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३२. विनाश को विकास, जहर को अमृत, कामनापूर्ति को अन्तिम उद्देश्य मानने वाली बुद्धि कभी भी वास्तविक रूप में कल्याण नहीं कर सकती । सारी परस्पर विरोधी बातें एक साथ करना अत्यन्त मूढ़ बुद्धि का लक्षण है । वातानुकूलित कक्ष में बैठकर पर्यावरण की चिन्ता करना, तामसी आहार का सेवन करते हुए सात्विकता और संस्कार की बात करना, नागपुर से दिल्ली जाने बाली गाडी में बैठकर कन्याकुमारी जाने की अपेक्षा करना, रासायनिक खाद से ऊगा अनाज खाकर स्वास्थ्य की अपेक्षा करना और निरन्तर मोबाईल और इण्टरनैट का प्रयोग कर बुद्धि की तेजस्विता की आशा करना अनिवार्य रूप से असम्भव है ऐसा हमारी बुद्धि में नहीं आता है ।
 
३२. विनाश को विकास, जहर को अमृत, कामनापूर्ति को अन्तिम उद्देश्य मानने वाली बुद्धि कभी भी वास्तविक रूप में कल्याण नहीं कर सकती । सारी परस्पर विरोधी बातें एक साथ करना अत्यन्त मूढ़ बुद्धि का लक्षण है । वातानुकूलित कक्ष में बैठकर पर्यावरण की चिन्ता करना, तामसी आहार का सेवन करते हुए सात्विकता और संस्कार की बात करना, नागपुर से दिल्ली जाने बाली गाडी में बैठकर कन्याकुमारी जाने की अपेक्षा करना, रासायनिक खाद से ऊगा अनाज खाकर स्वास्थ्य की अपेक्षा करना और निरन्तर मोबाईल और इण्टरनैट का प्रयोग कर बुद्धि की तेजस्विता की आशा करना अनिवार्य रूप से असम्भव है ऐसा हमारी बुद्धि में नहीं आता है ।
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३३. पश्चिमी शिक्षा से छिन्नविच्छिन्न हुई बुद्धि ने हमारे सभी सामाजिक सांस्कृतिक शासख्रों के अर्थों को अनर्थों में और सिद्धान्तों को विध्वंसकों में बदल दिया है । हमारा अर्थशास्त्र धर्म के अविरोधी होने के स्थान पर कामानुसारी और शिक्षा, राज्य, धर्म आदि सभी व्यवस्थाओं का नियन्त्रक बन गया है । हमारा मनोविज्ञान आत्मानुसारी होने के स्थान पर देहानुसारी हो गया है । हमारा समाजशास्त्र करार सिद्धान्त के आधार वाला हो गया है । शिक्षा धर्म सिखाने की व्यवस्था होने के स्थान पर बाजार में विकने वाले
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३३. पश्चिमी शिक्षा से छिन्नविच्छिन्न हुई बुद्धि ने हमारे सभी सामाजिक सांस्कृतिक शासख्रों के अर्थों को अनर्थों में और सिद्धान्तों को विध्वंसकों में बदल दिया है । हमारा अर्थशास्त्र धर्म के अविरोधी होने के स्थान पर कामानुसारी और शिक्षा, राज्य, धर्म आदि सभी व्यवस्थाओं का नियन्त्रक बन गया है । हमारा मनोविज्ञान आत्मानुसारी होने के स्थान पर देहानुसारी हो गया है । हमारा समाजशास्त्र करार सिद्धान्त के आधार वाला हो गया है । शिक्षा धर्म सिखाने की व्यवस्था होने के स्थान पर बाजार में विकने वाले ज्ञान की व्यवस्था हो गई हैं । जिस प्रकार किसी अनिष्ट पदार्थ का स्पर्श होते ही सारा शरीरतन्त्र, आस्तव्यस्त हो जाता है उसी प्रकार पश्चिमी बुद्धि के प्रभाव में हमारी बुद्धि क्षतविक्षत होकर व्यवस्थाओं को अनवस्था में बदल रही है । 
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३४. विकास की वृत्तीय संकल्पना के स्थान पर एकरेखीय संकल्पना का. स्वीकार करना, पुनर्जन्म और जन्मजन्मान्तर की संकल्पना को नहीं मानना, स्वर्ग और नर्क, पाप और पुण्य आदि को नहीं मानना विपरीत बुद्धि के लक्षण है। साथ ही आश्चर्य की बात यह है कि हमारा निश्चय ही नहीं हो रहा है कि हम वास्तव में इन्हें मानते हैं कि नहीं । हमारी कृति दर्शाती है कि हम इन्हें मानते हैं परन्तु हमारी वाणी कहती है कि हम नहीं मानते । हमारी बुद्धि भी कभी मानती है और कभी नहीं मानती है। यही तो बुद्धिविश्रम का लक्षण है ।
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३५, ऐसी बुद्धि को भगवद्गीता ने तामसी बुद्धि कहा है । सभी अर्थों को उल्टे से ही समझना तामसी बुद्धि का लक्षण है । 
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३६, बुद्धि भ्रमित हो जाने के कारण हमें यह तर्क भी नहीं सूझता कि जो देश विश्व के सभी देशों में सर्वाधिक आयुष्य वाला है, जिस देश में ज्ञान की श्रेष्ठता उपासना हुई है, जिस देश का मूलमन्त्र जगत का कल्याण कर के अपनी मुक्ति प्राप्त करना है, जो सबका रक्षण और पोषण करने के परिणाम स्वरूप समृद्ध हुआ है वह देश पश्चिमी अल्पबुद्धि को सिखाने वाला तो हो सकता है, उससे सीखने वाला और निर्देशित होने वाला कैसे हो सकता है । 
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३७. तात्पर्य यह है कि आज हमारे सामने पश्चिम समस्या बन कर नहीं खडा है, हमारा हीनताबोध और बुद्धिविश्रम ही मूल समस्या है । हमें अपने आप के बारे में सावध होने की आवश्यकता है । अपने आपको जानने की आवश्यकता है । अपने आपको ठीक करने की आवश्यकता है । राजकीय गुलामी से भी यह मानसिक और बौद्धिक गुलामी महाविनाशक है | 
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३८. इस दृष्टि से हमें मानसिक और बौद्धिक स्तर पर उपाय करने होंगे । अपने आपको बदलने का पुरुषार्थ करना होगा । ज्ञानसाधना करनी होगी । आगामी अध्यायों में इसी विषय की चर्चा होगी ।
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