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१४. अपने पूर्वजों के प्रति, गुरु के प्रति, मातापिता के प्रति, ज्ञानियों और तपस्वियों के प्रति, सज्जनों के प्रति, श्रद्धा का भाव रखना सहज है। श्रद्धायुक्त अन्तःकरण उस अन्तःकरण के स्वामी की सम्पत्ति है, जिनके प्रति श्रद्धा है उसके लिये श्रद्धेयता सम्पत्ति है और श्रद्धा के लायक होना उसके लिये साधना है। इस प्रकार श्रद्धा दोनों को उन्नत बनाती है।  
 
१४. अपने पूर्वजों के प्रति, गुरु के प्रति, मातापिता के प्रति, ज्ञानियों और तपस्वियों के प्रति, सज्जनों के प्रति, श्रद्धा का भाव रखना सहज है। श्रद्धायुक्त अन्तःकरण उस अन्तःकरण के स्वामी की सम्पत्ति है, जिनके प्रति श्रद्धा है उसके लिये श्रद्धेयता सम्पत्ति है और श्रद्धा के लायक होना उसके लिये साधना है। इस प्रकार श्रद्धा दोनों को उन्नत बनाती है।  
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१५. आत्मीयता से जो तादात्म्य बनता है उससे प्रकृति में स्थित पदार्थ अपना अन्तरंग रहस्य प्रकट करते हैं। प्रयोगशाला में प्रयोग करने पर जो ज्ञान प्राप्त होता है उससे कहीं अधिक यह ज्ञान अधिकृत माना जाना चाहिये । परन्तु पश्चिम को अनुभूति का कुछ पता नहीं होने के कारण और श्रद्धा और विश्वास नहीं
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१५. आत्मीयता से जो तादात्म्य बनता है उससे प्रकृति में स्थित पदार्थ अपना अन्तरंग रहस्य प्रकट करते हैं। प्रयोगशाला में प्रयोग करने पर जो ज्ञान प्राप्त होता है उससे कहीं अधिक यह ज्ञान अधिकृत माना जाना चाहिये । परन्तु पश्चिम को अनुभूति का कुछ पता नहीं होने के कारण और श्रद्धा और विश्वास नहीं होने के कारण अनुभूति को अधिकृत मानना कठिन हो जाता है, और अपने अहंकार के कारण वह इसे ठुकरा देता है। भारत भी आज तो पश्चिम के प्रभाव के चलते वैसा ही व्यवहार करता है परन्तु भारत को अपनापन प्राप्त कर, स्व में स्थित होकर श्रद्धा और विश्वास को पुनःप्रतिष्ठित करना चाहिये।
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१६. भारत ने आज श्रद्धा और विश्वास को उपेक्षित कर दिया है। उसे पश्चिम की तरह वस्तुनिष्ठता (ऑब्जेक्टिविटी) में प्रतिष्ठा लगती है । सब्जेक्टिविटी (आत्मनिष्ठता) उसे प्रमाणभूत नहीं लगती है। परन्तु अपने अतीत में जो था उसका उसे अनुभव है। उस अतीत का स्मरण कर उसने पुनः अपने व्यवहार और अध्ययन के आधार को बदलना चाहिये।
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१७. बौद्धिक क्षेत्र में बाद में आयेगा तो भी चलेगा प्रथम परस्पर व्यवहार में उसे प्रतिष्ठित करना चाहिये । घरों में और विद्यालयों में विश्वसनीय और श्रद्धेय बनने के साथ ही विश्वास करने की शिक्षा देनी चाहिये । विश्वासघात करना कितना बुरा है यह भी सिखाना चाहिये।
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१८. विश्वास के आधार पर कुछ व्यवस्थायें भी बनाना चाहिये । बात बात में लिखित प्रमाण माँगना बन्द करना चाहिये । बोला हुआ मिथ्या न सिद्ध हो इसकी चिन्ता करनी चाहिये। जूठ नहीं बोलना चाहिये । हमने दिये हुए वचन का पालन हम न करें यह हो ही नहीं सकता ऐसी समझ धीरे धीरे सब की बननी चाहिये । इसका परिणाम बहुत अच्छा होगा।
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१९. श्रद्धा और विश्वास से युक्त व्यवहार करने का अर्थ यह नहीं है कि कौन विश्वसनीय है और कौन नहीं है इसकी हमें परवा ही न हो, कौन झूठ बोल रहा है और कौन नहीं इसकी समझ ही नहीं और कौन श्रद्धेय है और कौन नहीं यह हम पहचान ही न सकें। ऐसी समझ नहीं होना बुद्धपन है। इससे बचना चाहिये और वास्तव में बुद्धिमान बनना चाहिये।
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२०. पश्चिम को हमसे यदि सीखना है तो यह सीखना है। पश्चिम को प्रतीति करवानी चाहिये कि इनके बिना वह कितना अधूरा है, कैसी मूल्यवान बातों से वह वंचित है। इस योग्यता को प्राप्त करने से पूर्व भारत को स्वयं इन्हें अपनाने का पुरुषार्थ करना है। तभी भारत भारत बन सकता है। <blockquote>भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ । </blockquote><blockquote>याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थ मीश्वरम् ।।</blockquote>जिनके अभाव में सिद्ध अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को भी देख नहीं सकते ऐसे श्रद्धा और विश्वास रूपी भवानी और शंकर को मैं प्रणाम करता हूँ।<blockquote>सद्धिस्तु लीलया प्रोक्तं शिलालिखितमक्षरम् ।</blockquote><blockquote>असद्भिः शपथेनापि जले लिखितमक्षरम् ।।</blockquote>सज्जनों ने हँसी मजाक में कहा हुआ भी शिलालेख समान होता है, दुर्जनों ने शपथ लेकर कहा हुआ भी जल पर लिखे अक्षरों के समान होता है।<blockquote>मनस्येकं वचस्येकं कर्मस्येकं महात्मनाम् । </blockquote><blockquote>मनस्यन्यद् वचस्यन्यत् कर्मस्यन्यद् दुरात्मनाम् ।।</blockquote>मन में एक, वाणी में वही और कृति में वही होने वाले महात्मा होते हैं, मन में एक, वाणी में दूसरा और कृति में तीसरा है ऐसे लोग दरात्मा होते हैं।
    
==References==
 
==References==
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