकता है। ऐसा देश विश्व को चिरन्तर समृद्धि के उपाय बता सकता है।  
# भौतिक समृद्धि, कलाकारीगरी, विज्ञान और तत्त्वज्ञान, शौर्य और पराक्रम, नीति और सदाचार, सिद्धान्त और व्यवहार, राजनीति और व्यापार आदि सर्व क्षेत्रों में भारत हमेशा अग्रणी रहा है। आज भी है। विश्व को आज भी वह सर्व क्षेत्रों में पथप्रदर्शन कर सकता है। आवश्यकता है खोया हुआ आत्मविश्वास पुनः प्राप्त करने की।
+
# भौतिक समृद्धि, कलाकारीगरी, विज्ञान और तत्त्वज्ञान, शौर्य और पराक्रम, नीति और सदाचार, सिद्धान्त और व्यवहार, राजनीति और व्यापार आदि सर्व क्षेत्रों में भारत सदा अग्रणी रहा है। आज भी है। विश्व को आज भी वह सर्व क्षेत्रों में पथप्रदर्शन कर सकता है। आवश्यकता है खोया हुआ आत्मविश्वास पुनः प्राप्त करने की।
    
==== ५. हीनताबोध से मुक्ति ====
 
==== ५. हीनताबोध से मुक्ति ====
Line 140: Line 140:  
# स्वतन्त्रता विश्व का स्वाभाविक, सार्वत्रिक, सार्वकालिक सिद्धान्त है । किसी को भी स्वतन्त्र रहने का जन्मसिद्ध अधिकार है । परतन्त्र रहना, किसी को परतन्त्र बनाना, परतन्त्र रहने के लिये बाध्य करना अपराध है । यह एक मूलभूत मूल्य है ।  
 
# स्वतन्त्रता विश्व का स्वाभाविक, सार्वत्रिक, सार्वकालिक सिद्धान्त है । किसी को भी स्वतन्त्र रहने का जन्मसिद्ध अधिकार है । परतन्त्र रहना, किसी को परतन्त्र बनाना, परतन्त्र रहने के लिये बाध्य करना अपराध है । यह एक मूलभूत मूल्य है ।  
 
# परमात्मा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है। स्वतन्त्र व्यक्ति का वर्णन कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः अर्थात् करने, नहीं करने, भिन्नतापूर्वक करने के लिये समर्थ व्यक्ति को स्वतन्त्र कहते हैं। परमात्मा इस सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है। उसने अपना अंश उनमें स्थापित किया है परन्तु मनुष्य को तो उसने अपने प्रतिरूप में बनाया है और अपनी सर्वशक्ति प्रदान की है।  
 
# परमात्मा सर्वतन्त्र स्वतन्त्र है। स्वतन्त्र व्यक्ति का वर्णन कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थः अर्थात् करने, नहीं करने, भिन्नतापूर्वक करने के लिये समर्थ व्यक्ति को स्वतन्त्र कहते हैं। परमात्मा इस सृष्टि के रूप में व्यक्त हुआ है। उसने अपना अंश उनमें स्थापित किया है परन्तु मनुष्य को तो उसने अपने प्रतिरूप में बनाया है और अपनी सर्वशक्ति प्रदान की है।  
# अतः सृष्टि में छोटी बडी सभी हस्तियों को अपनी स्वतन्त्र सत्ता है । इस स्वतन्त्रता का स्वीकार करना, सम्मान करना और आवश्यकता पड़ने पर रक्षण करना मनुष्य का कर्तव्य है। किसी की स्वतन्त्रता नष्ट कर उसका शोषण करने का किसी को अधिकार नहीं है । पश्चिम आज वही कर रहा है और भारत ने हमेशा ऐसा नहीं करने का ही व्यवहार अपनाया है।  
+
# अतः सृष्टि में छोटी बडी सभी हस्तियों को अपनी स्वतन्त्र सत्ता है । इस स्वतन्त्रता का स्वीकार करना, सम्मान करना और आवश्यकता पड़ने पर रक्षण करना मनुष्य का कर्तव्य है। किसी की स्वतन्त्रता नष्ट कर उसका शोषण करने का किसी को अधिकार नहीं है । पश्चिम आज वही कर रहा है और भारत ने सदा ऐसा नहीं करने का ही व्यवहार अपनाया है।  
 
# मनुष्य के अलावा अन्य सभी पदार्थ, प्राणी, वनस्पति की स्वतन्त्रता सीमित है। यह सीमा परमात्मा ने स्वयं निश्चित की है। उदाहरण के लिये पंचमहाभूतों में प्राणशक्ति, विचारशक्ति, विवेकशक्ति आदि नहीं होती। परन्तु अपनी सीमित स्वतन्त्रता के अनुसार उनका जो स्वभाव बनता है उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं । उनके स्वभाव के विपरीत वे स्वयं व्यवहार नहीं करते परन्तु उनके लिये विपरीत व्यवहार करने की बाध्यता निर्माण की जाती है तब उनकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है और वे दुःखी होते हैं । उनके दुःख की तरंगे वातावरण में प्रसृत होती हैं तब वातावरण भी दुःख का अनुभव करवाने वाला बनता है।  
 
# मनुष्य के अलावा अन्य सभी पदार्थ, प्राणी, वनस्पति की स्वतन्त्रता सीमित है। यह सीमा परमात्मा ने स्वयं निश्चित की है। उदाहरण के लिये पंचमहाभूतों में प्राणशक्ति, विचारशक्ति, विवेकशक्ति आदि नहीं होती। परन्तु अपनी सीमित स्वतन्त्रता के अनुसार उनका जो स्वभाव बनता है उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं । उनके स्वभाव के विपरीत वे स्वयं व्यवहार नहीं करते परन्तु उनके लिये विपरीत व्यवहार करने की बाध्यता निर्माण की जाती है तब उनकी स्वतन्त्रता नष्ट होती है और वे दुःखी होते हैं । उनके दुःख की तरंगे वातावरण में प्रसृत होती हैं तब वातावरण भी दुःख का अनुभव करवाने वाला बनता है।  
 
# मनुष्य को विचार, वाणी, भावना, बुद्धि, संस्कार क्षमता अनुभूति आदि की असीम स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है। इसके चलते उसका सामर्थ्य भी बहुत है। इस सामर्थ्य से उसे सबकी स्वतन्त्रता की हानि नहीं करनी चाहिये, उल्टे रक्षा करनी चाहिये ऐसा उसके लिये विधान है।
 
# मनुष्य को विचार, वाणी, भावना, बुद्धि, संस्कार क्षमता अनुभूति आदि की असीम स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है। इसके चलते उसका सामर्थ्य भी बहुत है। इस सामर्थ्य से उसे सबकी स्वतन्त्रता की हानि नहीं करनी चाहिये, उल्टे रक्षा करनी चाहिये ऐसा उसके लिये विधान है।
Line 156: Line 156:  
# १७. भारत को अपनी स्वतन्त्रता के लिये शिक्षा और धर्म से प्रारम्भ करना होगा। भारत स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं, धर्मनिष्ठ देश है। इस तथ्य को भुलाकर वह आज अर्थनिष्ठ बन गया है। धर्म सब का आधार होने के कारण ही उसे धर्मनिष्ठा की चिन्ता प्रथम करनी होगी। धर्मनिष्ठा को पक्का करते ही शेष बातें ठीक होने लगेंगी।  
 
# १७. भारत को अपनी स्वतन्त्रता के लिये शिक्षा और धर्म से प्रारम्भ करना होगा। भारत स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं, धर्मनिष्ठ देश है। इस तथ्य को भुलाकर वह आज अर्थनिष्ठ बन गया है। धर्म सब का आधार होने के कारण ही उसे धर्मनिष्ठा की चिन्ता प्रथम करनी होगी। धर्मनिष्ठा को पक्का करते ही शेष बातें ठीक होने लगेंगी।  
 
# १८. भारत की स्वतन्त्रता के लिये दसरा साधन है शिक्षा । शिक्षा धर्म सिखाती है। धर्म को प्रतिष्ठित करने का वह प्रभावी साधन है। आज भारत की शिक्षा धर्म पर नहीं अपितु राजनीति और अर्थ पर आधारित बन गई है । राष्ट्र को स्वतन्त्र बनाने वाले इन दोनों घटकों की दुःस्थिति होने के कारण ही सारे संकट निर्माण
 
# १८. भारत की स्वतन्त्रता के लिये दसरा साधन है शिक्षा । शिक्षा धर्म सिखाती है। धर्म को प्रतिष्ठित करने का वह प्रभावी साधन है। आज भारत की शिक्षा धर्म पर नहीं अपितु राजनीति और अर्थ पर आधारित बन गई है । राष्ट्र को स्वतन्त्र बनाने वाले इन दोनों घटकों की दुःस्थिति होने के कारण ही सारे संकट निर्माण
# १९. पश्चिम स्वतन्त्रता का सही अर्थ नहीं जानता। वह जैसा भी जानता है उसमें भी उसकी नीयत अच्छी नहीं है। वह अपने लिये तो स्वतन्त्रता चाहता है। परन्तु दूसरों की स्वतन्त्रता : छीनकर उन्हें अपना दास बनाना चाहता है। ऐसा अन्याय वह हमेशा करता है, किंबहुना उसे वह गलत मानता भी नहीं है। उसे सही बात समझाना भारत स्वतन्त्र होगा तभी हो पायेगा।  
+
# १९. पश्चिम स्वतन्त्रता का सही अर्थ नहीं जानता। वह जैसा भी जानता है उसमें भी उसकी नीयत अच्छी नहीं है। वह अपने लिये तो स्वतन्त्रता चाहता है। परन्तु दूसरों की स्वतन्त्रता : छीनकर उन्हें अपना दास बनाना चाहता है। ऐसा अन्याय वह सदा करता है, किंबहुना उसे वह गलत मानता भी नहीं है। उसे सही बात समझाना भारत स्वतन्त्र होगा तभी हो पायेगा।  
 
# २०. भारत को स्वतन्त्र बनाना अब शासन के बस की बात नहीं रही। यह कार्य धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के नेतृत्व में धार्मिक प्रजा ही कर सकती है। धर्माचार्य और शिक्षक इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
 
# २०. भारत को स्वतन्त्र बनाना अब शासन के बस की बात नहीं रही। यह कार्य धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के नेतृत्व में धार्मिक प्रजा ही कर सकती है। धर्माचार्य और शिक्षक इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
   Line 168: Line 168:  
४. यही बात श्रद्दा की है। पश्चिम को किसी में श्रद्धा नहीं है, न तत्त्व में, न व्यक्ति में, न विचार में । उसे बस लालसा है, अहंकार है, मद है । ऐसा होने के कारण उसने अपने आपके लिये अनेक संकट निर्माण किये हैं जिससे वह परेशान होता है परन्तु परेशानी का कारण जानता नहीं।  
 
४. यही बात श्रद्दा की है। पश्चिम को किसी में श्रद्धा नहीं है, न तत्त्व में, न व्यक्ति में, न विचार में । उसे बस लालसा है, अहंकार है, मद है । ऐसा होने के कारण उसने अपने आपके लिये अनेक संकट निर्माण किये हैं जिससे वह परेशान होता है परन्तु परेशानी का कारण जानता नहीं।  
   −
श्रद्दा और विश्वास नहीं होने के कारण वह हमेशा आशंका से ग्रस्त रहता है । आश्वस्ति और सुरक्षा का अनुभव नहीं करता । परिणामस्वरूप उसका मन हमेशा उचका सा रहता है। चैन की नींद उसके नसीब नहीं होती। ऐसे उचके मन से विचारों की स्थिरता भी प्राप्त नहीं होती।  
+
श्रद्दा और विश्वास नहीं होने के कारण वह सदा आशंका से ग्रस्त रहता है । आश्वस्ति और सुरक्षा का अनुभव नहीं करता । परिणामस्वरूप उसका मन सदा उचका सा रहता है। चैन की नींद उसके नसीब नहीं होती। ऐसे उचके मन से विचारों की स्थिरता भी प्राप्त नहीं होती।  
    
अपने निकटतम व्यक्ति से भी उसे सुरक्षा की आवश्यकता रहती है। अपने स्वार्थ की सुरक्षा हेतु वह सभी बातों पर एकाधिकार चाहता है। ज्ञान के क्षेत्र में भी वह ऐसा ही अधिकार चाहता है। इसीमें से पेटण्ट का कानून आया है ।  
 
अपने निकटतम व्यक्ति से भी उसे सुरक्षा की आवश्यकता रहती है। अपने स्वार्थ की सुरक्षा हेतु वह सभी बातों पर एकाधिकार चाहता है। ज्ञान के क्षेत्र में भी वह ऐसा ही अधिकार चाहता है। इसीमें से पेटण्ट का कानून आया है ।  
Line 176: Line 176:  
पश्चिम का मनुष्य भयभीत है और भयावह भी है। भयभीत है इसलिये भयावह है। उससे सबको भय है क्योंकि अपने क्षणिक सुख के लिये भी वह किसी का भी किसी भी हद तक नाश कर सकता है।  
 
पश्चिम का मनुष्य भयभीत है और भयावह भी है। भयभीत है इसलिये भयावह है। उससे सबको भय है क्योंकि अपने क्षणिक सुख के लिये भी वह किसी का भी किसी भी हद तक नाश कर सकता है।  
   −
इसके चलते वह हमेशा तनावग्रस्त रहता है । तनाव से निराशा, हताशा, उत्तेजना, पागलपन और आत्महत्या तक वह जाता है। वह आत्मघाती वृत्ति पश्चिमी मानस का हिस्सा है। आत्मघाती वृत्ति का दूसरा आयाम अन्यों का भी घात है। इस कारण से मनोचिकित्सक, पागलखाने, जेल और आत्महत्या का अनुपात पश्चिम में अन्य देशों की तुलना में अधिक है।  
+
इसके चलते वह सदा तनावग्रस्त रहता है । तनाव से निराशा, हताशा, उत्तेजना, पागलपन और आत्महत्या तक वह जाता है। वह आत्मघाती वृत्ति पश्चिमी मानस का हिस्सा है। आत्मघाती वृत्ति का दूसरा आयाम अन्यों का भी घात है। इस कारण से मनोचिकित्सक, पागलखाने, जेल और आत्महत्या का अनुपात पश्चिम में अन्य देशों की तुलना में अधिक है।  
    
१०. अपने अहंकार और षड्रिपुओं पर विजय प्राप्त करने का उसे विचार तक नहीं आता, और अपने आपको छोडकर कोई उसे अपना नहीं लगता। ऐसी स्थिति में उसकी बुद्धि, शुद्ध निश्चयात्मिका और विशाल नहीं हो सकती। ऐसी बुद्धि को लेकर वह विमर्श करता है। अध्ययन करता है, अनुसन्धान करता है। उसका अध्ययन खण्डखण्ड में होगा। इसमें क्या आश्चर्य है ? वह समग्रता में चीजों को देख ही नहीं सकता।  
 
१०. अपने अहंकार और षड्रिपुओं पर विजय प्राप्त करने का उसे विचार तक नहीं आता, और अपने आपको छोडकर कोई उसे अपना नहीं लगता। ऐसी स्थिति में उसकी बुद्धि, शुद्ध निश्चयात्मिका और विशाल नहीं हो सकती। ऐसी बुद्धि को लेकर वह विमर्श करता है। अध्ययन करता है, अनुसन्धान करता है। उसका अध्ययन खण्डखण्ड में होगा। इसमें क्या आश्चर्य है ? वह समग्रता में चीजों को देख ही नहीं सकता।  

Navigation menu