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राजस्थान में गुहिलोत राजवंश के संस्थापक बाप्पा रावल स्वधर्म के प्रखर अभियानी तथा अरबों को परास्त करने वाले प्रतापी-पराक्रमी राजा हुए हैं। उदयपुर के निकट एक छोटे से राज्य नागहृद (नागदा) के अधिपति पद से आरम्भ कर ये चित्तौड़ के अधिपति बने। युगाब्द 39वीं (ई० आठवीं) शताब्दी में अरबों के आक्रमण भारत पर होने लगे थे। बाप्पा रावल ने स्वदेश में तो उनकी पराजित किया ही,आगे अरब तक बढ़कर शत्रुओं कादमन भी किया। दीर्घकाल तक राज्य-शासन करके तथा आक्रमणकारी अरबों को अनेक बार पराभूत कर बाप्पा रावल ने अपने पुत्र को राज्य प्रदान किया और स्वयं शिवोपासक यति बने।
 
राजस्थान में गुहिलोत राजवंश के संस्थापक बाप्पा रावल स्वधर्म के प्रखर अभियानी तथा अरबों को परास्त करने वाले प्रतापी-पराक्रमी राजा हुए हैं। उदयपुर के निकट एक छोटे से राज्य नागहृद (नागदा) के अधिपति पद से आरम्भ कर ये चित्तौड़ के अधिपति बने। युगाब्द 39वीं (ई० आठवीं) शताब्दी में अरबों के आक्रमण भारत पर होने लगे थे। बाप्पा रावल ने स्वदेश में तो उनकी पराजित किया ही,आगे अरब तक बढ़कर शत्रुओं कादमन भी किया। दीर्घकाल तक राज्य-शासन करके तथा आक्रमणकारी अरबों को अनेक बार पराभूत कर बाप्पा रावल ने अपने पुत्र को राज्य प्रदान किया और स्वयं शिवोपासक यति बने।
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<blockquote>'''<big>लाचिद् भास्करवर्मा च यशोधर्मा च हूणाजित्। श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बल: ॥24 ॥</big>''' </blockquote>
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'''<big>लाचित बड़प्लुकन</big>'''
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असम के अहोम राज्यकाल के वीर सेनापति। इनका समय युगाब्द 48वीं (ई० 17वीं) शताब्दी था। इन्होंने मुगल सेना के दाँत खट्टे किये और युद्ध में अपने प्रमादी मामा का सिर यह कहते हुए काट दिया कि “मामा से देश बड़ा है।"
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'''<big>भास्कर वर्मा</big>'''
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असम के युगाब्द 38वीं (ईसा की सातवीं) शताब्दी के राजा। ये आजीवन ब्रह्मचारी रहे। भास्कर वर्मा विद्या और कला के संरक्षक, वीर योद्धा और कुशल प्रशासक थे। सम्राट् हर्षवर्द्धन से इनकी मैत्री—सन्धि थी।
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'''<big>यशोधर्मा</big>'''
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कलियुग की 36वीं (ई० पाँचवी) शताब्दी के राजा,जिनका साम्राज्यब्रह्मपुत्रसे महेन्द्र पर्वत (उत्कल) तक और हिमालय से पश्चिम सागर (सिन्धुसागर) तक फैला हुआ था। इनका उल्लेखनीय कतृत्व हूणवंश के क्रूर राजा मिहिरकुल को परास्त करना है। मंदसौर (मध्यप्रदेश) इनकी राजधानी थी, जिसके आसपास इनके शिलालेख पाये गये हैं।
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'''<big>कृष्णदेव राय</big>'''
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कलि संवत् की 47वीं (ई० 16वीं) शताब्दी के विजयनगर साम्राज्य के प्रसिद्ध राजा। ये तुलुववंशीय नरसिंह राय के पुत्र थे। इन्होंने इस्माइल आदिलशाह को पराभूत किया और दक्षिण में मुस्लिम प्रभुसत्ता का दर्प क्षीण किया। ये लोकोपकारी राजा के रूप में स्मरण किये जाते हैं। विजयनगर का प्रसिद्ध प्रत्युत्पन्नमति सभासद् तेनालीराम महाराजा कृष्णदेव राय की ही राजसभा का रत्न था ।
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'''<big>ललितादित्य [कलियुगाब्द 3825-3862 (ई०724-461)]</big>'''
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कश्मीर के महाराज प्रतापादित्य के तृतीयपुत्र,महान् योद्धा और विजेता,जिनका कीर्तिगान कश्मीर के इतिहासकार कवि कल्हण ने अपने ग्रंथ 'राजतरंगिणी' में किया है। विश्व-विजय के आकांक्षी ललितादित्य का राज्यकाल विजयों का इतिहास है। उन्होंने अरब, तुर्क, तातार आदि मुस्लिम आक्रामकों को न केवल पराजित किया,अपितुउनका दूरतक पीछा करऐसादमन किया कि आगे कीतीन शताब्दियों तकउन्हेंकश्मीर की ओर आँखउठाकरदेखनेकासाहस नहीं हुआ। ललितादित्य ने पंजाब, कन्नौज, तिब्बत, बदख्शान को अपने राज्य में मिलाया और विजित राजाओं से उदार बर्ताव किया। उन्होंने भगवान् विष्णु और बुद्ध के बहुत से मन्दिर बनवाये।
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<blockquote>'''<big>मुसुनूरिनायकौ तौ प्रताप: शिवभूपति:। रणजित्सिंह इत्येते वीरा विख्यातविक्रमा: ॥25 ॥</big>''' </blockquote>
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'''<big>मुसुनूरि नायक</big>'''
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कलि संवत् की 45वीं (ई० 14वीं) शताब्दी में वारंगल राज्य (आन्ध्रप्रदेश) में प्रोलय और कप्पय नामक दो मुसुनूरि नायक हुए। उन्होंने आन्ध्र प्रदेश से मुस्लिम शासन को उखाड़ फेंका। मुहम्मद बिन तुगलक ने काकतीय नरेश प्रतापरुद्र को पराजित कर राजधानी ओरूगल (वर्तमान वारंगल) को अपने अधीन कर लिया था और उसका नाम सुल्तानपुर रखा था। प्रतापरुद्र के आकस्मिक निधन से हिन्दूनेतृत्वविहीन हो गये थे। ऐसे समय सेनापति प्रोलय और उनके भतीजे कप्पय ने सेना, सामंतों और जनता को संगठित कर मुस्लिम शासन का विरोध किया। मुसुनूरि नायकों के प्रयास से ओरूगल मुक्त हुआ, वहाँ भगवा ध्वज पुन: फहराया, मुसलमानों के दक्षिण में और आगे बढ़ने पर रोक लगी,महासंघ की स्थापना में सहायता मिली,हिन्दुओं में आत्मविश्वास का उदय हुआ और धर्म की पुन: प्रतिष्ठा हुई।
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'''<big>महाराणा प्रताप [युगाब्द 3640-3698 (1539-1597 ई०)]</big>'''
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परतंत्रता के विरुद्ध आजीवन संघर्ष करने वाले और हिन्दुत्व की केसरिया पताका को सदैव ऊंचा रखने वाले, स्वदेश और स्वधर्म के रक्षक राणा प्रताप के चरित्र में भारतीय प्रतिकार और प्रतिरोध-चेतना को प्रतिनिधित्व प्राप्त हुआ। जिस कालखण्ड में अनेक राजपूत नरेश स्वधर्म का स्वाभिमान भुलाकर मुगल बादशाह से सन्धि करने के साथ-साथ अपनी कन्या तक देकर उससे संबंध जोड़ रहे थे और‘दीन-इलाही' के द्वारा हिन्दुओं को भ्रमित किया जा रहा था,उस युग में अकबर के दम्भ और चाल को विफल करने वाले वीर पुरुष थे राणा प्रताप। मेवाड़-मुकुटमणि राणा प्रताप का जन्म बाप्पा रावल के गौरवशाली कुल में हुआ था। ये महाराणा सांगा (संग्राम सिंह) के पौत्र थे। राजपूताने की पावन भूमि हल्दीघाटी में राणा प्रताप और उनके अमर बलिदानी वीर भीलों एवं राजपूतों ने मुगल सेना से संग्राम में जो लोकोत्तर पराक्रम दिखाया उसकी कीर्ति-कथा हिन्दू जाति के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बन चुकी है। चित्तौड़ की स्वतंत्र कराने का संकल्प अपने हृदय में धारण किये राणा प्रताप ने वनवास स्वीकार किया औरस्वदेश-स्वातंत्र्य हेतु अपार कष्ट सहन किये। देशभक्त भामाशाह से अकल्पित सहायता प्राप्त होने पर महाराणा प्रताप ने सैन्य-संगठन करके अपने जीवनकाल में 80 में से 77 किले पुन: जीत लिये।
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'''<big>शिवाजी [युगाब्द 4728-4781 (1627-1680 ई०)]</big>'''
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बीजापुर के आदिलशाही दरबार के सामन्त शाहजी भोंसले के द्वितीयपुत्र शिवाजी के बाल मन में ही उनकी माता जीजाबाई ने स्वधर्म, स्वदेश एवं स्वपरम्परा के प्रति गौरव-बोध जगाकर अत्याचारी मुस्लिम सत्ता की दासता से मातृभूमि को मुक्त कराने का जो संकल्प जगाया, उसे दादाजी कोंडदेव जैसे वीर शूरमा ने शस्त्र-शास्त्र की शिक्षा द्वारा पुष्ट किया। परिणामस्वरूप शिवाजी ने सोलह वर्ष की अल्पायु में ही खेती-बाड़ी करने वाले पहाड़ी मावलों में शूरवृत्ति एवं देश—धर्म की निष्ठा जगाकर तोरण के किले की विजय से स्वराज्य—स्थापना का श्रीगणेश जी किया तो फिर वह क्रम रुका नहीं। मुगल सेनापति शाइस्ता खाँ का पराभव, अफजल खान का वध, औरंगजेब के आगरा बन्दीवास से युक्तिपूर्वक निकल भागना, जयसिंह को प्रताड़ना भरा पत्र लिखकरउसके मन में स्वदेश व स्वधर्म के प्रति अनुराग जगाने का प्रयत्न करना, आदि घटनाएँ ऐसी हैंजिनमेंउनका साहस,कुटनीति, कुशलता,समय-सूचना,रणचातुरी,संगठन-कौशल आदि प्रकर्ष से प्रकट हुए हैं। अपने 53 वर्ष के छोटे से जीवन-काल में 36 छोटे-बड़े युद्धों में अपराजेय रहकर ‘हिन्दवी स्वराज्य' की स्थापना द्वारा उन्होंने समस्त हिन्दू समाज में नवचेतना का संचार किया। राज्य व्यवहार-कोष के निर्माण, जहाजी बेड़े की स्थापना, मुद्रणालय प्रारम्भ करने के प्रयास आदि सबमें उनके परम्परा—प्रेम के साथ-साथ प्रशासनिक कौशल के दर्शन प्रकर्ष से होते हैं। इन सबने छत्रपति शिवाजी महाराज को युगपुरुष की श्रेणी में रख दिया।
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'''<big>रणजीत सिंह [युगाब्द 4881-4940 (1780-1839 ई०)]</big>'''
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पंजाब के सुप्रसिद्ध महाराजा, जिन्होंने जम्मू और कश्मीर को भी मिलाकर पंजाब को एक शक्तिशाली, प्रभुतासम्पन्न राज्य का रूप दिया। हरिसिंह नलवा और जोरावर सिंह जैसे पराक्रमी सेनापतियों के नेतृत्व में संगठित सेना से उन्होंने राज्य की सीमाओं को तिब्बत के पश्चिम, सिन्धु के उत्तर और खैबर दर्रे से लेकर यमुना नदी के पश्चिमी तट तक बढ़ाकर उसे राजनीतिक और भौगोलिक एकता प्रदान की। उनका प्रशासन साम्प्रदायिक आग्रहों से मुक्त था और राज्य जनभावना पर आधारित था। गोहत्या पर उन्होंने कठोर प्रतिबंध लगाया था तथा अपने प्रभाव से अफगानिस्तान में भी वहाँ के शाह से गोहत्या बन्द करवायी थी। महमूद गजनवी द्वारा लूटे गये सोमनाथ मन्दिर के बहुमूल्य द्वार को वापस लाने का पराक्रम भी उन्हींका था। उनके जीवित रहते तक अंग्रेजों की कुटनीति पंजाब में विफल हुई।
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