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'गीतांजलि' पर युगाब्द 5014 (ई० 1913) में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)] बंगला साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्ध और आदरणीय ब्रह्मसमाजी थे। साहित्यिक रुचि सम्पन्न सुसंस्कृत परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला वाडमय की अपूर्व श्री वृद्धि की। बंगभंग के विरुद्ध जब बंगाल में आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उत्कुष्ट देशभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना की। उन्होंने इंग्लैंड, चीन, जापान आदि देशों का प्रवास और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन किया था। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान विशिष्ट रहा। वे 'विश्वभारती' और 'शांतिनिकेतन' संस्थाओं के संस्थापक थे। कहानी और कविता ही नहीं, रवीन्द्र-संगीत भी उनकी अनुपम देन है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व को भारतीय संस्कृति के सार्वभौम स्वरूप से परिचित कराया।  
 
'गीतांजलि' पर युगाब्द 5014 (ई० 1913) में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)] बंगला साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्ध और आदरणीय ब्रह्मसमाजी थे। साहित्यिक रुचि सम्पन्न सुसंस्कृत परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला वाडमय की अपूर्व श्री वृद्धि की। बंगभंग के विरुद्ध जब बंगाल में आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उत्कुष्ट देशभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना की। उन्होंने इंग्लैंड, चीन, जापान आदि देशों का प्रवास और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन किया था। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान विशिष्ट रहा। वे 'विश्वभारती' और 'शांतिनिकेतन' संस्थाओं के संस्थापक थे। कहानी और कविता ही नहीं, रवीन्द्र-संगीत भी उनकी अनुपम देन है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व को भारतीय संस्कृति के सार्वभौम स्वरूप से परिचित कराया।  
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==== '''<big>रामतीर्थ</big>''' ====
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==== <big>रामतीर्थ</big> ====
 
गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्मे [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)], पंजाब के गुजराँवाला जिले के तीर्थराम ने 28 वर्ष की आयु में महाविद्यालय के व्याख्याता पद से त्यागपत्र देकर संन्यास-दीक्षा ली और रामतीर्थ नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने वेदान्त-प्रचार का अमित कार्य किया, विशेष रूप से विदेशों में। स्वामी विवेकानन्द के समान उन्होंने भी विदेशों में घूम-घूमकर वेदान्त-चर्चा की और अनेक पाश्चात्य लोगोंं को अपना अनुयायी बनाया। उर्दू तथा फारसी पर उनका प्रारम्भ से ही प्रभुत्व रहा; संस्कृत का अध्ययन किया; गणित विषय के तो वे प्राध्यापक रहे। ऋषिकेश के समीप वन में कठिन तपस्या की। उन्होंने देशभक्ति, निर्भयता तथा अद्वैत वेदान्त मत का प्रचार किया। अध्यात्मनिष्ठ, भक्तिमय जीवन बिताते हुए, भारतीय वेदान्त की ज्योति देश-विदेश में जला कर 33 वर्ष की आयु में स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में जलसमाधि ले ली।  
 
गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्मे [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)], पंजाब के गुजराँवाला जिले के तीर्थराम ने 28 वर्ष की आयु में महाविद्यालय के व्याख्याता पद से त्यागपत्र देकर संन्यास-दीक्षा ली और रामतीर्थ नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने वेदान्त-प्रचार का अमित कार्य किया, विशेष रूप से विदेशों में। स्वामी विवेकानन्द के समान उन्होंने भी विदेशों में घूम-घूमकर वेदान्त-चर्चा की और अनेक पाश्चात्य लोगोंं को अपना अनुयायी बनाया। उर्दू तथा फारसी पर उनका प्रारम्भ से ही प्रभुत्व रहा; संस्कृत का अध्ययन किया; गणित विषय के तो वे प्राध्यापक रहे। ऋषिकेश के समीप वन में कठिन तपस्या की। उन्होंने देशभक्ति, निर्भयता तथा अद्वैत वेदान्त मत का प्रचार किया। अध्यात्मनिष्ठ, भक्तिमय जीवन बिताते हुए, भारतीय वेदान्त की ज्योति देश-विदेश में जला कर 33 वर्ष की आयु में स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में जलसमाधि ले ली।  
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श्री अरविन्द [युगाब्द 4973-5051 (1872-1950 ई०)] भारत के एक श्रेष्ठ राजनीतिक नेता, क्रान्तिकारी, योगी और भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ व्याख्याता थे। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बंगाल में प्राप्त की। तदुपरान्त अध्ययन के लिए इंग्लैंड गये। भारत लौटने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े और क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया। अलीपुर बम केस में जेल गये। 'कर्मयोगी', 'वन्देमातरम्' तथा 'आर्य' पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में राजनीतिक आन्दोलन के मार्ग से निवृत्त होकर पांडिचेरी चले आये और योग साधना में रत हुए। युगाब्द 5021 (सन् 1920) में पांडिचेरी आश्रम की स्थापना की। 'पूर्णयोग', 'अतिमानस', 'अतिमानव' और 'दिव्य जीवन' की अवधारणाओं का प्रतिपादन करने वाले अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। भारतमाता का चेतनामयी परमात्म-शक्ति के रूप में साक्षात्कार कर भारतीय राष्ट्रवाद को उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अधिष्ठान प्रदान किया तथा भविष्य में भारत को जो योगदान करना है उसका भी विवेचन किया। उन्होंने भारत के पुन: अखंड होने की भविष्यवाणी की है।  
 
श्री अरविन्द [युगाब्द 4973-5051 (1872-1950 ई०)] भारत के एक श्रेष्ठ राजनीतिक नेता, क्रान्तिकारी, योगी और भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ व्याख्याता थे। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बंगाल में प्राप्त की। तदुपरान्त अध्ययन के लिए इंग्लैंड गये। भारत लौटने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े और क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया। अलीपुर बम केस में जेल गये। 'कर्मयोगी', 'वन्देमातरम्' तथा 'आर्य' पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में राजनीतिक आन्दोलन के मार्ग से निवृत्त होकर पांडिचेरी चले आये और योग साधना में रत हुए। युगाब्द 5021 (सन् 1920) में पांडिचेरी आश्रम की स्थापना की। 'पूर्णयोग', 'अतिमानस', 'अतिमानव' और 'दिव्य जीवन' की अवधारणाओं का प्रतिपादन करने वाले अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। भारतमाता का चेतनामयी परमात्म-शक्ति के रूप में साक्षात्कार कर भारतीय राष्ट्रवाद को उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अधिष्ठान प्रदान किया तथा भविष्य में भारत को जो योगदान करना है उसका भी विवेचन किया। उन्होंने भारत के पुन: अखंड होने की भविष्यवाणी की है।  
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==== <big>विवेकानन्द</big> ====
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==== <big>'''विवेकानन्द'''</big> ====
 
विदेशों में हिन्दूधर्म की कीर्ति पताका फहराने वाले, स्वदेश में वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)] का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित 'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकर अपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उन्होंने  'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।  
 
विदेशों में हिन्दूधर्म की कीर्ति पताका फहराने वाले, स्वदेश में वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)] का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित 'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकर अपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उन्होंने  'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।  
 
[[File:१६.PNG|center|thumb]]
 
[[File:१६.PNG|center|thumb]]
 
<blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote>
 
<blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote>
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==== '''<big>दादा भाई नौरोजी</big>''' ====
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==== <big>दादा भाई नौरोजी</big> ====
 
महाराष्ट्र के एक पारसी परिवार में जन्मे दादाभाई नौरोजी [युगाब्द 4936-5018 (1835-1917 ई०)] आधुनिक भारत के एक प्रमुख देशभक्त, राजनीतिक नेता एवं समाज-सुधारक हुए हैं। भारतीयों के स्वराज्य के अधिकार को ब्रिटिश संसद तक गुंजाने वाले दादाभाई भारतीय स्वातंत्र्य के वैधानिक आन्दोलन के जनक थे। वे कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे और तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1892 (युगाब्द4993) में ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की ओर से ब्रिटिश संसद के सदस्य चुने जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उन्होंने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का तथ्यपरक एवं गहन विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि भारत का धन इंग्लैंड की ओर प्रवाहित हो रहा है। इसे 'ड्रेन थ्योरी' कहते हैं।
 
महाराष्ट्र के एक पारसी परिवार में जन्मे दादाभाई नौरोजी [युगाब्द 4936-5018 (1835-1917 ई०)] आधुनिक भारत के एक प्रमुख देशभक्त, राजनीतिक नेता एवं समाज-सुधारक हुए हैं। भारतीयों के स्वराज्य के अधिकार को ब्रिटिश संसद तक गुंजाने वाले दादाभाई भारतीय स्वातंत्र्य के वैधानिक आन्दोलन के जनक थे। वे कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे और तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1892 (युगाब्द4993) में ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की ओर से ब्रिटिश संसद के सदस्य चुने जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उन्होंने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का तथ्यपरक एवं गहन विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि भारत का धन इंग्लैंड की ओर प्रवाहित हो रहा है। इसे 'ड्रेन थ्योरी' कहते हैं।
  

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