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{{One source|date=April 2021}}
 
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== '''शोध की आवश्यकता''' ==
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== शोध की आवश्यकता ==
 
अज्ञात सत्य को खोजना ही शोध कार्य कहलाता है<ref>दिलीप केलकर, भारतीय शिक्षण मंच</ref>। शोध करने का अर्थ जिसे अंग्रेजी में '''‘'''री-इन्व्हेंटिंग द व्हील'''’''' याने फिर से पहिये की खोज नहीं होता। वर्तमान में जो लोगों के संज्ञान में है उस से अलग हट कर कुछ नया और उपयुक्त निर्माण करना, शोध कार्य की प्रेरणा होती है।  
 
अज्ञात सत्य को खोजना ही शोध कार्य कहलाता है<ref>दिलीप केलकर, भारतीय शिक्षण मंच</ref>। शोध करने का अर्थ जिसे अंग्रेजी में '''‘'''री-इन्व्हेंटिंग द व्हील'''’''' याने फिर से पहिये की खोज नहीं होता। वर्तमान में जो लोगों के संज्ञान में है उस से अलग हट कर कुछ नया और उपयुक्त निर्माण करना, शोध कार्य की प्रेरणा होती है।  
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भारत ने कभी भी विचार किया है तो विश्व के हित का ही वह विचार रहा है। इस दृष्टि से भारतीय विचार क्षेत्र पुन: भारतीय पद्धति से विचार करे और विश्व में अग्रणी भी बने यह आवश्यक है। और भारत को फिर से यदि अग्रणी बनाना हो तो भारतीय शोध क्षेत्र के सम्भ्रम को और ग़ुलामी की मानसिकता को दूर करने का तथा इस क्षेत्र को भारतकेंद्री दृष्टि से व्याप्त बनाने का विचार, अत्यंत प्रासंगिक है।  
 
भारत ने कभी भी विचार किया है तो विश्व के हित का ही वह विचार रहा है। इस दृष्टि से भारतीय विचार क्षेत्र पुन: भारतीय पद्धति से विचार करे और विश्व में अग्रणी भी बने यह आवश्यक है। और भारत को फिर से यदि अग्रणी बनाना हो तो भारतीय शोध क्षेत्र के सम्भ्रम को और ग़ुलामी की मानसिकता को दूर करने का तथा इस क्षेत्र को भारतकेंद्री दृष्टि से व्याप्त बनाने का विचार, अत्यंत प्रासंगिक है।  
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'''अंग्रेजी शासन का प्रभाव  '''
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== अंग्रेजी शासन का प्रभाव ''' ''' ==
 
   
अंग्रेजों के लिए हम भारतीय जितना अधिक अंग्रेजों के अंधानुगामी बनेंगे उतना बनना इष्ट था। हम भारतीय जितने विभाजित रहेंगे''',''' संगठनहीन रहेंगे उतना आवश्यक था''',''' जितने आत्मविश्वासहीन रहेंगे उतना आवश्यक था''',''' जितने अधिक अंग्रेज़ियत में रंगेंगे उतना अधिक वांछनीय था। इस लिए अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर उनके जीवन का याने अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया। समाज की विश्व निर्माण की मान्यता, इस मान्यता के कारण बनी जीवन की ओर देखने की जीवन दृष्टि, जीवन दृष्टि के अनुसार बने जीवनशैली (व्यवहार सूत्र), सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं और श्रेष्ठ व्यवस्थाओं के अनुकूल और अनुरूप श्रेष्ठ सामाजिक संगठन, इन सब को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। इस के बाहर उस समाज के जीवन का कुछ भी नहीं होता। हमारी सृष्टि निर्माण की मान्यता, जीवनदृष्टि, जीवनशैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अभारतीय बन गये हैं। सामाजिक संगठन नष्टप्राय हो गया है। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो भारतीय जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अभारतीय जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो शायद ही कोई लोग भारतीय जीवनदृष्टि से ठीक से परिचित होंगे। जब जीवनदृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो भारतीय जीवनशैली, जीवन की व्यवस्थाओं और सामाजिक संगठन की समझ की उन से अपेक्षा नहीं की जा सकती।  
 
अंग्रेजों के लिए हम भारतीय जितना अधिक अंग्रेजों के अंधानुगामी बनेंगे उतना बनना इष्ट था। हम भारतीय जितने विभाजित रहेंगे''',''' संगठनहीन रहेंगे उतना आवश्यक था''',''' जितने आत्मविश्वासहीन रहेंगे उतना आवश्यक था''',''' जितने अधिक अंग्रेज़ियत में रंगेंगे उतना अधिक वांछनीय था। इस लिए अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर उनके जीवन का याने अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया। समाज की विश्व निर्माण की मान्यता, इस मान्यता के कारण बनी जीवन की ओर देखने की जीवन दृष्टि, जीवन दृष्टि के अनुसार बने जीवनशैली (व्यवहार सूत्र), सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं और श्रेष्ठ व्यवस्थाओं के अनुकूल और अनुरूप श्रेष्ठ सामाजिक संगठन, इन सब को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। इस के बाहर उस समाज के जीवन का कुछ भी नहीं होता। हमारी सृष्टि निर्माण की मान्यता, जीवनदृष्टि, जीवनशैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अभारतीय बन गये हैं। सामाजिक संगठन नष्टप्राय हो गया है। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो भारतीय जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अभारतीय जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढी के तो शायद ही कोई लोग भारतीय जीवनदृष्टि से ठीक से परिचित होंगे। जब जीवनदृष्टि से ही युवा पीढी अपरिचित है तो भारतीय जीवनशैली, जीवन की व्यवस्थाओं और सामाजिक संगठन की समझ की उन से अपेक्षा नहीं की जा सकती।  
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इस लिए हमारी शोध दृष्टि आज भी अंग्रेजों की भारत के संबंध में शोध की जो दृष्टि थी, वही है।  
 
इस लिए हमारी शोध दृष्टि आज भी अंग्रेजों की भारत के संबंध में शोध की जो दृष्टि थी, वही है।  
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'''भारतीय विचार क्षेत्र में संभ्रम और हीनता बोध'''
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== भारतीय विचार क्षेत्र में संभ्रम और हीनता बोध ==
 
   
जिन पर भारत का शोध क्षेत्र निर्भर है ऐसे विचार के क्षेत्र में काम करनेवाले हिंदुत्ववादियों की स्थिति को समझना उचित होगा। इन में कुछ लोग हैं जो भारतीय चिंतन से अच्छी तरह से परिचित हैं लेकिन यूरो अमरीकी ज्ञानधारा से अपरिचित हैं। इस कारण गंभीर विमर्ष के समय उन्हें मौन रहना पड़ता है। कुछ ऐसे हैं जो अभिमान तो भारतीय ज्ञानधारा का सँजोते हैं लेकिन भारतीयता की श्रेष्ठता के बारे में कुछ नहीं जानते। ये किसी विमर्ष का हिस्सा बन नहीं सकते। कुछ लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार हैं लेकिन इन शास्त्रों के ज्ञान के युगानुकूल स्वरूप का उन्हों ने चिंतन नहीं किया है। गंभीर और सार्वजनिक विमर्ष में ये अपना पक्ष ठीक से नहीं रख पाते। कुछ ऐसे भी हैं जो भारतीय और अभारतीय दोनों ज्ञानधाराओं के जानकार हैं लेकिन उन में मुखर होकर कठमुल्लों को चुनौति देने की हिम्मत नहीं होती। ये भी विमर्ष से दूर ही रहते हैं।  
 
जिन पर भारत का शोध क्षेत्र निर्भर है ऐसे विचार के क्षेत्र में काम करनेवाले हिंदुत्ववादियों की स्थिति को समझना उचित होगा। इन में कुछ लोग हैं जो भारतीय चिंतन से अच्छी तरह से परिचित हैं लेकिन यूरो अमरीकी ज्ञानधारा से अपरिचित हैं। इस कारण गंभीर विमर्ष के समय उन्हें मौन रहना पड़ता है। कुछ ऐसे हैं जो अभिमान तो भारतीय ज्ञानधारा का सँजोते हैं लेकिन भारतीयता की श्रेष्ठता के बारे में कुछ नहीं जानते। ये किसी विमर्ष का हिस्सा बन नहीं सकते। कुछ लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार हैं लेकिन इन शास्त्रों के ज्ञान के युगानुकूल स्वरूप का उन्हों ने चिंतन नहीं किया है। गंभीर और सार्वजनिक विमर्ष में ये अपना पक्ष ठीक से नहीं रख पाते। कुछ ऐसे भी हैं जो भारतीय और अभारतीय दोनों ज्ञानधाराओं के जानकार हैं लेकिन उन में मुखर होकर कठमुल्लों को चुनौति देने की हिम्मत नहीं होती। ये भी विमर्ष से दूर ही रहते हैं।  
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यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अभारतीय शिक्षा और ऐसी शिक्षा की माँग करनेवाली जीवन की अभारतीय व्यवस्थाओं के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है। (संदर्भ : भारतीय विद्या भवन प्रकाशित व्हॉट इंडिया शुड नो)। भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।       
 
यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अभारतीय शिक्षा और ऐसी शिक्षा की माँग करनेवाली जीवन की अभारतीय व्यवस्थाओं के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है। (संदर्भ : भारतीय विद्या भवन प्रकाशित व्हॉट इंडिया शुड नो)। भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।       
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'''एँथ्रॉपॉलॉजी के तहत् शोध कार्य'''
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== एँथ्रॉपॉलॉजी के तहत् शोध कार्य ==
 
   
एँथ्रॉपॉलॉजी''',''' जीतने वाले समाज के द्वारा किए जा रहे, मृत समाज या जीते गए मानव समाज के अध्ययन की एक शाखा है। अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुए उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “पराधीन, पराजित और विखंडित समाज” इस अध्ययन की विषयवस्तु होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने ही समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु भारतीय समाज के विद्वान हीनता बोध और वैचारिक संभ्रम के कारण अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी की दृष्टि के अनुसार किये जा रहे हैं। (धर्मपाल - भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १४)| आज भारत में यह सब अध्ययन भारतीय दृष्टि से नहीं तो यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं। इस का चोटी का उदाहरण (भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १५) धर्मपाल देते हैं। वह है, २० वी शताब्दी के एक श्रेष्ठ भारतीय मनीषी द्वारा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के विभागों के आधार पर पुरूष सूक्त का श्रेष्ठत्व समझाना। धर्मपाल आगे बताते हैं कि ऐसे सब काम बुध्दिमत्ता के तो होते है। किन्तु इस का कोई लाभ भारत को या भारतीय समाज को नहीं मिलता। उनका कथन यह एक विदारक सत्य ही है। ये सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावि भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप काल के प्रवाह में या ऐतिहासिक कारणों से बिगड़ी हुई इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही उस से श्रेष्ठ किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देश्य नहीं है। वास्तव में नयी व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुध्दिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम एँथ्रॉपॉलॉजी की शोध दृष्टि के कारण ठीक ऐसा ही कर रहे हैं।  
 
एँथ्रॉपॉलॉजी''',''' जीतने वाले समाज के द्वारा किए जा रहे, मृत समाज या जीते गए मानव समाज के अध्ययन की एक शाखा है। अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुए उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “पराधीन, पराजित और विखंडित समाज” इस अध्ययन की विषयवस्तु होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने ही समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु भारतीय समाज के विद्वान हीनता बोध और वैचारिक संभ्रम के कारण अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी की दृष्टि के अनुसार किये जा रहे हैं। (धर्मपाल - भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १४)| आज भारत में यह सब अध्ययन भारतीय दृष्टि से नहीं तो यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं। इस का चोटी का उदाहरण (भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १५) धर्मपाल देते हैं। वह है, २० वी शताब्दी के एक श्रेष्ठ भारतीय मनीषी द्वारा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के विभागों के आधार पर पुरूष सूक्त का श्रेष्ठत्व समझाना। धर्मपाल आगे बताते हैं कि ऐसे सब काम बुध्दिमत्ता के तो होते है। किन्तु इस का कोई लाभ भारत को या भारतीय समाज को नहीं मिलता। उनका कथन यह एक विदारक सत्य ही है। ये सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावि भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप काल के प्रवाह में या ऐतिहासिक कारणों से बिगड़ी हुई इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही उस से श्रेष्ठ किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देश्य नहीं है। वास्तव में नयी व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुध्दिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम एँथ्रॉपॉलॉजी की शोध दृष्टि के कारण ठीक ऐसा ही कर रहे हैं।  
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'''आधुनिक या नये का बोलबाला'''
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== आधुनिक या नये का बोलबाला ==
 
   
आधुनिक या नए के संदर्भ में वर्तमान का सटीक वर्णन टेनिसन की एक कविता की पंक्तियों में मिलता है। ये पंक्तियाँ अभारतीय जीवनदृष्टि का एक और पहलू स्पष्ट करती है।  
 
आधुनिक या नए के संदर्भ में वर्तमान का सटीक वर्णन टेनिसन की एक कविता की पंक्तियों में मिलता है। ये पंक्तियाँ अभारतीय जीवनदृष्टि का एक और पहलू स्पष्ट करती है।  
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इस लिए हमारे शोध क्षेत्र के लिए न तो एँथ्रॉपॉलॉजी की दृष्टि मान्य है और न ही केवल नया है इस लिए उस का स्वीकार और केवल पुराना है उस का बहिष्कार की दृष्टि ही मान्य है।  
 
इस लिए हमारे शोध क्षेत्र के लिए न तो एँथ्रॉपॉलॉजी की दृष्टि मान्य है और न ही केवल नया है इस लिए उस का स्वीकार और केवल पुराना है उस का बहिष्कार की दृष्टि ही मान्य है।  
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'''साईंटिफिक टेम्परामेंट का आतंक'''
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== साईंटिफिक टेम्परामेंट का आतंक ==
 
   
वर्तमान में साईंटिफिक टेम्परामेंट जिसे हम गलती से वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, को अनन्य साधारण महत्व प्राप्त हो गया है। जीवन के किसी भी पहलू से जुडी कोई भी बात हो उसे साईंस की कसौटि पर तोला जाता है। वर्तमान में जिसे साईंस कहा जाता है वह मुख्यत: पंचमहाभौतिक तत्वों से संबंध रखता है। इन पंचमहाभूतों से संबंधित जो भी सिध्दांत साईंटिस्टों ने प्रस्तुत किये हैं, सामान्यत: तो वे सत्य ही हैं। पंचमहाभूतों के संबंध में तो कसौटि साईंस के नियमों के आधार पर लगाई जाये यह सामान्यत: तो उचित है। किन्तु विश्व केवल पंचमहाभूतों से ही नहीं बना। अन्य भी कुछ घटक मिलकर विश्व का निर्माण हुआ है। इस कारण से सृष्टि की कई बातों के लिए वर्तमान की साईंस की कसौटियाँ लगाना न केवल ग़लत है, हानिकारक भी है। मन, बुध्दि, अहंकार जैसी अनुभवजन्य बातों के लिये जो सामान्य पंचमहाभूतों से अति सूक्ष्म है उन के लिये और जीवात्मा तथा परमात्मा जैसी अनूभूतिजन्य बातों के लिये साईंस की कसौटियाँ लागू नहीं होतीं। किन्तु सामान्यत: आज के साईंटिस्ट यह समझते नहीं हैं।  
 
वर्तमान में साईंटिफिक टेम्परामेंट जिसे हम गलती से वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, को अनन्य साधारण महत्व प्राप्त हो गया है। जीवन के किसी भी पहलू से जुडी कोई भी बात हो उसे साईंस की कसौटि पर तोला जाता है। वर्तमान में जिसे साईंस कहा जाता है वह मुख्यत: पंचमहाभौतिक तत्वों से संबंध रखता है। इन पंचमहाभूतों से संबंधित जो भी सिध्दांत साईंटिस्टों ने प्रस्तुत किये हैं, सामान्यत: तो वे सत्य ही हैं। पंचमहाभूतों के संबंध में तो कसौटि साईंस के नियमों के आधार पर लगाई जाये यह सामान्यत: तो उचित है। किन्तु विश्व केवल पंचमहाभूतों से ही नहीं बना। अन्य भी कुछ घटक मिलकर विश्व का निर्माण हुआ है। इस कारण से सृष्टि की कई बातों के लिए वर्तमान की साईंस की कसौटियाँ लगाना न केवल ग़लत है, हानिकारक भी है। मन, बुध्दि, अहंकार जैसी अनुभवजन्य बातों के लिये जो सामान्य पंचमहाभूतों से अति सूक्ष्म है उन के लिये और जीवात्मा तथा परमात्मा जैसी अनूभूतिजन्य बातों के लिये साईंस की कसौटियाँ लागू नहीं होतीं। किन्तु सामान्यत: आज के साईंटिस्ट यह समझते नहीं हैं।  
    
वास्तव में भारतीय शास्त्रों के ज्ञाता जब वर्तमान साईंस का भी ठीक अध्ययन कर दोनों की संतुलित विश्लेषणात्मक प्रस्तुति करेंगे तब कसौटी की समस्या दूर होगी। साईंस की कसौटि की समस्या दूर होने के साथ ही वर्तमान में (लगभग सन १९८७-१९८८ से) साईंस के विकास का का मार्ग जो आज पंचमहाभौतिक में उलझ जाने के कारण अवरूध्द हुआ है, वह भी प्रशस्त होगा। वैसे तो एस्ट्रो फिजिक्स या पार्टिकल फिजिक्स जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले वैज्ञानिक अपने प्रगत प्रयोगों के माध्यम से पंचमहाभौतिक से आगे मन और बुद्धि के क्षेत्र में विचार करने को बाध्य हो रहे हैं। आईन्स्टीन, नील बोर, हायज़ेनबर्ग, व्हीलर आदि केवल साईंटिस्ट नहीं थे। वे कुछ मात्रा में वैज्ञानिक भी थे। उन के चिंतन को मानने वाले साईंटिस्ट वैज्ञानिक बनने का प्रयास कर रहे हैं। ये साईंटिस्ट भारतीय दर्शनों में साईंस को आगे बढाने की सम्भावनाएँ देखते हैं। उन के लिये भी ऐसा संतुलित, समग्र और बुध्दियुक्त विश्लेषण लाभदायी होगा।  
 
वास्तव में भारतीय शास्त्रों के ज्ञाता जब वर्तमान साईंस का भी ठीक अध्ययन कर दोनों की संतुलित विश्लेषणात्मक प्रस्तुति करेंगे तब कसौटी की समस्या दूर होगी। साईंस की कसौटि की समस्या दूर होने के साथ ही वर्तमान में (लगभग सन १९८७-१९८८ से) साईंस के विकास का का मार्ग जो आज पंचमहाभौतिक में उलझ जाने के कारण अवरूध्द हुआ है, वह भी प्रशस्त होगा। वैसे तो एस्ट्रो फिजिक्स या पार्टिकल फिजिक्स जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले वैज्ञानिक अपने प्रगत प्रयोगों के माध्यम से पंचमहाभौतिक से आगे मन और बुद्धि के क्षेत्र में विचार करने को बाध्य हो रहे हैं। आईन्स्टीन, नील बोर, हायज़ेनबर्ग, व्हीलर आदि केवल साईंटिस्ट नहीं थे। वे कुछ मात्रा में वैज्ञानिक भी थे। उन के चिंतन को मानने वाले साईंटिस्ट वैज्ञानिक बनने का प्रयास कर रहे हैं। ये साईंटिस्ट भारतीय दर्शनों में साईंस को आगे बढाने की सम्भावनाएँ देखते हैं। उन के लिये भी ऐसा संतुलित, समग्र और बुध्दियुक्त विश्लेषण लाभदायी होगा।  
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'''विज्ञान की ‘भारतीय’ अवधारणा'''
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== विज्ञान की ‘भारतीय’ अवधारणा ==
 
   
श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का नाम ही ज्ञान-विज्ञान योग है। इस में श्लोक ४ और ५ में की हुई विज्ञान और अध्यात्म की सोच निम्न है।
 
श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का नाम ही ज्ञान-विज्ञान योग है। इस में श्लोक ४ और ५ में की हुई विज्ञान और अध्यात्म की सोच निम्न है।
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अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्त्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। संस्कृत में सूक्ष्म का अर्थ होता है बलवान और व्यापक। पंचमहाभूतों से बनीं इंद्रियाँ स्थूल पाँच महाभूतों से तो सूक्ष्म हैं किन्तु मन उन से भी अत्यंत सूक्ष्म है। बुद्धि मन से और वह (आत्म तत्त्व) तो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है उस की मापन पट्टी से तो जो उस से स्थूल है उस का कदाचित मापन किया जा सकता है, किन्तु जो उस से अधिक सूक्ष्म है उस का मापन नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से आत्म तत्त्व की मापन पट्टी से बुद्धि, मन और इंद्रियों का, बुद्धि की मापन पट्टी से मन और इंद्रियों का और मन की मापन पट्टी से इंद्रियों का और इंद्रियों की मापन पट्टी से स्थूल पंचमहाभूतों का मापन (लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, भार याने वजन आदि) किया जा सकता है। किन्तु इस से उलट नहीं किया जा सकता। भौतिक उपकरणों से इंद्रिय, मन, बुद्धि और आत्म तत्व आदि के व्यापारों का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान साईंस के मापन के जो उपकरण हैं वे प्रकृति के पंचमहाभौतिक घटकों का तो मापन कर सकते है। कुछ उपकरण कुछ अधिक सूक्ष्मता से भी अध्ययन के लिए बने हैं। लेकिन फिर भी वे पंचमहाभौतिक पदार्थों से बने होने के कारण उन की मापन क्षमता की मर्यादा है। वे मन, बुद्धि, आत्मा आदि अति और अति-अति सूक्ष्म घटकों का मापन नहीं कर सकते| आत्मा जिस परमात्मा का अंश है उसे जानने का क्षेत्र अध्यात्म का क्षेत्र है। इस विषय की चर्चा हम आगे ‘प्रमाण की समस्या का समाधान’ में करेंगे।
 
अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्त्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। संस्कृत में सूक्ष्म का अर्थ होता है बलवान और व्यापक। पंचमहाभूतों से बनीं इंद्रियाँ स्थूल पाँच महाभूतों से तो सूक्ष्म हैं किन्तु मन उन से भी अत्यंत सूक्ष्म है। बुद्धि मन से और वह (आत्म तत्त्व) तो बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है उस की मापन पट्टी से तो जो उस से स्थूल है उस का कदाचित मापन किया जा सकता है, किन्तु जो उस से अधिक सूक्ष्म है उस का मापन नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से आत्म तत्त्व की मापन पट्टी से बुद्धि, मन और इंद्रियों का, बुद्धि की मापन पट्टी से मन और इंद्रियों का और मन की मापन पट्टी से इंद्रियों का और इंद्रियों की मापन पट्टी से स्थूल पंचमहाभूतों का मापन (लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, भार याने वजन आदि) किया जा सकता है। किन्तु इस से उलट नहीं किया जा सकता। भौतिक उपकरणों से इंद्रिय, मन, बुद्धि और आत्म तत्व आदि के व्यापारों का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान साईंस के मापन के जो उपकरण हैं वे प्रकृति के पंचमहाभौतिक घटकों का तो मापन कर सकते है। कुछ उपकरण कुछ अधिक सूक्ष्मता से भी अध्ययन के लिए बने हैं। लेकिन फिर भी वे पंचमहाभौतिक पदार्थों से बने होने के कारण उन की मापन क्षमता की मर्यादा है। वे मन, बुद्धि, आत्मा आदि अति और अति-अति सूक्ष्म घटकों का मापन नहीं कर सकते| आत्मा जिस परमात्मा का अंश है उसे जानने का क्षेत्र अध्यात्म का क्षेत्र है। इस विषय की चर्चा हम आगे ‘प्रमाण की समस्या का समाधान’ में करेंगे।
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'''वर्तमान साईंस के विकास की पृष्ठभूमि'''
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== वर्तमान साईंस के विकास की पृष्ठभूमि ==
 
   
वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुआ है। इस विकास के मार्ग में कट्टरपंथी ईसाई मत के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट झेलने पडे हैं। ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। अल्प काल में ही साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। हालाँ की इस प्रौद्योगिकी में हुई तेज प्रगति का एक कारण साईंस के क्षेत्र में ‘पाँच महाभूतों को छोड़ कर सृष्टि में कुछ भी नहीं है’ ऐसी अड़ियल भूमिका के कारण निर्माण हुआ अवरोध भी है।  
 
वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुआ है। इस विकास के मार्ग में कट्टरपंथी ईसाई मत के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट झेलने पडे हैं। ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी। फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। अल्प काल में ही साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। हालाँ की इस प्रौद्योगिकी में हुई तेज प्रगति का एक कारण साईंस के क्षेत्र में ‘पाँच महाभूतों को छोड़ कर सृष्टि में कुछ भी नहीं है’ ऐसी अड़ियल भूमिका के कारण निर्माण हुआ अवरोध भी है।  
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साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत भी साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है।  
 
साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत भी साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है।  
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'''अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान'''
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== अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ==
 
   
आजकल वर्तमान अभारतीय शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवनदृष्टि के अनुसार कहा गया है '''<nowiki/>'<nowiki/>'''ना मूलं लिख्यते किंचित'''<nowiki/>''''। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के''',''' का अर्थ है जो प्रमाणित सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। अज्ञानी लेकिन लिखना जानने वाले हमने बहुत बड़ी संख्या में निर्माण किये हैं। लिखना जानने वाले लोग कुछ भी लिख सकते हैं। व्यक्ति स्वतंत्रता की विकृत लेकिन समाज में व्याप्त समझ के कारण उन्हें रोका नहीं जा सकता। लेकिन केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में छप जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।  
 
आजकल वर्तमान अभारतीय शिक्षा के परिणाम स्वरूप और लिखने पढने का ज्ञान हो जाने से लोगों को लगने लगा है कि लिखा है और उससे भी अधिक जो छपा है वह सत्य ही होगा। भारतीय जीवनदृष्टि के अनुसार कहा गया है '''<nowiki/>'<nowiki/>'''ना मूलं लिख्यते किंचित'''<nowiki/>''''। इस का अर्थ है बगैर प्रमाण के कुछ नहीं लिखना। बगैर प्रमाण के''',''' का अर्थ है जो प्रमाणित सत्य नहीं है उसे नहीं लिखना। अज्ञानी लेकिन लिखना जानने वाले हमने बहुत बड़ी संख्या में निर्माण किये हैं। लिखना जानने वाले लोग कुछ भी लिख सकते हैं। व्यक्ति स्वतंत्रता की विकृत लेकिन समाज में व्याप्त समझ के कारण उन्हें रोका नहीं जा सकता। लेकिन केवल कहीं किसी ने कुछ लिख देने से या किसी वर्तमान पत्र में या पुस्तक में छप जाने से उसे सत्य नहीं माना जा सकता।  
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केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता। और विवेक का याने सत्य को जानने की क्षमता का लिखना आने से कोई सम्बन्ध नहीं है।  
 
केवल लिखना पढना आ जाने से वर्तमान पत्र या पुस्तक पढना तो आ जाएगा। किन्तु केवल उतने मात्र से सामान्य मनुष्य सत्य नहीं जान सकता। और विवेक का याने सत्य को जानने की क्षमता का लिखना आने से कोई सम्बन्ध नहीं है।  
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अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का या मार्गदर्शन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। इस लिए प्रश्न तो रह ही जाता है कि फिर प्रमाण का अधिष्ठान क्या है'''?'''
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अध्ययन और अनुसंधान के क्षेत्र में काम करनेवालों के लिये श्रेष्ठ जनों का जीवन या व्यवहार एक अध्ययन का या मार्गदर्शन का विषय बन सकता है किन्तु प्रमाण का विषय नहीं। इस लिए प्रश्न तो रह ही जाता है कि फिर प्रमाण का अधिष्ठान क्या है'''?'''
 
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'''सत्य जानने के तरीके'''
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== सत्य जानने के तरीके ==
 
सत्य समझने का साधन प्रमाण है। प्रमाण चार प्रकार के माने गए हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द या शास्त्र वचन। न्याय दर्शन का सूत्र है -               
 
सत्य समझने का साधन प्रमाण है। प्रमाण चार प्रकार के माने गए हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द या शास्त्र वचन। न्याय दर्शन का सूत्र है -               
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सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष दर्शन या अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।  
 
सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष दर्शन या अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।  
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'''शास्त्र की परिभाषा'''
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== शास्त्र की परिभाषा ==
 
   
श्रेष्ठ मीमांसक कुमारिल भट्ट अपने श्लोक वार्तिक में शास्त्र को निम्न शब्दों में परिभाषित करते हैं।
 
श्रेष्ठ मीमांसक कुमारिल भट्ट अपने श्लोक वार्तिक में शास्त्र को निम्न शब्दों में परिभाषित करते हैं।
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अर्थ: किसी विषय के ज्ञान को अनुशासन में बांध कर की हुई प्रस्तुति ही शास्त्र है। भारतीय परम्परा में यह अनुशासन ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन: सर्वे संतु निरामया:’ का रहा है। अर्थात् जब ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन:’ के अनुशासन में बांध कर याने चराचर के हित में किसी विषय के ज्ञान का उपयोग कैसे करना चाहिए इस दृष्टि से प्रस्तुति की जाती है तब वह अनुशासित ज्ञान ‘शास्त्र’ कहलाता है।   
 
अर्थ: किसी विषय के ज्ञान को अनुशासन में बांध कर की हुई प्रस्तुति ही शास्त्र है। भारतीय परम्परा में यह अनुशासन ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन: सर्वे संतु निरामया:’ का रहा है। अर्थात् जब ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन:’ के अनुशासन में बांध कर याने चराचर के हित में किसी विषय के ज्ञान का उपयोग कैसे करना चाहिए इस दृष्टि से प्रस्तुति की जाती है तब वह अनुशासित ज्ञान ‘शास्त्र’ कहलाता है।   
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'''शास्त्र की प्रस्तुति का अधिकार     '''  
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=== शास्त्र की प्रस्तुति का अधिकार '''    ''' ===
 
   
किसी भी विद्वान ने लिखी बात को शास्त्र के रूप में मान्यता नहीं मिलती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसे व्यक्ति ने ध्यानावस्था में जो प्रस्तुति की होती है केवल उसी को शास्त्र कहते है। हजारों मूर्धन्य विद्वानों ने एकत्रित आकर भी की हुई प्रस्तुति शास्त्र नहीं हो सकती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त है ऐसे मनुष्य के समक्ष समूची सृष्टि एक खुले पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो जाती है। वह हर वस्तु को उस के आदि से लेकर अंत तक जान जाता है। अंतर्बाह्य जान जाता है। इस लिये उस की प्रस्तुति त्रिकालाबाधित सत्य होती है।  
 
किसी भी विद्वान ने लिखी बात को शास्त्र के रूप में मान्यता नहीं मिलती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त हुई है ऐसे व्यक्ति ने ध्यानावस्था में जो प्रस्तुति की होती है केवल उसी को शास्त्र कहते है। हजारों मूर्धन्य विद्वानों ने एकत्रित आकर भी की हुई प्रस्तुति शास्त्र नहीं हो सकती। जिसे ध्यानावस्था प्राप्त है ऐसे मनुष्य के समक्ष समूची सृष्टि एक खुले पुस्तक के रूप में प्रस्तुत हो जाती है। वह हर वस्तु को उस के आदि से लेकर अंत तक जान जाता है। अंतर्बाह्य जान जाता है। इस लिये उस की प्रस्तुति त्रिकालाबाधित सत्य होती है।  
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'''प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान - प्रस्थान त्रयी'''
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=== प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान - प्रस्थान त्रयी ===
 
   
भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण हैं। वेद की ऋचाएँ तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है| लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त दर्शन की अनुभूति की उन ऋषियों द्वारा की हुई अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। सामान्य विद्वान की बुद्धि के स्तर की ये सब रचनाएँ नहीं है। यह एक ऋषि की प्रस्तुति नहीं है। ‘ऋषि दर्शनात्’ ऐसी ऋषि की परिभाषा है। वेद ज्ञान तो पहले से ही था। जिसने वेद ज्ञान का दर्शन किया वे ऋषि कहलाए। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है''',''' स्वत: प्रमाण भी माना जाता है।  
 
भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण हैं। वेद की ऋचाएँ तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है| लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त दर्शन की अनुभूति की उन ऋषियों द्वारा की हुई अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। सामान्य विद्वान की बुद्धि के स्तर की ये सब रचनाएँ नहीं है। यह एक ऋषि की प्रस्तुति नहीं है। ‘ऋषि दर्शनात्’ ऐसी ऋषि की परिभाषा है। वेद ज्ञान तो पहले से ही था। जिसने वेद ज्ञान का दर्शन किया वे ऋषि कहलाए। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है''',''' स्वत: प्रमाण भी माना जाता है।  
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वर्तमान में साईंस ने ये पराक्रम तो किए हैं, इसे कोई नकार नहीं सकता।  
 
वर्तमान में साईंस ने ये पराक्रम तो किए हैं, इसे कोई नकार नहीं सकता।  
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'''प्रमाण की समस्या का समाधान'''
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=== प्रमाण की समस्या का समाधान ===
 
   
प्रस्थान त्रयी के माध्यम से अध्यात्म''',''' भारतीय विज्ञान और साईंस का अंगांगी संबंध समझने से ही यह समस्या हल हो सकेगी।  
 
प्रस्थान त्रयी के माध्यम से अध्यात्म''',''' भारतीय विज्ञान और साईंस का अंगांगी संबंध समझने से ही यह समस्या हल हो सकेगी।  
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इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप में स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित समस्या का निराकरण होगा।  
 
इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप में स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित समस्या का निराकरण होगा।  
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'''संक्षेप में वर्तमान का वास्तव'''
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=== संक्षेप में वर्तमान का वास्तव ===
 
   
१) हीनता बोध के कारण पश्चिम की अधूरी बातों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। किन्तु भारतीय      शास्त्रों को प्रमाण नहीं माना जाता।
 
१) हीनता बोध के कारण पश्चिम की अधूरी बातों को भी प्रमाण मान लिया जाता है। किन्तु भारतीय      शास्त्रों को प्रमाण नहीं माना जाता।
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१०) बहुतांश विद्वानों की अब स्वामी विवेकानंद के मार्गदर्शन में श्रद्धा नहीं है। स्वामीजी कहते थे, ‘'''We should try to realize the Ideals rather than idealize the Real Things''' याने हमें जो आज व्यावहारिक है उसी को आदर्श न मान कर आदर्श को व्यवहार में लाना चाहिए।  
 
१०) बहुतांश विद्वानों की अब स्वामी विवेकानंद के मार्गदर्शन में श्रद्धा नहीं है। स्वामीजी कहते थे, ‘'''We should try to realize the Ideals rather than idealize the Real Things''' याने हमें जो आज व्यावहारिक है उसी को आदर्श न मान कर आदर्श को व्यवहार में लाना चाहिए।  
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'''शोध की भारतीय दिशा'''  
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== भारतीय शोध दृष्टि के आधार '''                        ''' ==
 
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भारतीय सदा ही वैश्विक ही होता है। शोध की भारतीय दिशा समूचे विश्व के लिए उपयुक्त है। उपर्युक्त परिस्थिति में शोध की वर्तमान अभारतीय सोच को बदलकर भारतीय सोच के अनुसार शोध की दिशा, दृष्टि, उद्देश्य, प्राथमिकताएँ, व्यापकता आदि तय करना भारत के साथ ही समूचे विश्व के लिए हितकारक होगा, प्रासंगिक होगा। भारतीय शोध का आधार प्रस्थान त्रयी है। इस लघु लेखन में प्रस्थान त्रयी की विस्तार से प्रस्तुति आवश्यक नहीं है। प्रस्थान त्रयी के सार के रूप में तीन तत्त्व उभरकर सामने आते हैं। पहला एकात्मता''',''' दूसरा समग्रता और तीसरा धर्म सर्वोपरि होना। इन तीनों को समझना आवश्यक है।  
भारतीय सदा ही वैश्विक ही होता है। शोध की भारतीय दिशा समूचे विश्व के लिए उपयुक्त है। उपर्युक्त परिस्थिति में शोध की वर्तमान अभारतीय सोच को बदलकर भारतीय सोच के अनुसार शोध की दिशा, दृष्टि, उद्देश्य, प्राथमिकताएँ, व्यापकता आदि तय करना भारत के साथ ही समूचे विश्व के लिए हितकारक होगा, प्रासंगिक होगा।  
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'''भारतीय शोध दृष्टि के आधार                         '''
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भारतीय शोध का आधार प्रस्थान त्रयी है। इस लघु लेखन में प्रस्थान त्रयी की विस्तार से प्रस्तुति आवश्यक नहीं है। प्रस्थान त्रयी के सार के रूप में तीन तत्त्व उभरकर सामने आते हैं। पहला एकात्मता''',''' दूसरा समग्रता और तीसरा धर्म सर्वोपरि होना। इन तीनों को समझना आवश्यक है।  
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'''एकात्मता और समग्रता की दृष्टि   '''
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=== एकात्मता और समग्रता की दृष्टि '''  ''' ===
 
चराचर में व्याप्त एकात्मता अनादि काल से भारतीय जीवन का आधार रहा है। इस एकात्मता की सहज व्यावहारिक अभिव्यक्ति ‘कुटुम्ब भावना’ है। भारतीय जीवन में कुटुम्ब भावना ओतप्रोत होती थी। बिल्ली मौसी होती थी। चूहा मामा होता था। चंद्रमा चंदामामा होता था। गाय माता होती थी। गंगा माता होती थी। तुलसी माता होती थी। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। राजा प्रजा का सम्बन्ध पिता पूत्र जैसा होता था। गुरू शिष्य का मानस पिता होता था। भाषण सुनने आए लोग ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों हुआ करते थे। लेकिन आज हमारा जीवन ऐसा है कि लगे जैसे हमने कुटुम्ब प्रणाली को ध्वस्त करने का संकल्प कर लिया है। हमारे गाँव बड़े कुटुम्ब हुआ करते थे। गावों को हम नष्ट करते जा रहे हैं या शहर बनाते जा रहें हैं। हमारा सारा जीवन अब कुटुम्ब भाव से नहीं ‘संकुचित स्वार्थों’ से ओतप्रोत हो गया है। ‘कुटुम्ब भावना’ के अभाव में चलने वाले शोध कार्य हमें ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन:’ से दूर ही ले जाएँगे।     
 
चराचर में व्याप्त एकात्मता अनादि काल से भारतीय जीवन का आधार रहा है। इस एकात्मता की सहज व्यावहारिक अभिव्यक्ति ‘कुटुम्ब भावना’ है। भारतीय जीवन में कुटुम्ब भावना ओतप्रोत होती थी। बिल्ली मौसी होती थी। चूहा मामा होता था। चंद्रमा चंदामामा होता था। गाय माता होती थी। गंगा माता होती थी। तुलसी माता होती थी। प्रजा का अर्थ ही संतान होता है। राजा प्रजा का सम्बन्ध पिता पूत्र जैसा होता था। गुरू शिष्य का मानस पिता होता था। भाषण सुनने आए लोग ‘मेरे प्रिय भाईयों और बहनों हुआ करते थे। लेकिन आज हमारा जीवन ऐसा है कि लगे जैसे हमने कुटुम्ब प्रणाली को ध्वस्त करने का संकल्प कर लिया है। हमारे गाँव बड़े कुटुम्ब हुआ करते थे। गावों को हम नष्ट करते जा रहे हैं या शहर बनाते जा रहें हैं। हमारा सारा जीवन अब कुटुम्ब भाव से नहीं ‘संकुचित स्वार्थों’ से ओतप्रोत हो गया है। ‘कुटुम्ब भावना’ के अभाव में चलने वाले शोध कार्य हमें ‘सर्वे भवन्तु सुख़िन:’ से दूर ही ले जाएँगे।     
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विभिन्न विषयों का परस्पर संबंध होता है। वह संबंध भी अंग और अंगी के स्वरूप का होता है। अंगांगी होता है। अंग का व्यवहार अंगी के हित के अविरोधी ही होना चाहिये। यह अंग और अंगी दोनों के हित में होता है। लेकिन हम धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कुटुम्ब व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदि व्यवस्थाओं के अंगांगी संबंध ध्यान में रखकर विचार नहीं करते। विभिन्न अध्ययन के विषयों में भी अंग और अंगी संबंध होता है। लेकिन हम इन संबंधों की उपेक्षा कर देते हैं। गणित, विज्ञान को समाज शास्त्र पर''',''' अर्थ व्यवस्था को समाज व्यवस्था पर वरीयता दे देते है। समग्रता से विचार करना अब हमारे स्वभाव में नहीं रहा।
 
विभिन्न विषयों का परस्पर संबंध होता है। वह संबंध भी अंग और अंगी के स्वरूप का होता है। अंगांगी होता है। अंग का व्यवहार अंगी के हित के अविरोधी ही होना चाहिये। यह अंग और अंगी दोनों के हित में होता है। लेकिन हम धर्म व्यवस्था, शासन व्यवस्था, कुटुम्ब व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था आदि व्यवस्थाओं के अंगांगी संबंध ध्यान में रखकर विचार नहीं करते। विभिन्न अध्ययन के विषयों में भी अंग और अंगी संबंध होता है। लेकिन हम इन संबंधों की उपेक्षा कर देते हैं। गणित, विज्ञान को समाज शास्त्र पर''',''' अर्थ व्यवस्था को समाज व्यवस्था पर वरीयता दे देते है। समग्रता से विचार करना अब हमारे स्वभाव में नहीं रहा।
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'''धर्म सर्वोपरि  '''
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=== धर्म सर्वोपरि ''' ''' ===
 
   
धर्म की परिभाषा है ‘धारयति इति धर्म:’। जिससे धारणा होती है वह धर्म है। धारणा का अर्थ है बने रहना, सक्षम रहना। और धर्म सर्वोपरि से तात्पर्य है हम जो भी करते हैं वह धर्म सुसंगत हो। धर्म के विपरीत कुछ नहीं करना। धर्म का सब से व्यापक स्तर है सृष्टि के धर्म का। सृष्टि का संचालन जिन नियमों से होता है उन्हें सृष्टि धर्म कहते है। सृष्टि का और सृष्टि में जितने भी अस्तित्व हैं उन का परस्पर अंगांगी सम्बन्ध है। सृष्टि के धर्म के नियमों में सभी अस्तित्वों के धर्मों का समावेश होता है।  
 
धर्म की परिभाषा है ‘धारयति इति धर्म:’। जिससे धारणा होती है वह धर्म है। धारणा का अर्थ है बने रहना, सक्षम रहना। और धर्म सर्वोपरि से तात्पर्य है हम जो भी करते हैं वह धर्म सुसंगत हो। धर्म के विपरीत कुछ नहीं करना। धर्म का सब से व्यापक स्तर है सृष्टि के धर्म का। सृष्टि का संचालन जिन नियमों से होता है उन्हें सृष्टि धर्म कहते है। सृष्टि का और सृष्टि में जितने भी अस्तित्व हैं उन का परस्पर अंगांगी सम्बन्ध है। सृष्टि के धर्म के नियमों में सभी अस्तित्वों के धर्मों का समावेश होता है।  
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धर्माचरणयुक्त जीवन का अर्थ है सृष्टि के नियमों के अनुसार जीना, व्यवहार करना। सृष्टि संचालन के नियम अलग अलग परिप्रेक्ष्य में अलग अलग होते हैं। पिता पुत्र के संदर्भ में इन नियमों को पुत्रधर्म और पितृधर्म कहते हैं। समाज जीवन सुचारू रूप से चलने के जो नियम हैं उन्हें समाज धर्म कहते है। कोई भी बात जो धर्म के विरोध में सृष्टि के नियमों के विरोध में नहीं है, वह स्वीकार्य है। और जो धर्म विरोधी है वह स्वीकार्य नहीं है। पूरा जीवन धर्ममय होना चाहिए। धर्मयुक्त जीवन से तात्पर्य है विश्व संचालन के नियमों से, इन प्राकृतिक नियमों के साथ समायोजित मानव जीवन से। धर्मयुक्त जीवन सहज और सुखमय हो जाता है। धर्म आचरण का विषय होता है। हर कदम, हर क्षण और हर परिस्थिति में आचरण का मार्गदर्शक तत्त्व होता है। इस लिए शोध कार्य को धर्मानुकूल आचरण से सुसंगत ही होना होगा। गहराई में धर्म की चर्चा हम स्थान के अभाव के कारण यहाँ नहीं कर रहे। धर्म यह पूरे जीवन का और इसी लिए शोध कार्य का भी नियामक तत्त्व है। जिस तरह किसी भी भौतिक क्षेत्र में शोध कार्य करने वाले को ‘गुरुत्वाकर्षण’ के नियमों का तथा उस के संदर्भ में आचरण का ज्ञान होना आवश्यक है। क्यों कि गुरुत्वाकर्षण यह प्रत्येक भौतिक याने भारयुक्त पदार्थ का धर्म है। उसी तरह किसी भी विषय में शोध कार्य करने वाले के लिए, उस विषय के संदर्भ में सृष्टि के नियमों को याने धर्म को याने आचरण या व्यवहार के नियमों को समझना प्राथमिक ज्ञान का विषय होना चाहिए।  
 
धर्माचरणयुक्त जीवन का अर्थ है सृष्टि के नियमों के अनुसार जीना, व्यवहार करना। सृष्टि संचालन के नियम अलग अलग परिप्रेक्ष्य में अलग अलग होते हैं। पिता पुत्र के संदर्भ में इन नियमों को पुत्रधर्म और पितृधर्म कहते हैं। समाज जीवन सुचारू रूप से चलने के जो नियम हैं उन्हें समाज धर्म कहते है। कोई भी बात जो धर्म के विरोध में सृष्टि के नियमों के विरोध में नहीं है, वह स्वीकार्य है। और जो धर्म विरोधी है वह स्वीकार्य नहीं है। पूरा जीवन धर्ममय होना चाहिए। धर्मयुक्त जीवन से तात्पर्य है विश्व संचालन के नियमों से, इन प्राकृतिक नियमों के साथ समायोजित मानव जीवन से। धर्मयुक्त जीवन सहज और सुखमय हो जाता है। धर्म आचरण का विषय होता है। हर कदम, हर क्षण और हर परिस्थिति में आचरण का मार्गदर्शक तत्त्व होता है। इस लिए शोध कार्य को धर्मानुकूल आचरण से सुसंगत ही होना होगा। गहराई में धर्म की चर्चा हम स्थान के अभाव के कारण यहाँ नहीं कर रहे। धर्म यह पूरे जीवन का और इसी लिए शोध कार्य का भी नियामक तत्त्व है। जिस तरह किसी भी भौतिक क्षेत्र में शोध कार्य करने वाले को ‘गुरुत्वाकर्षण’ के नियमों का तथा उस के संदर्भ में आचरण का ज्ञान होना आवश्यक है। क्यों कि गुरुत्वाकर्षण यह प्रत्येक भौतिक याने भारयुक्त पदार्थ का धर्म है। उसी तरह किसी भी विषय में शोध कार्य करने वाले के लिए, उस विषय के संदर्भ में सृष्टि के नियमों को याने धर्म को याने आचरण या व्यवहार के नियमों को समझना प्राथमिक ज्ञान का विषय होना चाहिए।  
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'''१.     शोध कार्य का उद्देश्य'''
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== शोध कार्य का उद्देश्य ==
 
   
विश्व के सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि शोध कार्य का उद्देश्य सत्य की खोज ही होता है। भारतीय परम्परा में तो इस का अत्यधिक आग्रह किया गया है।  
 
विश्व के सभी विद्वान इस बात से सहमत हैं कि शोध कार्य का उद्देश्य सत्य की खोज ही होता है। भारतीय परम्परा में तो इस का अत्यधिक आग्रह किया गया है।  
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२॰ प्राकृतिक समस्या में राहत मिले  
 
२॰ प्राकृतिक समस्या में राहत मिले  
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'''  ३ शास्त्र आधारित शोध कार्य'''
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== शास्त्र आधारित शोध कार्य ==
 
   
शास्त्रों का निर्माण प्रकृति के नियमों के अनुसार श्रेष्ठ जीवन कैसे जीना चाहिए यह बताने के लिए ही किया जाता है। मनुष्य व्यायाम और आहार-विहार तीन प्रकार से कर सकता है। शास्त्र के अनुसार, शास्त्र के अविरोधी और शास्त्र विरोधी। शास्त्र के अनुसार की हुई बातें उस के स्वास्थ्य को श्रेष्ठ बनाती हैं। जितनी बातें शास्त्र की अविरोधी होंगी उस से मनुष्य को शारीरिक लाभ भले न मिले, उसे मानसिक या बौद्धिक सुख मिलेगा और जितनी बातें शास्त्र विरोधी हैं उन से उन के करने से शारीरिक दृष्टि से हानी होगी। श्रीमदभगवद्गीता के १६ वें अध्याय के २३ वें श्लोक में में कहा है –  
 
शास्त्रों का निर्माण प्रकृति के नियमों के अनुसार श्रेष्ठ जीवन कैसे जीना चाहिए यह बताने के लिए ही किया जाता है। मनुष्य व्यायाम और आहार-विहार तीन प्रकार से कर सकता है। शास्त्र के अनुसार, शास्त्र के अविरोधी और शास्त्र विरोधी। शास्त्र के अनुसार की हुई बातें उस के स्वास्थ्य को श्रेष्ठ बनाती हैं। जितनी बातें शास्त्र की अविरोधी होंगी उस से मनुष्य को शारीरिक लाभ भले न मिले, उसे मानसिक या बौद्धिक सुख मिलेगा और जितनी बातें शास्त्र विरोधी हैं उन से उन के करने से शारीरिक दृष्टि से हानी होगी। श्रीमदभगवद्गीता के १६ वें अध्याय के २३ वें श्लोक में में कहा है –  
   Line 272: Line 249:  
कोई भी शोध कार्य शास्त्रों की कसौटीयों पर खरा उतरने वाला, स्थल और काल के संदर्भ में अखण्डता को ध्यान में रख कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के माध्यम से सुख की प्राप्ति करवाने वाला होना चाहिए।       
 
कोई भी शोध कार्य शास्त्रों की कसौटीयों पर खरा उतरने वाला, स्थल और काल के संदर्भ में अखण्डता को ध्यान में रख कर ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ के माध्यम से सुख की प्राप्ति करवाने वाला होना चाहिए।       
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'''४       शोध कार्य : प्राथमिकता के क्षेत्र'''
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== शोध कार्य : प्राथमिकता के क्षेत्र ==
 
   
शोध कार्य का केवल उद्देश्य ठीक होना पर्याप्त नहीं है। शोध कार्य के विषयों की समग्रता, व्यापकता, प्राथमिकता, दिशा आदि भी महत्व की बातें हैं।  
 
शोध कार्य का केवल उद्देश्य ठीक होना पर्याप्त नहीं है। शोध कार्य के विषयों की समग्रता, व्यापकता, प्राथमिकता, दिशा आदि भी महत्व की बातें हैं।  
   Line 284: Line 260:  
उपर्युक्त सूत्रों के आधार पर जीवन चल सके इस दृष्टि से हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। संगठन यह धर्माचरण का साधन होता है। इसी लिए हिन्दू समाज अपने सामाजिक संगठन को वर्णाश्रम धर्म कहता है। इन में कुटुंब, ग्राम(कुल), आश्रम, जाति प्रणाली आदि संगठन प्रणालियों का समावेश होता है। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज का केवल संगठित होना पर्याप्त नहीं होता। हिन्दू समाज के इस वर्णाश्रम संगठन की विशेषता समग्रता भी है। यह सम्पूर्ण समाज में व्याप्त है। समाज का कोई सदस्य इस के बाहर नहीं होता। साथ ही में यह प्रत्येक के हित के लिए बनी है। समग्रता के कारण इस में अंतर्विरोधों को कोई स्थान नहीं होता। वर्तमान में हमारे सामाजिक संगठनों का स्वरूप अभारतीय है। इन का निर्माण विखण्डित सोच के परिणाम के कारण है। इन संगठनों में आपस में टकराव, अनबन होती रहती है। ऐसे टकराव और अनबन के कारण समाज स्वास्थ्य बिगड़ता है। समाज दुर्बल हो जाता है। लेकिन व्यापकता से संगठित समाज की सामाजिक व्यवस्थाएँ भी अधिक प्रभावी रूप से काम कर सकती हैं। इस लिए हिंदु समाज की, सामाजिक संगठन और संगठन की प्रणालियाँ यह हमारे शोध क्षेत्र का प्राथमिकता का तीसरा क्षेत्र होगा।
 
उपर्युक्त सूत्रों के आधार पर जीवन चल सके इस दृष्टि से हमारे पूर्वजों ने समाज को संगठित किया था। संगठन यह धर्माचरण का साधन होता है। इसी लिए हिन्दू समाज अपने सामाजिक संगठन को वर्णाश्रम धर्म कहता है। इन में कुटुंब, ग्राम(कुल), आश्रम, जाति प्रणाली आदि संगठन प्रणालियों का समावेश होता है। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज का केवल संगठित होना पर्याप्त नहीं होता। हिन्दू समाज के इस वर्णाश्रम संगठन की विशेषता समग्रता भी है। यह सम्पूर्ण समाज में व्याप्त है। समाज का कोई सदस्य इस के बाहर नहीं होता। साथ ही में यह प्रत्येक के हित के लिए बनी है। समग्रता के कारण इस में अंतर्विरोधों को कोई स्थान नहीं होता। वर्तमान में हमारे सामाजिक संगठनों का स्वरूप अभारतीय है। इन का निर्माण विखण्डित सोच के परिणाम के कारण है। इन संगठनों में आपस में टकराव, अनबन होती रहती है। ऐसे टकराव और अनबन के कारण समाज स्वास्थ्य बिगड़ता है। समाज दुर्बल हो जाता है। लेकिन व्यापकता से संगठित समाज की सामाजिक व्यवस्थाएँ भी अधिक प्रभावी रूप से काम कर सकती हैं। इस लिए हिंदु समाज की, सामाजिक संगठन और संगठन की प्रणालियाँ यह हमारे शोध क्षेत्र का प्राथमिकता का तीसरा क्षेत्र होगा।
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'''५       शोध विषयों की व्याप्ति'''
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== शोध विषयों की व्याप्ति ==
 
   
जीवन के व्यवहार सूत्र और व्यवहार : धर्म, एकात्मता और समग्रता ये जीवनदृष्टी के सूत्र हैं। इन के आधार से बने व्यवहार सूत्रों के अनुसार जीने की शिक्षा आज बंद हो गई है। इन्हें शिक्षा में ओतप्रोत करने के लिए युगानुकूल अध्ययन और अनुसंधान की आवश्यकता है। जैसे सर्वे भवन्तु सुखिन: याद करना, लिखना तो सरल काम है लेकिन उस के अनुसार जीवन जीना सरल नहीं है। इस के लिए मन की शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान अभारतीय शिक्षा में केवल बुद्धि और उस के उपयोग से भौतिक सुख प्राप्ति के लिए अर्थार्जन का विचार है, मन की शिक्षा का विचार अभाव से ही है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत व्यवहार को श्रेष्ठ बनाने के लिए शोध कार्य करना है। इस में व्यक्तिगत धर्मों की श्रेष्ठता के लिए भी शोध कार्य करने हैं।
 
जीवन के व्यवहार सूत्र और व्यवहार : धर्म, एकात्मता और समग्रता ये जीवनदृष्टी के सूत्र हैं। इन के आधार से बने व्यवहार सूत्रों के अनुसार जीने की शिक्षा आज बंद हो गई है। इन्हें शिक्षा में ओतप्रोत करने के लिए युगानुकूल अध्ययन और अनुसंधान की आवश्यकता है। जैसे सर्वे भवन्तु सुखिन: याद करना, लिखना तो सरल काम है लेकिन उस के अनुसार जीवन जीना सरल नहीं है। इस के लिए मन की शिक्षा की आवश्यकता होती है। वर्तमान अभारतीय शिक्षा में केवल बुद्धि और उस के उपयोग से भौतिक सुख प्राप्ति के लिए अर्थार्जन का विचार है, मन की शिक्षा का विचार अभाव से ही है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तिगत व्यवहार को श्रेष्ठ बनाने के लिए शोध कार्य करना है। इस में व्यक्तिगत धर्मों की श्रेष्ठता के लिए भी शोध कार्य करने हैं।
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येही सब बातें धर्म शास्त्र, शिक्षण शास्त्र और पोषण शास्त्र की प्रस्तुति में आनी चाहिए।  
 
येही सब बातें धर्म शास्त्र, शिक्षण शास्त्र और पोषण शास्त्र की प्रस्तुति में आनी चाहिए।  
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'''६       समग्रता की दृष्टि'''
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== समग्रता की दृष्टि ==
 
   
पूरे जीवन के प्रतिमान का विचार करना होगा। स्थल और काल की अखण्डता के विषय में भी विचार करना होगा। भारतीय और अभारतीय जीवनदृष्टि में भिन्नता होने के कारण भारतीय प्रतिमान अभारतीय प्रतिमान से भिन्न है। और भारतीय जीवनदृष्टि की श्रेष्ठता के कारण जीवन के अभारतीय प्रतिमान से भारतीय प्रतिमान श्रेष्ठ भी है। इस लिए उपर्युक्त सभी शोध कार्यों का विचार जीवन के भारतीय प्रतिमान के संदर्भ में करना ही उचित होगा। यद्यपि अंग्रेजों की दृष्टि विखण्डित है फिर भी अंग्रेजी भाषा का एक वाक्य महत्वपूर्ण है। थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली। कुछ भी काम करना हो तो पहले उस के विश्व के सभी अस्तित्वोंपर होनेवाले परिणाम हितकारी हैं या नहीं इस का विचार करो। और यदि वे परिणाम हितकारी हों तो उसे करो, अन्यथा न करो। अंग्रेजी में समग्रता के लिए ‘(Holistic) होलिस्टिक’ शब्द का प्रयोग होता है।  
 
पूरे जीवन के प्रतिमान का विचार करना होगा। स्थल और काल की अखण्डता के विषय में भी विचार करना होगा। भारतीय और अभारतीय जीवनदृष्टि में भिन्नता होने के कारण भारतीय प्रतिमान अभारतीय प्रतिमान से भिन्न है। और भारतीय जीवनदृष्टि की श्रेष्ठता के कारण जीवन के अभारतीय प्रतिमान से भारतीय प्रतिमान श्रेष्ठ भी है। इस लिए उपर्युक्त सभी शोध कार्यों का विचार जीवन के भारतीय प्रतिमान के संदर्भ में करना ही उचित होगा। यद्यपि अंग्रेजों की दृष्टि विखण्डित है फिर भी अंग्रेजी भाषा का एक वाक्य महत्वपूर्ण है। थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली। कुछ भी काम करना हो तो पहले उस के विश्व के सभी अस्तित्वोंपर होनेवाले परिणाम हितकारी हैं या नहीं इस का विचार करो। और यदि वे परिणाम हितकारी हों तो उसे करो, अन्यथा न करो। अंग्रेजी में समग्रता के लिए ‘(Holistic) होलिस्टिक’ शब्द का प्रयोग होता है।  
    
                       अपार हित हो अपना लेकिन अन्यों का नुक़सान न हो।                                        नहीं करें जिन कर्मों में भी रत्तीभर परपीड़ा हो ।।  
 
                       अपार हित हो अपना लेकिन अन्यों का नुक़सान न हो।                                        नहीं करें जिन कर्मों में भी रत्तीभर परपीड़ा हो ।।  
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'''उपसंहार'''
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== उपसंहार ==
 
   
वर्तमान भारत हीनता बोध से ग्रस्त है, समस्याओं से त्रस्त है, गुलामी में ही मस्त है इसी कारण शोध के क्षेत्र में अस्तव्यस्त है। इस की जीवनदृष्टि अभारतीय बन गई है, व्यवहार अभारतीय हो गये हैं। हमारा सामाजिक संगठन का ढाँचा लगभग ध्वस्त हो गया है। व्यवस्थाएँ सारी की सारी अभारतीय हैं। ऐसे में सब से पहली बात तो भारतीय जीवन और अभारतीय जीवन के अंतर को समझने की है। भारतीय जीवनदृष्टि, व्यवहार के सूत्र, सामाजिक संगठन की प्रणालियाँ और सामाजिक व्यवस्थाओं के भारतीय स्वरूप को भी गहराई से समझना होगा। परिवर्तन की प्रक्रिया में शोध कार्यों की अत्यंत प्राथमिक और महत्वपूर्ण भूमिका होगी। यह शोध कार्य समग्रता की दृष्टि से जितने व्यापक, एकात्मता की दृष्टि से गहरे और तेजस्वी होंगे आगे की परिवर्तन की प्रक्रिया कम कठिन होगी।  
 
वर्तमान भारत हीनता बोध से ग्रस्त है, समस्याओं से त्रस्त है, गुलामी में ही मस्त है इसी कारण शोध के क्षेत्र में अस्तव्यस्त है। इस की जीवनदृष्टि अभारतीय बन गई है, व्यवहार अभारतीय हो गये हैं। हमारा सामाजिक संगठन का ढाँचा लगभग ध्वस्त हो गया है। व्यवस्थाएँ सारी की सारी अभारतीय हैं। ऐसे में सब से पहली बात तो भारतीय जीवन और अभारतीय जीवन के अंतर को समझने की है। भारतीय जीवनदृष्टि, व्यवहार के सूत्र, सामाजिक संगठन की प्रणालियाँ और सामाजिक व्यवस्थाओं के भारतीय स्वरूप को भी गहराई से समझना होगा। परिवर्तन की प्रक्रिया में शोध कार्यों की अत्यंत प्राथमिक और महत्वपूर्ण भूमिका होगी। यह शोध कार्य समग्रता की दृष्टि से जितने व्यापक, एकात्मता की दृष्टि से गहरे और तेजस्वी होंगे आगे की परिवर्तन की प्रक्रिया कम कठिन होगी।  
  

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