Line 18: |
Line 18: |
| हमें तुरन्त लगेगा कि हम पाँच सौ वर्ष पिछड जायेंगे। आगे बढ़ने की और पिछड जाने की पश्चिम की | | हमें तुरन्त लगेगा कि हम पाँच सौ वर्ष पिछड जायेंगे। आगे बढ़ने की और पिछड जाने की पश्चिम की |
| | | |
− | और हमारी संकल्पना में पूर्व पश्चिम जैसा ही अन्तर है। हमारा समय सत्ययुग से शुरू होता है और कलियुग की ओर बढता है। बढ़ते बढते सृष्टि के पदार्थों और मनुष्य के सत्त्व का क्षरण होता जाता है । इसलिये पाँच सौ वर्ष पूर्व जाना हमारे लिये तो आज की तुलना में अच्छे समय में जाना होगा । यूरोप के लिये समय के साथ विकास होता जाता है इसलिये पीछे जाने को वे पिछड जाना कहते हैं । हम उनके प्रभाव में पाँच सौ वर्ष पूर्व जाने को पिछड जाना कहते हैं। | + | और हमारी संकल्पना में पूर्व पश्चिम जैसा ही अन्तर है। हमारा समय सत्ययुग से आरम्भ होता है और कलियुग की ओर बढता है। बढ़ते बढते सृष्टि के पदार्थों और मनुष्य के सत्त्व का क्षरण होता जाता है । इसलिये पाँच सौ वर्ष पूर्व जाना हमारे लिये तो आज की तुलना में अच्छे समय में जाना होगा । यूरोप के लिये समय के साथ विकास होता जाता है इसलिये पीछे जाने को वे पिछड जाना कहते हैं । हम उनके प्रभाव में पाँच सौ वर्ष पूर्व जाने को पिछड जाना कहते हैं। |
| | | |
| हमारे लिये यह पाँचसो वर्ष का काल एक दुःस्वप्न जैसा है, हमारी सारी समृद्धि लुट जाने का है, सारी व्यवस्थाओं के नष्ट हो जाने का है, हीनताबोध से ग्रस्त हो जाने का है, हमारी ज्ञान परम्परा के खण्डित हो जाने का है। क्या इस काल को भूल जाना हम नहीं चाहेंगे ? क्या पाँच सौ वर्ष पूर्व जैसे थे वैसे बनना नहीं चाहेंगे ? | | हमारे लिये यह पाँचसो वर्ष का काल एक दुःस्वप्न जैसा है, हमारी सारी समृद्धि लुट जाने का है, सारी व्यवस्थाओं के नष्ट हो जाने का है, हीनताबोध से ग्रस्त हो जाने का है, हमारी ज्ञान परम्परा के खण्डित हो जाने का है। क्या इस काल को भूल जाना हम नहीं चाहेंगे ? क्या पाँच सौ वर्ष पूर्व जैसे थे वैसे बनना नहीं चाहेंगे ? |
Line 55: |
Line 55: |
| # ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है। | | # ज्ञानात्मक हल बुद्धि से ढूंढा जाता है । बुद्धि के लिये प्रथम आवश्यकता आत्मनिष्ठ बनने की है। आत्मनिष्ठ बुद्धि ही निःस्वार्थ बुद्धि बन सकती है। निःस्वार्थ बुद्धि को हृदय का सहयोग मिलता है। बुद्धि को आत्मनिष्ठ बनाना केवल भारत के लिये सम्भव है । इस कारण से भी संकटों को दूर करने के विषय में भारत अग्रसर बन सकता है। |
| # बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं। | | # बुद्धि और हृदय मिलकर जो कार्य होता है वह सही और उचित ही होता है क्योंकि वह सत्य और धर्म पर आधारित होता है । इस कारण से ज्ञानात्मक हल ढूँढने का कार्य शिक्षक और धर्माचार्य मिलकर कर सकते हैं । विश्वविद्यालय और धर्मस्थान संयुक्त रूप में सत्य और धर्म पर आधारित हल ढूँढने का कार्य कर सकते हैं। |
− | # ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य शुरू करे और चल रहे कार्य में जुडे यह आवश्यक है। | + | # ज्ञानात्मक हल ढूँढने के लिये ज्ञानकेन्द्रों अर्थात् विश्वविद्यालयों को स्वयं से दायित्व लेना चाहिये, स्वयं पहल करनी चाहिये, स्वयं अग्रसर होना चाहिये। ज्ञानात्मक हल तभी सम्भव है जब विश्वविद्यालय में कार्यरत शिक्षक इसे अपना दायित्व माने, स्वेच्छा और स्वतन्त्रता से कार्य आरम्भ करे और चल रहे कार्य में जुडे यह आवश्यक है। |
| # ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा। | | # ज्ञानात्मक हल का अर्थ है वह सबके लिये कल्याणकारी होगा, किसी पर जबरदस्ती थोपा हुआ नहीं रहेगा, सबको स्वीकार्य होगा। |
| # सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं। | | # सत्य और धर्म पर आधारित होने का अर्थ है राष्ट्रों के निहित स्वार्थ, स्व-पर का भेद, निकृष्ट और क्षुद्र भावनाओं आदि से मुक्त होना । यही बातें सुख और शान्ति की ओर अग्रसर करने वाली होती हैं। |
Line 83: |
Line 83: |
| # पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध हमेशा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं। | | # पवित्रता शुद्धता से अलग है और कहीं अधिक है। पवित्र पदार्थ शुद्ध होता ही है परन्तु शद्ध हमेशा पवित्र हो ऐसा नहीं होता। पवित्रता का सन्दर्भ शुद्धता से अलग है। उदाहरण के लिये जब भोजन करना है तब वह शुद्ध ही होना चाहिये ऐसा हमारा आग्रह रहता है परन्तु अन्न का आदर या अनादर करना या नहीं करना है ऐसा विचार नहीं आता। अर्थात् अपने लिये ही विचार करते हैं तब शुद्धता का आग्रह होता है, अन्न के विषय में सोचते हैं तब पवित्रता का भाव होता है। केवल अपना ही नहीं, अन्न का भी विचार करना चाहिये यह संकेत पवित्रता की संकल्पना में निहित हैं। |
| # भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है। | | # भारत को भारत बनना है तो इस पवित्रता की दृष्टि को सार्वत्रिक बनाना होगा। भारत के अशिक्षित, अर्धशिक्षित, अंग्रेजी और अमेरिका को नहीं जानने वाले लोग इसे समझते हैं और आचरण में लाते हैं परन्तु अमेरिका का मानसिक और बौद्धिक चश्मा पहने हुए लोग इसे जानते या मानते नहीं हैं। पवित्रता की संकल्पना को लेकर भारत के इस शिक्षित वर्ग को अपने आपको बदलने की आवश्यकता है। |
− | # एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय शुरू करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है। | + | # एक चाय के ठेलेवाला प्रातःकाल व्यवसाय आरम्भ करता है तब पहला प्याला धरती को समर्पित करता है। एक रिक्षावाला प्रातःकाल रिक्षे को फूल चढाता है, पहली सवारी के पैसे इमानदारी से लेता है। या कभी कभी नहीं भी लेता। एक व्यापारी अपने हिसाब के पुस्तक की पूजा करता है। किसान हल की, सुथार कुल्हाडी की, कुम्हार चाक की पूजा करता है। यह निर्जीव साधनों । का कृतज्ञतापूर्वक सम्मान करने की भावना पवित्रता है। इस भावना से सुख, समृद्दि और शान्ति पनपती है। यह अभ्युदय और निःश्रेयस की ओर जाने का व्यावहारिक मार्ग है। |
| # शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये। | | # शुद्धता भौतिक है, पवित्रता मानसिक। उसका सम्बन्ध अन्तःकरण के साथ है । जीवन के व्यवहारों में अन्तःकरण की प्रवृत्तियों का प्रभाव और महत्त्व अधिक होते हैं। अन्तःकरण का प्रभाव भौतिक पदार्थों पर भी होता है। इसलिये शुद्धता के साथ साथ, शुद्धता से भी अधिक पवित्रता की चिन्ता करनी चाहिये। |
| # वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये। | | # वर्तमान जगत में शुद्धता और पवित्रता का यह अन्तर विचार में ही नहीं लिया जाता है। इसका कारण सृष्टि को भी केवल भौतिक मानने में है। उदाहरण के लिये पर्यावरण की बात करते समय हम पंचमहाभूतों का ही विचार करते हैं । परन्तु सृष्टि पंचमहाभूतों के साथ साथ सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों की भी बनी है। इन तीन गुणों से मन, बुद्धि और अहंकार बने हैं। इनकी शुद्धि और पवित्रता भी पर्यावरण के विचार का हिस्सा है, वह अधिक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । वायु की शुद्धि से भी विचारों की शुद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जानी चाहिये। |
Line 123: |
Line 123: |
| # जिससे भय है उससे दूर भागना, दूरी बनाये रखना यह व्यावहारिक समझदारी है। जिसने प्रताडना दी है उसके पास नहीं जाना यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है। परन्तु भयभीत और प्रताडित करने वाले ने अपनी श्रेष्ठता यदि हमारे चित्त में अंकित कर दी है तो उससे बचना कठिन हो जाता है। आज उसी कठिनाई का सामना हम कर रहे हैं। | | # जिससे भय है उससे दूर भागना, दूरी बनाये रखना यह व्यावहारिक समझदारी है। जिसने प्रताडना दी है उसके पास नहीं जाना यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है। परन्तु भयभीत और प्रताडित करने वाले ने अपनी श्रेष्ठता यदि हमारे चित्त में अंकित कर दी है तो उससे बचना कठिन हो जाता है। आज उसी कठिनाई का सामना हम कर रहे हैं। |
| # एक नीति और रणनीति के तहत हम तय करें कि हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे, अंग्रेजी में लिखी किसी पस्तक को नहीं पढेंगे, यूरोपीय पदार्थ नहीं खायेंगे, यूरोपीय वेश नहीं पहनेंगे, यूरोपीय व्यवस्थाओं को अपने घरों, विद्यालयों और कार्यालयों में स्थान नहीं देंगे। तो क्या होगा ? क्या ब्रिटीश भारत में नहीं आये थे तब तक देश नहीं चलता था ? कदाचित अच्छे से चलता था। | | # एक नीति और रणनीति के तहत हम तय करें कि हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे, अंग्रेजी में लिखी किसी पस्तक को नहीं पढेंगे, यूरोपीय पदार्थ नहीं खायेंगे, यूरोपीय वेश नहीं पहनेंगे, यूरोपीय व्यवस्थाओं को अपने घरों, विद्यालयों और कार्यालयों में स्थान नहीं देंगे। तो क्या होगा ? क्या ब्रिटीश भारत में नहीं आये थे तब तक देश नहीं चलता था ? कदाचित अच्छे से चलता था। |
− | # परन्तु ऐसा बोलने की और करने की हिम्मत हम नहीं कर सकते हैं । तुरन्त ही प्रतितर्क शुरू हो जाते हैं । अंग्रेजी में क्या बुराई है ? यूरोपीय वेश पहनने से क्या हम धार्मिक नहीं रहते ? पित्झा खाने से क्या हम भ्रष्ट हो जायेंगे ? खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार तो बाह्य बातें हैं । अन्दर से तो हम धार्मिक ही हैं। हमें अंग्रेजी से भय कैसा ? | + | # परन्तु ऐसा बोलने की और करने की हिम्मत हम नहीं कर सकते हैं । तुरन्त ही प्रतितर्क आरम्भ हो जाते हैं । अंग्रेजी में क्या बुराई है ? यूरोपीय वेश पहनने से क्या हम धार्मिक नहीं रहते ? पित्झा खाने से क्या हम भ्रष्ट हो जायेंगे ? खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार तो बाह्य बातें हैं । अन्दर से तो हम धार्मिक ही हैं। हमें अंग्रेजी से भय कैसा ? |
| # परन्तु यह झूठा तर्क है। हमारे अन्दर बैठा हुआ अंग्रेजी हमें ऐसा बोलने के लिये बाध्य करता है। यह तो घोर हीनताबोध का ही लक्षण है। स्थिति ऐसी है कि हम तो नहीं समझेंगे परन्तु कोई हमें इस स्थिति से बलपूर्वक उबारे तभी हम बाहर आ सकते है। | | # परन्तु यह झूठा तर्क है। हमारे अन्दर बैठा हुआ अंग्रेजी हमें ऐसा बोलने के लिये बाध्य करता है। यह तो घोर हीनताबोध का ही लक्षण है। स्थिति ऐसी है कि हम तो नहीं समझेंगे परन्तु कोई हमें इस स्थिति से बलपूर्वक उबारे तभी हम बाहर आ सकते है। |
| # कोई तानाशाह बेरहमी से घोषणा करे कि आज से, इसी क्षण से अंग्रेजी और अंग्रेजी के सभी चिह्न इस देश में प्रतिबन्धित हैं और उसे अपने पास रखने वाले को कठोर दण्ड मिलेगा तभी हम मानेंगे। रोयेंगे, चिल्लायेंगे, विरोध करेंगे, आन्दोलन करेंगे, चुनाव में मत नहीं देंगे परन्तु तानाशाही के आदेश को मानना पडेगा। हमारी नई पीढी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से 'वंचित' रहेगी । तब एक या दो पीढियों के बाद हम हीनताबोध के रोग से मुक्त होंगे । इझरायेलने हिब्रू को लेकर ऐसा किया ही था। | | # कोई तानाशाह बेरहमी से घोषणा करे कि आज से, इसी क्षण से अंग्रेजी और अंग्रेजी के सभी चिह्न इस देश में प्रतिबन्धित हैं और उसे अपने पास रखने वाले को कठोर दण्ड मिलेगा तभी हम मानेंगे। रोयेंगे, चिल्लायेंगे, विरोध करेंगे, आन्दोलन करेंगे, चुनाव में मत नहीं देंगे परन्तु तानाशाही के आदेश को मानना पडेगा। हमारी नई पीढी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से 'वंचित' रहेगी । तब एक या दो पीढियों के बाद हम हीनताबोध के रोग से मुक्त होंगे । इझरायेलने हिब्रू को लेकर ऐसा किया ही था। |
Line 133: |
Line 133: |
| # हीनताबोध का रोग चित्तगत हैं । ये संस्कार आज की पीढी को जन्म से प्राप्त हुए है । चित्तशुद्धि होने पर ये संस्कार मिट सकते हैं। अतः चित्तशुद्धि के उपाय करने की आवश्यकता है। चित्तशुद्धि मनोबल और विवेक से भी परे हैं। सत्संग, स्वाध्याय, सदाचार और शुद्ध आहार का चित्त के साथ सम्बन्ध है। परन्तु इनके साथ ध्यान भी आवश्यक है। अंग्रेजीयत से मुक्ति का संकल्प लेकर यदि यह सब किया जाय तो हम इस रोग से मुक्त हो सकते हैं। | | # हीनताबोध का रोग चित्तगत हैं । ये संस्कार आज की पीढी को जन्म से प्राप्त हुए है । चित्तशुद्धि होने पर ये संस्कार मिट सकते हैं। अतः चित्तशुद्धि के उपाय करने की आवश्यकता है। चित्तशुद्धि मनोबल और विवेक से भी परे हैं। सत्संग, स्वाध्याय, सदाचार और शुद्ध आहार का चित्त के साथ सम्बन्ध है। परन्तु इनके साथ ध्यान भी आवश्यक है। अंग्रेजीयत से मुक्ति का संकल्प लेकर यदि यह सब किया जाय तो हम इस रोग से मुक्त हो सकते हैं। |
| # इन सबके आधार पर धार्मिक और यूरोपीय ज्ञानधारा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो यूरोपीय ज्ञान, यूरोपीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली, जीवनव्यवस्था की कमियाँ समझ में आने लगेंगी। फिर हम उन पर तरस खायेंगे और अपने आप पर हँसेंगे। अर्थात् यह कार्य शिक्षकों का है, विश्वविद्यालयों का है। | | # इन सबके आधार पर धार्मिक और यूरोपीय ज्ञानधारा का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय, तो यूरोपीय ज्ञान, यूरोपीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली, जीवनव्यवस्था की कमियाँ समझ में आने लगेंगी। फिर हम उन पर तरस खायेंगे और अपने आप पर हँसेंगे। अर्थात् यह कार्य शिक्षकों का है, विश्वविद्यालयों का है। |
− | # समाज के जो श्रेष्ठ लोग हैं उन्हें पहल करनी होगी। उदाहरण के लिये उच्चशिक्षित लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में नहीं भेजेंगे तो सामान्य लोग भी नहीं भेजेंगे । अत्यन्त धनवान लोग अंग्रेजी वेशभूषा और खानपान का त्याग करेंगे तो मध्यम वर्गीय लोग भी करेंगे। फिल्मों के नट्नटियाँ यदि संस्कारयुक्त व्यवहार करने लगेंगे तो अशिक्षित लोग भी संस्कारवान बनेंगे। अधिकारी वर्ग मातृभाषा का आग्रह शुरू करेगा तो कर्मचारी भी उनका अनुसरण करेगा। | + | # समाज के जो श्रेष्ठ लोग हैं उन्हें पहल करनी होगी। उदाहरण के लिये उच्चशिक्षित लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में नहीं भेजेंगे तो सामान्य लोग भी नहीं भेजेंगे । अत्यन्त धनवान लोग अंग्रेजी वेशभूषा और खानपान का त्याग करेंगे तो मध्यम वर्गीय लोग भी करेंगे। फिल्मों के नट्नटियाँ यदि संस्कारयुक्त व्यवहार करने लगेंगे तो अशिक्षित लोग भी संस्कारवान बनेंगे। अधिकारी वर्ग मातृभाषा का आग्रह आरम्भ करेगा तो कर्मचारी भी उनका अनुसरण करेगा। |
| # भारत गरीब नहीं है तो भी अपने आपको गरीब मानता है, पिछडा हुआ नहीं है तो भी वैसा मानता है, अज्ञानी नहीं है तो भी अज्ञानी मानता है, दुर्जन नहीं है तो भी अपने आपको सज्जन नहीं मानता क्योंकि वह पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करता हैं। हमें चाहिये कि हम अपने मापदण्ड निश्चित करें, अपने आप पर लागू करें और यूरोप पर भी लागू करें तब बात हमारी समझ में आयेगी। | | # भारत गरीब नहीं है तो भी अपने आपको गरीब मानता है, पिछडा हुआ नहीं है तो भी वैसा मानता है, अज्ञानी नहीं है तो भी अज्ञानी मानता है, दुर्जन नहीं है तो भी अपने आपको सज्जन नहीं मानता क्योंकि वह पराये मापदण्डों से अपना मूल्यांकन करता हैं। हमें चाहिये कि हम अपने मापदण्ड निश्चित करें, अपने आप पर लागू करें और यूरोप पर भी लागू करें तब बात हमारी समझ में आयेगी। |
| # भारत जब हीनताबोध से मुक्त होगा तभी उसका आत्मविश्वास जागृत होगा। आत्मविश्वास से प्रेरित अध्ययन और व्यवहार उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगे । भारत भारत बनेगा तो अपने आप विश्व के लिये उदाहरण प्रस्तुत करेगा । फूल जिस प्रकार होने से ही सुगन्ध बिखेरता है, सूर्य जैसे होने से ही प्रकाश फैलाता है उस प्रकार भारत भारत होने से ही ज्ञान के प्रकाश को फैलाकर अज्ञानजनित, मोहजनित भ्रान्तियों को दूर करता है। उसे कोई अलग से अभियान छेडने की आवश्यकता नहीं रहती। | | # भारत जब हीनताबोध से मुक्त होगा तभी उसका आत्मविश्वास जागृत होगा। आत्मविश्वास से प्रेरित अध्ययन और व्यवहार उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करेंगे । भारत भारत बनेगा तो अपने आप विश्व के लिये उदाहरण प्रस्तुत करेगा । फूल जिस प्रकार होने से ही सुगन्ध बिखेरता है, सूर्य जैसे होने से ही प्रकाश फैलाता है उस प्रकार भारत भारत होने से ही ज्ञान के प्रकाश को फैलाकर अज्ञानजनित, मोहजनित भ्रान्तियों को दूर करता है। उसे कोई अलग से अभियान छेडने की आवश्यकता नहीं रहती। |
Line 162: |
Line 162: |
| १. श्रद्धा, विश्वास और पश्चिम का विचार करते हैं तब लगता है कि उन्होंने अपनी ज्ञानयात्रा हेतु आवश्यक अन्न पानी का ही त्याग कर दिया है और भूख और प्यास से पीडित होने की नौबत उन पर आ पडी है । अथवा अपने ज्ञानभवन को बिना आधार के खडा किया है जिससे उसके कभी भी धराशायी होने की सम्भावना सदैव बनी रहती है। | | १. श्रद्धा, विश्वास और पश्चिम का विचार करते हैं तब लगता है कि उन्होंने अपनी ज्ञानयात्रा हेतु आवश्यक अन्न पानी का ही त्याग कर दिया है और भूख और प्यास से पीडित होने की नौबत उन पर आ पडी है । अथवा अपने ज्ञानभवन को बिना आधार के खडा किया है जिससे उसके कभी भी धराशायी होने की सम्भावना सदैव बनी रहती है। |
| | | |
− | इसका एक सीधा सादा कारण यह है कि पश्चिम का सारा व्यवहार दूसरों पर अविश्वास के आधार पर ही शुरू होता है । उसके सारे कानून मनुष्य अच्छा नहीं है, वह दूसरों को धोखा ही देगा ऐसा मानकर वह धोखा न दे सके इसके प्रावधान हेतु बने हैं। | + | इसका एक सीधा सादा कारण यह है कि पश्चिम का सारा व्यवहार दूसरों पर अविश्वास के आधार पर ही आरम्भ होता है । उसके सारे कानून मनुष्य अच्छा नहीं है, वह दूसरों को धोखा ही देगा ऐसा मानकर वह धोखा न दे सके इसके प्रावधान हेतु बने हैं। |
| | | |
| ३. कदाचित ऐसी दृष्टि उसे अपनी उत्पत्ति के साथ ही प्राप्त हुई होगी। आदम और हवा स्वर्ग के बगीचे में रहते थे। प्रभुने उन्हें ज्ञान के वृक्ष का फल खाने हेतु मना किया था। आदम तो खाने के लिये इच्छुक नहीं था परन्तु हवा ने उसे ललचाया, भरमाया, उकसाया और फल खाने के लिये विवश किया । यह पाप हुआ जिसके परिणाम स्वरूप दोनो को स्वर्ग से निष्कासित होकर पृथ्वी पर आना पडा। यहीं से अर्थात् पृथ्वी पर आगमन के क्षण से ही विश्वासघात का अनुभव जुडा हुआ है। इसलिये नित्य सावधानी उनके व्यवहार का अंग बन गई है। | | ३. कदाचित ऐसी दृष्टि उसे अपनी उत्पत्ति के साथ ही प्राप्त हुई होगी। आदम और हवा स्वर्ग के बगीचे में रहते थे। प्रभुने उन्हें ज्ञान के वृक्ष का फल खाने हेतु मना किया था। आदम तो खाने के लिये इच्छुक नहीं था परन्तु हवा ने उसे ललचाया, भरमाया, उकसाया और फल खाने के लिये विवश किया । यह पाप हुआ जिसके परिणाम स्वरूप दोनो को स्वर्ग से निष्कासित होकर पृथ्वी पर आना पडा। यहीं से अर्थात् पृथ्वी पर आगमन के क्षण से ही विश्वासघात का अनुभव जुडा हुआ है। इसलिये नित्य सावधानी उनके व्यवहार का अंग बन गई है। |
Line 182: |
Line 182: |
| ११. इस स्थिति में श्रद्दा को वह बुद्धि से कम आँकता है और निम्न दर्जा देता है । इसके अनुकरण में भारत के बौद्धिक भी कम बुद्धि वाले श्रद्धावान होते हैं । जिनमें बुद्धि है वे श्रद्धा से कुछ भी कैसे स्वीकार कर सकते हैं ऐसा कहते हैं। परन्तु वे भूल जाते हैं कि व्यक्तित्व की पंचकोशात्मक व्याख्या में श्रद्धा को विज्ञानमय कोश का अर्थात् बुद्धि का शिर कहा है। श्रद्धा बुद्धि का आधार है उससे कम नहीं है । उनका विरोध तो है ही नहीं। श्रद्धा के अभाव में बुद्धि भटक जाती है । भटकी हुई बुद्धि से किस प्रकार का अध्ययन और अनुसन्धान सम्भव है ? | | ११. इस स्थिति में श्रद्दा को वह बुद्धि से कम आँकता है और निम्न दर्जा देता है । इसके अनुकरण में भारत के बौद्धिक भी कम बुद्धि वाले श्रद्धावान होते हैं । जिनमें बुद्धि है वे श्रद्धा से कुछ भी कैसे स्वीकार कर सकते हैं ऐसा कहते हैं। परन्तु वे भूल जाते हैं कि व्यक्तित्व की पंचकोशात्मक व्याख्या में श्रद्धा को विज्ञानमय कोश का अर्थात् बुद्धि का शिर कहा है। श्रद्धा बुद्धि का आधार है उससे कम नहीं है । उनका विरोध तो है ही नहीं। श्रद्धा के अभाव में बुद्धि भटक जाती है । भटकी हुई बुद्धि से किस प्रकार का अध्ययन और अनुसन्धान सम्भव है ? |
| | | |
− | १२. भारतने अपने चिन्तन को पहले से ही ठीक किया है। केवल चिन्तन को ही नहीं तो व्यवहार को भी सही आधार दिया है। श्रद्धा और विश्वास का महत्त्व दर्शाते हुए भारत की मनीषा कहती है कि श्रद्धा और विश्वास शंकर और पार्वती के समान एक-दूसरे से अभिन्न हैं। श्रद्धा और विश्वास के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। ऐसे श्रद्धा और विश्वास के बिना भारत का बौद्धिक विमर्श शुरू ही नहीं होता है। | + | १२. भारतने अपने चिन्तन को पहले से ही ठीक किया है। केवल चिन्तन को ही नहीं तो व्यवहार को भी सही आधार दिया है। श्रद्धा और विश्वास का महत्त्व दर्शाते हुए भारत की मनीषा कहती है कि श्रद्धा और विश्वास शंकर और पार्वती के समान एक-दूसरे से अभिन्न हैं। श्रद्धा और विश्वास के बिना सिद्ध लोग भी अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। ऐसे श्रद्धा और विश्वास के बिना भारत का बौद्धिक विमर्श आरम्भ ही नहीं होता है। |
| | | |
| १३. उसी प्रकार से परस्पर व्यवहार का आधारभूत सूत्र आत्मीयता को बनाया । आत्मीयता के चलते व्यक्ति दूसरे को धोखा नहीं देता। उसके लाभ की, भले की, हित की चिन्ता करता है। दूसरे पर विश्वास या अविश्वास दिखाने से पहले स्वंय विश्वसनीय होने का प्रयास करता है जिसके बदले में उसे विश्वास और विश्वसनीयता प्राप्त होती है। परस्पर विश्वास से सुख, सौमनस्य, आश्वस्ति, शान्ति प्राप्त होना स्वाभाविक है। मन अच्छा बनने से विकास की सम्भावनायें बनती हैं। | | १३. उसी प्रकार से परस्पर व्यवहार का आधारभूत सूत्र आत्मीयता को बनाया । आत्मीयता के चलते व्यक्ति दूसरे को धोखा नहीं देता। उसके लाभ की, भले की, हित की चिन्ता करता है। दूसरे पर विश्वास या अविश्वास दिखाने से पहले स्वंय विश्वसनीय होने का प्रयास करता है जिसके बदले में उसे विश्वास और विश्वसनीयता प्राप्त होती है। परस्पर विश्वास से सुख, सौमनस्य, आश्वस्ति, शान्ति प्राप्त होना स्वाभाविक है। मन अच्छा बनने से विकास की सम्भावनायें बनती हैं। |
Line 214: |
Line 214: |
| # हमारा इतिहास यदि इतना समृद्ध है, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में हमने यदि इतनी सिद्धि प्राप्त की है तो हम विजयी ही होंगे ऐसा विश्वास हमें जाग्रत करना है। हम प्रयास करें और यशस्वी न हों ऐसा हो ही नहीं सकता। | | # हमारा इतिहास यदि इतना समृद्ध है, ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में हमने यदि इतनी सिद्धि प्राप्त की है तो हम विजयी ही होंगे ऐसा विश्वास हमें जाग्रत करना है। हम प्रयास करें और यशस्वी न हों ऐसा हो ही नहीं सकता। |
| # ऐसा मनोभाव स्थिर करने के लिये हमें अपने आपको कसना होगा । हमारी बुद्धि, हमारा साहस, हमारा बल कसा जाने की आवश्यकता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों की परीक्षाओं में हम आसान प्रश्नों के उत्तर लिखकर उत्तीर्ण न हों । गणित जैसे विषयों में सौ प्रतिशत से कम अंकों से हम सन्तुष्ट न हों । जीवन की परीक्षा में भी हम मुसीबतों से बचकर चलने का प्रयास न करें। तभी हम विजीगीषु मनोवृत्ति का विकास कर सकते हैं। | | # ऐसा मनोभाव स्थिर करने के लिये हमें अपने आपको कसना होगा । हमारी बुद्धि, हमारा साहस, हमारा बल कसा जाने की आवश्यकता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों की परीक्षाओं में हम आसान प्रश्नों के उत्तर लिखकर उत्तीर्ण न हों । गणित जैसे विषयों में सौ प्रतिशत से कम अंकों से हम सन्तुष्ट न हों । जीवन की परीक्षा में भी हम मुसीबतों से बचकर चलने का प्रयास न करें। तभी हम विजीगीषु मनोवृत्ति का विकास कर सकते हैं। |
− | # अपना लक्ष्य नीचा न रखें, लक्ष्य निर्धारित कर उसे प्राप्त करने हेतु कठोर परिश्रम करने से न बचा यह शुरू किया है तो पूर्ण करना ही है ऐसा निर्धार बनायें । यही हमारी शिक्षा है जो हमें विजय के योग्य बनाती है। | + | # अपना लक्ष्य नीचा न रखें, लक्ष्य निर्धारित कर उसे प्राप्त करने हेतु कठोर परिश्रम करने से न बचा यह आरम्भ किया है तो पूर्ण करना ही है ऐसा निर्धार बनायें । यही हमारी शिक्षा है जो हमें विजय के योग्य बनाती है। |
| # हमारे लिये कोई भी बात कठिन कैसे हो सकती है ? कैसी भी कठिन बातों को हम आसान बनायेंगे । किसी भी लालच में नहीं फँसने का मनोबल हम प्राप्त करेंगे और कैसी भी कठिन समस्या को सुलझाने की तात्त्विक और व्यावहारिक बुद्धि को भी हम विकसित करेंगे। | | # हमारे लिये कोई भी बात कठिन कैसे हो सकती है ? कैसी भी कठिन बातों को हम आसान बनायेंगे । किसी भी लालच में नहीं फँसने का मनोबल हम प्राप्त करेंगे और कैसी भी कठिन समस्या को सुलझाने की तात्त्विक और व्यावहारिक बुद्धि को भी हम विकसित करेंगे। |
| # जिन देशों का कोई प्राचीन इतिहास नहीं जिनकी समृद्धि लूट पर आधारित है, जिनके पास बुद्धि सामर्थ्य नहीं ऐसे देशों से प्रभावित होने की क्या आवश्यकता है ? उल्टे उन्हें चार बातें सिखाने की हमारी क्षमता है। भारत का एक सामान्य व्यक्ति भी सज्जनता के मामलो में विश्व के मान्धाताओं से बढकर है। फिर हमें अपने आपको नीचा मानने की क्या आवश्यकता है? | | # जिन देशों का कोई प्राचीन इतिहास नहीं जिनकी समृद्धि लूट पर आधारित है, जिनके पास बुद्धि सामर्थ्य नहीं ऐसे देशों से प्रभावित होने की क्या आवश्यकता है ? उल्टे उन्हें चार बातें सिखाने की हमारी क्षमता है। भारत का एक सामान्य व्यक्ति भी सज्जनता के मामलो में विश्व के मान्धाताओं से बढकर है। फिर हमें अपने आपको नीचा मानने की क्या आवश्यकता है? |