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१. ब्रिटीश ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक व्यापारी संस्थान के रूप में सन १६०० अर्थात्‌ सत्रहवीं शताब्दी के प्रारूभ में भारत में आये । १९४७ तक रहे । भारत में व्यापार करना और विपुल धन कमाना उनका उद्देश्य था । येन केन प्रकारेण धन कमाना उनकी रीत थी । उसे ही वे नीति भी कहते थे । उनकी धन कमाने की नीतिरीति को लूट ही कहा जा सकता है ऐसे उनके कारनामे थे ।
 
१. ब्रिटीश ईस्ट इण्डिया कम्पनी नामक व्यापारी संस्थान के रूप में सन १६०० अर्थात्‌ सत्रहवीं शताब्दी के प्रारूभ में भारत में आये । १९४७ तक रहे । भारत में व्यापार करना और विपुल धन कमाना उनका उद्देश्य था । येन केन प्रकारेण धन कमाना उनकी रीत थी । उसे ही वे नीति भी कहते थे । उनकी धन कमाने की नीतिरीति को लूट ही कहा जा सकता है ऐसे उनके कारनामे थे ।
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२. दूसरा उद्देश्य था राज्यसत्ता प्राप्त करने का । इसे लूट का आनुषंगिक उद्देश्य भी कह सकते हैं क्योंकि सत्ता प्राप्त करने से लुट निर्विघ्न हो जाती है । वे शासक थे भारत में जहाँ जहाँ ब्रिटिश राज हुआ उसभाग को ब्रिटीश इण्डिया कहा जाता था । सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उन्होंने राज्यों में दखल देना शुरू किया और १८५७ तक भारत के बडे हिस्से पर कब्जा तो कर लिया परन्तु १८५७ के स्वातन्त्रय संग्राम में उन्होंने जो मार खाई उसके परिणाम स्वरूप १८५८ से भारत सीधे रानी विक्टोरिया के अर्थात्‌ ब्रिटीश शासन के अन्तर्गत चला गया । १८५८ से १९४७ तक रानी का राज था ।
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२. दूसरा उद्देश्य था राज्यसत्ता प्राप्त करने का । इसे लूट का आनुषंगिक उद्देश्य भी कह सकते हैं क्योंकि सत्ता प्राप्त करने से लुट निर्विघ्न हो जाती है । वे शासक थे भारत में जहाँ जहाँ ब्रिटिश राज हुआ उसभाग को ब्रिटीश इण्डिया कहा जाता था । सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उन्होंने राज्यों में दखल देना आरम्भ किया और १८५७ तक भारत के बडे हिस्से पर कब्जा तो कर लिया परन्तु १८५७ के स्वातन्त्रय संग्राम में उन्होंने जो मार खाई उसके परिणाम स्वरूप १८५८ से भारत सीधे रानी विक्टोरिया के अर्थात्‌ ब्रिटीश शासन के अन्तर्गत चला गया । १८५८ से १९४७ तक रानी का राज था ।
    
३. भारत का इसाईकरण करना उनका तीसरा उद्देश्य था । इस कार्य में उन्हें ईस्ट इण्डिया कम्पनी की और ब्रिटीश राज्य की प्रगट और प्रच्छन्न दोनों रूप से सहायता मिलती थी ।
 
३. भारत का इसाईकरण करना उनका तीसरा उद्देश्य था । इस कार्य में उन्हें ईस्ट इण्डिया कम्पनी की और ब्रिटीश राज्य की प्रगट और प्रच्छन्न दोनों रूप से सहायता मिलती थी ।
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४. भारत का अंग्रेजीकरण करना उनका चौथा उद्देश्य था । अंग्रेजीकरण को ही हम यूरोपीकरण कहते हैं । आज उसे युरोअमेरिकीकरण कहा जाता है। कभी कभी उसे केवल अमेरिकीकरण कहा जाता है। उसीके लिये और व्यापक संज्ञा पश्चिमीकरण है । उन्होंने भारत को पूर्व कहा इसलिये हम उसे पश्चिम कहते हैं ।
 
४. भारत का अंग्रेजीकरण करना उनका चौथा उद्देश्य था । अंग्रेजीकरण को ही हम यूरोपीकरण कहते हैं । आज उसे युरोअमेरिकीकरण कहा जाता है। कभी कभी उसे केवल अमेरिकीकरण कहा जाता है। उसीके लिये और व्यापक संज्ञा पश्चिमीकरण है । उन्होंने भारत को पूर्व कहा इसलिये हम उसे पश्चिम कहते हैं ।
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५. ये चारों उद्देश्य एकदूसरे से जुडे हुए हैं परन्तु उनका केन्द्रवर्ती उद्देश्य धन की लूट ही है । लूट का मार्ग प्रशस्त करने हेतु शेष तीनों का अवलम्बन किया गया है। इन चारों के भारत पर जो परिणाम हुए उनमें सबसे विनाशक और दूरगामी परिणाम यूरोपीकरण का है । आज भी हम उससे मुक्त नहीं हुए हैं ।
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५. ये चारों उद्देश्य एकदूसरे से जुड़े हुए हैं परन्तु उनका केन्द्रवर्ती उद्देश्य धन की लूट ही है । लूट का मार्ग प्रशस्त करने हेतु शेष तीनों का अवलम्बन किया गया है। इन चारों के भारत पर जो परिणाम हुए उनमें सबसे विनाशक और दूरगामी परिणाम यूरोपीकरण का है । आज भी हम उससे मुक्त नहीं हुए हैं ।
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६. भारत की समृद्धि की लूट तो हुई परन्तु उसके बाद भी भारत की समृद्धि का सर्वनाश नहीं हुआ क्योंकि उसके स्रोत बने रहे । राज्यसत्ता ग्रहण की परन्तु १९४७ में उन्हें सत्ता छोडनी पडी और जाना पडा । उन्होंने इसाईकरण करना शुरू किया, अनेक लोगों को इसाई बनाया, आज भी इसाईकरण का काम अनेक मिशनों के माध्यम से चल रहा है परन्तु सारा भारत इसाई नहीं हुआ है यह तो हम देख ही रहे हैं ।
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६. भारत की समृद्धि की लूट तो हुई परन्तु उसके बाद भी भारत की समृद्धि का सर्वनाश नहीं हुआ क्योंकि उसके स्रोत बने रहे । राज्यसत्ता ग्रहण की परन्तु १९४७ में उन्हें सत्ता छोडनी पडी और जाना पडा । उन्होंने इसाईकरण करना आरम्भ किया, अनेक लोगोंं को इसाई बनाया, आज भी इसाईकरण का काम अनेक मिशनों के माध्यम से चल रहा है परन्तु सारा भारत इसाई नहीं हुआ है यह तो हम देख ही रहे हैं ।
    
७. परन्तु यूरोपीकरण का परिणाम बहुत विनाशकारी हुआ । सम्पूर्ण भारत उस दुष्चक्र के आज भी फँसा हुआ हैं और यातना भुगत रहा है । इस उद्देश्य में सौ प्रतिशत तो नहीं परन्तु लगभग सत्तर प्रतिशत तो सफलता उन्हें मिली है। उनकी सफलता से भी अधिक चिन्ता की बात हमारी रोगग्रस्तता की है । यूरोपीकरण के रोग से मुक्त होना १९४७ की राजकीय मुक्ति से भी कठिन चुनौती है ।
 
७. परन्तु यूरोपीकरण का परिणाम बहुत विनाशकारी हुआ । सम्पूर्ण भारत उस दुष्चक्र के आज भी फँसा हुआ हैं और यातना भुगत रहा है । इस उद्देश्य में सौ प्रतिशत तो नहीं परन्तु लगभग सत्तर प्रतिशत तो सफलता उन्हें मिली है। उनकी सफलता से भी अधिक चिन्ता की बात हमारी रोगग्रस्तता की है । यूरोपीकरण के रोग से मुक्त होना १९४७ की राजकीय मुक्ति से भी कठिन चुनौती है ।
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११. अंग्रेजों ने जब राज्य छीन लिये तब वह केवल राज्यसत्ता का हस्तान्तरण नहीं था, व्यवस्थाओं में परिवर्तन का प्रारम्भ भी था । राज्य चलाने की पद्धति भी ब्रिटीश होने लगी ।. प्रशासन व्यवस्था, करव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, दण्डव्यवस्था बदल गई । उन्होंने न केवल ब्रिटन में थीं वैसी व्यवस्थायें बनाई, अपने लिये अनूकूल थीं वैसी बनाई । भारत में राजा और प्रजा के मध्य जिस प्रकार के सम्बन्धों की कल्पना की गई है इसका अंशमात्र उसमें नहीं था ।
 
११. अंग्रेजों ने जब राज्य छीन लिये तब वह केवल राज्यसत्ता का हस्तान्तरण नहीं था, व्यवस्थाओं में परिवर्तन का प्रारम्भ भी था । राज्य चलाने की पद्धति भी ब्रिटीश होने लगी ।. प्रशासन व्यवस्था, करव्यवस्था, न्यायव्यवस्था, दण्डव्यवस्था बदल गई । उन्होंने न केवल ब्रिटन में थीं वैसी व्यवस्थायें बनाई, अपने लिये अनूकूल थीं वैसी बनाई । भारत में राजा और प्रजा के मध्य जिस प्रकार के सम्बन्धों की कल्पना की गई है इसका अंशमात्र उसमें नहीं था ।
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१२. इन व्यवस्थाओं का परिणाम समाजजीवन पर होना ही था । सामाजिक रीतिरिवाज, स्थानिक स्तर पर न्याय और दण्ड की व्यवस्था, आपसी अर्थव्यवहार और लेनदेन की पद्धति, विवाह तथा कुट्म्ब व्यवस्था, रहनसहन आदि में भी परिवर्तन हुआ क्योंकि अब वे अपनी दृष्टि से इन व्यवस्थाओं को देखते थे, जहाँ भी उनका सम्बन्ध आता था वहाँ परिवर्तन करवाते थे और अन्य बातों की आलोचना, उपहास और तिरस्कार करते थे ।
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१२. इन व्यवस्थाओं का परिणाम समाजजीवन पर होना ही था । सामाजिक रीतिरिवाज, स्थानिक स्तर पर न्याय और दण्ड की व्यवस्था, आपसी अर्थव्यवहार और लेनदेन की पद्धति, विवाह तथा कुटुम्ब व्यवस्था, रहनसहन आदि में भी परिवर्तन हुआ क्योंकि अब वे अपनी दृष्टि से इन व्यवस्थाओं को देखते थे, जहाँ भी उनका सम्बन्ध आता था वहाँ परिवर्तन करवाते थे और अन्य बातों की आलोचना, उपहास और तिरस्कार करते थे ।
    
१३. इन सबका सिरमौर था शिक्षाव्यवस्था का नाश और परिवर्तन । शेष सारे परिवर्तनों को स्थायीरूप देने वाला यह परिवर्तन था । प्रथम उन्होंने भारत की शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था को नष्ट किया और फिर अपनी शिक्षा और अपनी व्यवस्था प्रस्थापित की । यदि शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया होता तो हम शेष व्यवस्थाओं को तो शीघ्र ही पुर्पस्थापित कर देते। परन्तु शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था के पश्चिमीकरण से वे सारी व्यवस्थायें दृढमूल हो गईं । सम्पूर्ण देश में बाह्य रूप में और हमारे मन और बुद्धि में आन्तरिक रूप में उसने aS जमा लीं । उससे आज भी हम मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। यदि वह केवल बाह्म रूप में ही स्थापित हुई होती तो उन्हें बदलना इतना कठिन नहीं होता वह मन और बुद्धि में बैठ गई है इसलिये कठिन लग रहा हैं |
 
१३. इन सबका सिरमौर था शिक्षाव्यवस्था का नाश और परिवर्तन । शेष सारे परिवर्तनों को स्थायीरूप देने वाला यह परिवर्तन था । प्रथम उन्होंने भारत की शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था को नष्ट किया और फिर अपनी शिक्षा और अपनी व्यवस्था प्रस्थापित की । यदि शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया होता तो हम शेष व्यवस्थाओं को तो शीघ्र ही पुर्पस्थापित कर देते। परन्तु शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था के पश्चिमीकरण से वे सारी व्यवस्थायें दृढमूल हो गईं । सम्पूर्ण देश में बाह्य रूप में और हमारे मन और बुद्धि में आन्तरिक रूप में उसने aS जमा लीं । उससे आज भी हम मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। यदि वह केवल बाह्म रूप में ही स्थापित हुई होती तो उन्हें बदलना इतना कठिन नहीं होता वह मन और बुद्धि में बैठ गई है इसलिये कठिन लग रहा हैं |
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१७. बुद्धि का कार्य है विवेक । घटना, स्थिति, पदार्थ को उसके यथार्थ रूप में जानना ही विवेक है । परन्तु बुद्धि का अधिष्ठान है चिति और आलम्बन है जीवन दृष्टि । चिति देश का स्वभाव है और जीवनदृष्टि उसका बौद्धिक रूप । आज देश के स्वभाव ओर जीवनदृष्टि में विच्छेदू हो गया है इसलिये हम यथार्थबोध प्राप्त नहीं करते हैं ।
 
१७. बुद्धि का कार्य है विवेक । घटना, स्थिति, पदार्थ को उसके यथार्थ रूप में जानना ही विवेक है । परन्तु बुद्धि का अधिष्ठान है चिति और आलम्बन है जीवन दृष्टि । चिति देश का स्वभाव है और जीवनदृष्टि उसका बौद्धिक रूप । आज देश के स्वभाव ओर जीवनदृष्टि में विच्छेदू हो गया है इसलिये हम यथार्थबोध प्राप्त नहीं करते हैं ।
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१८. हमारी बुद्धि का विश्रम होने का प्रथम और मूलगत आयाम है विजातीय जीवनदृष्टि का आरोपण । पश्चिम भी भारत के चार्वाक की तरह देहात्मवादी है । देह को आधार बनाकर सारी बातें देखता है, समझता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है। देह पंचमहाभूतात्मक है इसलिये उसे भौतिकवादी कहा जाता है । भौतिक को जड कहा जाता है इसलिये वह जडवादी है । जड या भौतिक या देह के प्रकाश में जीवन और जगत को देखना और उसके साथ व्यवहार करना पश्चिमी दृष्टि है । भारत ठीक उससे विपरीत व्यवहार करता है । भारत आत्मतत्त्व के प्रकाश में जीवन और जगत को देखता है, समझता है, ग्रहण करता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है । इसलिये वह आत्मवादी है । भारत में आज जडवादी दृष्टि का ही बुद्धि के क्षेत्र में साम्राज्य है यह ब्रिटिश शिक्षा का परिणाम है ।
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१८. हमारी बुद्धि का विश्रम होने का प्रथम और मूलगत आयाम है विजातीय जीवनदृष्टि का आरोपण । पश्चिम भी भारत के चार्वाक की तरह देहात्मवादी है । देह को आधार बनाकर सारी बातें देखता है, समझता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है। देह पंचमहाभूतात्मक है इसलिये उसे भौतिकवादी कहा जाता है । भौतिक को जड़ कहा जाता है इसलिये वह जड़वादी है । जड़ या भौतिक या देह के प्रकाश में जीवन और जगत को देखना और उसके साथ व्यवहार करना पश्चिमी दृष्टि है । भारत ठीक उससे विपरीत व्यवहार करता है । भारत आत्मतत्त्व के प्रकाश में जीवन और जगत को देखता है, समझता है, ग्रहण करता है और उसके अनुसार व्यवहार करता है । इसलिये वह आत्मवादी है । भारत में आज जड़वादी दृष्टि का ही बुद्धि के क्षेत्र में साम्राज्य है यह ब्रिटिश शिक्षा का परिणाम है ।
    
१९. दृष्टि बदलने के कारण सारी बातें बदल जाती हैं । हम सही को गलत और गलत को सही, उचित को अनुचित और अनुचित को उचित कहने लगते हैं, अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहने लगते हैं । हमारी दृष्टि बदल जाने से स्थिति तो नहीं बदल जाती इसलिये सभी बातों की ऐसी घालमेल हो जाती है कि हमें सूझना भी बन्द हो जाता है। हम प्रवाहपतित की तरह व्यवहार करने लगते हैं ।
 
१९. दृष्टि बदलने के कारण सारी बातें बदल जाती हैं । हम सही को गलत और गलत को सही, उचित को अनुचित और अनुचित को उचित कहने लगते हैं, अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा कहने लगते हैं । हमारी दृष्टि बदल जाने से स्थिति तो नहीं बदल जाती इसलिये सभी बातों की ऐसी घालमेल हो जाती है कि हमें सूझना भी बन्द हो जाता है। हम प्रवाहपतित की तरह व्यवहार करने लगते हैं ।
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२५. और आज तो बुद्धि में स्थापित नहीं होने का कारण यह भी है कि अपने ही देश के अतीत की उसे जानकारी ही नहीं है, न तत्त्वज्ञान की जानकारी न शास्त्रों की, न व्यवस्थाओं की न व्यवहारों की । मन के स्तर पर हीनताबोध से ग्रस्त होने के कारण पश्चिम जो कहता है वही ठीक है ऐसा निश्चय हो जाता है इसलिये किसी भी विषय का विश्लेषण करने की, परीक्षण करने की, बौद्धिक रूप में परखने की आवश्यकता भी नहीं लगती । वे कहते हैं इसलिये हमारे शाख््र कनिष्ठ हैं, प्राचीन है इसीलिये त्याज्य है, परम्परा का कोई मूल्य नहीं है पारम्परिक है इसीलिये त्याज्य है ऐसा अतार्किक, अशास्त्रीय तर्क प्रतिष्ठित हो जाता है । यही तो बुद्धिविश्रम है ।
 
२५. और आज तो बुद्धि में स्थापित नहीं होने का कारण यह भी है कि अपने ही देश के अतीत की उसे जानकारी ही नहीं है, न तत्त्वज्ञान की जानकारी न शास्त्रों की, न व्यवस्थाओं की न व्यवहारों की । मन के स्तर पर हीनताबोध से ग्रस्त होने के कारण पश्चिम जो कहता है वही ठीक है ऐसा निश्चय हो जाता है इसलिये किसी भी विषय का विश्लेषण करने की, परीक्षण करने की, बौद्धिक रूप में परखने की आवश्यकता भी नहीं लगती । वे कहते हैं इसलिये हमारे शाख््र कनिष्ठ हैं, प्राचीन है इसीलिये त्याज्य है, परम्परा का कोई मूल्य नहीं है पारम्परिक है इसीलिये त्याज्य है ऐसा अतार्किक, अशास्त्रीय तर्क प्रतिष्ठित हो जाता है । यही तो बुद्धिविश्रम है ।
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२६. व्यक्ति केन्द्रिता के कारण परिवार भावना का महत्त्व नष्ट हुआ । परस्परावलम्बिता के स्थान पर दूसरों की आश्रितता का भाव स्थापित हो गया । आश्रित न होना पडे इस दृष्टि से स्वतन्त्रता का भाव आ गया स्वतन्त्रता मन का अधिष्ठान पाकर स्वैराचार बन गई और हम भटक गये । दिशा गलत होने के कारण आगे क्या क्या होगा इसकी कल्पना करना कठिन हो गया । परिवार विघटन आगे समाज के विघटन तक पहुँच गया । आज उस अनवस्था की स्थिति में हम पहुँच गये हैं ।
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२६. व्यक्ति केन्द्रिता के कारण परिवार भावना का महत्त्व नष्ट हुआ । परस्परावलम्बिता के स्थान पर दूसरों की आश्रितता का भाव स्थापित हो गया । आश्रित न होना पड़े इस दृष्टि से स्वतन्त्रता का भाव आ गया स्वतन्त्रता मन का अधिष्ठान पाकर स्वैराचार बन गई और हम भटक गये । दिशा गलत होने के कारण आगे क्या क्या होगा इसकी कल्पना करना कठिन हो गया । परिवार विघटन आगे समाज के विघटन तक पहुँच गया । आज उस अनवस्था की स्थिति में हम पहुँच गये हैं ।
    
२७. व्यक्ति केन्ट्रितता के साथ ही दूसरा है भौतिकवाद । भौतिकवाद के कारण हम देहात्मवादी भी हैं । इसलिये समृद्धि की कल्पना भौतिक है । समृद्धि का मूल प्रेरक तत्त्व काम है । हम कामपूर्ति को मुख्य और केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानने लगे । इससे उपभोग प्रधान जीवनशैली स्वाभाविक बन गई । अधिकाधिक उपभोग में सुख की अधिकता मानने लगे, भले ही प्रत्यक्ष कष्टों का अनुभव कर रहे हों । कामपूर्ति हेतु सामग्री जुटाना अर्थपुरुषार्थ का पर्याय बन गया । अधिकतम सामग्री जुटाने को सफलता मानने लगे और यह सफलता विकास का पर्याय बन गई । इसे हमने विकास का सिद्धान्त बना लिया । बुद्धि के भटकने का यह स्पष्ट लक्षण है ।
 
२७. व्यक्ति केन्ट्रितता के साथ ही दूसरा है भौतिकवाद । भौतिकवाद के कारण हम देहात्मवादी भी हैं । इसलिये समृद्धि की कल्पना भौतिक है । समृद्धि का मूल प्रेरक तत्त्व काम है । हम कामपूर्ति को मुख्य और केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानने लगे । इससे उपभोग प्रधान जीवनशैली स्वाभाविक बन गई । अधिकाधिक उपभोग में सुख की अधिकता मानने लगे, भले ही प्रत्यक्ष कष्टों का अनुभव कर रहे हों । कामपूर्ति हेतु सामग्री जुटाना अर्थपुरुषार्थ का पर्याय बन गया । अधिकतम सामग्री जुटाने को सफलता मानने लगे और यह सफलता विकास का पर्याय बन गई । इसे हमने विकास का सिद्धान्त बना लिया । बुद्धि के भटकने का यह स्पष्ट लक्षण है ।
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२८. भौतिकता को आधार मानने से दिशा उल्टी हो गई । अब हमें यह समझ में नहीं आता कि आत्मतत्त्व ने सृष्टिरप बनकर जब अपने आपका विस्तार शुरू किया तब उसका अन्तिम छोर पंचमहाभूतात्मक स्थूल जगत था । आधार और मूल आत्मतत्त्व है, महाभूत नहीं । केवल बुद्धि से ही समझें तो भी आत्मतत्त्व को अधिष्ठान मानने से जीवन और जगत के सभी व्यवहारों का खुलासा होता है, भौतिकता को मानने से नहीं होता यह समझना सरल है । परन्तु हमारी बुद्धि आत्मतत्त्व तक पहुँचती ही नहीं है । आत्मतत्व के प्रकाश में सबकुछ देखने से सबकुछ सरल हो जाता है यही स्वीकार्य नहीं होता । “आत्मा' या “आत्मतत्त्व' का स्वीकार किया भी तो उसे बुद्धि से असम्बन्धित ऐसा कुछ मानने लगते है ।
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२८. भौतिकता को आधार मानने से दिशा उल्टी हो गई । अब हमें यह समझ में नहीं आता कि आत्मतत्त्व ने सृष्टिरप बनकर जब अपने आपका विस्तार आरम्भ किया तब उसका अन्तिम छोर पंचमहाभूतात्मक स्थूल जगत था । आधार और मूल आत्मतत्त्व है, महाभूत नहीं । केवल बुद्धि से ही समझें तो भी आत्मतत्त्व को अधिष्ठान मानने से जीवन और जगत के सभी व्यवहारों का खुलासा होता है, भौतिकता को मानने से नहीं होता यह समझना सरल है । परन्तु हमारी बुद्धि आत्मतत्त्व तक पहुँचती ही नहीं है । आत्मतत्व के प्रकाश में सबकुछ देखने से सबकुछ सरल हो जाता है यही स्वीकार्य नहीं होता । “आत्मा' या “आत्मतत्त्व' का स्वीकार किया भी तो उसे बुद्धि से असम्बन्धित ऐसा कुछ मानने लगते है ।
    
=== संकल्पनात्मक शब्द ===
 
=== संकल्पनात्मक शब्द ===
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३८. इस दृष्टि से हमें मानसिक और बौद्धिक स्तर पर उपाय करने होंगे । अपने आपको बदलने का पुरुषार्थ करना होगा । ज्ञानसाधना करनी होगी । आगामी अध्यायों में इसी विषय की चर्चा होगी ।
 
३८. इस दृष्टि से हमें मानसिक और बौद्धिक स्तर पर उपाय करने होंगे । अपने आपको बदलने का पुरुषार्थ करना होगा । ज्ञानसाधना करनी होगी । आगामी अध्यायों में इसी विषय की चर्चा होगी ।
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 4: पश्चिमीकरण से धार्मिक शिक्षा की मुक्ति]]

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