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८. भारत के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया का सबसे प्रभावी साधन था शिक्षा । शिक्षा से भी पूर्व अन्य अनेक साधन थे । वे भी अमानुषी और भयंकर ही थे परन्तु शिक्षा का पश्चिमीकरण सबसे प्रभावी सिद्ध हुआ ।
 
८. भारत के पश्चिमीकरण की प्रक्रिया का सबसे प्रभावी साधन था शिक्षा । शिक्षा से भी पूर्व अन्य अनेक साधन थे । वे भी अमानुषी और भयंकर ही थे परन्तु शिक्षा का पश्चिमीकरण सबसे प्रभावी सिद्ध हुआ ।
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९. भारत के उद्योग धन्धों का नाश करना उनका एक
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९. भारत के उद्योग धन्धों का नाश करना उनका एक माध्यम था । तकनीकी के क्षेत्र में, व्यापार के क्षेत्र में, कारीगरी के क्षेत्र में, भौतिक पदार्थों के उत्पादन के क्षेत्र में, कृषि के क्षेत्र में भारत इतना विकसित था और उसके परिणाम स्वरूप इतना समृद्ध भी था कि विश्व उसका लोहा मानता था । ब्रिटीशों ने इन उद्योग धन्धों का नाश किया जिससे भारत की भूमि तो समृद्धि की खान रही परन्तु समृद्धि को निर्माण करने वाले साधन ही नष्ट हो गये और प्रजा गरीब होने लगी, भूखों मरने लगी । व्यापार सारा कम्पनी के हाथ में चला गया ।
 
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माध्यम था । तकनीकी के क्षेत्र में, व्यापार के क्षेत्र में, कारीगरी के क्षेत्र में, भौतिक पदार्थों के उत्पादन के क्षेत्र में, कृषि के क्षेत्र में भारत इतना विकसित था और उसके परिणाम स्वरूप इतना समृद्ध भी था कि विश्व उसका लोहा मानता था । ब्रिटीशों ने इन उद्योग धन्धों का नाश किया जिससे भारत की भूमि तो समृद्धि की खान रही परन्तु समृद्धि को निर्माण करने वाले साधन ही नष्ट हो गये और प्रजा गरीब होने लगी, भूखों मरने लगी । व्यापार सारा कम्पनी के हाथ में चला गया ।
      
१०. अत्याचार और शोषण उनका दूसरा माध्यम था । मार, भूख और शोषण से त्रस्त प्रजा शारीरिक और मानसिक रूप से टूट गई, हताश हो गई, भयभीत हो गई, गुलाम बन गई, दास बन गई । चाकरी करने के लिये विवश हो गई । शासक केवल अत्याचारी नहीं था, विदेशी भी था । भारत के प्रदीर्घ इतिहास में अनेक अत्याचारी शासक हुए थे । परन्तु वे सब भारतीय थे । ब्रिटीश अत्याचारी होने के साथ साथ विदेशी भी थे इसलिये उनकी रीतिनीति की यहाँ की प्रजा को कल्पना भी नहीं होती थी । वे उन्हें समझ ही नहीं पाते थे ।
 
१०. अत्याचार और शोषण उनका दूसरा माध्यम था । मार, भूख और शोषण से त्रस्त प्रजा शारीरिक और मानसिक रूप से टूट गई, हताश हो गई, भयभीत हो गई, गुलाम बन गई, दास बन गई । चाकरी करने के लिये विवश हो गई । शासक केवल अत्याचारी नहीं था, विदेशी भी था । भारत के प्रदीर्घ इतिहास में अनेक अत्याचारी शासक हुए थे । परन्तु वे सब भारतीय थे । ब्रिटीश अत्याचारी होने के साथ साथ विदेशी भी थे इसलिये उनकी रीतिनीति की यहाँ की प्रजा को कल्पना भी नहीं होती थी । वे उन्हें समझ ही नहीं पाते थे ।
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१४. शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था ऐसे दो शब्दों से क्या तात्पर्य है ? शिक्षा से तात्पर्य है वह विषयवस्तु, वह ज्ञान जो विषयों, पाठ्यक्रमों, पुस्तकों के माध्यम से दिया जाता है। दृष्टि, दृष्टिकोण, विचारधारा, सिद्धान्त, जानकारी आदि का समावेश इसमें होता है । शिक्षाव्यवस्था से तात्पर्य है भौतिक सुविधायें, साधनसामग्री, पाठनपद्धति, अर्थव्यवस्था, संचालन, नियमावली आदि । शिक्षा में जब परिवर्तन हुआ तो ये सारी बातें बदल गई । यह आमूलचूल परिवर्तन था । इसके परिणाम स्वरूप शेष सारी बातें दृढमूल हो गईं ।
 
१४. शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था ऐसे दो शब्दों से क्या तात्पर्य है ? शिक्षा से तात्पर्य है वह विषयवस्तु, वह ज्ञान जो विषयों, पाठ्यक्रमों, पुस्तकों के माध्यम से दिया जाता है। दृष्टि, दृष्टिकोण, विचारधारा, सिद्धान्त, जानकारी आदि का समावेश इसमें होता है । शिक्षाव्यवस्था से तात्पर्य है भौतिक सुविधायें, साधनसामग्री, पाठनपद्धति, अर्थव्यवस्था, संचालन, नियमावली आदि । शिक्षा में जब परिवर्तन हुआ तो ये सारी बातें बदल गई । यह आमूलचूल परिवर्तन था । इसके परिणाम स्वरूप शेष सारी बातें दृढमूल हो गईं ।
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१५. आज स्थिति यह है कि ब्रिटीश राज्य समाप्त हुआ, राज्य के अधीन होती हैं ऐसी सारी बातें हमारे आधीन हो गईं । परन्तु शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था में
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१५. आज स्थिति यह है कि ब्रिटीश राज्य समाप्त हुआ, राज्य के अधीन होती हैं ऐसी सारी बातें हमारे आधीन हो गईं । परन्तु शिक्षा और शिक्षाव्यवस्था में परिवर्तन नहीं हुआ । इस कारण से शेष सारी व्यवस्थायें तान्त्रिक रूप से भारतीय होने पर भी मान्त्रिक रूप से अर्थात्‌ वैचारिक रूप से भारतीय नहीं बनीं ।
 
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परिवर्तन नहीं हुआ । इस कारण से शेष सारी व्यवस्थायें तान्त्रिक रूप से भारतीय होने पर भी मान्त्रिक रूप से अर्थात्‌ वैचारिक रूप से भारतीय नहीं बनीं ।
      
=== बुद्धि विश्रम : कारण और परिणाम ===
 
=== बुद्धि विश्रम : कारण और परिणाम ===
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२१. इसमें से शोषण, प्रदूषण और संकटों की परम्परा निर्माण हो जाती है । पंचमहाभूत हमारे दास हैं, हमारे उपभोग के लिये ही बने हैं ऐसी समझ बन जाने के कारण हम भूमि, जल आदि का शोषण करते हैं जिससे प्रदूषण का संकट निर्माण होता है । स्वास्थ्य की समस्या पैदा होती है। प्रकृति का संन्तुलन बिगडने के कारण प्राकृतिक आपदार्ये आती हैं । क्तुचक्र प्रभावित होता है, तापमान अप्राकृतिक पद्धति से बढता घटता है । प्राणियों का नाश होता है । रोग फले हैं । समृद्धि का क्षरण होने लगता है । हमारी मूल धारणा ही इसके लिये कारणभूत होती है परन्तु हमें यह समझ में नहीं आता, केवल संकट ही दिखाई देते हैं ।
 
२१. इसमें से शोषण, प्रदूषण और संकटों की परम्परा निर्माण हो जाती है । पंचमहाभूत हमारे दास हैं, हमारे उपभोग के लिये ही बने हैं ऐसी समझ बन जाने के कारण हम भूमि, जल आदि का शोषण करते हैं जिससे प्रदूषण का संकट निर्माण होता है । स्वास्थ्य की समस्या पैदा होती है। प्रकृति का संन्तुलन बिगडने के कारण प्राकृतिक आपदार्ये आती हैं । क्तुचक्र प्रभावित होता है, तापमान अप्राकृतिक पद्धति से बढता घटता है । प्राणियों का नाश होता है । रोग फले हैं । समृद्धि का क्षरण होने लगता है । हमारी मूल धारणा ही इसके लिये कारणभूत होती है परन्तु हमें यह समझ में नहीं आता, केवल संकट ही दिखाई देते हैं ।
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२२. आज हमारी बुद्धि को संकटों के निवारण के मूल तक न जा कर समस्याओं को अधिक विकट बनाने वाले उपाय ही सूझते हैं क्योंकि बुद्धि भ्रमित हो गई है । उदाहरण के लिये एक व्यक्ति को कोकाकोला पीकर एसीडीटी होती है, वह एसीडीटी को शान्त करने के
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२२. आज हमारी बुद्धि को संकटों के निवारण के मूल तक न जा कर समस्याओं को अधिक विकट बनाने वाले उपाय ही सूझते हैं क्योंकि बुद्धि भ्रमित हो गई है । उदाहरण के लिये एक व्यक्ति को कोकाकोला पीकर एसीडीटी होती है, वह एसीडीटी को शान्त करने के लिये जो दवाई खाता है उससे उसे चक्कर आती है और सरदर्द होता है, सरदर्द के लिये जो दवाई खाता है उससे सरदर्द तो दब जाता है परन्तु रक्तचाप बढता है। यह सब वह करता है, परेशान होता है, शिकायतें करता है परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करता । यदि वह एक ही बात करता है तो शेष सारी बातें अपने आप निर्मूल हो जाती हैं । उसी प्रकार अपनी दृष्टि ठीक कर ले तो सारी समस्‍यायें निर्मूल हो जायेंगी ऐसा इस बुद्धि में नहीं उतरता । व्यक्ति - केन्द्रितता को हम नहीं छोड़ते ।
 
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लिये जो दवाई खाता है उससे उसे चक्कर आती है और सरदर्द होता है, सरदर्द के लिये जो दवाई खाता है उससे सरदर्द तो दब जाता है परन्तु रक्तचाप बढता है। यह सब वह करता है, परेशान होता है, शिकायतें करता है परन्तु कोकाकोला पीना बन्द नहीं करता । यदि वह एक ही बात करता है तो शेष सारी बातें अपने आप निर्मूल हो जाती हैं । उसी प्रकार अपनी दृष्टि ठीक कर ले तो सारी समस्‍यायें निर्मूल हो जायेंगी ऐसा इस बुद्धि में नहीं उतरता । व्यक्ति - केन्द्रितता को हम नहीं छोड़ते ।
      
२३. व्यक्ति केन्द्रिता को हमने अच्छे अच्छे शब्दों में निरूपित कर हमारे संकट को और बढ़ा दिया है । हम व्यक्ति स्वातन्य की बात करते हैं। व्यक्ति के अधिकार की बात करते हैं । व्यक्ति के विकास की बात करते हैं । व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता करे उसे स्वाभाविक मानते है । व्यक्ति अपने सुख के लिये दूसरों का उपयोग करे उसे उचित मानते हैं । भारत की जीवनदृष्टि कहती है कि दूसरों का विचार पहले करो, अपना बाद में । परन्तु हम उसे नहीं मानते हैं । उलटे यह थो अस्वाभाविक है और अव्यावहारिक है ऐसा ही कहते हैं ।
 
२३. व्यक्ति केन्द्रिता को हमने अच्छे अच्छे शब्दों में निरूपित कर हमारे संकट को और बढ़ा दिया है । हम व्यक्ति स्वातन्य की बात करते हैं। व्यक्ति के अधिकार की बात करते हैं । व्यक्ति के विकास की बात करते हैं । व्यक्ति अपने सुख की चिन्ता करे उसे स्वाभाविक मानते है । व्यक्ति अपने सुख के लिये दूसरों का उपयोग करे उसे उचित मानते हैं । भारत की जीवनदृष्टि कहती है कि दूसरों का विचार पहले करो, अपना बाद में । परन्तु हम उसे नहीं मानते हैं । उलटे यह थो अस्वाभाविक है और अव्यावहारिक है ऐसा ही कहते हैं ।
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२७. व्यक्ति केन्ट्रितता के साथ ही दूसरा है भौतिकवाद । भौतिकवाद के कारण हम देहात्मवादी भी हैं । इसलिये समृद्धि की कल्पना भौतिक है । समृद्धि का मूल प्रेरक तत्त्व काम है । हम कामपूर्ति को मुख्य और केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानने लगे । इससे उपभोग प्रधान जीवनशैली स्वाभाविक बन गई । अधिकाधिक उपभोग में सुख की अधिकता मानने लगे, भले ही प्रत्यक्ष कष्टों का अनुभव कर रहे हों । कामपूर्ति हेतु सामग्री जुटाना अर्थपुरुषार्थ का पर्याय बन गया । अधिकतम सामग्री जुटाने को सफलता मानने लगे और यह सफलता विकास का पर्याय बन गई । इसे हमने विकास का सिद्धान्त बना लिया । बुद्धि के भटकने का यह स्पष्ट लक्षण है ।
 
२७. व्यक्ति केन्ट्रितता के साथ ही दूसरा है भौतिकवाद । भौतिकवाद के कारण हम देहात्मवादी भी हैं । इसलिये समृद्धि की कल्पना भौतिक है । समृद्धि का मूल प्रेरक तत्त्व काम है । हम कामपूर्ति को मुख्य और केन्द्रवर्ती पुरुषार्थ मानने लगे । इससे उपभोग प्रधान जीवनशैली स्वाभाविक बन गई । अधिकाधिक उपभोग में सुख की अधिकता मानने लगे, भले ही प्रत्यक्ष कष्टों का अनुभव कर रहे हों । कामपूर्ति हेतु सामग्री जुटाना अर्थपुरुषार्थ का पर्याय बन गया । अधिकतम सामग्री जुटाने को सफलता मानने लगे और यह सफलता विकास का पर्याय बन गई । इसे हमने विकास का सिद्धान्त बना लिया । बुद्धि के भटकने का यह स्पष्ट लक्षण है ।
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२८. भौतिकता को आधार मानने से दिशा उल्टी हो गई । अब हमें यह समझ में नहीं आता कि आत्मतत्त्व ने सृष्टिरप बनकर जब अपने आपका विस्तार शुरू किया तब उसका अन्तिम छोर पंचमहाभूतात्मक स्थूल
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२८. भौतिकता को आधार मानने से दिशा उल्टी हो गई । अब हमें यह समझ में नहीं आता कि आत्मतत्त्व ने सृष्टिरप बनकर जब अपने आपका विस्तार शुरू किया तब उसका अन्तिम छोर पंचमहाभूतात्मक स्थूल जगत था । आधार और मूल आत्मतत्त्व है, महाभूत नहीं । केवल बुद्धि से ही समझें तो भी आत्मतत्त्व को अधिष्ठान मानने से जीवन और जगत के सभी व्यवहारों का खुलासा होता है, भौतिकता को मानने से नहीं होता यह समझना सरल है । परन्तु हमारी बुद्धि आत्मतत्त्व तक पहुँचती ही नहीं है । आत्मतत्व के प्रकाश में सबकुछ देखने से सबकुछ सरल हो जाता है यही स्वीकार्य नहीं होता । “आत्मा' या “आत्मतत्त्व' का स्वीकार किया भी तो उसे बुद्धि से असम्बन्धित ऐसा कुछ मानने लगते है ।
 
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जगत था । आधार और मूल आत्मतत्त्व है, महाभूत नहीं । केवल बुद्धि से ही समझें तो भी आत्मतत्त्व को अधिष्ठान मानने से जीवन और जगत के सभी व्यवहारों का खुलासा होता है, भौतिकता को मानने से नहीं होता यह समझना सरल है । परन्तु हमारी बुद्धि आत्मतत्त्व तक पहुँचती ही नहीं है । आत्मतत्व के प्रकाश में सबकुछ देखने से सबकुछ सरल हो जाता है यही स्वीकार्य नहीं होता । “आत्मा' या “आत्मतत्त्व' का स्वीकार किया भी तो उसे बुद्धि से असम्बन्धित ऐसा कुछ मानने लगते है ।
      
=== संकल्पनात्मक शब्द ===
 
=== संकल्पनात्मक शब्द ===
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