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=== १. भारत की दॄष्टि से क्यों देखना ===
 
=== १. भारत की दॄष्टि से क्यों देखना ===
भारत विश्व को पश्चिम और पूर्व में बाँटता नहीं है। यूरोप के लोग भारत में आने के लिये निकले तब पूर्व दिशा में उन्होंने यात्रा शुरू की। इसलिये भारत उनके लिये पूर्वी देश है। आज विश्व में युरोपीय शब्दावली रूढ हुई है इसलिये यूरोप और विशेष रूप से इंग्लैण्ड के सन्दर्भ से पूर्वपश्चिम दिशायें तय होती हैं । इसलिये भारत के लिये भी यूरोप और अमेरिका पश्चिम के देश हैं।
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भारत विश्व को पश्चिम और पूर्व में बाँटता नहीं है। यूरोप के लोग भारत में आने के लिये निकले तब पूर्व दिशा में उन्होंने यात्रा आरम्भ की। इसलिये भारत उनके लिये पूर्वी देश है। आज विश्व में युरोपीय शब्दावली रूढ हुई है इसलिये यूरोप और विशेष रूप से इंग्लैण्ड के सन्दर्भ से पूर्वपश्चिम दिशायें तय होती हैं । इसलिये भारत के लिये भी यूरोप और अमेरिका पश्चिम के देश हैं।
    
सांस्कृतिक दृष्टि से भारत विश्व को एक मानता है। इसलिये भारत सभी बातों का वैश्विक सन्दर्भ में ही विचार करता है। विश्व के सन्दर्भ में भारत के मूल विचार कुछ इस प्रकार हैं..<blockquote>अयं निज परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् । </blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। </blockquote>अर्थात्
 
सांस्कृतिक दृष्टि से भारत विश्व को एक मानता है। इसलिये भारत सभी बातों का वैश्विक सन्दर्भ में ही विचार करता है। विश्व के सन्दर्भ में भारत के मूल विचार कुछ इस प्रकार हैं..<blockquote>अयं निज परोवेत्ति गणना लघुचेतसाम् । </blockquote><blockquote>उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।। </blockquote>अर्थात्
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यह अपना है और यह पराया ऐसी सोच छोटे मन वाले लोगों की होती है, जिनका अन्तःकरण उदार है उनके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक कुटुम्ब है।
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यह अपना है और यह पराया ऐसी सोच छोटे मन वाले लोगोंं की होती है, जिनका अन्तःकरण उदार है उनके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी एक कुटुम्ब है।
    
कुटुम्ब कहते ही आत्मीयता का सम्बन्ध निहित है। अर्थात् भारत सम्पूर्ण विश्व के साथ आत्मीयता से युक्त व्यवहार करता है।<blockquote>यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते । </blockquote>अर्थात् जो भूतमात्र का हित कहता है वही सत्य है।
 
कुटुम्ब कहते ही आत्मीयता का सम्बन्ध निहित है। अर्थात् भारत सम्पूर्ण विश्व के साथ आत्मीयता से युक्त व्यवहार करता है।<blockquote>यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमभिधीयते । </blockquote>अर्थात् जो भूतमात्र का हित कहता है वही सत्य है।
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यहाँ भी सबका अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का विचार किया गया है। भारत के लिये सृष्टि में केवल मनुष्य ही नहीं है, प्राणीसृष्टि, वनस्पतिसृष्टि और पंचमहाभूत भी हैं।
 
यहाँ भी सबका अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का विचार किया गया है। भारत के लिये सृष्टि में केवल मनुष्य ही नहीं है, प्राणीसृष्टि, वनस्पतिसृष्टि और पंचमहाभूत भी हैं।
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ऐसे तो और भी अनेक कथन मिलेंगे जो यह दर्शायेंगे कि भारत हमेशा ही सम्पूर्ण सृष्टि को एक मानकर ही अपना विचार, व्यवस्था और व्यवहार निश्चित करता रहा है। वर्तमान में विश्व को यूरोपीय दृष्टि से देखना स्वीकृत हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि विश्व अनेक प्रकार के संकटों में फंसकर विनाश की ओर बढ़ रहा है। इस विनाश से विश्व को उबारने के लिये अब विश्व को भारत की दृष्टि से देखना आवश्यक हो गया है। हमेशा ही विश्व के भले का विचार करने वाले भारत का वह स्वाभाविक कर्तव्य है । वर्तमान परिस्थिति में वह भारत का अधिकार भी है । विश्व की यह आवश्यकता बन गई है।
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ऐसे तो और भी अनेक कथन मिलेंगे जो यह दर्शायेंगे कि भारत सदा ही सम्पूर्ण सृष्टि को एक मानकर ही अपना विचार, व्यवस्था और व्यवहार निश्चित करता रहा है। वर्तमान में विश्व को यूरोपीय दृष्टि से देखना स्वीकृत हो गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि विश्व अनेक प्रकार के संकटों में फंसकर विनाश की ओर बढ़ रहा है। इस विनाश से विश्व को उबारने के लिये अब विश्व को भारत की दृष्टि से देखना आवश्यक हो गया है। सदा ही विश्व के भले का विचार करने वाले भारत का वह स्वाभाविक कर्तव्य है । वर्तमान परिस्थिति में वह भारत का अधिकार भी है । विश्व की यह आवश्यकता बन गई है।
    
धीरे धीरे पश्चिमी देशों को भी इसकी प्रतीति हो रही है। जिस मार्ग पर विश्व चल रहा है वह विनाश की ओर ले जा रहा है इसकी शत-प्रतिशत निश्चिति न भी हुई हो तो भी कुछ भारी गडबड चल रही है ऐसा तो लगने लगा है। तथापि सही मार्ग कौन सा होगा यह भी ध्यान में नहीं आ रहा है। पश्चिम में भी अनेक समझदार और बुद्धिमान लोग मार्ग खोजने का प्रयास कर रहे हैं। भारत विश्व को मार्ग दिखा सकता है ऐसा भी पश्चिम को लगने लगा है। इस स्थिति में भारत को ओर ध्यान देना ही होगा। अपने शाश्वत चिन्तन के प्रकाश में विश्व के संकटों को समझकर उन्हें दूर करने के उपाय विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने होंगे।
 
धीरे धीरे पश्चिमी देशों को भी इसकी प्रतीति हो रही है। जिस मार्ग पर विश्व चल रहा है वह विनाश की ओर ले जा रहा है इसकी शत-प्रतिशत निश्चिति न भी हुई हो तो भी कुछ भारी गडबड चल रही है ऐसा तो लगने लगा है। तथापि सही मार्ग कौन सा होगा यह भी ध्यान में नहीं आ रहा है। पश्चिम में भी अनेक समझदार और बुद्धिमान लोग मार्ग खोजने का प्रयास कर रहे हैं। भारत विश्व को मार्ग दिखा सकता है ऐसा भी पश्चिम को लगने लगा है। इस स्थिति में भारत को ओर ध्यान देना ही होगा। अपने शाश्वत चिन्तन के प्रकाश में विश्व के संकटों को समझकर उन्हें दूर करने के उपाय विश्व के समक्ष प्रस्तुत करने होंगे।
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=== २. भारत को भारत बनने की आवश्यकता ===
 
=== २. भारत को भारत बनने की आवश्यकता ===
भारत को विश्वगुरु बनना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति । परन्तु अपना यह दायित्व निभाने के लिये भारत को भारत बनना होगा । आज जैसा है वैसा भारत विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर सकता । आज भारत स्वयं यूरोअमरिकी तन्त्र से चल रहा है । यह तन्त्र यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि के आधार पर तो विकसित हुआ ही है, साथ ही भारत के तन्त्र को तोड़ने के लिये, भारत को लूटने के लिये, भारत को अपने नियन्त्रण में रखने के लिये और भारत का यूरोपीकरण करने के लिये थोपा गया है । इस तन्त्र को थोपने की प्रक्रिया कम से कम दो शतक तक चली है। दो प्रक्रियायें साथ साथ चली हैं। एक है भारतीय व्यवस्थायें तोडने की और दूसरी उसके स्थान पर यूरोअमेरिकी व्यवस्था स्थापित करने की। दैनन्दिन राष्ट्रजीवन को संचालित करने वाली ये व्यवस्थायें हैं।
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भारत को विश्वगुरु बनना है। यह विश्व की आवश्यकता है और भारत की नियति । परन्तु अपना यह दायित्व निभाने के लिये भारत को भारत बनना होगा । आज जैसा है वैसा भारत विश्व का मार्गदर्शन नहीं कर सकता । आज भारत स्वयं यूरोअमरिकी तन्त्र से चल रहा है । यह तन्त्र यूरोअमेरिकी जीवनदृष्टि के आधार पर तो विकसित हुआ ही है, साथ ही भारत के तन्त्र को तोड़ने के लिये, भारत को लूटने के लिये, भारत को अपने नियन्त्रण में रखने के लिये और भारत का यूरोपीकरण करने के लिये थोपा गया है । इस तन्त्र को थोपने की प्रक्रिया कम से कम दो शतक तक चली है। दो प्रक्रियायें साथ साथ चली हैं। एक है धार्मिक व्यवस्थायें तोडने की और दूसरी उसके स्थान पर यूरोअमेरिकी व्यवस्था स्थापित करने की। दैनन्दिन राष्ट्रजीवन को संचालित करने वाली ये व्यवस्थायें हैं।
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एक सरकारी दृष्टि से देखें तो दो शतकों में भारत में क्या हुआ है। ब्रिटीश आये तब और अपना आधिपत्य जमा रहे थे तब भारत में लोकतन्त्र नहीं था । हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब अपने अपने राज्यों पर राज्य करते थे। यह तो ज्ञात इतिहास है कि भारत स्वाधीन हआ तब देश में पाँच सौ सैंतालीस राज्य थे जिनके विलीनीकरण का श्रेय सरदार वल्लभभाई पटेल को दिया जाता है। भारत में युगों से राजाशाही थी, गणराज्यों के बारे में भी इतिहास में हमने पढ़ा है, परन्तु आज के जैसा लोकतन्त्र भारत में कभी नहीं रहा । भारत के लिये यह संकल्पना सर्वथा अपरिचित है। भारत में लोकतन्त्र संज्ञा तो सुपरिचित है । वास्तव में 'लोक' सभी क्षेत्रों में प्रतिष्टित रहा है, परन्तु भारत का 'लोकतन्त्र' और वर्तमान डेमोक्रसी' मे कोई साम्य नहीं है। फिर भी स्वाधीन भारत में एक बार भी प्रश्न नहीं पूछा गया कि यह 'लोकतन्त्र' अचानक से कैसे आ गया । हमने उसे इतनी सहजता से अपना लिया जैसे हमेशा से हम इसी व्यवस्था में जी रहे हैं।
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एक सरकारी दृष्टि से देखें तो दो शतकों में भारत में क्या हुआ है। ब्रिटीश आये तब और अपना आधिपत्य जमा रहे थे तब भारत में लोकतन्त्र नहीं था । हिन्दू राजा और मुसलमान नवाब अपने अपने राज्यों पर राज्य करते थे। यह तो ज्ञात इतिहास है कि भारत स्वाधीन हआ तब देश में पाँच सौ सैंतालीस राज्य थे जिनके विलीनीकरण का श्रेय सरदार वल्लभभाई पटेल को दिया जाता है। भारत में युगों से राजाशाही थी, गणराज्यों के बारे में भी इतिहास में हमने पढ़ा है, परन्तु आज के जैसा लोकतन्त्र भारत में कभी नहीं रहा । भारत के लिये यह संकल्पना सर्वथा अपरिचित है। भारत में लोकतन्त्र संज्ञा तो सुपरिचित है । वास्तव में 'लोक' सभी क्षेत्रों में प्रतिष्टित रहा है, परन्तु भारत का 'लोकतन्त्र' और वर्तमान डेमोक्रसी' मे कोई साम्य नहीं है। फिर भी स्वाधीन भारत में एक बार भी प्रश्न नहीं पूछा गया कि यह 'लोकतन्त्र' अचानक से कैसे आ गया । हमने उसे इतनी सहजता से अपना लिया जैसे सदा से हम इसी व्यवस्था में जी रहे हैं।
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ऐसी ही दूसरी व्यवस्था शिक्षा की है। वर्तमान में शिक्षा का जो तन्त्र चल रहा है वह भी भारत के लिये सर्वथा अपरिचित है। सरकार शिक्षा को नियन्त्रित और नियोजित करे ऐसा भारतीय जन ने स्वप्न में भी सोचा नहीं होगा । परन्तु आज वह प्रस्थापित तन्त्र हो गया है।
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ऐसी ही दूसरी व्यवस्था शिक्षा की है। वर्तमान में शिक्षा का जो तन्त्र चल रहा है वह भी भारत के लिये सर्वथा अपरिचित है। सरकार शिक्षा को नियन्त्रित और नियोजित करे ऐसा धार्मिक जन ने स्वप्न में भी सोचा नहीं होगा । परन्तु आज वह प्रस्थापित तन्त्र हो गया है।
    
ऐसा ही अर्थतन्त्र है। राज्य का व्यापार के क्षेत्र में सक्रिय होना भारत में सर्वथा अनपेक्षित और अवांछनीय रहा है। परन्तु ब्रिटीशों का तो राज्य ही व्यापार के लिये था । स्वाधीनता के बाद वह व्यवस्था भी वैसी ही रह गई।
 
ऐसा ही अर्थतन्त्र है। राज्य का व्यापार के क्षेत्र में सक्रिय होना भारत में सर्वथा अनपेक्षित और अवांछनीय रहा है। परन्तु ब्रिटीशों का तो राज्य ही व्यापार के लिये था । स्वाधीनता के बाद वह व्यवस्था भी वैसी ही रह गई।
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अर्थात् बाहर से देखें तो भारत भारत नहीं रहा।
 
अर्थात् बाहर से देखें तो भारत भारत नहीं रहा।
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परन्तु भारत की एक विशेषता है। विश्व के कई देश यूरोप के आधिपत्य के परिणाम स्वरूप अन्दर बाहर पूर्ण बदल गये । अमेरिका स्वयं अब रेड इन्डियनों का देश नहीं रहा, यूरोपीय देश बन गया। ऑस्ट्रेलिया, आफ्रिका भी यूरोपीय बन गये । चीन, जापान आदि ने अमेरिका के साथ स्पर्धा शुरू कर दी है। परन्तु भारत अभी भी अन्दर से भारतीय रहा है।
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परन्तु भारत की एक विशेषता है। विश्व के कई देश यूरोप के आधिपत्य के परिणाम स्वरूप अन्दर बाहर पूर्ण बदल गये । अमेरिका स्वयं अब रेड इन्डियनों का देश नहीं रहा, यूरोपीय देश बन गया। ऑस्ट्रेलिया, आफ्रिका भी यूरोपीय बन गये । चीन, जापान आदि ने अमेरिका के साथ स्पर्धा आरम्भ कर दी है। परन्तु भारत अभी भी अन्दर से धार्मिक रहा है।
    
भारत के अन्तरंग और बहिरंग में बिना जाने समझे संघर्ष चल रहा है। भारत का अन्तरंग इतना बलवान रहा है कि सारी बहिरंग व्यवस्थाओं के बदल जाने के बाद भी वह बदला नहीं है।
 
भारत के अन्तरंग और बहिरंग में बिना जाने समझे संघर्ष चल रहा है। भारत का अन्तरंग इतना बलवान रहा है कि सारी बहिरंग व्यवस्थाओं के बदल जाने के बाद भी वह बदला नहीं है।
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वर्तमान विश्व के संकटों को दूर करने हेतु भारत को अपनी भूमिका निभाने हेतु सिद्ध होना होगा। इसके लिये भारत क्या करे ?
 
वर्तमान विश्व के संकटों को दूर करने हेतु भारत को अपनी भूमिका निभाने हेतु सिद्ध होना होगा। इसके लिये भारत क्या करे ?
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सर्वप्रथम तो भारत को निश्चयपूर्वक अपनी भूमिका का स्वीकार करना होगा। संकट इतने भयावह हैं कि अब उनके निवारण हेतु हमें कुछ करना ही चाहिये ऐसा विचार भारत के मन में आना ही चाहिये । विश्व में अनेक देश हैं, वे बड़े हैं, समर्थ हैं अनेक तो अपने आपको महासमर्थ मानते हैं, सामर्थ्य को लेकर एकदूसरे से स्पर्धा करते हैं, वे यदि संकटों के निवारण की बात नहीं करते तो फिर हम क्यों करें ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । कोई नहीं करता तो मैं क्यों करूं यह भारतीय विचार ही नहीं है, कोई नहीं करता तब भी मुझे करना चाहिये, और कोई नहीं करता तब तो मुझे करना ही चाहिये यह भारतीय विचार है। इसलिये विश्व के देश संकटों के निवारण का विचार करे न करें भारत  को तो सिद्ध होना ही चाहिये ।
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सर्वप्रथम तो भारत को निश्चयपूर्वक अपनी भूमिका का स्वीकार करना होगा। संकट इतने भयावह हैं कि अब उनके निवारण हेतु हमें कुछ करना ही चाहिये ऐसा विचार भारत के मन में आना ही चाहिये । विश्व में अनेक देश हैं, वे बड़े हैं, समर्थ हैं अनेक तो अपने आपको महासमर्थ मानते हैं, सामर्थ्य को लेकर एकदूसरे से स्पर्धा करते हैं, वे यदि संकटों के निवारण की बात नहीं करते तो फिर हम क्यों करें ऐसा विचार नहीं करना चाहिये । कोई नहीं करता तो मैं क्यों करूं यह धार्मिक विचार ही नहीं है, कोई नहीं करता तब भी मुझे करना चाहिये, और कोई नहीं करता तब तो मुझे करना ही चाहिये यह धार्मिक विचार है। इसलिये विश्व के देश संकटों के निवारण का विचार करे न करें भारत  को तो सिद्ध होना ही चाहिये ।
    
दूसरा कारण यह है कि विश्व भी आज संकटों का अनुभव तो कर ही रहा है और उनके निवारण हेतु प्रयास भी कर रहा है। उदाहरण के लिये पर्यावरण के प्रदूषण के संकट के निवारण हेतु विश्वस्तर के सम्मेलन हो रहे हैं, प्रस्ताव पारित हो रहे हैं, जनमानस प्रबोधन हेतु सूचनायें प्रसारित की जा रही हैं, संचार माध्यमों के द्वारा प्रचार हो रहा है परन्तु प्रदूषण कम नहीं हो रहा है (अर्थात् संकटों की भी वही स्थिति है। इससे सिद्ध होता है कि अनेक प्रयासों के बाद भी संकट दूर नहीं हो रहे हैं । भारत की सादी समझ तो यही कहती है कि संकटों के निवारण का प्रस्थान बिन्दु ही यदि ठीक नहीं है तो निवारण होना ही सम्भव नहीं । प्रदूषण करने वाला यदि अपने आपको बचाकर दूसरों को ही उपदेश देगा तो निवारण हो कैसे सकेगा ? अतः भारत को विश्व के अन्य देशों से अपेक्षा न करते हुए अपने आपको ही अग्रसर होकर संकट निवारण का विचार करना चाहिये ।
 
दूसरा कारण यह है कि विश्व भी आज संकटों का अनुभव तो कर ही रहा है और उनके निवारण हेतु प्रयास भी कर रहा है। उदाहरण के लिये पर्यावरण के प्रदूषण के संकट के निवारण हेतु विश्वस्तर के सम्मेलन हो रहे हैं, प्रस्ताव पारित हो रहे हैं, जनमानस प्रबोधन हेतु सूचनायें प्रसारित की जा रही हैं, संचार माध्यमों के द्वारा प्रचार हो रहा है परन्तु प्रदूषण कम नहीं हो रहा है (अर्थात् संकटों की भी वही स्थिति है। इससे सिद्ध होता है कि अनेक प्रयासों के बाद भी संकट दूर नहीं हो रहे हैं । भारत की सादी समझ तो यही कहती है कि संकटों के निवारण का प्रस्थान बिन्दु ही यदि ठीक नहीं है तो निवारण होना ही सम्भव नहीं । प्रदूषण करने वाला यदि अपने आपको बचाकर दूसरों को ही उपदेश देगा तो निवारण हो कैसे सकेगा ? अतः भारत को विश्व के अन्य देशों से अपेक्षा न करते हुए अपने आपको ही अग्रसर होकर संकट निवारण का विचार करना चाहिये ।
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सर्वंकष विनाश की ओर कितना शीघ्र गति से विश्व धंस रहा है, विकास की कितनी अनुचित संकल्पना को साकार करने का प्रयास हो रहा है उसे कितना जल्दी त्याग कर देना चाहिये यह समझना आवश्यक है। विश्वस्थिति का केवल अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा, भारत की दृष्टि से अध्ययन करना होगा। आज हम यूरोअमेरिकी दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं। इसके स्थान पर अपनी दृष्टि से अध्ययन करना होगा।
 
सर्वंकष विनाश की ओर कितना शीघ्र गति से विश्व धंस रहा है, विकास की कितनी अनुचित संकल्पना को साकार करने का प्रयास हो रहा है उसे कितना जल्दी त्याग कर देना चाहिये यह समझना आवश्यक है। विश्वस्थिति का केवल अध्ययन करने से काम नहीं चलेगा, भारत की दृष्टि से अध्ययन करना होगा। आज हम यूरोअमेरिकी दृष्टि से अध्ययन कर रहे हैं। इसके स्थान पर अपनी दृष्टि से अध्ययन करना होगा।
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इसके लिये हमें यूरोअमेरिकी और भारतीय जीवनदृष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना होगा।
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इसके लिये हमें यूरोअमेरिकी और धार्मिक जीवनदृष्टि का तुलनात्मक अध्ययन करना होगा।
    
भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें।
 
भारत को सिद्ध होने के लिये संगठित होना होगा। आज की भाषा में जिसे युनियन कहते हैं ऐसा इस संगठित का अर्थ नहीं है। समाज संचालन करने वाले जितने भी वर्ग हैं उन सबको आन्तरिक सहमति और समरसता निर्माण करनी होगी। भारत एक राष्ट्र है, वह सार्वभौम प्रजासत्ताक राष्ट्र है इस सूत्र का स्वीकार कर एक सार्वभौम, स्वतन्त्र, समर्थ, सम्पन्न राष्ट्र बनाने हेतु सभी वर्गों का स्वेच्छापूर्वक सक्रिय योगदान होना आवश्यक है। ये वर्ग हैं सरकार, प्रशासन, विश्वविद्यालय, उद्योग, परिवार, धर्माचार्य एवं सैन्य । न्यायालय और पुलीस सरकार का ही हिस्सा है। इन सब की समरसता से ही सामर्थ्य निर्माण होगा। संगठन के मूल सूत्र निर्माण करना धर्मसंस्था और ज्ञानसंस्था का कार्य है। इन दोनों ने पहल करनी होगी। सरकार और सभी समाजसेवी संगठनों ने इन्हें आग्रहपूर्वक निवेदन करना होगा कि वे अपने राष्ट्र को समर्थ बनाने हेतु दायित्व का स्वीकार करें।
    
=== ४. विश्व के सन्दर्भ में विचार ===
 
=== ४. विश्व के सन्दर्भ में विचार ===
विश्व के सन्दर्भ में भारतीय शिक्षा की स्थिति को देखते हैं तब हमें बहुत ही दारुण चित्र दिखाई देता है। आन्तर्राष्ट्रीय सूचकांक दर्शाते हैं कि विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम शिक्षा के मामले में बहुत पिछडे हुए हैं।
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विश्व के सन्दर्भ में धार्मिक शिक्षा की स्थिति को देखते हैं तब हमें बहुत ही दारुण चित्र दिखाई देता है। आन्तर्राष्ट्रीय सूचकांक दर्शाते हैं कि विश्व के श्रेष्ठ दो सौ विद्यालयों की सूची में भारत का एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम शिक्षा के मामले में बहुत पिछडे हुए हैं।
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फिर हम स्वप्न देखना शुरू करते हैं कि भारत में भी हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय शुरू करेंगे। परन्तु बहुत जल्दी हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। हमें प्रतीति होती है कि हमारे पास न पैसा है न नीयत, न बुद्धि प्रतिभा जिनके बल पर हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बना सकें।
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फिर हम स्वप्न देखना आरम्भ करते हैं कि भारत में भी हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय आरम्भ करेंगे। परन्तु बहुत जल्दी हमारा स्वप्न भंग हो जाता है। हमें प्रतीति होती है कि हमारे पास न पैसा है न नीयत, न बुद्धि प्रतिभा जिनके बल पर हम आन्तर्राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय बना सकें।
    
फिर हम कुछ अराष्ट्रीय बातों पर खेद का अनुभव करते हैं। हमें दुःख होता है कि हमारी बुद्धिप्रतिभा देश में रहना नहीं चाहती। वह अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में प्रगत अध्ययन के लिये जाती है। अपने तेजस्वी विद्यार्थी पढाई भी वहाँ करते हैं और व्यवसाय भी क्योंकि उन्हें भारत में अनुसन्धान के लिये कोई अवसर नहीं है। भारत में उनकी प्रतिभा की कोई कदर नहीं है। यह स्थिति हमारे हीनताबोध में वृद्धि करती है।
 
फिर हम कुछ अराष्ट्रीय बातों पर खेद का अनुभव करते हैं। हमें दुःख होता है कि हमारी बुद्धिप्रतिभा देश में रहना नहीं चाहती। वह अन्य देशों के विश्वविद्यालयों में प्रगत अध्ययन के लिये जाती है। अपने तेजस्वी विद्यार्थी पढाई भी वहाँ करते हैं और व्यवसाय भी क्योंकि उन्हें भारत में अनुसन्धान के लिये कोई अवसर नहीं है। भारत में उनकी प्रतिभा की कोई कदर नहीं है। यह स्थिति हमारे हीनताबोध में वृद्धि करती है।
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१. विश्व के श्रेष्ठ दस विश्वविद्यालयों में कदाचित सात या आठ तो केवल अमेरिका में हैं। इसका अर्थ हैं वहाँ अध्ययन और अनुसन्धान का श्रेष्ठ कार्य हो रहा है। वहीं अत्यन्त मेधावी विद्यार्थी निर्माण हो रहे हैं। अमेरिका तो आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त विकसित देश है । भारत उसकी तुलना में कहीं नहीं आता । फिर ऐसा क्यों है कि अमेरिका की लगभग दो सौ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सीईओ अमेरिका के नहीं हैं। वे एशिया के, विशेषकर भारत के, हैं। ये कम्पनियाँ खूब कमाई करनेवाली कम्पनियाँ हैं। अमेरिका के प्रतिभावान विद्यार्थियों का क्या हो रहा है?
 
१. विश्व के श्रेष्ठ दस विश्वविद्यालयों में कदाचित सात या आठ तो केवल अमेरिका में हैं। इसका अर्थ हैं वहाँ अध्ययन और अनुसन्धान का श्रेष्ठ कार्य हो रहा है। वहीं अत्यन्त मेधावी विद्यार्थी निर्माण हो रहे हैं। अमेरिका तो आर्थिक दृष्टि से भी अत्यन्त विकसित देश है । भारत उसकी तुलना में कहीं नहीं आता । फिर ऐसा क्यों है कि अमेरिका की लगभग दो सौ बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में सीईओ अमेरिका के नहीं हैं। वे एशिया के, विशेषकर भारत के, हैं। ये कम्पनियाँ खूब कमाई करनेवाली कम्पनियाँ हैं। अमेरिका के प्रतिभावान विद्यार्थियों का क्या हो रहा है?
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यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर भारतीय हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते ।
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यह आज की बात नहीं है। दो पीटी पूर्व से स्थिति तो यही है। कुछ वर्ष पूर्व एक वृत्त आया था कि केवल एक न्यूयोर्क में सातसौ डॉक्टर धार्मिक हैं। यही बात इन्जिनीयरों, मैनेजरों, संगणक निष्णातों, व्यापारियों आदि की है। विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढे विद्यार्थी क्या देश नहीं चला सकते ? भारत में तो इतनी बड़ी संख्या में यूरोअमेरिकी विश्वविद्यालयों मे पढे लोग डॉक्टर का या अन्य व्यवसाय करते नहीं दिखाई देते ।
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लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगों के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है।
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लोग कहते हैं कि भारत तो गरीब देश है। यहां आकर वे क्या कमाई करेंगे ? तो विचार यह करना है कि क्या डॉक्टर या अध्यापक समाज की सेवा करने के लिये बनना है या केवल कमाई करने के लिये ? अमेरिका तो सब कुछ केवल कमाई करने के लिये कर रहा है। तो वह अपने ही लोगोंं के स्थान पर विदेशियों को कमाई के अवसर क्यों दे रहा है ? केवल इसलिये कि उसके विश्वविद्यालय जनसंख्या और आवश्यकता के अनुपात में पर्याप्त कुशल डॉक्टर, इन्जिनीयर आदि निर्माण नहीं कर सकते । ऐसे देश के विश्वविद्यालय यदि विश्व के श्रेष्ठ विश्वविद्यालय हैं तो बात विचार करने योग्य बन जाती है। क्या अमेरिका स्वयं के लिये नहीं अपितु अन्य देशों के लिये ही विश्वविद्यालय चलाता है ? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह हुआ कि अमेरिकी ज्ञानविज्ञान के प्रसार से विश्व का अमेरिकीकरण करना चाहता है।
    
२. ज्ञानविज्ञान के प्रसार के माध्यम से विश्व का अमेरिकीकरण करने में भी कोई बुराई नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान का प्रसार होना ही चाहिये । विश्व उससे लाभान्वित होना ही चाहिये । परन्तु कैसा है यह ज्ञानविज्ञान ?
 
२. ज्ञानविज्ञान के प्रसार के माध्यम से विश्व का अमेरिकीकरण करने में भी कोई बुराई नहीं है। श्रेष्ठ ज्ञान का प्रसार होना ही चाहिये । विश्व उससे लाभान्वित होना ही चाहिये । परन्तु कैसा है यह ज्ञानविज्ञान ?
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इस संकल्प का संकेत यह है कि हम अपने आपको सम्पूर्ण सृष्टि और सनातन काल के साथ जोडे रखते हैं । हम जानते हैं कि हमारे किसी भी कार्य का परिणाम वैश्विक होगा। यह सृष्टिनियम है। यह भौतिक विज्ञान का भी नियम है और अध्यात्मविज्ञान का भी । सृष्टि के किसी भी कोने में किये गये विचार, इच्छा या कृति का परिणाम विश्वव्यापी ही होता है । इस नियम का भी हम रोज स्मरण करते हैं।
 
इस संकल्प का संकेत यह है कि हम अपने आपको सम्पूर्ण सृष्टि और सनातन काल के साथ जोडे रखते हैं । हम जानते हैं कि हमारे किसी भी कार्य का परिणाम वैश्विक होगा। यह सृष्टिनियम है। यह भौतिक विज्ञान का भी नियम है और अध्यात्मविज्ञान का भी । सृष्टि के किसी भी कोने में किये गये विचार, इच्छा या कृति का परिणाम विश्वव्यापी ही होता है । इस नियम का भी हम रोज स्मरण करते हैं।
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तात्पर्य यह है कि भारतीयों का विचार और व्यवहार हमेशा से वैश्विक ही रहा है। हम अपने निजी सुख और हित की कामना भी विश्व के अविरोधी बनकर ही करते हैं। केवल अविरोधी नहीं तो विश्व के सुख और हित के लिये भी करते हैं।
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तात्पर्य यह है कि धार्मिकों का विचार और व्यवहार सदा से वैश्विक ही रहा है। हम अपने निजी सुख और हित की कामना भी विश्व के अविरोधी बनकर ही करते हैं। केवल अविरोधी नहीं तो विश्व के सुख और हित के लिये भी करते हैं।
    
यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि इस संकल्प में जम्बूद्वीप की ही बात की गई है, सम्पूर्ण सृष्टि की नहीं ।
 
यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि इस संकल्प में जम्बूद्वीप की ही बात की गई है, सम्पूर्ण सृष्टि की नहीं ।
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गन्धवती पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शगुण युक्त वायु, उष्णता और प्रकाश देने वाला तेज और शब्दगुणवाला आकाश मेरे प्रभात को अच्छा करें।
 
गन्धवती पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शगुण युक्त वायु, उष्णता और प्रकाश देने वाला तेज और शब्दगुणवाला आकाश मेरे प्रभात को अच्छा करें।
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अर्थात् प्रातःकाल उठते ही व्यक्ति समस्त प्रकृति का स्मरण करता है । अर्थात् पंचमहाभूत, प्राणी, वनस्पति और मनुष्य आदि सबसे सम्बन्धित होकर, सबसे अविरोधी रहकर ही भारतीय व्यक्ति अपने सुख और हित की कामना करता है।  
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अर्थात् प्रातःकाल उठते ही व्यक्ति समस्त प्रकृति का स्मरण करता है । अर्थात् पंचमहाभूत, प्राणी, वनस्पति और मनुष्य आदि सबसे सम्बन्धित होकर, सबसे अविरोधी रहकर ही धार्मिक व्यक्ति अपने सुख और हित की कामना करता है।  
    
भारत के दीर्घतम आयुष्य ने, और इसी कारण से दीर्घतम इतिहास ने, यह सिद्ध किया है कि जो इस प्रकार का 'सर्वेषाम् अविरोधेन' विचार और व्यवहार करता है वह चिरंजीव होता है। सनातनता का प्रत्यक्ष उदाहरण ही भारत ने प्रस्तुत किया है।  
 
भारत के दीर्घतम आयुष्य ने, और इसी कारण से दीर्घतम इतिहास ने, यह सिद्ध किया है कि जो इस प्रकार का 'सर्वेषाम् अविरोधेन' विचार और व्यवहार करता है वह चिरंजीव होता है। सनातनता का प्रत्यक्ष उदाहरण ही भारत ने प्रस्तुत किया है।  
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अपने किसी भी विचार या व्यवहार से जगत का अकल्याण नहीं होना चाहिये यह एक बात है, अपने विचार और व्यवहार से जगत का हित और सुख होना चाहिये यह दूसरी बात है, जगत की किसी भी प्रजा के विचार और व्यवहार से हमारा या किसी का अकल्याण नहीं होना चाहिये यह तीसरी बात है और जगत के किसी भी विचार और व्यवहार से हमारा और दूसरों का कल्याण होना चाहिये यह चौथी बात है।
 
अपने किसी भी विचार या व्यवहार से जगत का अकल्याण नहीं होना चाहिये यह एक बात है, अपने विचार और व्यवहार से जगत का हित और सुख होना चाहिये यह दूसरी बात है, जगत की किसी भी प्रजा के विचार और व्यवहार से हमारा या किसी का अकल्याण नहीं होना चाहिये यह तीसरी बात है और जगत के किसी भी विचार और व्यवहार से हमारा और दूसरों का कल्याण होना चाहिये यह चौथी बात है।
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इन चारों बातों को ध्यान में रखकर भारत ने हमेशा विचार और व्यवहार किया है। अपने पर होनवाले सांस्कृतिक और भौतिक आक्रमणों को परास्त किया है। स्वयं के व्यवहार में हित और हित के अविरोधी सुख को प्राप्त करने हेतु ज्ञानसाधना और धर्मसाधना की है। धर्म और संस्कृति के वैश्विक स्वरूप की कल्पना की है। अपनी संस्कृति को लेकर विश्व में संचार किया है। विश्व के लगभग सभी देशों में जाकर ज्ञान, संस्कार, कलाकौशल, सभ्यता, शिष्टाचार का प्रसार किया है। विश्वसंचार हेतु भारत ने अपनाया हुआ सूत्र है 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' - विश्व को आर्य बनायें। 'आर्य' संज्ञा श्रेष्ठतावाचक है, जातिवाचक नहीं । अर्थात् भारत ने हमेशा विचार किया है कि हम श्रेष्ठ बनें और विश्व को भी श्रेष्ठ बनायें।
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इन चारों बातों को ध्यान में रखकर भारत ने सदा विचार और व्यवहार किया है। अपने पर होनवाले सांस्कृतिक और भौतिक आक्रमणों को परास्त किया है। स्वयं के व्यवहार में हित और हित के अविरोधी सुख को प्राप्त करने हेतु ज्ञानसाधना और धर्मसाधना की है। धर्म और संस्कृति के वैश्विक स्वरूप की कल्पना की है। अपनी संस्कृति को लेकर विश्व में संचार किया है। विश्व के लगभग सभी देशों में जाकर ज्ञान, संस्कार, कलाकौशल, सभ्यता, शिष्टाचार का प्रसार किया है। विश्वसंचार हेतु भारत ने अपनाया हुआ सूत्र है 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम्' - विश्व को आर्य बनायें। 'आर्य' संज्ञा श्रेष्ठतावाचक है, जातिवाचक नहीं । अर्थात् भारत ने सदा विचार किया है कि हम श्रेष्ठ बनें और विश्व को भी श्रेष्ठ बनायें।
    
भारत ने कभी सर्वश्रेष्ठ बनना नहीं चाहा, अर्थात् किसी के साथ स्पर्धा में उतरकर उससे श्रेष्ठ सिद्ध होने का विचार नहीं किया। अतः भारत ने कभी संघर्ष का प्रारम्भ नहीं किया, अपना विचार किसी पर थोपा नहीं, ज्यादती नहीं की, अपने व्यवहार और भावना से अन्यों को भी श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा दी।
 
भारत ने कभी सर्वश्रेष्ठ बनना नहीं चाहा, अर्थात् किसी के साथ स्पर्धा में उतरकर उससे श्रेष्ठ सिद्ध होने का विचार नहीं किया। अतः भारत ने कभी संघर्ष का प्रारम्भ नहीं किया, अपना विचार किसी पर थोपा नहीं, ज्यादती नहीं की, अपने व्यवहार और भावना से अन्यों को भी श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा दी।
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कर्तव्य और दायित्व के सन्दर्भ में भारत हमेशा अपना विचार करता है जबकि अधिकार और लाभ के सन्दर्भ में सम्पूर्ण विश्व का | विचार और व्यवहार का यह समायोजन भारत की विशाल बुद्धि और दीर्घदृष्टि का परिचय देता है।<blockquote>मनुस्मृति का यह सन्दर्भ देखने योग्य है, एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।</blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।</blockquote>अर्थात्
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कर्तव्य और दायित्व के सन्दर्भ में भारत सदा अपना विचार करता है जबकि अधिकार और लाभ के सन्दर्भ में सम्पूर्ण विश्व का | विचार और व्यवहार का यह समायोजन भारत की विशाल बुद्धि और दीर्घदृष्टि का परिचय देता है।<blockquote>मनुस्मृति का यह सन्दर्भ देखने योग्य है, एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः ।</blockquote><blockquote>स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः ।।</blockquote>अर्थात्
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इस देश में प्रथम जन्मे हुए लोगों से पृथ्वी के सर्व मनुष्य अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें।
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इस देश में प्रथम जन्मे हुए लोगोंं से पृथ्वी के सर्व मनुष्य अपने अपने चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें।
    
वर्तमान सन्दर्भ में भी भारत को इस कथन को स्मरण में रखते हुए अपनी स्थिति को ठीक करने की आवश्यकता है।  
 
वर्तमान सन्दर्भ में भी भारत को इस कथन को स्मरण में रखते हुए अपनी स्थिति को ठीक करने की आवश्यकता है।  
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# वे ऐसे नहीं होने चाहिये जिससे एक देश को दूसरे देश अथवा देशों को दबाने का अवसर मिल सके।  
 
# वे ऐसे नहीं होने चाहिये जिससे एक देश को दूसरे देश अथवा देशों को दबाने का अवसर मिल सके।  
 
# आन्तर्राष्ट्रीय मानक किसी एक देश द्वारा बनाये गये नहीं अपितु सबने मिलकर बनाये हुए होने चाहिये ।  
 
# आन्तर्राष्ट्रीय मानक किसी एक देश द्वारा बनाये गये नहीं अपितु सबने मिलकर बनाये हुए होने चाहिये ।  
# वे ऐसे लोगों के द्वारा बनने चाहिये जो पूरे विश्व को एक मानते हों और स्वयं निःस्वार्थ हो ।  
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# वे ऐसे लोगोंं के द्वारा बनने चाहिये जो पूरे विश्व को एक मानते हों और स्वयं निःस्वार्थ हो ।  
# विद्वान, बुद्धिमान, हृदयवान, पवित्र और करुणापूर्ण अन्तःकरण से बने मानक ही वैश्विक हो सकते हैं। सत्ता या धन के प्रभाव से दबे हुए लोगों द्वारा बनाये गये नहीं।
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# विद्वान, बुद्धिमान, हृदयवान, पवित्र और करुणापूर्ण अन्तःकरण से बने मानक ही वैश्विक हो सकते हैं। सत्ता या धन के प्रभाव से दबे हुए लोगोंं द्वारा बनाये गये नहीं।
    
=== ७. भारत अपने मानक तैयार करे ===
 
=== ७. भारत अपने मानक तैयार करे ===
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जिस देश की शिक्षा दूसरे राष्ट्रों का अहित करने हेतु अपने राज्य और प्रजा को समर्थ बनाती है उसे श्रेष्ठ तो क्या, सही भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे देश की शिक्षा को, शिक्षादर्शन को भारत से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। ऐसे देशों को ही भर्तृहरि ने राक्षस की संज्ञा दी है और गीता ने आसुरी सम्पद् युक्त देशों की । हमें गीता के आधार पर उनका मूल्यांकन करने में संकोच नहीं करना चाहिये । उनकी शिक्षा में और जिस जीवनदृष्टि के आधार पर उनकी शिक्षा का विकास हुआ है उस जीवनदृष्टि में एकसौ अस्सी अंश परिवर्तन करने की आवश्यकता है यह स्पष्टतापूर्वक, आग्रहपूर्वक और दृढतापूर्वक बताना चाहिये।  
 
जिस देश की शिक्षा दूसरे राष्ट्रों का अहित करने हेतु अपने राज्य और प्रजा को समर्थ बनाती है उसे श्रेष्ठ तो क्या, सही भी नहीं कहा जा सकता। ऐसे देश की शिक्षा को, शिक्षादर्शन को भारत से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है। ऐसे देशों को ही भर्तृहरि ने राक्षस की संज्ञा दी है और गीता ने आसुरी सम्पद् युक्त देशों की । हमें गीता के आधार पर उनका मूल्यांकन करने में संकोच नहीं करना चाहिये । उनकी शिक्षा में और जिस जीवनदृष्टि के आधार पर उनकी शिक्षा का विकास हुआ है उस जीवनदृष्टि में एकसौ अस्सी अंश परिवर्तन करने की आवश्यकता है यह स्पष्टतापूर्वक, आग्रहपूर्वक और दृढतापूर्वक बताना चाहिये।  
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४. जो शिक्षा चरित्रनिर्माण को विषयों के अध्ययन का आधार नहीं बनाती वह निरर्थक ही नहीं तो अनर्थक है। विश्वविद्यालय भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, खगोल, व्यापार आदि विषयों में सर्वश्रेष्ठ अध्ययन और अनुसन्धान कर रहे हैं परन्तु ऐसे विद्वान लोग व्यक्तिगत रूप से और प्रजा के रूप में पंचमहाभूतों का, प्राणियों का, गरीबों का, खियों का नाश करने वाले हैं, क्षुद्र लालसाओं से ग्रस्त हैं और सर्वसामान्य लोगों के स्वास्थ्य का नाश करनेवाले हैं तो उन विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिये भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे किसी रसायण की खोज हुई जिसका उपयोग कर बने शस्त्र आसपास के दोसो कीलोमीटर के क्षेत्र का वातावरण जहरीला बना देते हैं तो वह अनर्थ है। ऐसे रसायण की खोज हो भी जाय तो उसे दुर्घटना समझकर उसका नाश कर देना चाहिये । ऐसे रसायण की विनाशक शक्ति को ध्यान में रखकर ही खोज करना तो अमानवीय ही है। ऐसे वैज्ञानिक की खोज की, अनुसन्धान की क्षमता की कदर करते हुए भी उसे वैज्ञानिक के रूप में काम करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये।
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४. जो शिक्षा चरित्रनिर्माण को विषयों के अध्ययन का आधार नहीं बनाती वह निरर्थक ही नहीं तो अनर्थक है। विश्वविद्यालय भौतिक विज्ञान, तन्त्रज्ञान, खगोल, व्यापार आदि विषयों में सर्वश्रेष्ठ अध्ययन और अनुसन्धान कर रहे हैं परन्तु ऐसे विद्वान लोग व्यक्तिगत रूप से और प्रजा के रूप में पंचमहाभूतों का, प्राणियों का, गरीबों का, खियों का नाश करने वाले हैं, क्षुद्र लालसाओं से ग्रस्त हैं और सर्वसामान्य लोगोंं के स्वास्थ्य का नाश करनेवाले हैं तो उन विश्वविद्यालयों को श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता। उदाहरण के लिये भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे किसी रसायण की खोज हुई जिसका उपयोग कर बने शस्त्र आसपास के दोसो कीलोमीटर के क्षेत्र का वातावरण जहरीला बना देते हैं तो वह अनर्थ है। ऐसे रसायण की खोज हो भी जाय तो उसे दुर्घटना समझकर उसका नाश कर देना चाहिये । ऐसे रसायण की विनाशक शक्ति को ध्यान में रखकर ही खोज करना तो अमानवीय ही है। ऐसे वैज्ञानिक की खोज की, अनुसन्धान की क्षमता की कदर करते हुए भी उसे वैज्ञानिक के रूप में काम करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये।
    
सामाजिकता और वैज्ञानिकता को एकदसरे से पृथक् रखकर केवल वैज्ञानिकता का समर्थन करना खास पश्चिमी दृष्टि है। एक ही यन्त्र की खोज में विज्ञान की दृष्टि से तो बडी सिद्धि है परन्तु स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये घोर हानि होती है तो उसका किस प्रकार मूल्यांकन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है।
 
सामाजिकता और वैज्ञानिकता को एकदसरे से पृथक् रखकर केवल वैज्ञानिकता का समर्थन करना खास पश्चिमी दृष्टि है। एक ही यन्त्र की खोज में विज्ञान की दृष्टि से तो बडी सिद्धि है परन्तु स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिये घोर हानि होती है तो उसका किस प्रकार मूल्यांकन करना चाहिये ? इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है।
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६. अर्थात् शिक्षा में सर्वत्र मन को सज्जन बनाने की, व्यक्ति को चरित्रवान बनाने की शिक्षा का अन्तर्भाव होने की अनिवार्यता है यह बात पश्चिम को आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता है। अनुभूति का क्षेत्र पश्चिम में पूर्ण रूप से अनुपस्थित है। इस कारण से पश्चिम के अध्ययन और अनुसन्धान का स्तर बुद्धि प्रामाण्य तक ही पहुँचता है। सब कुछ केवल तर्क पर आधारित है। परन्तु पश्चिम की इस विषय में अपरिहार्य कठिनाई है । जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति को रंगों का, जन्म से बधिर व्यक्ति को वाणी का या सूंघने की शक्ति बिना लिये जन्मे व्यक्ति को गन्ध का अनुभव कल्पना में भी नहीं होता उस प्रकार जिसे अनुभूति जैसा कुछ होता है इसकी कल्पना तक नहीं होती उसके साथ अनुभूति के प्रमाण की चर्चा तक नहीं हो सकती। परन्तु इसका परिणाम यह होता है कि पश्चिम का शास्त्र न तर्कातीत होता है न शाश्वत । बुद्धि के स्तर के अनुसार शास्त्र रचे जाते हैं, कुछ समय तक प्रतिष्ठित और प्रचलित होते हैं, फिर कोई आता है और नये शास्त्र की रचना होती है । थिअरी बदलती रहती हैं। परिवर्तन भारत में भी होता है परन्तु वह केवल परिवर्तनशील बाहरी बातों का होता है, शाश्वत तत्त्वों का नहीं । पश्चिम में शाश्वत और परिवर्तनीय ऐसे दो आयाम हैं ही नहीं, सब कुछ परिवर्तनीय है। हमने कभी हमारी दृष्टि से पश्चिम को देखा ही नहीं है इसलिये उसका अधूरापन हमें समझ में नहीं आता ।
 
६. अर्थात् शिक्षा में सर्वत्र मन को सज्जन बनाने की, व्यक्ति को चरित्रवान बनाने की शिक्षा का अन्तर्भाव होने की अनिवार्यता है यह बात पश्चिम को आग्रहपूर्वक बताने की आवश्यकता है। अनुभूति का क्षेत्र पश्चिम में पूर्ण रूप से अनुपस्थित है। इस कारण से पश्चिम के अध्ययन और अनुसन्धान का स्तर बुद्धि प्रामाण्य तक ही पहुँचता है। सब कुछ केवल तर्क पर आधारित है। परन्तु पश्चिम की इस विषय में अपरिहार्य कठिनाई है । जिस प्रकार जन्मान्ध व्यक्ति को रंगों का, जन्म से बधिर व्यक्ति को वाणी का या सूंघने की शक्ति बिना लिये जन्मे व्यक्ति को गन्ध का अनुभव कल्पना में भी नहीं होता उस प्रकार जिसे अनुभूति जैसा कुछ होता है इसकी कल्पना तक नहीं होती उसके साथ अनुभूति के प्रमाण की चर्चा तक नहीं हो सकती। परन्तु इसका परिणाम यह होता है कि पश्चिम का शास्त्र न तर्कातीत होता है न शाश्वत । बुद्धि के स्तर के अनुसार शास्त्र रचे जाते हैं, कुछ समय तक प्रतिष्ठित और प्रचलित होते हैं, फिर कोई आता है और नये शास्त्र की रचना होती है । थिअरी बदलती रहती हैं। परिवर्तन भारत में भी होता है परन्तु वह केवल परिवर्तनशील बाहरी बातों का होता है, शाश्वत तत्त्वों का नहीं । पश्चिम में शाश्वत और परिवर्तनीय ऐसे दो आयाम हैं ही नहीं, सब कुछ परिवर्तनीय है। हमने कभी हमारी दृष्टि से पश्चिम को देखा ही नहीं है इसलिये उसका अधूरापन हमें समझ में नहीं आता ।
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पश्चिम की स्थिति ऐसी है कि अनुभूति की शिक्षा का अनुभव करने हेतु भी उसे भारत में जन्म लेना पडेगा । पुनर्जन्म में, भाग्य में, जन्मजन्मान्तर में और आत्मतत्त्व की सत्ता में विश्वास करना पडेगा। भारत में जन्म नहीं होता तब तक भारत की चिरंजीविता को विचार में लेकर ज्ञानक्षेत्र के सिद्धान्तों को मानना पड़ेगा।  
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पश्चिम की स्थिति ऐसी है कि अनुभूति की शिक्षा का अनुभव करने हेतु भी उसे भारत में जन्म लेना पड़ेगा । पुनर्जन्म में, भाग्य में, जन्मजन्मान्तर में और आत्मतत्त्व की सत्ता में विश्वास करना पड़ेगा। भारत में जन्म नहीं होता तब तक भारत की चिरंजीविता को विचार में लेकर ज्ञानक्षेत्र के सिद्धान्तों को मानना पड़ेगा।  
    
७. पश्चिम में शिक्षा बाजार के अधीन है क्योंकि उनकी जीवनशैली अर्थनिष्ठ है। भारत में एक अर्थनिष्ठा को उपालम्भ देने वाला सुभाषित है - <blockquote>यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः </blockquote><blockquote>सः पण्डितः सः श्रुतवान गुणज्ञः । </blockquote><blockquote>स एव वक्ता स च दर्शनीयः </blockquote><blockquote>सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ।। </blockquote>अर्थात्
 
७. पश्चिम में शिक्षा बाजार के अधीन है क्योंकि उनकी जीवनशैली अर्थनिष्ठ है। भारत में एक अर्थनिष्ठा को उपालम्भ देने वाला सुभाषित है - <blockquote>यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः </blockquote><blockquote>सः पण्डितः सः श्रुतवान गुणज्ञः । </blockquote><blockquote>स एव वक्ता स च दर्शनीयः </blockquote><blockquote>सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ।। </blockquote>अर्थात्
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८. पश्चिम में चर्च, राज्य, विज्ञान और प्रजा में परस्पर सामंजस्य नहीं है। चर्च की और विज्ञान की जीवनदृष्टि एकदूसरे से भिन्न हैं । चर्च की साम्प्रदायिक है, विज्ञान की भौतिक । राज्य कानून से चलता है, समाज करार व्यवस्था से । व्यक्ति और समाज के हित भी एकदूसरे से टकराते हैं। चर्च का विश्व आदम, हवा, पापपुण्य, ईश्वर और शैतान माफी और मुक्ति की कल्पना ओं से भरा हुआ है। विज्ञान का इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन और विविध प्रकार के संयोजनों की प्रक्रियाओं, गुरुत्वाकर्षणका तथा सापेक्षता का, उत्क्रान्ति का और एकरेखीय गति का सिद्धान्त लेकर कार्यरत है । राज्य सर्वत्र अधिसत्ता चाहता है और व्यक्ति व्यक्ति से बना समाज कामनाओं की पूर्ति । ऐसे अपनी अपनी दुनिया में मस्त, एकदूसरे को समझने की, समन्वय करने की स्वीकार करने की परवाह नहीं करने वाली प्रजा का राष्ट्र कैसे बन सकता है ? ब्रिटीशों के सिखाने से भारत के शिक्षित शिरोमणी कहते थे कि 'वी आर अ नेशन इन मेकिंग - हम अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं। परन्तु पश्चिम की ओर देखकर लगता है कि उन्हें तो राष्ट्र की संकल्पना की गन्ध तक नहीं है। भारत में तो अबोध शिशु भी पूर्वजन्मों के पुण्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का संस्कार लिये हुए होता है और वहाँ पूरी की पूरी प्रजा राष्ट्र संकल्पना से अनभिज्ञ है। ऐसी स्थिति में भारत पश्चिम की चिन्ता करे यह अपेक्षित है। परन्तु यह चिन्ता एक शिक्षक जैसी अथवा वैद्य जैसी होनी चाहिये । रुग्ण की चिकित्सा करते समय वैद्य रुग्ण के धन का, सत्ता का , उससे मिलने वाले लाभ का विचार नहीं करता, न सत्ता या धन से दबता या डरता है, वह रु ग्ण की बात नहीं मानता, अपनी बुद्धि पर विश्वास कर दृढतापूर्वक चिकित्सा करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी की अथवा उसके अभिभावक की सत्ता या धन नहीं देखता अपितु विद्यार्थी की बुद्धि, व्यवहार, भावना के अनुसार पात्रता देखता है और शिक्षायोजना करता है । उसी प्रकार पश्चिम का बल, सत्ता, अहंकार, चमकदमक आदि से प्रभावित हुए बिना, दबे बिना, सत्य और धर्म का, करुणा और दया का आश्रय लेकर पश्चिम के लिये शिक्षा योजना बनानी चाहिये।
 
८. पश्चिम में चर्च, राज्य, विज्ञान और प्रजा में परस्पर सामंजस्य नहीं है। चर्च की और विज्ञान की जीवनदृष्टि एकदूसरे से भिन्न हैं । चर्च की साम्प्रदायिक है, विज्ञान की भौतिक । राज्य कानून से चलता है, समाज करार व्यवस्था से । व्यक्ति और समाज के हित भी एकदूसरे से टकराते हैं। चर्च का विश्व आदम, हवा, पापपुण्य, ईश्वर और शैतान माफी और मुक्ति की कल्पना ओं से भरा हुआ है। विज्ञान का इलैक्ट्रोन, न्यूट्रोन, प्रोटोन और विविध प्रकार के संयोजनों की प्रक्रियाओं, गुरुत्वाकर्षणका तथा सापेक्षता का, उत्क्रान्ति का और एकरेखीय गति का सिद्धान्त लेकर कार्यरत है । राज्य सर्वत्र अधिसत्ता चाहता है और व्यक्ति व्यक्ति से बना समाज कामनाओं की पूर्ति । ऐसे अपनी अपनी दुनिया में मस्त, एकदूसरे को समझने की, समन्वय करने की स्वीकार करने की परवाह नहीं करने वाली प्रजा का राष्ट्र कैसे बन सकता है ? ब्रिटीशों के सिखाने से भारत के शिक्षित शिरोमणी कहते थे कि 'वी आर अ नेशन इन मेकिंग - हम अभी राष्ट्र बनने की प्रक्रिया में से गुजर रहे हैं। परन्तु पश्चिम की ओर देखकर लगता है कि उन्हें तो राष्ट्र की संकल्पना की गन्ध तक नहीं है। भारत में तो अबोध शिशु भी पूर्वजन्मों के पुण्यों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का संस्कार लिये हुए होता है और वहाँ पूरी की पूरी प्रजा राष्ट्र संकल्पना से अनभिज्ञ है। ऐसी स्थिति में भारत पश्चिम की चिन्ता करे यह अपेक्षित है। परन्तु यह चिन्ता एक शिक्षक जैसी अथवा वैद्य जैसी होनी चाहिये । रुग्ण की चिकित्सा करते समय वैद्य रुग्ण के धन का, सत्ता का , उससे मिलने वाले लाभ का विचार नहीं करता, न सत्ता या धन से दबता या डरता है, वह रु ग्ण की बात नहीं मानता, अपनी बुद्धि पर विश्वास कर दृढतापूर्वक चिकित्सा करता है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी की अथवा उसके अभिभावक की सत्ता या धन नहीं देखता अपितु विद्यार्थी की बुद्धि, व्यवहार, भावना के अनुसार पात्रता देखता है और शिक्षायोजना करता है । उसी प्रकार पश्चिम का बल, सत्ता, अहंकार, चमकदमक आदि से प्रभावित हुए बिना, दबे बिना, सत्य और धर्म का, करुणा और दया का आश्रय लेकर पश्चिम के लिये शिक्षा योजना बनानी चाहिये।
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[[Category:Education Series]]
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[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 4: भारत की भूमिका]]

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