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श्री अरविन्द [युगाब्द 4973-5051 (1872-1950 ई०)] भारत के एक श्रेष्ठ राजनीतिक नेता, क्रान्तिकारी, योगी और भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ व्याख्याता थे। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बंगाल में प्राप्त की। तदुपरान्त अध्ययन के लिए इंग्लैंड गये। भारत लौटने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े और क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया। अलीपुर बम केस में जेल गये। 'कर्मयोगी', 'वन्देमातरम्' तथा 'आर्य' पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में राजनीतिक आन्दोलन के मार्ग से निवृत्त होकर पांडिचेरी चले आये और योग साधना में रत हुए। युगाब्द 5021 (सन् 1920) में पांडिचेरी आश्रम की स्थापना की। 'पूर्णयोग', 'अतिमानस', 'अतिमानव' और 'दिव्य जीवन' की अवधारणाओं का प्रतिपादन करने वाले अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। भारतमाता का चेतनामयी परमात्म-शक्ति के रूप में साक्षात्कार कर भारतीय राष्ट्रवाद को उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अधिष्ठान प्रदान किया तथा भविष्य में भारत को जो योगदान करना है उसका भी विवेचन किया। उन्होंने भारत के पुन: अखंड होने की भविष्यवाणी की है।  
 
श्री अरविन्द [युगाब्द 4973-5051 (1872-1950 ई०)] भारत के एक श्रेष्ठ राजनीतिक नेता, क्रान्तिकारी, योगी और भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ व्याख्याता थे। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बंगाल में प्राप्त की। तदुपरान्त अध्ययन के लिए इंग्लैंड गये। भारत लौटने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े और क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया। अलीपुर बम केस में जेल गये। 'कर्मयोगी', 'वन्देमातरम्' तथा 'आर्य' पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में राजनीतिक आन्दोलन के मार्ग से निवृत्त होकर पांडिचेरी चले आये और योग साधना में रत हुए। युगाब्द 5021 (सन् 1920) में पांडिचेरी आश्रम की स्थापना की। 'पूर्णयोग', 'अतिमानस', 'अतिमानव' और 'दिव्य जीवन' की अवधारणाओं का प्रतिपादन करने वाले अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। भारतमाता का चेतनामयी परमात्म-शक्ति के रूप में साक्षात्कार कर भारतीय राष्ट्रवाद को उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अधिष्ठान प्रदान किया तथा भविष्य में भारत को जो योगदान करना है उसका भी विवेचन किया। उन्होंने भारत के पुन: अखंड होने की भविष्यवाणी की है।  
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==== <big>'''विवेकानन्द'''</big> ====
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==== <big>विवेकानन्द</big> ====
 
विदेशों में हिन्दूधर्म की कीर्ति पताका फहराने वाले, स्वदेश में वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)] का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित 'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकर अपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उन्होंने  'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।  
 
विदेशों में हिन्दूधर्म की कीर्ति पताका फहराने वाले, स्वदेश में वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)] का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित 'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकर अपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उन्होंने  'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।  
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=== समाज सुधारक एवं गणमान्य नेतागण ===
 
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<blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote>
 
<blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote>
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उड़ीसा में पुरी जिले के अन्तर्गत जन्मे पण्डित गोपबन्धुदास [युगाब्द 4973-5029 (1872-1928 ई०)] श्रेष्ठ कवि, लेखक, पत्रकार, दार्शनिक, समाज-सुधारक, कुशल संगठक, राजनीतिक नेता एवं हिन्दुत्ववादी चिंतक के रूप में विख्यात हैं। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के नेतृत्व के पूर्व एवं पश्चात् भी वे सम्पूर्ण उड़ीसा में अग्रणी रहे। उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण हेतु अभियान चलाया और गांधी जी को भी हरिजन-उद्धार-कार्य की प्रेरणा दी। उनके साथ पुरी जिले में पदयात्रा के समय ही महात्मा गांधी ने 'एक वस्त्र परिधान' का संकल्प लिया था। गोपबन्धुदास ने आर्तजनों की सेवा के सामने निजी तथा पारिवारिक दु:खों एवं संकटों को सदा गौण माना। वे उड़ीसा के सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र 'समाज' के प्रतिष्ठाता और अखिल भारतीय लोक-सेवक मंडल के प्रमुख कर्णधार थे।  
 
उड़ीसा में पुरी जिले के अन्तर्गत जन्मे पण्डित गोपबन्धुदास [युगाब्द 4973-5029 (1872-1928 ई०)] श्रेष्ठ कवि, लेखक, पत्रकार, दार्शनिक, समाज-सुधारक, कुशल संगठक, राजनीतिक नेता एवं हिन्दुत्ववादी चिंतक के रूप में विख्यात हैं। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के नेतृत्व के पूर्व एवं पश्चात् भी वे सम्पूर्ण उड़ीसा में अग्रणी रहे। उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण हेतु अभियान चलाया और गांधी जी को भी हरिजन-उद्धार-कार्य की प्रेरणा दी। उनके साथ पुरी जिले में पदयात्रा के समय ही महात्मा गांधी ने 'एक वस्त्र परिधान' का संकल्प लिया था। गोपबन्धुदास ने आर्तजनों की सेवा के सामने निजी तथा पारिवारिक दु:खों एवं संकटों को सदा गौण माना। वे उड़ीसा के सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र 'समाज' के प्रतिष्ठाता और अखिल भारतीय लोक-सेवक मंडल के प्रमुख कर्णधार थे।  
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'''<big>लोकमान्य बाल गंगाधरतिलक [युगाब्द 4957-5021 (1856-1920 ई०)]</big>'''
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==== <big>लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक</big> ====
 
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“भारतीय असंतोष के जनक" तथा उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक विचारों के नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का जन्म रत्नागिरि (महाराष्ट्र) में हुआ था [युगाब्द 4957-5021 (1856-1920 ई०)]। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से तिलक ने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना की। उनमें सुप्रसिद्ध फर्गयूसन कालेज भी था, जिसमें तिलक संस्कृत और गणित पढ़ाया करते थे। ब्रिटिश दमन-नीति का विरोध करने तथा लोगोंं में राष्ट्रीय चेतना जगाने के उद्देश्य से उन्होंने 'केसरी' और 'मराठा' पत्रों का प्रकाशन किया।  
“भारतीय असंतोष के जनक" तथा उग्र राष्ट्रवादी राजनीतिक विचारों के नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक काजन्म रत्नागिरि (महाराष्ट्र) मेंहुआ था। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार के उद्देश्य से तिलक ने अनेक शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना की। उनमें सुप्रसिद्ध फग्र्युसन कालेज भी था, जिसमें तिलक संस्कृत और गणित पढ़ाया करते थे। ब्रिटिश दमन-नीति का विरोध करने तथा लोगोंंमें राष्ट्रीयचेतनाजगाने के उद्देश्य सेउन्होंने 'केसरी' और 'मराठा'पत्रों का प्रकाशन किया।  
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'स्वराज्य मेरा जन्म—सिद्ध अधिकार है” – यह गर्जना करने वाले भारत—केसरी तिलक ही थे। 1905 में बंगाल के विभाजन की घोषणा के बाद जब राष्ट्रीय आन्दोलन में उभार आया तो तिलक ने स्वराज्य, स्वदेशी,बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की चतु:सूत्री योजना प्रस्तुत की। अंग्रेजों की दमन—नीति का प्रखर विरोध करने के कारण उन्हें छ: वर्ष का कठोर कारावास देकर मांडले बन्दीगृह में भेज दिया गया। कारागार में ही तिलक ने ‘गीता-रहस्य' नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखकर गीता की कर्मयोगपरक व्याख्या की। ' ओरायन' और ' आकटिक होम इन द वेदाज' नामक शोध-प्रबन्ध भी लिखे। उन्होंने जनजागृति के लिएगणेशोत्सवतथाशिव-जयन्ती महोत्सवप्रारम्भ किये औरउनके माध्यम से अंग्रेजी दासता के विरुद्ध जनरोष को मुखर किया।
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'''<big>महात्मा गांधी [कलि सं० 4970-5048 (1869-1948 ई०)]</big>'''
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राष्ट्रीय स्वातंत्र्य अांदोलन केप्रमुख नेता,जो लगभग तीन दशक तक भारत के सार्वजनिक जीवन पर छाये रहे। काठियावाड़, गुजरात में जन्मे मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को उनके न्यायोचित अधिकार प्राप्त कराने के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह की नूतन पद्धति का प्रयोग किया। युगाब्द 5021 (ई० 1920) में लोकमान्य तिलक की मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व गांधी जी के कधों पर आ पड़ा। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में समाज के विभिन्न वर्गों का समावेश करके उसे व्यापक आधार प्रदान किया। युगाब्द 5021, 5031-32 और 5043 (सन् 1920, 1930-31 और 1942) में गांधी जी ने तीन बड़े राष्ट्रीय आंदोलनों का संचालन किया। सत्य, अहिंसा, गीता और रामनाम में उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। वे उदार सनातनी हिन्दूथे। गांधी जी ने अस्पृश्यता—निवारण,गोरक्षण, ग्रामोद्योग, खादी, राष्ट्रभाषा, मद्यपान-निषेद्य जैसी अनेक राष्ट्रीय एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों की श्रृंखला खड़ी की। राष्ट्रविरोधी तत्वों के प्रति भी सदाशयता जैसेउनके कुछविचारोंसे असहमतनाथूरामगोडसेनामकउग्र व्यक्ति ने 30जनवरी, 1948 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
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'''<big>रमण महर्षि [युगाब्द 4980-5051 (1879-1950 ई०)]</big>'''
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रमण महर्षि एक साक्षात्कारी पुरुष थे,जिन्होंने प्रश्नोत्तर की सीधी-सरल पद्धति से उपदेश देकर अपने देशी-विदेशी शिष्यों एवं श्रद्धालुओं को दिव्य संदेश सुनाया। उनके विचारों का संकलन 'रमणगीता'नामक ग्रंथ मेंहुआहै। इनका जन्म दक्षिण मेंमदुरै के समीपहुआ था। इनका मूल नाम वेंकट रमण था। गृह-त्याग कर वे अरुणाचलम् पहाड़ी पर ध्यानस्थ रहने लगे और आत्मज्ञान प्राप्त किया। आध्यात्मिक विद्या के जिज्ञासुउनके पास देश-विदेश से आने लगे,जिन्हें उन्होंने अपने सुबोध, सरल उपदेशों से परितृप्त किया।  
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'स्वराज्य मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है' – यह गर्जना करने वाले भारत-केसरी तिलक ही थे। 1905 में बंगाल के विभाजन की घोषणा के बाद जब राष्ट्रीय आन्दोलन में उभार आया तो तिलक ने स्वराज्य, स्वदेशी, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की चतु:सूत्री योजना प्रस्तुत की। अंग्रेजों की दमन-नीति का प्रखर विरोध करने के कारण उन्हें छ: वर्ष का कठोर कारावास देकर मांडले बन्दीगृह में भेज दिया गया। कारागार में ही तिलक ने ‘गीता-रहस्य' नामक श्रेष्ठ ग्रंथ लिखकर गीता की कर्मयोगपरक व्याख्या की। ओरायन और आर्कटिक होम इन द वेदाज नामक शोध-प्रबन्ध भी लिखे। उन्होंने जनजागृति के लिए गणेशोत्सव तथा शिव-जयन्ती महोत्सवप्रारम्भ किये और उनके माध्यम से अंग्रेजी दासता के विरुद्ध जनरोष को मुखर किया।  
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'''<big>मदनमोहनमालवीय [युगाब्द 4962-5047 (1861-1946 ई०)]</big>'''
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==== <big>महात्मा गांधी</big> ====
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राष्ट्रीय स्वातंत्र्य आन्दोलन के प्रमुख नेता,जो लगभग तीन दशक तक भारत के सार्वजनिक जीवन पर छाये रहे। काठियावाड़, गुजरात में जन्मे  [कलि सं० 4970-5048 (1869-1948 ई०)] मोहनदास कर्मचन्द गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को उनके न्यायोचित अधिकार प्राप्त कराने के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह की नूतन पद्धति का प्रयोग किया। युगाब्द 5021 (ई० 1920) में लोकमान्य तिलक की मृत्यु के पश्चात् राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व गांधी जी के कधों पर आ पड़ा। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन में समाज के विभिन्न वर्गों का समावेश करके उसे व्यापक आधार प्रदान किया। युगाब्द 5021, 5031-32 और 5043 (सन् 1920, 1930-31 और 1942) में गांधी जी ने तीन बड़े राष्ट्रीय आंदोलनों का संचालन किया। सत्य, अहिंसा, गीता और रामनाम में उनकी प्रगाढ़ आस्था थी। वे उदार सनातनी हिन्दू थे। गांधी जी ने अस्पृश्यता-निवारण, गोरक्षण, ग्रामोद्योग, खादी, राष्ट्रभाषा, मद्यपान-निषेद्य जैसी अनेक राष्ट्रीय एवं रचनात्मक प्रवृत्तियों की श्रृंखला खड़ी की। राष्ट्रविरोधी तत्वों के प्रति भी सदाशयता जैसे उनके कुछ विचारों से असहमत नाथूराम गोडसे नामक उग्र व्यक्ति ने 30 जनवरी, 1948 को गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
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काशी हिन्दूविश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय ने अंग्रेजी दासता के युग में हिन्दूधर्म एवं परम्परा का स्वाभिमानजगाने का कार्यकिया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन की धारा से जुड़कर कांग्रेस तथा हिन्दू महासभा के माध्यम से अपने समय की सक्रिय राजनीति में प्रमुख भूमिका निभायी। कांग्रेस केदो बार अध्यक्ष रहे। अपने निजी जीवन की पवित्रता तथा श्रेष्ठ चारित्रय की साख के बल पर धनसंग्रह कर लोकोपयोगी कार्यों का संयोजन किया। स्वातंत्रय—प्राप्ति हेतुकिये जा रहे संघर्ष और सांस्कृतिक उन्नयन के प्रयासों में मालवीय जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार में उनका अविस्मरणीय योगदान है।
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==== <big>रमण महर्षि</big> ====
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रमण महर्षि एक साक्षात्कारी पुरुष थे [युगाब्द 4980-5051 (1879-1950 ई०)], जिन्होंने प्रश्नोत्तर की सीधी-सरल पद्धति से उपदेश देकर अपने देशी-विदेशी शिष्यों एवं श्रद्धालुओं को दिव्य संदेश सुनाया। उनके विचारों का संकलन 'रमणगीता' नामक ग्रंथ में हुआ है। इनका जन्म दक्षिण में मदुरै के समीप हुआ था। इनका मूल नाम वेंकट रमण था। गृह-त्याग कर वे अरुणाचलम् पहाड़ी पर ध्यानस्थ रहने लगे और आत्मज्ञान प्राप्त किया। आध्यात्मिक विद्या के जिज्ञासु उनके पास देश-विदेश से आने लगे, जिन्हें उन्होंने अपने सुबोध, सरल उपदेशों से परितृप्त किया।
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'''<big>सुब्रह्मण्य भारती [युगाब्द 4983-5022 (1882-1921 ई०)]</big>'''
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==== <big>मदन मोहन मालवीय</big> ====
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काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदनमोहन मालवीय [युगाब्द 4962-5047 (1861-1946 ई०)] ने अंग्रेजी दासता के युग में हिन्दूधर्म एवं परम्परा का स्वाभिमान जगाने का कार्य किया। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन की धारा से जुड़कर कांग्रेस तथा हिन्दू महासभा के माध्यम से अपने समय की सक्रिय राजनीति में प्रमुख भूमिका निभायी। कांग्रेस के दो बार अध्यक्ष रहे। अपने निजी जीवन की पवित्रता तथा श्रेष्ठ चारित्रय की साख के बल पर धनसंग्रह कर लोकोपयोगी कार्यों का संयोजन किया। स्वातंत्रय-प्राप्ति हेतु किये जा रहे संघर्ष और सांस्कृतिक उन्नयन के प्रयासों में मालवीय जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। राष्ट्रीय शिक्षा के प्रसार में उनका अविस्मरणीय योगदान है।
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तमिलनाडु के प्रमुख राष्ट्रीय कवि सुब्रह्मण्य भारती ने सहज-सुबोध भाषा में लिखी अपनी राष्ट्रीय कविताओं द्वारा हजारों-लाखों लोगोंं के हृदय में देशभक्ति का संचार किया। वे अपनी ओजपूर्ण राष्ट्रीय रचनाओं के कारण कई बार जेल गये। राजनीतिक विचारों की दृष्टि से वे गरमपंथी थे। वे श्री अरविन्द, चिदम्बरम् पिल्लै, वी०वी०एस० अय्यर आदि देशभक्तों और स्वाधीनता-संग्राम के योद्धाओं के निकट सम्पर्क में आये। आलवार और नायन्मार भक्तों की शैली में उन्होंने अनेक भक्तिगीत रचे। सुब्रह्मण्य भारती देशभक्त होने के साथ समाज-सुधारक भी थे। स्त्रियों की स्वतंत्रता, उच्च और निम्न जातियों की समानता तथा अस्पृश्यता—निवारण के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आधुनिक तमिल कविता की प्रवृत्ति का प्रारम्भ भारती ने ही किया। भारती ने ऋषियों और संतों के आध्यात्मिक-सांस्कृतिक दाय को जन-सामान्य तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
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==== <big>सुब्रह्मण्य भारती</big> ====
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तमिलनाडु के प्रमुख राष्ट्रीय कवि सुब्रह्मण्य भारती [युगाब्द 4983-5022 (1882-1921 ई०)] ने सहज-सुबोध भाषा में लिखी अपनी राष्ट्रीय कविताओं द्वारा हजारों-लाखों लोगोंं के हृदय में देशभक्ति का संचार किया। वे अपनी ओजपूर्ण राष्ट्रीय रचनाओं के कारण कई बार जेल गये। राजनीतिक विचारों की दृष्टि से वे गरमपंथी थे। वे श्री अरविन्द, चिदम्बरम् पिल्लै, वी०वी०एस० अय्यर आदि देशभक्तों और स्वाधीनता-संग्राम के योद्धाओं के निकट सम्पर्क में आये। आलवार और नायन्मार भक्तों की शैली में उन्होंने अनेक भक्तिगीत रचे। सुब्रह्मण्य भारती देशभक्त होने के साथ समाज-सुधारक भी थे। स्त्रियों की स्वतंत्रता, उच्च और निम्न जातियों की समानता तथा अस्पृश्यता-निवारण के लिए उन्होंने बहुत काम किया। आधुनिक तमिल कविता की प्रवृत्ति का प्रारम्भ भारती ने ही किया। भारती ने ऋषियों और संतों के आध्यात्मिक-सांस्कृतिक विचारों को जन-सामान्य तक पहुँचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
 
[[File:१७.PNG|center|thumb]]
 
[[File:१७.PNG|center|thumb]]
 
<blockquote>'''<big>सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक: । ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणी गुरुः ॥30 ॥</big>''' </blockquote>
 
<blockquote>'''<big>सुभाषः प्रणवानन्दः क्रान्तिवीरो विनायक: । ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणी गुरुः ॥30 ॥</big>''' </blockquote>
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'''<big>सुभाषचन्द्र बसु [जन्म युगाब्द 4997 (1897ई०)]</big>'''  
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==== <big>सुभाषचन्द्र बसु</big> ====
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बसु) कटक (उड़ीसा) के प्रख्यात वकील जानकीनाथ बसु के पुत्र थे [जन्म युगाब्द 4997 (1897ई०)]। इन्होंने आई०सी०एस० परीक्षा उत्तीर्ण की, पर उस सर्वोच्च सरकारी सेवा को ठोकर मारकर स्वाधीनता-संघर्ष में कूद पड़े। गांधी जी के प्रत्याशी को पराजित कर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। अंग्रेजों की नजरबंदी से गुप्त रूप से निकलकर विदेश पहुँचे। इंग्लैंड द्वितीय विश्वयुद्ध में फंसा था। इस स्थिति का लाभ उठाकर इंग्लैंड के शत्रु देश जापान की सहायता लेकर 'आजाद हिन्द फौज' का विस्तार किया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संग्राम करते हुए भारत के उत्तर-पूर्वी सीमान्त में पर्याप्त आगे बढ़ आये। युगाब्द 5046 (सन् 1945) में जापान की पराजय हो जाने पर वे एक विमान से किसी सुरक्षित स्थान को जा रहे थे। उनकी मृत्यु उसी विमान की दुर्घटना में हुई, ऐसा बताया गया, परन्तु उनकी मृत्यु का रहस्य अब भी बना हुआ है। देश के लिए स्वाधीनता लाने में उनका अति महत्वपूर्ण योगदान यह रहा कि सेना में उनकी जगायी चेतना के फलस्वरूप अंग्रेजों के लिए यह सम्भव नहीं रहा कि वे भारतीयों के ही कन्धों पर बन्दूक रखकर भारत को अपने अधीन रख सकें।
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नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (बसु) कटक (उड़ीसा) के प्रख्यात वकील जानकीनाथ बसु के पुत्र थे। इन्होंने आई०सी०एस० परीक्षा उत्तीर्ण की,परउस सर्वोच्चसरकारी सेवा कोठोकर मारकर स्वाधीनता-संघर्ष में कुद पड़े। गांधी जी के प्रत्याशी को पराजित कर कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये। अंग्रेजों की नजरबंदी से गुप्त रूप से निकलकर विदेश पहुँचे। इंग्लैंड द्वितीय विश्वयुद्ध में फंसा था। इस स्थिति का लाभ उठाकर इंग्लैंड के शत्रु देश जापान की सहायता लेकर 'आजाद हिन्द फौज' का विस्तार किया तथा अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संग्राम करते हुए भारत के उत्तर-पूर्वी सीमान्त में पर्याप्त आगे बढ़ आये। युगाब्द 5046 (सन् 1945) में जापान की पराजय हो जाने पर वे एक विमान सेकिसी सुरक्षित स्थान को जा रहे थे। उनकी मृत्युउसी विमान की दुर्घटना में हुई ऐसा बताया गया,परन्तुउनकी मृत्युका रहस्य अब भी बना हुआ है। देश के लिए स्वाधीनता लाने मेंउनका अति महत्वपूर्ण योगदान यहरहा कि सेनामेंउनकी जगायी चेतना के फलस्वरूप अंग्रेजों के लिए यह सम्भव नहीं रहा कि वे भारतीयों के ही कन्धों पर बन्दूक रखकर भारत को अपने अधीन रख सकें।
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==== <big>प्रणवानन्द</big> ====
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'भारत सेवाश्रम संघ' के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी पीड़ितों की सेवा-सहायता में सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने प्रखर हिन्दुत्व का प्रतिपादन किया। हिन्दू संगठन हेतु संघशाखा के ही समान मिलन-मन्दिर के माध्यम से दैनिक एकत्रीकरण आयोजित करने की व्यवस्था विकसित की। वे विशेषत: बंगाल में संगठन-कार्य में रत रहे।
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'''<big>प्रणवानन्द</big>'''
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==== <big>विनायक सावरकर</big> ====
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क्रान्तिकारियों में अग्रणी, हिन्दुत्व के प्रखर उद्घोषक, अस्पृश्यता-निवारण एवं सामाजिक समता जैसी समाज-सुधार प्रवृत्तियों के पुरस्कर्ता, ब्रिटिश दमन के प्रखर प्रतिकारक, आजीवन कठोर यातनाओं को सहर्ष भोगने वाले अद्वितीय साहसी, प्रतिभावान् कवि, सशक्त लेखक, ओजस्वी वक्ता स्वातंत्र्य-वीर विनायक दामोदर सावरकर    [युगाब्द 4984—5067 (1883-1966 ई०)] ने भारत से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन में भाग लिया और देश तथा विदेश में अनेक तरुण विद्यार्थियों को विदेशी सत्ता के प्रतिकार की प्रेरणा दी। ब्रिटिश सत्ता का प्रखर विरोध करने और क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने के कारण उन्हें जब इंग्लैंड से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था तो उन्होंने समुद्र में कूदकर भागने का प्रयत्न किया। दो आजीवन कारावासों का दंड देकर उन्हें अंडमान भेजा गया। रत्नागिरि में नजरबंद रहते हुए उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण जैसे सामाजिक कार्य किये। युगाब्द 4958 (सन्1857) में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतवासियों के संघर्ष को उन्होंने स्वातंत्र्य-समर की संज्ञा दी। वीर सावरकर अनेक वर्षों तक हिन्दूमहासभा के अध्यक्ष रहे। हिन्दु राष्ट्रीयता का उन्होंने आधुनिक शब्दावली में सशक्त एवं तर्कशुद्ध मंडन किया।
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'भारत सेवाश्रम संघ' के संस्थापक स्वामी प्रणवानन्द जी पीड़ितों की सेवा-सहायता में सदैव अग्रणी रहे। उन्होंने प्रखर हिन्दुत्व का प्रतिपादन किया। हिन्दू संगठन हेतु संघशाखा के ही समान 'मिलन—मन्दिर' के माध्यम से दैनिक एकत्रीकरण आयोजित करने की व्यवस्था विकसित की। वे विशेषत: बंगाल में संगठन—कार्य में रत रहे।
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==== <big>ठक्कर बाप्पा</big> ====
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प्रसिद्ध समाज-सेवक, जिन्होंने वनवासियों की दुर्दशा से द्रवित होकर अपना सम्पूर्ण जीवन [युगाब्द 4960-5052 (1859-1951 ई०)] उन्हीं की दशा सुधारने और सेवा करने में लगा दिया। इनका जन्म गुजरात के भावनगर में एक समाजसेवा-परायण व्यक्ति विट्ठलदास ठक्कर के घर हुआ था। ठक्कर बाप्पा का पूरा नाम अमृतलाल ठक्कर था। इन्होंने वरिष्ठ अभियंता पद त्याग कर पूर्णकालिक सेवा-व्रत लिया। वे 'भारत सेवक समाज' के माध्यम से सेवाव्रती बने। उन्होंने 'भील सेवा मंडल' की स्थापना की, जो रचनात्मक कार्य की गंगोत्री बन गया। अपने समाज के उपेक्षित बन्धुओं वनवासी अथवा 'आदिम' जाति के लोगों की आर्त अवस्था से कातर होकर ठक्कर बाप्पा उन्हीं के हो गये।
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'''<big>विनायकसावरकर [युगाब्द 4984—5067 (1883-1966 ई०)]</big>'''  
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==== <big>भीमराव अम्बेडकर</big> ====
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महाराष्ट्र की महार जाति में जन्मे  [युगाब्द 4992-5057 (1891-1956 ई०)] भीमराव ने जातिगत भेदभाव का तीव्र दंश स्वयं अनुभव किया था। उन्होंने विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की और अपने उपेक्षित बन्धुओं को सम्मान और अधिकार प्राप्त कराने के लिए आजीवन अथक प्रयत्न किया। वे वित्त और विधिशास्त्र (कानून) के उच्चकोटि के विद्वान थे। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन [युगाब्द 5032 (1931 ई०)] में डा० अम्बेडकर ने हरिजनों के लिए पृथक निर्वाचक-मंडल की माँग की थी। किन्तु आगे चलकर 'पूना पैक्ट' को स्वीकार करते हुए उन्होंने अपना यह आग्रह छोड़ दिया और संयुक्त निर्वाचक-मंडल को स्वीकृति देकर हिन्दू समाज को 'सवर्ण' और 'हरिजन' में बँटने से बचा लिया। उन्होंने मुस्लिम और ईसाई प्रलोभनों को ठुकराकर अपने अनुयायियों सहित बौद्धमत स्वीकार किया। उनका स्पष्ट कहना था कि धर्मान्तरण करके विदेशी मूल के सम्प्रदायों में जाने से राष्ट्रनिष्ठा समाप्त होती है। स्वतंत्र भारत के संविधान-निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
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क्रान्तिकारियों में अग्रणी,हिन्दुत्व के प्रखरउद्घोषक, अस्पृश्यता-निवारण एवं सामाजिक समता जैसी समाज-सुधार प्रवृत्तियों के पुरस्कर्ता, ब्रिटिश दमन के प्रखर प्रतिकारक, आजीवन कठोर यातनाओं को सहर्ष भोगने वाले अद्वितीय साहसी, प्रतिभावान् कवि, सशक्त लेखक, ओजस्वी वक्ता स्वातंत्र्य-वीर विनायक दामोदर सावरकर ने भारत से ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन में भाग लिया और देश तथा विदेश में अनेक तरुण विद्यार्थियों को विदेशी सत्ता के प्रतिकार की प्रेरणा दी। ब्रिटिश सत्ता का प्रखर विरोध करने और क्रान्तिकारी गतिविधियों का संचालन करने के कारण उन्हें जब इंग्लैंड से बंदी बनाकर भारत लाया जा रहा था तो उन्होंने समुद्र में कुदकर भागने का प्रयत्न किया। दो आजीवन कारावासों का दंड देकर उन्हें अंडमान भेजा गया। रत्नागिरि में नजरबंद रहते हुए उन्होंने अस्पृश्यता—निवारण जैसे सामाजिक कार्य किये। युगाब्द 4958 (सन्1857) में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध भारतवासियों के संघर्ष को उन्होंने स्वातंत्र्य-समर की संज्ञा दी। वीर सावरकर अनेक वर्षों तक हिन्दूमहासभा के अध्यक्ष रहे। हिन्दु राष्ट्रीयता का उन्होंने आधुनिक शब्दावली में सशक्त एवं तर्कशुद्ध मंडन किया।
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==== <big>ज्योतिराव फुले</big> ====
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महाराष्ट्र के महान् समाज-सुधारक ज्योतिराव फुले [युगाब्द 4928-4991 (1827-1890 ई०)] ने उपेक्षितों, अछूतों और स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए कठिन प्रयास किये। शिक्षा के द्वारा उपेक्षितों और स्त्रियों की अवस्था उन्नत की जा सकती है, ऐसी उनकी मान्यता थी। हरिजनों तथा स्त्रियों की शिक्षा के लिए विद्यालय खोलने वाले वे प्रथम समाज-सुधारक माने जाते हैं। हंटर कमीशन के सामने उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दिये जाने की माँग भी की थी। वे सामाजिक समता के पक्षधर थे। छुआछूत के विरुद्ध उन्होंने डटकर संघर्ष किया। युगाब्द4975 (सन् 1874 ई०) में उन्होंने 'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की ताकि लोगों की विशाल मानवधर्म की शिक्षा दी जा सके। विधवा स्त्रियों का मुंडन कर देने की प्रथा (केशवपन) का उन्होंने कड़ा विरोध किया। अनाथ बालकों और निराधार स्त्रियों के लिए 'अनाथाश्रम' और 'सूतिका-गृह' चलाये। रूढ़िवाद और अंधश्रद्धा पर प्रहार कर ज्योतिबा ने बुद्धिवाद की शिक्षा दी।  
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'''<big>ठक्कर बाप्पा [युगाब्द 4960-5052 (1859-1951 ई०)]</big>'''
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==== <big>नारायण गुरु</big> ====
 
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हिन्दू समाज की धार्मिक आस्था पर अनैतिक साधनों से आक्रमण करने की कूट योजनाओं का प्रतिकार एवं निवारण करने और इस हेतु केरल में तथाकथित अछूतों के लिए मन्दिरों की स्थापना करने वाले नारायण गुरु का जन्म [युगाब्द 4954-5029 (1853-1928 ई०)] केरल में एक अछूत कहलाने वाली जाति में हुआ था। संस्कृत भाषा और वेदान्त का गहन अध्ययन कर उन्होंने योग-साधना और तपस्या की तथा रोगी, निर्धन, अस्पृश्य एवं वनवासी बन्धुओं की सेवा-सुश्रुषा में अपने को खपा दिया। उनके बनवाये मन्दिर हिन्दू संगठन के केन्द्र बन गये। केरल में हिन्दू समाज के धर्मान्तरण की प्रवृत्ति को रोकने का चिरस्मरणीय कार्य यदि नारायण गुरु ने न किया होता तो केरल का हिन्दू समाज बहुसंख्या में धर्मभ्रष्ट हो गया होता।
प्रसिद्ध समाज-सेवक, जिन्होंने वनवासियों की दुर्दशा से द्रवित होकर अपना सम्पूर्ण जीवन उन्हीं की दशा सुधारने और सेवा करने में लगा दिया। इनका जन्म गुजरात के भावनगर में एक समाजसेवा-परायण व्यक्ति विट्ठलदास ठक्कर के घर हुआ था। ठक्कर बाप्पा का पूरा नाम अमृतलाल ठक्कर था। इन्होंने वरिष्ठ अभियंता पद त्याग कर पूर्णकालिक सेवा-व्रत लिया। वे ' भारत सेवक समाज ' के माध्यम से सेवाव्रती बने। उन्होंने ' भील सेवा मंडल' की स्थापना की, जो रचनात्मक कार्य की गंगोत्री बन गया। अपने समाज के उपेक्षित बन्धुओं – वनवासी अथवा ' आदिम' जाति के लोगोंं – की आर्त अवस्था से कातर होकर ठक्कर बाप्पा उन्हीं के हो गये।
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'''<big>भीमराव अम्बेडकर [युगाब्द4992-5057 (1891-1956 ई०)]</big>'''
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महाराष्ट्र की महार जाति में जन्मे भीमराव ने जातिगत भेदभाव का तीव्र दंश स्वयं अनुभव किया था। उन्होंने विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त की और अपने उपेक्षित बन्धुओं को सम्मान और अधिकारप्राप्त कराने के लिए आजीवन अथक प्रयत्न किया। वे वित्त और विधिशास्त्र (कानून) के उच्चकोटि के विद्वान् थे। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन [युगाब्द 5032 (1931 ई०)] में डा० अम्बेडकरने हरिजनों के लिएपृथक निर्वाचक-मंडल की माँग की थी। किन्तुआगे चलकर'पूना पैक्ट' को स्वीकार करते हुएउन्होंने अपना यह आग्रह छोड़ दिया और संयुक्त निर्वाचक-मंडल को स्वीकृतिदेकरहिन्दूसमाज को'सवर्ण' और'हरिजन'मेंबँटने से बचालिया। उन्होंने मुस्लिम और ईसाई प्रलोभनों को ठुकराकर अपने अनुयायियों सहित बौद्धमत स्वीकार किया। उनका स्पष्ट कहना था कि धर्मान्तरण करके विदेशी मूल के सम्प्रदायों में जाने से राष्ट्रनिष्ठा समाप्त होती है। स्वतंत्र भारत के संविधान-निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही।
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'''<big>ज्योतिराव फुले [युगाब्द 4928-4991 (1827-1890 ई०)]</big>'''
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महाराष्ट्र के महान् समाज-सुधारक ज्योतिराव फुले ने उपेक्षितों, अछूतों और स्त्रियों की अवस्था सुधारने के लिए कठिन प्रयास किये। शिक्षा के द्वारा उपेक्षितों और स्त्रियों की अवस्था उन्नत की जा सकती है,ऐसी उनकी मान्यता थी। हरिजनों तथास्त्रियों कीशिक्षा केलिएविद्यालय खोलने वाले वे प्रथम समाज-सुधारक माने जाते हैं। हंटर कमीशन के सामने उन्होंने अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा दिये जाने की माँग भी की थी। वे सामाजिक समता के पक्षधर थे। छुआछूत के विरुद्धउन्होंने डटकर संघर्षकिया। युगाब्द4975 (सन् 1874 ई०) मेंउन्होंने'सत्यशोधक समाज' की स्थापना की ताकि लोगोंं की विशाल मानवधर्म की शिक्षा दी जा सके। विधवा स्त्रियों का मुंडन कर देने की प्रथा (केशवपन) का उन्होंने कड़ा विरोध किया। अनाथ बालकों और निराधार स्त्रियों के लिए 'अनाथाश्रम' और 'सूतिका-गृह' चलाये। रूढ़िवाद और अंधश्रद्धा पर प्रहार कर ज्योतिबा ने बुद्धिवाद की शिक्षा दी।
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'''<big>नारायण गुरु [युगाब्द 4954-5029 (1853-1928 ई०)]</big>'''
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हिन्दूसमाज की धार्मिक आस्था पर अनैतिक साधनों से आक्रमण करके हिन्दुओं को ईसाई बनाने की गतिविधियाँचलाने वाले ईसाई पादरियों की कृट योजनाओं का प्रतिकार एवं निवारण करने और इस हेतु केरल में तथाकथित अछूतों के लिए मन्दिरों की स्थापना करने वाले नारायण गुरु का जन्म केरल में एक अछूत कहलाने वाली जाति में हुआ था। संस्कृत भाषा और वेदान्त का गहन अध्ययन कर उन्होंने योग-साधना और तपस्या की तथा रोगी, निर्धन, अस्पृश्य एवं वनवासी बन्धुओं की सेवा-सुश्रुषामें अपने को खपादिया। उनकेबनवाये मन्दिर हिन्दूसंगठन के केन्द्र बन गये। केरल मेंहिन्दू समाज के धर्मान्तरण की प्रवृत्तिको रोकने का चिरस्मरणीय कार्य यदि नारायण गुरु ने न किया होता तो केरल का हिन्दू समाज बहुसंख्या में धर्मभ्रष्ट हो गया होता।
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[[File:१८.PNG|center|thumb]]
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<blockquote>'''<big>संघशक्तिप्रणोतारौ केशवोमाधवस्तथा। स्मरणीया: सदैवैते नवचैतन्यदायका: । 31 ।</big>''' </blockquote>
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<big>'''डॉक्टर केशवराव हेडगेवार [युगाब्द4990-5041(1889-1940 ई०)]'''</big>
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक महापुरुष,जिनके जीवन काएकमात्र ध्येय था हिन्दू अस्मिता केपुनर्जागरणद्वारा हिन्दूसमाज को सुसंगठित बनाना ताकि अपना राष्ट्र और समाज परम वैभव को प्राप्त कर सके। इस उद्देश्य की प्रेरणा से ही डॉक्टर केशव बलिराम जी ने युगाब्द 5026 (सन् 1925) में विजयादशमी के दिन नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। बचपन से ही ज्वलंत देशभक्ति की भावना उनमें कुट-कूटकर भरी हुई थी। विद्यालय में अंग्रेज निरीक्षक का स्वागत 'वन्दे मातरम्' के उच्चार से करने के कारण उन्हें हाई स्कूल से निष्कासित किया गया और उन्हें पढ़ाई के लिए अन्यत्र जाना पड़ा। बाद में डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए वे योजनापूर्वक क्रान्तिकारियों के गढ़कलकत्ता गये। वहाँअनेक क्रान्तिकारी देशभक्तों सेउनका गहरा सम्पर्क बना। फलत: उन्होंने क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया और नागपुर लौटकर भी क्रान्तिकारियों के सहयोगी बने रहे। नागपुर वापस लौटने के पश्चात् डाक्टरसाहब कांग्रेस,हिन्दू महासभा आदि राजनीतिक संस्थाओं में सहभागी हुए। गत हजार वर्षों में अपने राष्ट्र और समाज के पराभव के कारणों का युक्तियुक्त विश्लेषण करके वे इस निष्कर्ष परपहुँचे किहिन्दूधर्म,हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दू राष्ट्र की चेतना के आधार पर हिन्दू समाज को संगठित करके ही राष्ट्र का शाश्वत कल्याण संभवहै। इस चिन्तन की साकार परिणति संघ के रूप मेंहुई। संगठन की अत्यंत सरल और सहज अनुकरणीय पद्धति उनकी प्रतिभा की विशेष देन है।
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'''<big>माधवसदाशिवरावगोलवलकर(श्री गुरुजी) [युगाब्द 5006-5074 (1906-1973ई०)]</big>'''
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं आद्य सरसंघचालक डॉ० हेडगेवार जी का युगाब्द 5041 (1940 ई०) में असामयिक निधन हो जाने पर सरसंघचालक का दायित्व श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर जी के कधों पर आ गया। उनका जन्म नागपुर में हुआ था। काशी विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में काम करते हुए वे 'गुरुजी' नाम से प्रसिद्ध हुए।प्राध्याप की छोड़कर विधि-शिक्षा ली, किन्तु नैसर्गिक वैराग्य-वृत्ति के कारण सब कुछ छोड़कर सारगाछी (बंगाल) के स्वामी अखण्डानन्द के शिष्य बने और अध्यात्म-साधना में लीन हुए। स्वामी जी की मृत्यु के बाद,उन्हीं की प्रेरणा और आज्ञा से,समाजरूपी परमेश्वर की सेवा करने की ओर उन्मुख हुए और इस कार्य केलिएउन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघसर्वोपयुक्त जान पड़ा। 33 वर्ष (1940-1973) तक सरसंघचालक के रूप में उन्होंने संघकार्य का विस्तार करने के लिए अथक प्रयत्न किया, लाखों संस्कारित स्वयंसेवक खड़ेकिये, राष्ट्र एवं समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का पुनर्निर्माण करने के लिए स्वयंसेवकों को अनेक संस्थाएँ गठित करने की प्रेरणा दी और विश्वभर के हिन्दुओं को एकता के सूत्र में बाँधने का प्रयास किया।
      
'''<big>नवचेतना प्रदान करने वाली ये (उपर्युक्त) विभूतियाँ सदैव स्मरण रखने योग्य हैं।</big>'''
 
'''<big>नवचेतना प्रदान करने वाली ये (उपर्युक्त) विभूतियाँ सदैव स्मरण रखने योग्य हैं।</big>'''
 
[[File:१९.PNG|center|thumb]]
 
[[File:१९.PNG|center|thumb]]
'''अनुक्ता ये भक्ता: प्रभुचरणसंसक्तहृदया:अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुदध्वस्तरिपव:।समाजोद्धतार: सुहितकरविज्ञाननिपुणा: नमस्तेभ्यो भूयात सकलसुजनेभ्य: प्रतिदिनम्॥32 ॥'''
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'''अनुक्ता ये भक्ता: प्रभुचरणसंसक्तहृदया:अनिर्दिष्टा वीरा अधिसमरमुदध्वस्तरिपव:। समाजोद्धतार: सुहितकरविज्ञाननिपुणा: नमस्तेभ्यो भूयात सकलसुजनेभ्य: प्रतिदिनम् ॥31  ॥'''
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इस स्तोत्र में जिनका उल्लेख नहीं हुआ है,ऐसे भी भगवान के चरणों में हृदय से समर्पित अनेक भक्त इस भूमि परहुए हैं,ऐसे अनेक अज्ञात वीर यहाँ हुए हैं जिन्होंने समरभूमि में शत्रुओं का विनाश किया हैतथा अनेक समाजोद्धारक और लोकहितकारी विज्ञान के आविष्कर्ता यहाँहुए,उन सभी सत्पुरुषों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों।  
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इस स्तोत्र में जिनका उल्लेख नहीं हुआ है, ऐसे भी भगवान के चरणों में हृदय से समर्पित अनेक भक्त इस भूमि पर हुए हैं, ऐसे अनेक अज्ञात वीर यहाँ हुए हैं जिन्होंने समरभूमि में शत्रुओं का विनाश किया है तथा अनेक समाजोद्धारक और लोकहितकारी विज्ञान के आविष्कर्ता यहाँ हुए, उन सभी सत्पुरुषों को प्रतिदिन हमारे प्रणाम समर्पित हों।  
    
'''इदमेकात्मतास्तोत्र श्रद्धया यः सदा पठेत्। स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्ड भारतं स्मरेत् । 33 ।'''  
 
'''इदमेकात्मतास्तोत्र श्रद्धया यः सदा पठेत्। स राष्ट्रधर्मनिष्ठावान् अखण्ड भारतं स्मरेत् । 33 ।'''  
Line 774: Line 754:     
'''<big>॥ भारत माता की जय॥</big>'''
 
'''<big>॥ भारत माता की जय॥</big>'''
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==References==
 
==References==

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