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| <blockquote>'''<big>लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हूणाजित्। श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥24 ॥</big>''' </blockquote> | | <blockquote>'''<big>लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हूणाजित्। श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥24 ॥</big>''' </blockquote> |
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− | '''<big>लाचित बड़प्लुकन</big>'''
| + | ==== <big>लाचित बरफूकन</big> ==== |
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| असम के अहोम राज्यकाल के वीर सेनापति। इनका समय युगाब्द 48वीं (ई० 17वीं) शताब्दी था। इन्होंने मुगल सेना के दाँत खट्टे किये और युद्ध में अपने प्रमादी मामा का सिर यह कहते हुए काट दिया कि “मामा से देश बड़ा है।" | | असम के अहोम राज्यकाल के वीर सेनापति। इनका समय युगाब्द 48वीं (ई० 17वीं) शताब्दी था। इन्होंने मुगल सेना के दाँत खट्टे किये और युद्ध में अपने प्रमादी मामा का सिर यह कहते हुए काट दिया कि “मामा से देश बड़ा है।" |
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− | '''<big>भास्कर वर्मा</big>'''
| + | ==== <big>भास्कर वर्मा</big> ==== |
− | | + | असम के युगाब्द 38वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के राजा। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे। भास्कर वर्मा विद्या और कला के संरक्षक, वीर योद्धा और कुशल प्रशासक थे। सम्राट हर्षवर्द्धन से इनकी मैत्री-सन्धि थी। |
− | असम के युगाब्द 38वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के राजा। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे। भास्कर वर्मा विद्या और कला के संरक्षक, वीर योद्धा और कुशल प्रशासक थे। सम्राट् हर्षवर्द्धन से इनकी मैत्री—सन्धि थी। | |
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− | '''<big>यशोधर्मा</big>'''
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− | कलियुग की 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के राजा,जिनका साम्राज्यब्रह्मपुत्रसे महेन्द्र पर्वत (उत्कल) तक और हिमालय से पश्चिम सागर (सिन्धुसागर) तक फैला हुआ था। इनका उल्लेखनीय कतृत्व हूणवंश के क्रूर राजा मिहिरकुल को परास्त करना है। मंदसौर (मध्यप्रदेश) इनकी राजधानी थी, जिसके आसपास इनके शिलालेख पाये गये हैं।
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− | '''<big>कृष्णदेव राय</big>'''
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− | कलि संवत् की 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी के विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध राजा। ये तुलुववंशीय नरसिंह राय के पुत्र थे। इन्होंने इस्माइल आदिलशाह को पराभूत किया और दक्षिण में मुस्लिम प्रभुसत्ता का दर्प क्षीण किया। ये लोकोपकारी राजा के रूप में स्मरण किये जाते हैं। विजयनगर का प्रसिद्ध प्रत्युत्पन्नमति सभासद् तेनालीराम महाराजा कृष्णदेव राय की ही राजसभा का रत्न था ।
| + | ==== <big>यशोधर्मा</big> ==== |
| + | कलियुग की 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के राजा,जिनका साम्राज्य ब्रह्मपुत्र से महेन्द्र पर्वत (उत्कल) तक और हिमालय से पश्चिम सागर (सिन्धुसागर) तक फैला हुआ था। इनका उल्लेखनीय कतृत्व हूणवंश के क्रूर राजा मिहिरकुल को परास्त करना है। मंदसौर (मध्यप्रदेश) इनकी राजधानी थी, जिसके आसपास इनके शिलालेख पाये गये हैं। |
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− | '''<big>ललितादित्य [कलियुगाब्द 3825-3862 (ई०724-461)]</big>'''
| + | ==== <big>कृष्णदेव राय</big> ==== |
| + | कलि संवत् की 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी के विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध राजा। ये तुलुववंशीय नरसिंह राय के पुत्र थे। इन्होंने इस्माइल आदिलशाह को पराभूत किया और दक्षिण में मुस्लिम प्रभुसत्ता का दर्प क्षीण किया। ये लोकोपकारी राजा के रूप में स्मरण किये जाते हैं। विजयनगर का प्रसिद्ध प्रत्युत्पन्नमति सभासद तेनालीराम महाराजा कृष्णदेव राय की ही राजसभा का रत्न था । |
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− | कश्मीर के महाराज प्रतापादित्य के तृतीयपुत्र,महान् योद्धा और विजेता,जिनका कीर्तिगान कश्मीर के इतिहासकार कवि कल्हण ने अपने ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में किया है। विश्व-विजय के आकांक्षी ललितादित्य का राज्यकाल विजयों का इतिहास है। उन्होंने अरब, तुर्क, तातार आदि मुस्लिम आक्रामकों को न केवल पराजित किया,अपितुउनका दूरतक पीछा करऐसादमन किया कि आगे कीतीन शताब्दियों तकउन्हेंकश्मीर की ओर आँखउठाकरदेखनेकासाहस नहीं हुआ। ललितादित्य ने पंजाब, कन्नौज, तिब्बत, बदख्शान को अपने राज्य में मिलाया और विजित राजाओं से उदार बर्ताव किया। उन्होंने भगवान विष्णु और बुद्ध के बहुत से मन्दिर बनवाये। | + | ==== <big>ललितादित्य</big> ==== |
| + | कश्मीर के महाराज प्रतापादित्य के तृतीयपुत्र, महान् योद्धा और विजेता, जिनका कीर्तिगान कश्मीर के इतिहासकार कवि कल्हण ने अपने ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में किया है [कलियुगाब्द 3825-3862 (ई०724-461)] । विश्व-विजय के आकांक्षी ललितादित्य का राज्यकाल विजयों का इतिहास है। उन्होंने अरब, तुर्क, तातार आदि मुस्लिम आक्रामकों को न केवल पराजित किया,अपितु उनका दूर तक पीछा कर ऐसा दमन किया कि आगे की तीन शताब्दियों तक उन्हें कश्मीर की ओर आँख उठाकर देखने का साहस नहीं हुआ। ललितादित्य ने पंजाब, कन्नौज, तिब्बत, बदख्शान को अपने राज्य में मिलाया और विजित राजाओं से उदार बर्ताव किया। उन्होंने भगवान विष्णु और बुद्ध के बहुत से मन्दिर बनवाये। |
| [[File:12.PNG|center|thumb]] | | [[File:12.PNG|center|thumb]] |
| <blockquote>'''<big>मुसुनूरिनायकौ तौ प्रताप: शिवभूपति:। रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमा: ॥25 ॥</big>''' </blockquote> | | <blockquote>'''<big>मुसुनूरिनायकौ तौ प्रताप: शिवभूपति:। रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमा: ॥25 ॥</big>''' </blockquote> |
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− | '''<big>मुसुनूरि नायक</big>'''
| + | ==== <big>मुसुनूरि नायक</big> ==== |
− | | + | कलि संवत् की 45वीं (ई० 14वीं) शताब्दी में वारंगल राज्य (आन्ध्रप्रदेश) में प्रोलय और कप्पय नामक दो मुसुनूरि नायक हुए। उन्होंने आन्ध्र प्रदेश से मुस्लिम शासन को उखाड़ फेंका। मुहम्मद बिन तुगलक ने काकतीय नरेश प्रतापरुद्र को पराजित कर राजधानी ओरूगल (वर्तमान वारंगल) को अपने अधीन कर लिया था और उसका नाम सुल्तानपुर रखा था। प्रतापरुद्र के आकस्मिक निधन से हिन्दू नेतृत्वविहीन हो गये थे। ऐसे समय सेनापति प्रोलय और उनके भतीजे कप्पय ने सेना, सामंतों और जनता को संगठित कर मुस्लिम शासन का विरोध किया। मुसुनूरि नायकों के प्रयास से ओरूगल मुक्त हुआ, वहाँ भगवा ध्वज पुन: फहराया, मुसलमानों के दक्षिण में और आगे बढ़ने पर रोक लगी, महासंघ की स्थापना में सहायता मिली, हिन्दुओं में आत्मविश्वास का उदय हुआ और धर्म की पुन: प्रतिष्ठा हुई। |
− | कलि संवत् की 45वीं (ई० 14वीं) शताब्दी में वारंगल राज्य (आन्ध्रप्रदेश) में प्रोलय और कप्पय नामक दो मुसुनूरि नायक हुए। उन्होंने आन्ध्र प्रदेश से मुस्लिम शासन को उखाड़ फेंका। मुहम्मद बिन तुगलक ने काकतीय नरेश प्रतापरुद्र को पराजित कर राजधानी ओरूगल (वर्तमान वारंगल) को अपने अधीन कर लिया था और उसका नाम सुल्तानपुर रखा था। प्रतापरुद्र के आकस्मिक निधन से हिन्दूनेतृत्वविहीन हो गये थे। ऐसे समय सेनापति प्रोलय और उनके भतीजे कप्पय ने सेना, सामंतों और जनता को संगठित कर मुस्लिम शासन का विरोध किया। मुसुनूरि नायकों के प्रयास से ओरूगल मुक्त हुआ, वहाँ भगवा ध्वज पुन: फहराया, मुसलमानों के दक्षिण में और आगे बढ़ने पर रोक लगी,महासंघ की स्थापना में सहायता मिली,हिन्दुओं में आत्मविश्वास का उदय हुआ और धर्म की पुन: प्रतिष्ठा हुई। | |
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− | '''<big>महाराणा प्रताप [युगाब्द 3640-3698 (1539-1597 ई०)]</big>'''
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− | परतंत्रता के विरुद्ध आजीवन संघर्ष करने वाले और हिन्दुत्व की केसरिया पताका को सदैव ऊंचा रखने वाले, स्वदेश और स्वधर्म के रक्षक राणा प्रताप के चरित्र में भारतीय प्रतिकार और प्रतिरोध-चेतना को प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। जिस कालखण्ड में अनेक राजपूत नरेश स्वधर्म का स्वाभिमान भुलाकर मुगल बादशाह से सन्धि करने के साथ-साथ अपनी कन्या तक देकर उससे संबंध जोड़ रहे थे और‘दीन-इलाही' के द्वारा हिन्दुओं को भ्रमित किया जा रहा था,उस युग में अकबर के दम्भ और चाल को विफल करने वाले वीर पुरुष थे राणा प्रताप। मेवाड़-मुकुटमणि राणा प्रताप का जन्म बाप्पा रावल के गौरवशाली कुल में हुआ था। ये महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) के पौत्र थे। राजपूताने की पावन भूमि हल्दीघाटी में राणा प्रताप और उनके अमर बलिदानी वीर भीलों एवं राजपूतों ने मुगल सेना से संग्राम में जो लोकोत्तर पराक्रम दिखाया उसकी कीर्ति-कथा हिन्दू जाति के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन चुकी है। चित्तौड़ की स्वतंत्र कराने का संकल्प अपने हृदय में धारण किये राणा प्रताप ने वनवास स्वीकार किया औरस्वदेश-स्वातंत्र्य हेतु अपार कष्ट सहन किये। देशभक्त भामाशाह से अकल्पित सहायता प्राप्त होने पर महाराणा प्रताप ने सैन्य-संगठन करके अपने जीवनकाल में 80 में से 77 किले पुन: जीत लिये। | + | ==== <big>महाराणा प्रताप</big> ==== |
| + | परतंत्रता के विरुद्ध आजीवन संघर्ष करने वाले और हिन्दुत्व की केसरिया पताका को सदैव ऊंचा रखने वाले, स्वदेश और स्वधर्म के रक्षक राणा प्रताप के चरित्र में भारतीय प्रतिकार और प्रतिरोध-चेतना को प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ [युगाब्द 3640-3698 (1539-1597 ई०)] । जिस कालखण्ड में अनेक राजपूत नरेश स्वधर्म का स्वाभिमान भुलाकर मुगल बादशाह से सन्धि करने के साथ-साथ अपनी कन्या तक देकर उससे संबंध जोड़ रहे थे और‘दीन-इलाही' के द्वारा हिन्दुओं को भ्रमित किया जा रहा था, उस युग में अकबर के दम्भ और चाल को विफल करने वाले वीर पुरुष थे राणा प्रताप। मेवाड़-मुकुटमणि राणा प्रताप का जन्म बाप्पा रावल के गौरवशाली कुल में हुआ था। ये महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) के पौत्र थे। राजपूताने की पावन भूमि हल्दीघाटी में राणा प्रताप और उनके अमर बलिदानी वीर भीलों एवं राजपूतों ने मुगल सेना से संग्राम में जो लोकोत्तर पराक्रम दिखाया उसकी कीर्ति-कथा हिन्दू जाति के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन चुकी है। चित्तौड़ की स्वतंत्र कराने का संकल्प अपने हृदय में धारण किये राणा प्रताप ने वनवास स्वीकार किया और स्वदेश-स्वातंत्र्य हेतु अपार कष्ट सहन किये। देशभक्त भामाशाह से अकल्पित सहायता प्राप्त होने पर महाराणा प्रताप ने सैन्य-संगठन करके अपने जीवनकाल में 80 में से 77 किले पुन: जीत लिये। |
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− | '''<big>शिवाजी [युगाब्द 4728-4781 (1627-1680 ई०)]</big>'''
| + | ==== <big>शिवाजी</big> ==== |
| + | बीजापुर के आदिलशाही दरबार के सामन्त शाहजी भोंसले के द्वितीयपुत्र शिवाजी [युगाब्द 4728-4781 (1627-1680 ई०)] के बाल मन में ही उनकी माता जीजाबाई ने स्वधर्म, स्वदेश एवं स्वपरम्परा के प्रति गौरव-बोध जगाकर अत्याचारी मुस्लिम सत्ता की दासता से मातृभूमि को मुक्त कराने का जो संकल्प जगाया, उसे दादाजी कोंडदेव जैसे वीर शूरमा ने शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा द्वारा पुष्ट किया। परिणामस्वरूप शिवाजी ने सोलह वर्ष की अल्पायु में ही खेती-बाड़ी करने वाले पहाड़ी मावलों में शूरवृत्ति एवं देश-धर्म की निष्ठा जगाकर तोरण के किले की विजय से स्वराज्य-स्थापना का श्रीगणेश किया तो फिर वह क्रम रुका नहीं। मुगल सेनापति शाइस्ता खाँ का पराभव, अफजल खान का वध, औरंगजेब के आगरा बन्दीवास से युक्तिपूर्वक निकल भागना, जयसिंह को प्रताड़ना भरा पत्र लिखकर उसके मन में स्वदेश व स्वधर्म के प्रति अनुराग जगाने का प्रयत्न करना, आदि घटनाएँ ऐसी हैं जिनमें उनका साहस, कूटनीति, कुशलता, समय-सूचना, रणचातुरी, संगठन-कौशल आदि प्रकर्ष से प्रकट हुए हैं। अपने 53 वर्ष के छोटे से जीवन-काल में 36 छोटे-बड़े युद्धों में अपराजेय रहकर 'हिन्दवी स्वराज्य' की स्थापना द्वारा उन्होंने समस्त हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया। राज्य व्यवहार-कोष के निर्माण, जहाजी बेड़े की स्थापना, मुद्रणालय प्रारम्भ करने के प्रयास आदि सबमें उनके परम्परा-प्रेम के साथ-साथ प्रशासनिक कौशल के दर्शन प्रकर्ष से होते हैं। इन सबने छत्रपति शिवाजी महाराज को युगपुरुष की श्रेणी में रख दिया। |
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− | बीजापुर के आदिलशाही दरबार के सामन्त शाहजी भोंसले के द्वितीयपुत्र शिवाजी के बाल मन में ही उनकी माता जीजाबाई ने स्वधर्म, स्वदेश एवं स्वपरम्परा के प्रति गौरव-बोध जगाकर अत्याचारी मुस्लिम सत्ता की दासता से मातृभूमि को मुक्त कराने का जो संकल्प जगाया, उसे दादाजी कोंडदेव जैसे वीर शूरमा ने शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा द्वारा पुष्ट किया। परिणामस्वरूप शिवाजी ने सोलह वर्ष की अल्पायु में ही खेती-बाड़ी करने वाले पहाड़ी मावलों में शूरवृत्ति एवं देश—धर्म की निष्ठा जगाकर तोरण के किले की विजय से स्वराज्य—स्थापना का श्रीगणेश जी किया तो फिर वह क्रम रुका नहीं। मुगल सेनापति शाइस्ता खाँ का पराभव, अफजल खान का वध, औरंगजेब के आगरा बन्दीवास से युक्तिपूर्वक निकल भागना, जयसिंह को प्रताड़ना भरा पत्र लिखकरउसके मन में स्वदेश व स्वधर्म के प्रति अनुराग जगाने का प्रयत्न करना, आदि घटनाएँ ऐसी हैंजिनमेंउनका साहस,कुटनीति, कुशलता,समय-सूचना,रणचातुरी,संगठन-कौशल आदि प्रकर्ष से प्रकट हुए हैं। अपने 53 वर्ष के छोटे से जीवन-काल में 36 छोटे-बड़े युद्धों में अपराजेय रहकर ‘हिन्दवी स्वराज्य' की स्थापना द्वारा उन्होंने समस्त हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया। राज्य व्यवहार-कोष के निर्माण, जहाजी बेड़े की स्थापना, मुद्रणालय प्रारम्भ करने के प्रयास आदि सबमें उनके परम्परा—प्रेम के साथ-साथ प्रशासनिक कौशल के दर्शन प्रकर्ष से होते हैं। इन सबने छत्रपति शिवाजी महाराज को युगपुरुष की श्रेणी में रख दिया।
| + | ==== <big>रणजीत सिंह</big> ==== |
| + | पंजाब के सुप्रसिद्ध महाराजा [युगाब्द 4881-4940 (1780-1839 ई०)], जिन्होंने जम्मू और कश्मीर को भी मिलाकर पंजाब को एक शक्तिशाली, प्रभुता सम्पन्न राज्य का रूप दिया। हरिसिंह नलवा और जोरावर सिंह जैसे पराक्रमी सेनापतियों के नेतृत्व में संगठित सेना से उन्होंने राज्य की सीमाओं को तिब्बत के पश्चिम, सिन्धु के उत्तर और खैबर दर्रे से लेकर यमुना नदी के पश्चिमी तट तक बढ़ाकर उसे राजनीतिक और भौगोलिक एकता प्रदान की। उनका प्रशासन साम्प्रदायिक आग्रहों से मुक्त था और राज्य जनभावना पर आधारित था। गोहत्या पर उन्होंने कठोर प्रतिबंध लगाया था तथा अपने प्रभाव से अफगानिस्तान में भी वहाँ के शाह से गोहत्या बन्द करवायी थी। महमूद गजनवी द्वारा लूटे गये सोमनाथ मन्दिर के बहुमूल्य द्वार को वापस लाने का पराक्रम भी उन्हीं का था। उनके जीवित रहते तक अंग्रेजों की कुटनीति पंजाब में विफल हुई। |
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− | '''<big>रणजीत सिंह [युगाब्द 4881-4940 (1780-1839 ई०)]</big>'''
| + | === महान वैज्ञानिक एवं दार्शनिक === |
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− | पंजाब के सुप्रसिद्ध महाराजा, जिन्होंने जम्मू और कश्मीर को भी मिलाकर पंजाब को एक शक्तिशाली, प्रभुतासम्पन्न राज्य का रूप दिया। हरिसिंह नलवा और जोरावर सिंह जैसे पराक्रमी सेनापतियों के नेतृत्व में संगठित सेना से उन्होंने राज्य की सीमाओं को तिब्बत के पश्चिम, सिन्धु के उत्तर और खैबर दर्रे से लेकर यमुना नदी के पश्चिमी तट तक बढ़ाकर उसे राजनीतिक और भौगोलिक एकता प्रदान की। उनका प्रशासन साम्प्रदायिक आग्रहों से मुक्त था और राज्य जनभावना पर आधारित था। गोहत्या पर उन्होंने कठोर प्रतिबंध लगाया था तथा अपने प्रभाव से अफगानिस्तान में भी वहाँ के शाह से गोहत्या बन्द करवायी थी। महमूद गजनवी द्वारा लूटे गये सोमनाथ मन्दिर के बहुमूल्य द्वार को वापस लाने का पराक्रम भी उन्हींका था। उनके जीवित रहते तक अंग्रेजों की कुटनीति पंजाब में विफल हुई।
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| [[File:13.PNG|center|thumb]] | | [[File:13.PNG|center|thumb]] |
| <blockquote>'''<big>वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा। चरको भास्कराचार्यों वराहमिहिर: सुधी: ॥26 ॥</big>''' </blockquote> | | <blockquote>'''<big>वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः सुश्रुतस्तथा। चरको भास्कराचार्यों वराहमिहिर: सुधी: ॥26 ॥</big>''' </blockquote> |
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− | '''<big>कपिल</big>'''
| + | ==== <big>कपिल</big> ==== |
| + | सांख्य सूत्रों के रचयिता दार्शनिक, जिन्हें श्रीमद्भागवत में विष्णु के 24 अवतारों में स्थान मिला है। इनके माता-पिता का नाम कर्दम ऋषि और देवहूति बताया गया है। प्रचलित सांख्यदर्शन के ये प्रवर्तक माने जाते हैं। कपिल वेदान्तदर्शन की भाँति ब्रह्म या आत्मा को ही एकमात्र सत् नहीं मानते थे। उन्होंने असंख्य जीवों या 'पुरुषों' तथा प्रकृति को भी स्वतंत्र तत्व माना। चेतन पुरुष और जड़़ प्रकृति कपिल के मत में मुख्य तत्व हैं। प्रकृति नित्य है, जगत् की सारी वस्तुएँ उसी के विकार हैं। पुरुष की समीपता मात्र से और उसके ही लिए प्रकृति में क्रिया उत्पन्न होती है, जिससे विश्व की वस्तुओं की उत्पत्ति और विनाश होता है। कपिल के उपदेशों का एक बड़ा संग्रह ‘षष्टितंत्र' कहा जाता है। 'सांख्य सूत्र' और 'सांख्य कारिका' सांख्यदर्शन के प्रमुख ग्रंथ हैं। पुराणों में कपिल मुनि का वर्णन महान् तपस्वी सिद्धपुरुष के रूप में हैं। |
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− | सांख्य सूत्रों के रचयिता दार्शनिक, जिन्हें श्रीमद्भागवत में विष्णु के 24 अवतारों में स्थान मिला है। इनकेमाता-पिता कानामकर्दम ऋषि औरदेवहूतिबतायागयाहै। प्रचलित सांख्यदर्शन के येप्रवर्तक माने जाते हैं। कपिल वेदान्तदर्शन की भाँति ब्रह्म या आत्मा को ही एकमात्र सत् नहीं मानते थे। उन्होंने असंख्य जीवों या 'पुरुषों' तथा प्रकृति को भी स्वतंत्र तत्च माना। चेतन पुरुष और जड़़ प्रकृति कपिल के मत में मुख्य तत्व हैं। प्रकृति नित्य है,जगत् की सारी वस्तुएँउसी के विकारहैं। पुरुष की समीपता मात्र से और उसके ही लिए प्रकृति में क्रियाउत्पन्न होती है,जिससे विश्व की वस्तुओं की उत्पत्ति और विनाश होता है। कपिल के उपदेशों का एक बड़ा संग्रह ‘षष्टितंत्र' कहा जाताहै। 'सांख्य सूत्र' और'सांख्य कारिका'सांख्यदर्शन केप्रमुख ग्रंथहैं। पुराणों में कपिल मुनि का वर्णन महान् तपस्वी सिद्धपुरुष के रूप में हैं।
| + | ==== <big>कणाद</big> ==== |
| + | वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक माने जाने वाले कणाद परमाणुवादी दार्शनिक थे। कणाद के ग्रंथ का नाम 'वैशेषिक सूत्र' है जो दस अध्यायों में लिखा गया है। प्रत्येक अध्याय में दो-दो आह्निक हैं। कणाद ने जिस प्रयोजन से वैशेषिक सूत्र की रचना की, उसे उन्होंने ग्रंथ के प्रथम सूत्र में स्पष्ट कर दिया: “अब मैं धर्म सम्बंधी जिज्ञासा पर व्याख्यान करता हूँ।” फिर कहा- “जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस् की सिद्धि होती है,वह धर्म है।” “उस (धर्म) को कहने में वेद प्रमाण है।" कणाद ने विश्व के तत्वों का छ: पदार्थों में वर्गीकरण किया है, वे हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय। बाद में भाष्यकार प्रशस्तपाद ने इनमें एक और पदार्थ - 'अभाव' को भी जोड़ दिया। वैशेषिक दर्शन अपने परमाणुवाद और क्रिया सम्बन्धी वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए प्रसिद्ध है। |
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− | '''<big>कणाद</big>'''
| + | ==== <big>सुश्रुत</big> ==== |
| + | आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य, जिनकी शल्य चिकित्सा के लिए विशेष ख्याति थी। इनका रचा ग्रंथ है 'सुश्रुत संहिता'। कहा जाता है कि इन्होंने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र का उपदेश प्राप्त किया था। 'सुश्रुत संहिता' में वर्णित शल्यक्रिया-यंत्रों की उन्नत वैज्ञानिक संरचना का आधुनिक यंत्रों से सादृश्य वैज्ञानिकों को विस्मय में डालता है। |
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− | वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक माने जाने वाले कणाद परमाणुवादी दार्शनिक थे। कणाद के ग्रंथ का नाम 'वैशेषिक सूत्र' है जो दस अध्यायों में लिखा गया है। प्रत्येक अध्याय में दो-दो आह्निक हैं। कणाद ने जिस प्रयोजन से वैशेषिक सूत्र की रचना की,उसेउन्होंने ग्रंथ के प्रथम सूत्र में स्पष्ट कर दिया:“अबमैं धर्म सम्बंधी जिज्ञासा पर व्याख्यान करता हूँ। ”फिर कहा- “ जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस् की सिद्धि होती है,वह धर्म है।” “उस (धर्म) को कहने में वेद प्रमाण है।" कणाद ने विश्व के तत्वों का छ: पदार्थों में वर्गीकरण किया है, वे हैं -द्रव्य,गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय। बाद में भाष्यकार प्रशस्तपाद ने इनमें एक और पदार्थ ' अभाव' को भी जोड़ दिया। वैशेषिक दर्शन अपने परमाणुवाद और क्रिया सम्बन्धी वैज्ञानिक विश्लेषण के लिए प्रसिद्ध है।
| + | ==== <big>चरक</big> ==== |
| + | आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य। इनका रचित प्रसिद्ध 'चरक संहिता' ग्रंथ आयुर्वेद में कायचिकित्सा का संहिताबद्ध मूल ग्रंथ है, जो विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुका है। शतपथ ब्राह्मण में चरक का उल्लेख उनकी प्राचीनता का द्योतक है। |
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− | '''<big>सुश्रुत</big>'''
| + | ==== <big>भास्कराचार्य</big> ==== |
| + | कलि संवत् की 43वीं (ई० 12वीं) शताब्दी के बहुत बड़े गणितज्ञ एवं ज्योतिषी। ये उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष थे। इनके रचित गणित ज्योतिष के दो प्रसिद्ध ग्रंथ हैं - 'सिंद्धात शिरोमणि' और 'करण कुतूहल'। 'लीलावती बीजगणित' भी उनकी प्रसिद्ध रचना है। न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व ही उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित कर दिया था। उनसे शताब्दियों पूर्व एक और गणितज्ञ भास्कराचार्य हो चुके हैं। |
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− | आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य, जिनकी शल्य चिकित्सा के लिए विशेष ख्याति थी। इनका रचा ग्रंथ है 'सुश्रुत संहिता'। कहा जाता हैकि इन्होंने काशीपति दिवोदास से शल्यतंत्र काउपदेश प्राप्त किया था। 'सुश्रुत संहिता' में वर्णित शल्यक्रिया-यंत्रों की उन्नत वैज्ञानिक संरचना का आधुनिक यंत्रों से सादृश्य वैज्ञानिकों को विस्मय में डालता है।
| + | ==== <big>वराहमिहिर</big> ==== |
− | | + | विक्रमादित्य और कालिदास के समकालीन प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य। इनका रचित 'बृहत् संहिता' प्रसिद्ध ग्रंथ है। सम्भवत: ये उज्जैन-निवासी थे। विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में वराहमिहिर की भी गणना की जाती है। आर्यभट्ट के सिद्धांतो के बारे में उनकी निरपेक्षता से भी यही प्रकट होता है कि वे पूर्ववर्ती रहे होंगे। |
− | '''<big>चरक</big>'''
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− | आयुर्वेद केप्रसिद्ध आचार्य। इनकारचितप्रसिद्ध'चरक संहिता'ग्रंथ आयुर्वेदमेंकायचिकित्सा का संहिताबद्ध मूल ग्रंथ है, जो विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित हो चुका है। शतपथ ब्राह्मण में चरक का उल्लेख उनकी प्राचीनता का द्योतक है।
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− | '''<big>भास्कराचार्य</big>'''
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− | कलि संवत् की 43वीं (ई० 12वीं) शताब्दी के बहुत बड़े गणितज्ञ एवं त्योतिषी। ये उज्जैन की वेधशाला के अध्यक्ष थे। इनके रचित गणित ज्योतिष के दो प्रसिद्ध ग्रंथ हैं – 'सिंद्धात शिरोमणि' और 'करण कुतूहल'। 'लीलावती बीजगणित' भी उनकी प्रसिद्ध रचना है। न्यूटन से 500 वर्ष पूर्व ही उन्होंने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादित कर दिया था। उनसे शताब्दियों पूर्व एक और गणितज्ञ भास्कराचार्य हो चुके हैं।
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− | '''<big>वराहमिहिर</big>'''
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− | विक्रमादित्य और कालिदास के समकालीन प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य। इनका रचित 'बृहत् संहिता' प्रसिद्ध ग्रंथ है। सम्भवत: ये उज्जैन—निवासी थे। विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में वराहमिहिर की भी गणना की जाती है। आर्यभट्ट के सिद्धांतो के बारे में उनकी निरपेक्षता से भी यही प्रकट होता है कि वे पूर्ववर्ती रहे होंगे। | |
| [[File:14.PNG|center|thumb]] | | [[File:14.PNG|center|thumb]] |
| <blockquote>'''<big>नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो वसुर्बुध: । ध्येयो वेडश्कटरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥27 ॥</big>''' </blockquote> | | <blockquote>'''<big>नागार्जुनो भरद्वाज आर्यभट्टो वसुर्बुध: । ध्येयो वेडश्कटरामश्च विज्ञा रामानुजादयः ॥27 ॥</big>''' </blockquote> |
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− | '''<big>नागार्जुन</big>'''
| + | ==== <big>नागार्जुन</big> ==== |
| + | प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक, जिनका जन्म विदर्भ में हुआ था। उन्होंने ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और आगे चलकर श्रीपर्वत (नागार्जुनी कोंडा, गुंटूर) को अपना निवास-स्थान बनाया। नागार्जुन आंध्र राजा गौतमीपुत्र यज्ञश्री (कलियुगाब्द 3267-3297 अर्थात् 166-196ई०) के समकालीन तथा सुहृद थे। वे वैद्यक तथा रसायन शास्त्र के भी आचार्य थे। उनका 'अष्टांग हृदय' वैद्यक एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। नागार्जुन के नाम से अनेक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं, किन्तु उनकी प्रमुख कृतियाँ दो हैं - 'माध्यमिक कारिका' और 'विग्रहव्यावर्तनी'। नागार्जुन का दर्शन शून्यवाद कहलाता है जिसे बौद्ध दर्शन में प्रमुखता प्राप्त हुई है। उन्होंने वस्तुशून्यता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसका अर्थ है कि अविद्या के नष्ट हो जाने पर सभी वस्तुएँ शून्य में विलीन हो जाती हैं। कुछ भी शेष न रहना ही निर्वाण है। जिस काल के बारे में प्रचार किया जाता है कि ग्रीक देश से विज्ञान भारत में आया, उसी काल में नागार्जुन के रसायन शास्त्र का अनुवाद चीनी और जापानी भाषाओं में ही रहा था। |
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− | प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक,जिनका जन्म विदर्भ में हुआ था। उन्होंने ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और आगे चलकर श्रीपर्वत (नागार्जुनी कोंडा,गुंटूर) को अपना निवास-स्थान बनाया। नागार्जुन आंध्र राजा गौतमीपुत्र यज्ञश्री (कलियुगाब्द 3267-3297 अर्थात् 166-196ई०) के समकालीन तथा सुहृद थे। वे वैद्यक तथा रसायन शास्त्र के भी आचार्य थे। उनका 'अष्टांग हृदय' वैद्यक एक महत्वपूर्ण ग्रंथहै। नागार्जुन के नाम से अनेक ग्रंथ प्रसिद्धहैं,किन्तुउनकी प्रमुख कृतियाँदी हैं—'माध्यमिक कारिका' और'विग्रहव्यावर्तनी'। नागार्जुन कादर्शन शून्यवाद कहलाता है जिसे बौद्ध दर्शन में प्रमुखता प्राप्त हुईहै। उन्होंने वस्तुशून्यता के सिद्धांत का प्रतिपादन किया, जिसका अर्थ है कि अविद्या के नष्ट हो जाने पर सभी वस्तुएँशून्य में विलीन हो जाती हैं। कुछ भी शेष न रहना ही निवांण है। जिस काल के बारे में प्रचार किया जाता है कि ग्रीक देश से विज्ञान भारत में आया,उसी काल में नागार्जुन के रसायन शास्त्र का अनुवाद चीनी और जापानी भाषाओं में ही रहा था।
| + | ==== <big>भरद्वाज</big> ==== |
| + | मंत्रद्रष्टा वैदिक ऋषि और विमान-विद्या के विद्वान् आचार्य महर्षि भरद्वाज ‘यंत्र सर्वस्व', 'अंशुतंत्र' और 'आकाश शास्त्र' ग्रंथों के निर्माता कहे जाते हैं। यंत्र-सर्वस्व के वैमानिक प्रकरण में विमान-विद्या का विवेचन किया गया है और विमान विषयक रचना-क्रम कहे गये हैं। 'वैमानिक प्रकरण' में विज्ञान विषय के प्राचीन पच्चीस ग्रंथों की सूची है तथा विमान शास्त्र के पूर्वाचार्यों और उनके रचे ग्रंथों के नामों का उल्लेख किया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि प्राचीन भारत में विमान-निर्माण एवं संचालन-क्रिया की पूरी जानकारी थी। प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर भरद्वाज का प्रसिद्ध गुरुकुल था। |
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− | '''<big>भरद्वाज</big>'''
| + | ==== <big>आर्यभट्ट</big> ==== |
| + | कलि की 36वीं (ई०पाँचवी) शती में हुए भारत के महान ज्योतिषाचार्य। इन्होंने 'आर्यभटीयम्' नामक ग्रंथ की रचना की, जो उपलब्ध सबसे प्राचीन ज्योतिष-ग्रंथों में गिना जाता है। अन्य ज्योतिषियों ने 'आर्यभटीयम्' को 'आर्य सिद्धान्त' कहा है। आर्यभट्ट ने यह सिंद्धात प्रतिपादित किया था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता, प्रत्युत् पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। |
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− | मंत्रद्रष्टा वैदिक ऋषि और विमान-विद्या के विद्वान् आचार्य महर्षि भरद्वाज ‘यंत्र सर्वस्व', 'अंशुतंत्र' और 'आकाश शास्त्र' ग्रंथों के निर्माता कहे जाते हैं। यंत्र-सर्वस्व के वैमानिक प्रकरण में विमान—विद्या का विवेचन किया गया है और विमान विषयक रचना—क्रम कहे गये हैं। 'वैमानिक प्रकरण' में विज्ञान विषय के प्राचीन पच्चीस ग्रंथों की सूची है तथा विमान शास्त्र के पूर्वाचार्यों औरउनके रचे ग्रंथों के नामों का उल्लेख किया गया है,जिससे ज्ञात होता हैकि प्राचीन भारतमेंविमान-निर्माणएवं संचालन-क्रिया की पूरी जानकारी थी। प्रयागमेंगंगा-यमुना के संगम पर भरद्वाज का प्रसिद्ध गुरुकुल था।
| + | ==== <big>जगदीशचन्द्र बसु</big> ==== |
| + | पूर्वी बंगाल में जन्मे भारत के वैज्ञानिक [युगाब्द 4959-5038 (1858-1937 ई०)] । वनस्पति शास्त्र और भौतिकी में इनकी गहरी रुचि थी। इंग्लैड में अध्ययन करने के पश्चात संवत् 4986 (1885 ई०) में भारत लौटे और प्रेसीडेंसी कॉलेज में भौतिकी के प्रोफेसर बने। उन्होंने विद्युत-चुम्बकीय रेडियो तरंगें उत्पन्न करने के लिए एक यंत्र बनाया। संवत् 4996 (1895 ई०) में इन तरंगों की सहायता से उन्होंने 75 फुट दूरी पर टेलीफोन की घंटी बजायी। इन्हीं तरंगों के उपयोग का विकास करके मारकोनी ने रेडियो का आविष्कार किया। जगदीशचन्द्र बसु ने वैज्ञानिक उपकरणों द्वारा वनस्पतियों की सजीवता और प्रतिक्रियाशीलता सिद्ध की और इस प्रकार समस्त जीवमात्र की एकता सिद्ध की। वे रायल सोसाइटी के सदस्य चुने गये। सं० 5018 (1917 ई०) में उन्होंने कलकत्ता में 'बोस रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की। |
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− | '''<big>आर्यभट्ट</big>'''
| + | ==== <big>चन्द्रशेखर वेंकटरामन</big> ==== |
| + | सुप्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक [4989-5071 (1888-1970 ई०)],जिन्हें प्रकाश-भौतिकी में ‘रमण प्रभाव' का अन्वेषण करने पर 1930 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। इनका जन्म त्रिचनापल्ली (तमिलनाडु) में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा वाल्टेयर में और उच्च शिक्षा मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्राप्त की। वैज्ञानिक अनुसंधान विषयक प्रवृत्ति के कारण राज्य-सेवा में उच्च पद पर होते हुए भी समय निकालकर अनुसंधान में प्रवृत्त हुए। कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर, साइन्स एसोसिएशन के सचिव, लंदन की रॉयल सोसाइटी के फेलो और बंगलौर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक रहे। अपना ऊंचे से ऊँचा अनुसन्धान-कार्य उन्होंने भारत में ही सम्पन्न किया। स्वाभिमान-सम्पन्न वे इतने थे कि अपने शिष्यों से कहते - विदेशियों की बातों का तब तक विश्वास न करो जब तक वे सिद्ध न हो जायें। |
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− | कलिकी 36वीं (ई०पाँचवी )शतीमेंहुएभारत केमहान्ज्योतिषाचार्य।इन्होंने'आर्यभटीयम्' नामक ग्रंथ की रचना की, जो उपलब्ध सबसे प्राचीन ज्योतिष—ग्रंथों में गिना जाता है। अन्य ज्योतिषियों ने 'आर्यभटीयम्' को 'आर्य सिद्धान्त' कहा है। आर्यभट्ट ने यह सिंद्धात प्रतिपादित किया था कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करता, प्रत्युत् पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है।
| + | ==== <big>रामानुजम</big> ==== |
| + | इनका जन्म [4988-5021 (1887-1920 )] मद्रास राज्य के तंजौर जिले के कुम्भकोणम नगर में हुआ था। रामानुजम के पिता श्रीनिवास आयंगर एक निर्धन किन्तु स्वाभिमानी व्यक्ति थे। रामानुजम को गणित से बहुत प्रेम था। चौथी कक्षा से ही वे त्रिकोणमिति में रुचि लेने लगे थे। छात्र जीवन में ही उन्होंने गणित के अनेक सूत्रों का अपने आप पता लगाया था। उनकी अद्भुतप्रतिभा का पता लगने पर वे इंग्लैंड बुला लिये गये। इंग्लैड में प्रोफेसर हार्डी के सहयोग से उन्होंने गणित में अनुसंधान किये और रायल सोसाइटी के फेलो चुने गये। अथक शोधकार्य और ब्रिटेन में शाकाहारी पौष्टिक भोजन न मिल पाने के कारण उनका स्वास्थ्य बहुत गिर गया और 33 वर्ष की अल्पायु में उनकी क्षय रोग से मृत्यु हो गयी। गणित शास्त्र के जिन विषयों में रामानुजम ने योग दिया है, उनको संख्याओं का सिद्धांत, विभाजन (पार्टीशन) का सिद्धांत और सतत् भिन्नों का सिद्धांत कहते हैं। मृत्यु के समय भी उनका मस्तिष्क इतना सजग था कि जब एक कार के नं० 1729 का उल्लेख हुआ तो तुरंत उनके मुँह से निकला कि 'हाँ, यह संख्या मैं जानता हूँ। यह वह छोटी से छोटी संख्या है जिसे दो प्रकार से दो घनों के योग के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है – (10³ +9³) तथा (12³+1³) |
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− | '''<big>जगदीशचन्द्र बसु [युगाब्द 4959-5038 (1858-1937 ई०)]</big>'''
| + | === आधुनिक युग के दार्शनिक एवं संत === |
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− | पूर्वी बंगालमें जन्मे भारत के महान्वैज्ञानिक। वनस्पति शास्त्र और भौतिकीमें इनकी गहरी रुचि थी। इंग्लैड में अध्ययन करने के पश्चात संवत् 4986 (1885 ई०) में भारत लौटे और प्रेसीडेंसी कॉलेज में भैतिकी के प्रोफेसर बने। उन्होंने विद्युत-चुम्बकीयरेडियो तरंगें उत्पन्न करने के लिएएक यंत्र बनाया। संवत् 4996 (1895 ई०) में इन तरंगों की सहायता से उन्होंने 75 फुट दूरी पर टेलीफोन की घंटी बजायी। इन्हीं तरंगों के उपयोग का विकास करके मारकोनी नेरेडियो का आविष्कार किया। जगदीशचन्द्र बसुने वैज्ञानिकउपकरणोंद्वारा वनस्पतियों की सजीवता और प्रतिक्रियाशीलता सिद्ध की और इस प्रकार समस्त जीवमात्र की एकता सिद्ध की। वे रायल सोसाइटी के सदस्य चुने गये। सं० 5018 (1917 ई०) में उन्होंने कलकत्ता में 'बोस रिसर्च इंस्टीट्यूट' की स्थापना की।
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− | '''<big>चन्द्रशेखर वेंकटरामन [4989-5071 (1888-1970 ई०)]</big>'''
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− | सुप्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक,जिन्हेंप्रकाश-भौतिकी में ‘रमण प्रभाव' का अन्वेषण करने पर 1930 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ। इनका जन्म त्रिचनापल्ली (तमिलनाडु) में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा वाल्टेयर में और उच्च शिक्षा मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्राप्त की। वैज्ञानिक अनुसंधान विषयक प्रवृत्ति के कारण राज्य-सेवा में उच्च पद पर होते हुए भी समय निकालकर अनुसंधान में प्रवृत्त हुए। कलकत्ता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर,साइन्स एसोसिएशन के सचिव, लंदन की रॉयल सोसाइटी के फेलो और बंगलौर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के निदेशक रहे। अपना ऊंचे से ऊँचा अनुसन्धान-कार्य उन्होंने भारत में ही सम्पन्न किया। स्वाभिमान-सम्पन्न वे इतने थे कि अपने शिष्यों से कहते – विदेशियों की बातों का तब तक विश्वास न करो जब तक वे सिद्ध न हो जायें।
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− | '''<big>रामानुजम् [4988-5021 (1887-1920 )]</big>'''
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− | इनका जन्म मद्रास राज्य के तंजौर जिले के कुम्भकोणम्नगरमेंहुआ था। रामानुजम् केपिता श्रीनिवास आयंगरएक निर्धन किन्तुस्वाभिमानी व्यक्ति थे। रामानुजम् को गणित से बहुत प्रेम था। चौथी कक्षा से ही वे त्रिकोणमिति में रुचि लेने लगे थे। छात्र जीवन में ही उन्होंने गणित के अनेक सूत्रों का अपने आप पता लगाया था।उनकी अद्भुतप्रतिभा का पता लगने परवेइंग्लैंड बुलालिये गये। इंग्लैडमेंप्रोफेसर हार्डी के सहयोग से उन्होंने गणित में अनुसंधान किये और रायल सोसाइटी के फेलो चुने गये। अथक शोधकार्य और ब्रिटेन में शाकाहारी पौष्टिक भोजन न मिल पाने के कारण उनकास्वास्थ्य बहुत गिर गया और33 वर्षकी अल्पायुमें उनकी क्षय रोग से मृत्युहो गयी। गणित शास्त्र के जिन विषयों में रामानुजम्ने योग दिया है उनको संख्याओं कासिद्धांत,विभाजन (पार्टीशन) का सिंद्धात और सतत् भिन्नों का सिद्धांत कहते हैं। मृत्युके समय भीउनकामस्तिष्क इतना सजग था कि जब एक कार के नं० 1729 का उल्लेख हुआ तो तुरंत उनके मुँह से निकला कि 'हाँ, यह संख्या मैं जानता हूँ। यह वह छोटी से छोटी संख्या है जिसे दो प्रकार से दो घनों के योग के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है – (10³ +9³) तथा (12³+1³)
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| [[File:15.PNG|center|thumb]] | | [[File:15.PNG|center|thumb]] |
| <blockquote>'''<big>रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहन: । रामतीथोंऽरविन्दश्च विवेकानन्द उद्यशा: ।28 ।</big>''' </blockquote> | | <blockquote>'''<big>रामकृष्णो दयानन्दो रवीन्द्रो राममोहन: । रामतीथोंऽरविन्दश्च विवेकानन्द उद्यशा: ।28 ।</big>''' </blockquote> |
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− | '''<big>श्री रामकृष्ण परमहंस (युगाब्द 4936-4987)</big>'''
| + | ==== <big>श्री रामकृष्ण परमहंस</big> ==== |
− | | + | बंगाल के प्रसिद्ध विरागी गृहस्थ सिद्ध पुरुष (युगाब्द 4936-4987; (1836-1886 ई०) । स्वामी विवेकानन्द उन्हीं के शिष्य थे। उनका बचपन का नाम गदाधर था। कलकत्ता के निकट दक्षिणेश्वर में काली के मन्दिर में पुजारी का काम करते-करते उनका सम्पूर्ण जीवन कालीमय हो गया। एक दीर्घ जीवी सिद्धपुरुष स्वामी तोतापुरी उनके गुरु थे, जिनसे उन्हें वेदान्त का ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान-साधना के अतिरिक्त उन्होंने तंत्र साधना भी की। कठिन साधना के काल में उनकी विक्षिप्त जैसी अवस्था देखकर लोग उन्हें पागल समझने लगे थे। उनकी जीवन-रक्षा तक हितैषियों के लिए चिन्ता का विषय बन गयी। किन्तु साधना पूरी होने पर वे परमहंस के रूप में विख्यात हो गये। उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों की साधना-पद्धतियों को अपनाकर देखा और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्ममत मूलत: अविरोधी हैं और परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग हैं। उन दिनों बंगाल में बुद्धिवाद, नास्तिकता और परकीय संस्कृति के अंधानुकरण की प्रवृत्ति प्रबल थी। रामकृष्ण परमहंस ने सरल सुबोध शैली में आध्यात्मिकता की शिक्षा देकर उक्त प्रवृत्ति को रोका। बड़े-बड़े विद्वान और बुद्धिमान लोग उनके शिष्य बने। दूर विदेशों तक से लोग उनके दर्शन करने आते थे। उनके शिष्यों ने ‘रामकृष्ण मिशन' नामक संस्था की स्थापना की ताकि उनके दिव्य संदेश का प्रचार किया जा सके। |
− | बंगाल के प्रसिद्ध विरागी गृहस्थ सिद्ध पुरुष। स्वामी विवेकानन्द उन्हीं के शिष्य थे। उनका बचपन कानामगदाधर था। कलकत्ता केनिकटदक्षिणेश्वरमें काली के मन्दिरमेंपुजारी का काम करते-करते उनका सम्पूर्ण जीवन कालीमय हो गया। एक दीर्घ जीवी सिद्धपुरुष स्वामी तोतापुरी उनके गुरु थे, जिनसे उन्हें वेदान्त का ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान-साधना के अतिरिक्त उन्होंने तंत्र साधना भी की। कठिन साधना के काल में उनकी विक्षिप्त जैसी अवस्था देखकर लोग उन्हें पागल समझने लगे थे। उनकी जीवन-रक्षा तक हितैषियों के लिए चिन्ता का विषय बन गयी। किन्तु साधना पूरी होने पर वे परमहंस के रूप में विख्यात हो गये। उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों की साधना-पद्धतियों को अपनाकर देखा और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्ममत मूलत: अविरोधी हैं और परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग हैं। उन दिनों बंगाल में बुद्धिवाद, नास्तिकता और परकीय संस्कृति के अंधानुकरण की प्रवृत्ति प्रबल थी। रामकृष्ण परमहंस ने सरल सुबोध शैली में आध्यात्मिकता की शिक्षा देकर उक्त प्रवृत्ति को रोका। बड़े-बड़े विद्वान् और बुद्धिमान लोग उनके शिष्य बने। दूर विदेशों तक से लोग उनके दर्शन करने आते थे। उनके शिष्यों ने ‘रामकृष्ण मिशन' नामक संस्था की स्थापना की ताकि उनके दिव्य संदेश का प्रचार किया जा सके। | |
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− | '''<big>स्वामी दयानन्द सरस्वती [कलि संवत् 4925-4984 (1824-1883 ई०)]</big>'''
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− | आर्य समाज के संस्थापक, वैदिक धर्म एवं विचार के प्रचारक, आधुनिक काल में हिन्दू समाज के उद्धारक तथा महान् समाज-सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म काठियावाड़ (गुजरात) के मोरबी नामक ग्राम मेंहुआ था। बचपन मेंही उनके मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था उत्पन्नहो गयी। उन्होंने गृह त्यागकर ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली और अनेक वर्षोंतक योग-साधना तथा शास्त्राध्ययन किया। आचार्य शंकर द्वारा स्थापित दशनामी सम्प्रदाय में संन्यास—दीक्षा लेने के पश्चात् वे दयानन्द सरस्वती कहलाये। वेदाध्ययन के लिए व्याकरण के विशेष महत्व के कारण उन्होंने स्वामी विरजानन्द से व्याकरण पढ़ना प्रारम्भ किया। अपने विद्या-गुरुस्वामी विरजानन्द के आदेशानुसार वे वेदों के शुद्ध ज्ञान का प्रचार करने में लग गये। परम्परागत हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) के सुधार में स्वामी दयानन्द का बहुत योगदान रहा। आर्य धर्म के तत्वों का सुबोध भाषा-शैलीमें प्रतिपादन करने के उद्देश्यसे उन्होंने'सत्यार्थप्रकाश' लिखा। इस्लाम और ईसाइयत की अनेक भ्रामक बातों की उन्होंने कठोर आलोचना की। शास्त्रार्थ में विरोधियों को परास्त कर वैदिक मत की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। आर्यत्व का अभिमान और स्वदेश का गौरव जगाया। युगाब्द 4984 (सन् 1883) में अजमेर में दीपावली के दिन विषघात से उनकी मृत्यु हुई।
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− | '''<big>रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)]</big>'''
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− | 'गीतांजलि' परयुगाब्द 5014 (ई० 1913) में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुरबंगला साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। उनकेपितादेवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्ध और आदरणीय ब्रह्मसमाजी थे। साहित्यिक रुचि सम्पन्न सुसंस्कृत परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला वाडमय की अपूर्व श्रीवृद्धि की। बंगभंग के विरुद्ध जब बंगाल में आन्दोलन काप्रवर्तनहुआ तो रवीन्द्रनाथठाकुर ने उत्कुष्टदेशभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना की। उन्होंने इंग्लैंड, चीन,जापान आदि देशों का प्रवास और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन किया था। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान विशिष्ट रहा। वे 'विश्वभारती' और ' शांतिनिकेतन' संस्थाओं के संस्थापक थे। कहानी और कविता ही नहीं, रवीन्द्र-संगीत भीउनकी अनुपम देन है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व को भारतीय संस्कृति के सार्वभौम स्वरूप से परिचित कराया।
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− | '''<big>राजा राममोहन राय [कलियुगाब्द4873-4934 (1772-1833 ई०)]</big>'''
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− | बंगाल के एक धनाढ़य, रूढ़िवादी, वैष्णव परिवार में जन्मे राममोहन राय प्रसिद्ध समाज सुधारक,आधुनिक भारत के निर्माता,ब्रह्म समाज के संस्थापक,वेदान्तनिष्ठ,पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के पुरस्कर्ता, सतीप्रथा उन्मूलन आन्दोलन के प्रवर्तक, विभिन्न धर्ममतों में समन्वय स्थापित कर सार्वभौम धर्ममत का प्रतिपादन करने वाले, विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक, आधुनिक बंगला पत्रकारिता के महान् प्रवर्तक और अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रारम्भकर्ता थे। पैतृक धन का सदुपयोग उन्होंने अपने सिद्धान्तों को साकार रूपदेने में किया। उन्होंने एकेश्वरवाद का समर्थन और मूर्तिपूजा का विरोध किया। देश में ईसाई मत के विस्तार का कार्य उनके कर्तृत्व के परिणामस्वरूप कुंठित हो गया।
| + | ==== <big>स्वामी दयानन्द सरस्वती</big> ==== |
| + | आर्य समाज के संस्थापक, वैदिक धर्म एवं विचार के प्रचारक, आधुनिक काल में हिन्दू समाज के उद्धारक तथा महान समाज-सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म काठियावाड़ (गुजरात) के मोरबी नामक ग्राम में हुआ था [कलि संवत् 4925-4984 (1824-1883 ई०)] । बचपन में ही उनके मन में मूर्तिपूजा के प्रति अनास्था उत्पन्न हो गयी। उन्होंने गृह त्यागकर ब्रह्मचर्य की दीक्षा ली और अनेक वर्षों तक योग-साधना तथा शास्त्राध्ययन किया। आचार्य शंकर द्वारा स्थापित दशनामी सम्प्रदाय में संन्यास-दीक्षा लेने के पश्चात वे दयानन्द सरस्वती कहलाये। वेदाध्ययन के लिए व्याकरण के विशेष महत्व के कारण उन्होंने स्वामी विरजानन्द से व्याकरण पढ़ना प्रारम्भ किया। अपने विद्या-गुरुस्वामी विरजानन्द के आदेशानुसार वे वेदों के शुद्ध ज्ञान का प्रचार करने में लग गये। परम्परागत हिन्दू धर्म (सनातन धर्म) के सुधार में स्वामी दयानन्द का बहुत योगदान रहा। आर्य धर्म के तत्वों का सुबोध भाषा-शैली में प्रतिपादन करने के उद्देश्य से उन्होंने 'सत्यार्थप्रकाश' लिखा। इस्लाम और ईसाइयत की अनेक भ्रामक बातों की उन्होंने कठोर आलोचना की। शास्त्रार्थ में विरोधियों को परास्त कर वैदिक मत की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। आर्यत्व का अभिमान और स्वदेश का गौरव जगाया। युगाब्द 4984 (सन् 1883) में अजमेर में दीपावली के दिन विषघात से उनकी मृत्यु हुई। |
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− | '''<big>रामतीर्थ [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)]</big>'''
| + | ==== <big>रवीन्द्रनाथ ठाकुर</big> ==== |
| + | 'गीतांजलि' पर युगाब्द 5014 (ई० 1913) में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर [कलियुगाब्द 4962-5043 (1861-1942 ई०)] बंगला साहित्य में नवयुग के प्रवर्तक थे। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर बंगाल के प्रसिद्ध और आदरणीय ब्रह्मसमाजी थे। साहित्यिक रुचि सम्पन्न सुसंस्कृत परिवार में जन्मे रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला वाडमय की अपूर्व श्री वृद्धि की। बंगभंग के विरुद्ध जब बंगाल में आन्दोलन का प्रवर्तन हुआ तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उत्कुष्ट देशभक्तिपूर्ण कविताओं की रचना की। उन्होंने इंग्लैंड, चीन, जापान आदि देशों का प्रवास और पाश्चात्य साहित्य का गहन अध्ययन किया था। शिक्षा के क्षेत्र में भी उनका योगदान विशिष्ट रहा। वे 'विश्वभारती' और 'शांतिनिकेतन' संस्थाओं के संस्थापक थे। कहानी और कविता ही नहीं, रवीन्द्र-संगीत भी उनकी अनुपम देन है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व को भारतीय संस्कृति के सार्वभौम स्वरूप से परिचित कराया। |
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− | गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्मे, पंजाब के गुजराँवाला जिले के तीर्थरामने 28 वर्षकी आयु में महाविद्यालय के व्याख्याता पद से त्यागपत्र देकर संन्यास-दीक्षा ली और रामतीर्थ नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने वेदान्त-प्रचार का अमित कार्य किया, विशेष रूप से विदेशों में। स्वामी विवेकानन्द के समान उन्होंने भी विदेशों में घूम-घूमकर वेदान्त-चर्चा की और अनेक पाश्चात्य लोगोंं को अपना अनुयायी बनाया। उर्दू तथा फारसी पर उनका प्रारम्भ से ही प्रभुत्व रहा; संस्कृत का अध्ययन किया; गणित विषय के तो वे प्राध्यापक रहे। ऋषिकेश के समीप वन में कठिन तपस्या की। उन्होंने देशभक्ति, निर्भयता तथा अद्वैत वेदान्त मत का प्रचार किया। अध्यात्मनिष्ठ, भक्तिमय जीवन बिताते हुए, भारतीय वेदान्त की ज्योति देश-विदेश में जला कर 33 वर्ष की आयु में स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में जलसमाधि ले ली। | + | ==== '''<big>रामतीर्थ</big>''' ==== |
| + | गोस्वामी तुलसीदास के कुल में जन्मे [कलि सं० 4964-5007 (1873-1906)], पंजाब के गुजराँवाला जिले के तीर्थराम ने 28 वर्ष की आयु में महाविद्यालय के व्याख्याता पद से त्यागपत्र देकर संन्यास-दीक्षा ली और रामतीर्थ नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने वेदान्त-प्रचार का अमित कार्य किया, विशेष रूप से विदेशों में। स्वामी विवेकानन्द के समान उन्होंने भी विदेशों में घूम-घूमकर वेदान्त-चर्चा की और अनेक पाश्चात्य लोगोंं को अपना अनुयायी बनाया। उर्दू तथा फारसी पर उनका प्रारम्भ से ही प्रभुत्व रहा; संस्कृत का अध्ययन किया; गणित विषय के तो वे प्राध्यापक रहे। ऋषिकेश के समीप वन में कठिन तपस्या की। उन्होंने देशभक्ति, निर्भयता तथा अद्वैत वेदान्त मत का प्रचार किया। अध्यात्मनिष्ठ, भक्तिमय जीवन बिताते हुए, भारतीय वेदान्त की ज्योति देश-विदेश में जला कर 33 वर्ष की आयु में स्वामी रामतीर्थ ने गंगा में जलसमाधि ले ली। |
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− | '''<big>अरविन्द [युगाब्द 4973-5051 (1872-1950 ई०)]</big>'''
| + | ==== <big>अरविन्द</big> ==== |
| + | श्री अरविन्द [युगाब्द 4973-5051 (1872-1950 ई०)] भारत के एक श्रेष्ठ राजनीतिक नेता, क्रान्तिकारी, योगी और भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ व्याख्याता थे। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बंगाल में प्राप्त की। तदुपरान्त अध्ययन के लिए इंग्लैंड गये। भारत लौटने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े और क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया। अलीपुर बम केस में जेल गये। 'कर्मयोगी', 'वन्देमातरम्' तथा 'आर्य' पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में राजनीतिक आन्दोलन के मार्ग से निवृत्त होकर पांडिचेरी चले आये और योग साधना में रत हुए। युगाब्द 5021 (सन् 1920) में पांडिचेरी आश्रम की स्थापना की। 'पूर्णयोग', 'अतिमानस', 'अतिमानव' और 'दिव्य जीवन' की अवधारणाओं का प्रतिपादन करने वाले अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। भारतमाता का चेतनामयी परमात्म-शक्ति के रूप में साक्षात्कार कर भारतीय राष्ट्रवाद को उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अधिष्ठान प्रदान किया तथा भविष्य में भारत को जो योगदान करना है उसका भी विवेचन किया। उन्होंने भारत के पुन: अखंड होने की भविष्यवाणी की है। |
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− | श्री अरविन्द भारत के एक श्रेष्ठ राजनीतिक नेता,क्रान्तिकारी,योगी और भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ व्याख्याता थे। उन्होंने प्राथमिक शिक्षा बंगाल में प्राप्त की। तदुपरान्त अध्ययन के लिए इंग्लैंड गये। भारत लौटने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में कुद पड़े और क्रान्तिकारी गतिविधियों में भाग लिया। अलीपुर बम केस में जेल गये। 'कर्मयोगी', 'वन्देमातरम्' तथा 'आर्य' पत्रों का प्रकाशन किया। बाद में राजनीतिक आन्दोलन के मार्ग से निवृत्त होकर पांडिचेरी चले आये और योग साधना में रत हुए। युगाब्द 5021 (सन् 1920) में पांडिचेरी आश्रम की स्थापना की। 'पूर्णयोग<nowiki>''</nowiki>अतिमानस','अतिमानव' और 'दिव्य जीवन' की अवधारणाओं का प्रतिपादन करने वाले अनेक ग्रंथी का प्रणयन किया। भारतमाता का चेतनामयी परमात्म-शक्ति के रूप में साक्षात्कार कर भारतीय राष्ट्रवाद को उन्होंने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अधिष्ठान प्रदान किया तथा भविष्य में भारत को जो योगदान करनाहैउसका भी विवेचन किया। उन्होंने भारत केपुन: अखंड होने की भविष्यवाणी की है।
| + | ==== <big>विवेकानन्द</big> ==== |
− | | + | विदेशों में हिन्दूधर्म की कीर्ति पताका फहराने वाले, स्वदेश में वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)] का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित 'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकर अपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उन्होंने 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया। |
− | '''<big>विवेकानन्द [युगाब्द 4963-5003 (1863-1902 ई०)]</big>'''
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− | विदेशोंमेंहिन्दूधर्म की कीर्तिपताका फहराने वाले,स्वदेशमें वेदान्त की युगानुरूप व्याख्या कर हताश एवं विभ्रान्त समाज में उत्साह, स्फूर्ति और बल का संचार करने वाले तथा भारतीय संस्कृति के अध्यात्म तत्व का व्यावहारिक प्रतिपादन करने वाले स्वामी विवेकानन्द का बचपन का नाम नरेन्द्र था। बालक नरेन्द्र खेल तथा अध्ययन दोनों में ही प्रवीण था और ईश्वर के विषय में उसके मन में तीव्र जिज्ञासा थी। रामकृष्ण परमहंस के दर्शन और आशीर्वाद से नरेन्द्र को ईश्वर का साक्षात्कार हुआ और मन की शंकाओं का समाधान हुआ। वे विवेकानन्द बन गये। युगाब्द 4994 (ई०1893) में अमेरिका में आयोजित'सर्वधर्म सम्मेलन' में हिन्दूधर्म के प्रतिनिधि के रूप में भाग लेकरअपनी ओजस्वी वक्तृता से वेदान्त की अनुपम ज्ञान-सम्पदा का रहस्योद्घाटन करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने पश्चिम के मानस में हिन्दूधर्म के प्रति आकर्षण और रुचि उत्पन्न की। स्वदेश में भ्रमण कर स्वामी जी ने मानव-सेवा को ईश्वर-सेवा का पर्याय बताया। गुरुभाइयों के साथ मिलकर उनहोंने 'रामकृष्ण मिशन' की स्थापना की और धर्म-जागृति तथा सेवा पर आग्रह रखा। 39 वर्ष के अल्प जीवनकाल में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दुत्व के नवोन्मेष का महान् कार्य किया।
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| [[File:१६.PNG|center|thumb]] | | [[File:१६.PNG|center|thumb]] |
| <blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote> | | <blockquote>'''<big>दादाभाई गोपबन्धु: तिलको गान्धिरादूता: । रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रह्मण्यभारती।29 ॥</big>''' </blockquote> |
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− | '''<big>दादाभाईनौरोजी [युगाब्द 4936-5018 (1835-1917 ई०)]</big>''' | + | ==== '''<big>दादा भाई नौरोजी</big>''' ==== |
− | | + | महाराष्ट्र के एक पारसी परिवार में जन्मे दादाभाई नौरोजी [युगाब्द 4936-5018 (1835-1917 ई०)] आधुनिक भारत के एक प्रमुख देशभक्त, राजनीतिक नेता एवं समाज-सुधारक हुए हैं। भारतीयों के स्वराज्य के अधिकार को ब्रिटिश संसद तक गुंजाने वाले दादाभाई भारतीय स्वातंत्र्य के वैधानिक आन्दोलन के जनक थे। वे कांग्रेस के संस्थापकों में से एक थे और तीन बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने। 1892 (युगाब्द4993) में ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की ओर से ब्रिटिश संसद के सदस्य चुने जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उन्होंने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का तथ्यपरक एवं गहन विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि भारत का धन इंग्लैंड की ओर प्रवाहित हो रहा है। इसे 'ड्रेन थ्योरी' कहते हैं। |
− | महाराष्ट्र के एक पारसी परिवार में जन्मे दादाभाई नौरोजी आधुनिक भारत के एक प्रमुख देशभक्त, राजनीतिक नेता एवं समाज-सुधारक हुए हैं। भारतीयों के स्वराज्य के अधिकार को ब्रिटिश संसद् तक गुंजाने वाले दादाभाई भारतीय स्वातंत्र्य के वैधानिक आन्दोलन के जनक थे। वे कांग्रेस के संस्थापकोंमेंसेएक थे औरतीन बार कांग्रेस केअध्यक्षबने। 1892 (युगाब्द4993) में ब्रिटेन की लिबरल पार्टी की ओर से ब्रिटिश संसद् के सदस्य चुने जाने वाले वे प्रथम भारतीय थे। उन्होंने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का तथ्यपरक एवं गहन विश्लेषण कर यह सिद्ध किया कि भारत का धन इंग्लैंड की ओर प्रवाहित हो रहा है। इसे 'ड्रेन थ्योरी' कहते हैं। | |
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− | '''<big>गोपबन्धुदास [युगाब्द 4973-5029 (1872-1928 ई०)]</big>'''
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− | उड़ीसा में पुरी जिले के अन्तर्गत जन्मे पण्डित गोपबन्धुदास श्रेष्ठ कवि, लेखक, पत्रकार, दार्शनिक, समाज-सुधारक,कुशल संगठक, राजनीतिक नेता एवं हिन्दुत्ववादी चिंतक के रूप में विख्यात हैं। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के नेतृत्व के पूर्व एवं पश्चात् भी वे सम्पूर्ण उड़ीसा में अग्रणी रहे। उन्होंने अस्पृश्यता—निवारण हेतु अभियान चलाया और गांधी जी को भी हरिजन-उद्धार-कार्य की प्रेरणा दी। उनके साथ पुरी जिले में पदयात्रा के समय ही महात्मा गांधी ने 'एक वस्त्र परिधान'का संकल्प लिया था। गोपबन्धुदास ने आर्तजनों की सेवा के सामने निजी तथा पारिवारिक दु:खों एवं संकटों को सदा गौण माना। वे उड़ीसा के सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र 'समाज' के प्रतिष्ठाता और अखिल भारतीय लोक-सेवक मंडल के प्रमुख कर्णधार थे। | + | ==== <big>गोपबन्धुदास</big> ==== |
| + | उड़ीसा में पुरी जिले के अन्तर्गत जन्मे पण्डित गोपबन्धुदास [युगाब्द 4973-5029 (1872-1928 ई०)] श्रेष्ठ कवि, लेखक, पत्रकार, दार्शनिक, समाज-सुधारक, कुशल संगठक, राजनीतिक नेता एवं हिन्दुत्ववादी चिंतक के रूप में विख्यात हैं। स्वाधीनता संग्राम में गांधीजी के नेतृत्व के पूर्व एवं पश्चात् भी वे सम्पूर्ण उड़ीसा में अग्रणी रहे। उन्होंने अस्पृश्यता-निवारण हेतु अभियान चलाया और गांधी जी को भी हरिजन-उद्धार-कार्य की प्रेरणा दी। उनके साथ पुरी जिले में पदयात्रा के समय ही महात्मा गांधी ने 'एक वस्त्र परिधान' का संकल्प लिया था। गोपबन्धुदास ने आर्तजनों की सेवा के सामने निजी तथा पारिवारिक दु:खों एवं संकटों को सदा गौण माना। वे उड़ीसा के सर्वाधिक लोकप्रिय पत्र 'समाज' के प्रतिष्ठाता और अखिल भारतीय लोक-सेवक मंडल के प्रमुख कर्णधार थे। |
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| '''<big>लोकमान्य बाल गंगाधरतिलक [युगाब्द 4957-5021 (1856-1920 ई०)]</big>''' | | '''<big>लोकमान्य बाल गंगाधरतिलक [युगाब्द 4957-5021 (1856-1920 ई०)]</big>''' |