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* एक तबका यहूदी/ ईसाई (Judeo-Christian) तत्वज्ञान को आधार मानने वाला है । यह तत्वज्ञान निम्न है: येहोवा / गॉड / अल्ला ने पाँच दिन सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि 'यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृति का मानव ने जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
 
* एक तबका यहूदी/ ईसाई (Judeo-Christian) तत्वज्ञान को आधार मानने वाला है । यह तत्वज्ञान निम्न है: येहोवा / गॉड / अल्ला ने पाँच दिन सृष्टि का निर्माण किया और छठे दिन मानव का निर्माण कर मानव से कहा कि 'यह चर-अचर सृष्टि तुम्हारे उपभोग के लिये है'। यूरो अमरिकी समाज पर फ्रांसिस बेकन और रेने देकार्ते इन दो फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी का गहरा प्रभाव है। इन का तत्वज्ञान कहता है कि प्रकृति मानव की दासी है। इसे कस कर अपनी जकड में रखना चाहिये। मानव जम कर इस का शोषण कर सके इसी लिये इस का निर्माण हुआ है। इस लिये प्रकृति का मानव ने जम कर (टू द हिल्ट) शोषण करना चाहिये।
 
* दूसरा तबका है यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों का। यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारत समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
 
* दूसरा तबका है यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों का। यूरो-अमरिकी साईंटिस्टों और उन का अनुसरण करने वाले भारत समेत विश्व के सभी साईंटिस्टों की विश्वदृष्टि का आधार '''डार्विन की 'विकास वाद' और मिलर की 'जड से रासायनिक प्रक्रिया से जीव निर्माण'''' की परिकल्पनाएं ही हैं। मानव इन रासायनिक प्रक्रियाओं के पुलिंदों में सर्वश्रेष्ठ है। इस लिये इसे अपने स्वार्थ के लिये अन्य रासायनिक प्रक्रियाएं नष्ट करने का पूरा अधिकार है।
यद्दपि आधुनिक साईंस ईसाईयत के कई गंभीर सिध्दांतों के विरोध में है, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। मजहब या रिलीजन, फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी और साईंटिस्टों, तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
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यद्दपि आधुनिक साईंस ईसाईयत के कई गंभीर सिद्धांतों के विरोध में है, लेकिन फिर भी मोटा-मोटी दोनों तबकों का तत्वज्ञान एक ही है। इस लिये जीवन का प्रतिमान भी एक ही है। मजहब या रिलीजन, फिलॉसॉफरों की फिलोसोफी और साईंटिस्टों, तीनों के प्रभाव के कारण जो अभारतीय जीवन दृष्टि बनीं है उस के तीन मुख्य पहलू हैं:
 
#व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है।
 
#व्यक्तिवादिता : सारी सृष्टि केवल मेरे उपभोग के लिये बनीं है।
 
# जडवादिता : सृष्टि में सब जड ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है।
 
# जडवादिता : सृष्टि में सब जड ही है। चेतनावान कुछ भी नहीं है।
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सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है  
 
सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है  
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भारतीय विचार कहता है, मैं जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर शायद ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। यह तो अधार्मिक (अभारतीय) चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है।
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भारतीय विचार कहता है, मैं जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया।  
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इस पार्श्वभूमि पर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।
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भारतीय विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते हैं{{Citation needed}} कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा, क्योंकि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है।
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मेरे साथ यदि कोई पशु जैसा व्यवहार करे तो मै क्या करूं ? ऐसी स्थिति में धार्मिक (भारतीय) विचार में अपनी बुद्धि का उपयोग करने को कहा है। आद्य जगद्गुरू शंकराचार्य कहते है कि वेद उपनिषद भी चिल्ला चिल्लाकर कहें की अंगारे से हाथ नही जलेंगे तो भी मै नही मानूंगा। क्यों कि मेरा प्रत्यक्ष अनुभव भिन्न है।
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पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता में १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18.63 </ref> <blockquote>‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। 18.63।  </blockquote><blockquote>अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो।</blockquote>स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उद्धृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है।
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ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरती पर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
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पूरा उपदेश देने के बाद श्रीमद्भगवद्गीता में १८ वें अध्याय के ६३ वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18.63 </ref> <blockquote>‘यथेच्छि्स तत: कुरू’। 18.63।  </blockquote><blockquote>अर्थात् अब जो तुम्हें ठीक लगे वही करो।</blockquote>यहाँ एक और स्पष्टीकरण महत्वपूर्ण होगा। श्रीमद्भगवद्गीता मै, बायबल में और कुरआन मे तीनों मे इस अर्थ का उपदेश है कि अन्य सब का विचार छोडकर मेरी ही शरण में आओ। किंतु बायबल और कुरआन के कथन का मैं, मेरी का अर्थ व्यक्तिश: महात्मा ईसा या पैगंबर मोहम्मद की शरण में ऐसा लेना चाहिये ऐसी इन दोनों समाजों की मान्यता है। जब कि श्रीकृष्ण के कथन में मेरी शरण का अर्थ है दैवी शक्ति की शरण मे आओ ऐसा है।  
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“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही भारतीय संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है।  
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हिंदुत्ववादी लोगों की घोर विरोधक सुश्री ईरावती कर्वे ने भी अपनी ‘धर्म’ नामक पुस्तक में पृष्ठ क्र. ३१ पर यह मान्य किया है। एकात्मता की भावना और उस के आधारपर उसे बुद्धि का उपयोग करने के स्वातंत्र्य का आदर धार्मिक (भारतीय) समाज ने मान्य किया है।
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=== पंच ॠण ===
 
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स्वामी विवेकानंदजी के शिकागो सर्वधर्मपरिषद में हुए संक्षिप्त और फिर भी विश्वविजयी भाषण में यही कहा गया है। उन्हों ने बचपन से जो श्लोक वह कहते आये थे वही उध्दृत किया था। वह था<ref>शिवमहिम्न: स्तोत्र</ref>: <blockquote>रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिलनाबापथजुषां। </blockquote><blockquote>नृणामेको गम्य: त्वमसि पयसामर्णव इव।।</blockquote>भावार्थ : समाज में प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा ने बुद्धि का वरदान दिया हुआ है। प्रत्येक की बुद्धि भिन्न होती ही है। किसी की बुद्धि में ॠजुता होगी किसी की बुद्धि में कुटिलता होगी। ऐसी विविधता से सत्य की ओर देखने से हर व्यक्ति की सत्य की समझ अलग अलग होगी। हर व्यक्ति का सत्य की ओर आगे बढने का मार्ग भी भिन्न होगा। कोई सीधे मार्ग से तो कोई टेढेमेढे मार्ग से लेकिन सत्य की ओर ही बढ रहा है।
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ऐसी हमारी केवल मान्यता नही है वरन् ऐसी हमारी श्रध्दा है {{Citation needed}}। <blockquote>आकाशात् पतितंतोयं यथा गच्छति सागरं।</blockquote><blockquote>सर्वदेव नमस्कारं केशवं प्रतिगच्छति।</blockquote>जिस प्रकार बारिश का पानी धरतीपर गिरता है। लेकिन भिन्न भिन्न मार्गों से वह समुद्र की ओर ही जाता है उसी प्रकार से शुद्ध भावना से आप किसी भी दैवी शक्ति को नमस्कार करें वह परमात्मा को प्राप्त होगा।
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“विविधता या अनेकता में एकता” यह भारत की विशेषता है। इसका अर्थ यह है कि ऊपर से कितनी भी विविधता दिखाई दे सभी अस्तित्वों का मूल परमात्मा है इस एकमात्र सत्य को जानना। इसलिए भाषा, प्रांत, वेष, जाति, वर्ण आदि कितने भी भेद हममें हैं। भेद होना यह प्राकृतिक ही है। इसी तरह से सभी अस्तित्वों में परमात्मा (का अंश याने जीवात्मा) होने से सभी अस्तित्वों में एकात्मता की अनुभूति होने का ही अर्थ “विविधता या अनेकता में एकता” है। यही धार्मिक (भारतीय) या हिन्दू संस्कृति का आधारभूत सिद्धांत है। यही हिन्दू धर्म का मर्म है।
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=== ४ आत्मा, परमात्मा और इस से जुडी मान्यताएं ===
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आत्मा और परमात्मा यह संकल्पनाएं इस्लाम में रूह और अल्ला और ईसाईयत में सोल और गॉड जैसी है ऐसी सर्वसाधारण लोगों की समझ होती है। किन्तु यह सोच ठीक नही है। आत्मा और परमात्मा की धार्मिक (भारतीय) संकल्पनाएं पूर्णत: भिन्न है। इसी प्रकार से अध्यात्म और स्पिरीच्युऍलिटी (adhyatmikity) भी भिन्न संकल्पनाएं है। इस विषय पर यह [[Non-Translatable Sanskrit words|लेख]] देखें। गलत अंग्रेजी शब्दों के उपयोग के कारण और अर्ध-ज्ञानी धर्मगुरूओं के उपदेशों के कारण सामान्य हिंदू भी इन सब को एक ही मानने लग गये है। किन्तु यह ठीक नही हे। इन में जो अंतर है उसे हम संक्षेप में समझकर आगे बढेंगे।
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परमात्मा सर्वव्यापी और इसलिये सर्वज्ञानी और सर्वशक्तिमान है। यह पूरी सृष्टि परमात्मा ने अपनी इच्छा और शक्ति से अपने में से ही निर्माण किया है। यह है परमात्मा की संकल्पना। अल्ला या गॉड ऐसे नहीं है। आदम और ईव्ह ने ज्ञान का फल खाया इस लिये उन्हें दंड देनेवाला गॉड और ॠषियों को सत्यज्ञान का वेदों के रूप में स्वत: कथन करनेवाला परमात्मा एक कैसे हो सकता है ? सेमेटिक धर्मों में अल्ला और गॉड दोनों ही ईर्षालू है। इन्हे स्पर्धा सहन नहीं होती। ये दोनों ही असहिष्णू माने जाते है। परमात्मा वैसा नहीं है।  आत्मा रुह और सोल इन संकल्पनाओं में भी ऐसा ही मूलभूत अंतर है। वर्तमान मानवी जीवन ही सबकुछ है। इस से पहले कुछ नही था और आगे भी कुछ नही है ऐसी इस्लाम और ईसाईयत की मान्यता है। इसलिये रूह या सोल को स्थायी हेवन या जन्नत और स्थायी हेल या दोजख की इन दो मजहबों में मान्यता है। 
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धार्मिक (भारतीय) संकल्पना की आत्मा यह परमात्मा का ही अंश है। जो परमात्मा की इच्छा से ही निर्माण हुआ है। अंत में इसे परमात्मा में ही विलीन होना है। वह अनादि और अनंत ऐसे परमात्मा का ही अंश होने से वह भी अनादि और अनंत ही है। कुछ कच्चे वैज्ञानिक कहते है कि परमात्मा को जबतक प्रयोगशाला में सिध्द नही किया जाता हम विश्वास नही कर सकते। ऐसे अडियल वैज्ञानिकों को स्वामी विवेकानंद उलटी चुनौती देते है कि वे उन की प्रयोगशाला में सिध्द कर के दिखाएं कि परमात्मा नहीं है। एक और भी दृष्टि से इसे देखने की बात स्वामी विवेकानंद करते है। परमात्मा के मानने से यदि लोग सदाचारी बनते है तो परमात्मा में विश्वास रखने में क्या बुराई है ?  वास्तविक बात तो यह है कि मानव शरीर पंचमहाभूतों का बना होता है। वैज्ञानिक उपकरण उन्ही पंचमहाभूतों के बने होते है। शरीर से सूक्ष्म इंद्रियाँ होती है। इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मन से सूक्ष्म बुद्धि, बुद्धि से सूक्ष्म चित्त और चित्त से भी अधिक सूक्ष्म आत्मतत्व होता है। यह तो मीटर की मापन पट्टी लेकर नॅनो कण का आकार मापने जैसी गलत बात है। परमात्वतत्व को जानने के साधन वर्तमान प्रयोगशाला में उपलब्ध भौतिक उपकरण नही हो सकते। हमारे पूर्वजों ने आत्मा और परमात्मा इन संकल्पनाओं से जुडे कई वर्तनसूत्रों और मान्यताओं का विकास किया है। उन का अब संक्षिप्त परिचय हम करेंगे। 
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==== ४.१ अमृतस्य पुत्रा: वयं ====
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हम अमृतपुत्र हैं। हम अमर हैं। अविनाशी हैं। मैं केवल शरीर नहीं हूं। मै अजर अमर अविनाशी ऐसा आत्मतत्व हूं। यह विचार ही मन से किसी भी बात के भय को नष्ट करनेवाला है। मेरा शरीर और मैं, यह भिन्न हैं। जैसे जीर्ण वस्त्र बदलकर हम नये वस्त्र धारण करते है उसी प्रकार से हमारी आत्मा एक जीर्ण शरीर को या जिस शरीर का विहित कार्य पूर्ण हो गया है उस शरीर को त्यागकर एक नये शरीर को धारण करती है। चष्मे का क्रमांक बदलनेपर हम दूसरा चष्मा ले लेते है। वैसा ही हमारा वर्तमान शरीर है। आवश्यकता पूर्ण होनेपर या उस के निरुपयोगी होनेपर उसे बदला जा सकता है।
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'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’ अर्थात् शरीर की आवश्यकता तो धर्म के पालन के लिये है। धर्म का पालन अच्छे ढंग से हो सके इसलिये शरीर स्वास्थ्य को महत्व है।
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आत्मा और परमात्मा को प्रत्यक्ष देखना हर किसी को संभव नहीं। किन्तु अनुमान तर्क के आधारपर उसे समझाया जा सकता है। कुछ वैज्ञानिक जो अनुमान और तर्क को विज्ञान में प्रमाण के रूप में मानते है परमात्मा और आत्मा के विषय में उन्हें प्रत्यक्ष प्रमाण की माँग करते है। ऐसे अडियल या पूर्वाग्रही वैज्ञानिकों के मत का विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है। आत्मा और परमात्मा यह दोनों ही संकल्पनाएं वैज्ञानिक सत्य ही हैं।
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==== ४.२ पंच ॠण ====
   
ॠण का अर्थ है कर्ज। कृतज्ञता का अर्थ है औरों के द्वारा अपने हित में किये उपकारों को याद रखना। और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना। पशु पक्षियों की स्मृति कम होती है। संवेदनाएं भी कम होती है। बुद्धि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है। इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता। किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती। वह यदि किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है। कृतघ्नता को मनुष्यता का लक्षण नही माना जाता।       
 
ॠण का अर्थ है कर्ज। कृतज्ञता का अर्थ है औरों के द्वारा अपने हित में किये उपकारों को याद रखना। और यथासंभव उस से उतराई होने का प्रयास करना। पशु पक्षियों की स्मृति कम होती है। संवेदनाएं भी कम होती है। बुद्धि और चित्त भी मनुष्य की तुलना में दुर्बल होता है। इसलिये उसे उपकारकर्ता के उपकारों का स्मरण नही रहता। किन्तु मनुष्य के लिये उपकारों का भूलना अच्छी बात नही मानी जाती। वह यदि किये उपकार भूल जाता है तो उसे कृतघ्न कहा जाता है। कृतघ्नता को मनुष्यता का लक्षण नही माना जाता।       
    
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। '''वे हैं भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण'''।
 
हम जब जन्म लेते है और आगे जीवन जीते है तो कई घटकों से हम मदद पाते है। इन घटकों का वर्गीकरण हमारे पूर्वजों ने पाँच प्रमुख हिस्सों में किया है। '''वे हैं भूतॠण, पितरॠण, ॠषिॠण, समाजॠण या नृॠण और देवॠण'''।
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जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जाने पर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनि या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है। इसलिये धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है। मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है। उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है।
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जैसे किसी व्यक्ति का ॠण बढते जाने पर उस की समाज में कीमत कम होती जाती है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने जीवनकाल में ही अपने ॠण से उॠण होने के प्रयास नहीं करता वह हीन योनि या हीन मानव जन्म को प्राप्त होता है। इसलिये भारतीय जीवनदृष्टि में ॠण से उॠण होने के लिये कठोर प्रयास करने का आग्रह है। इन प्रयासों के परिणाम स्वरूप अनायास ही समाजजीवन श्रेष्ठ बनता जाता है। मनुष्य भी इन ॠणों से उॠण होने के प्रयासों में अधिक उन्नत होता जाता है। उस ने जो पाया है उस से अधिक लौटाना यह तो बडप्पन का लक्षण ही है।
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==== ४.३ चतुर्विध पुरुषार्थ ====
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=== चतुर्विध पुरुषार्थ ===
 
पुरुषार्थ शब्द आते ही पुरुष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है। धार्मिक (भारतीय) प्राचीन साहित्य में पुरुष शब्द के अर्थ में पुरुष और स्त्री दोनों का समावेष होता है। धार्मिक (भारतीय) वर्तनसूत्रों में चार पुरुषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है। यह पुरुषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं। और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये प्रयासों से। इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा। और इच्छाओं की पूर्ति के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्य प्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है। किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है। इसलिये इच्छाओं को भी पुरुषार्थ कहा गया है। इसलिये अर्थ और काम इन दोनों को पुरुषार्थ कहा गया है। मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है। यह सभी को ज्ञात है। कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है। कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है। इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है। इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है। और कुछ धर्म विरोधी भी होते है। कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है। ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है। वास्तव में इन पुरुषार्थो में प्रारंभ तो काम पुरुषार्थ से होता है। उस के बाद अर्थ पुरुषार्थ आता है। किन्तु धर्म पुरुषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है कि सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटी पर इच्छाओं की परीक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो। केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास करो। इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरुषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो। धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो।   
 
पुरुषार्थ शब्द आते ही पुरुष प्रधानता का संशय संशयात्माओं को आने लगता है। धार्मिक (भारतीय) प्राचीन साहित्य में पुरुष शब्द के अर्थ में पुरुष और स्त्री दोनों का समावेष होता है। धार्मिक (भारतीय) वर्तनसूत्रों में चार पुरुषार्थों का महत्वपूर्ण स्थान है। यह पुरुषार्थ है धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। काम का अर्थ है कामनाएं, इच्छाएं। और अर्थ से तात्पर्य है इन इच्छाओं की पूर्ति के लिये किये प्रयासों से। इच्छाएं नही होंगी तो जीवन थम जाएगा। और इच्छाओं की पूर्ति के लिये प्रयास नही होंगे तो भी जीवन चलेगा नही। जीने के लिये हवा, पानी और सूर्य प्रकाश तो सहज ही उपलब्ध है। किन्तु मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति तो प्रयासों से ही हो सकती है। इसलिये इच्छाओं को भी पुरुषार्थ कहा गया है। इसलिये अर्थ और काम इन दोनों को पुरुषार्थ कहा गया है। मनुष्य की इच्छाएं अमर्याद होती है। यह सभी को ज्ञात है। कुछ इच्छाएं धर्म के अनुकूल होती है। कुछ इच्छाएं धर्म के प्रतिकूल भी होती है। इन इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास भी विविध मार्गों से किये जाते है। इन में कुछ धर्म से सुसंगत होते है। और कुछ धर्म विरोधी भी होते है। कामनाओं को और उन की पूर्ति के लिये किये गये प्रयत्नों को, दोनों को ही धर्म के दायरे में रखना आवश्यक होता है। ऐसा करने से मनुष्य का अपना जीवन और जिस समाज का वह हिस्सा है वह समाज जीवन दोनों सुचारू रूप से चलते है। वास्तव में इन पुरुषार्थो में प्रारंभ तो काम पुरुषार्थ से होता है। उस के बाद अर्थ पुरुषार्थ आता है। किन्तु धर्म पुरुषार्थ को क्रम में सर्वप्रथम स्थानपर रखने का कारण यही है कि सर्वप्रथम धर्मानुकूलता की कसौटी पर इच्छाओं की परीक्षा करो, उन में से धर्मविरोधी इच्छाओं का त्याग करो। केवल धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास करो। इसी प्रकार इच्छापूर्ति के प्रयासों में भी अर्थात् अर्थ पुरुषार्थ के समय भी धर्म के अनुकूल प्रयास ही करो। धर्मविरोधी प्रयासों का त्याग करो।   
    
मनुस्मृति में (6-176) मे यही कहा है<ref>मनुस्मृति (6-176)</ref> <blockquote>परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ ।। 6-176 ।। </blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है। धर्म का अविरोधी काम मैं ही हूं। मोक्ष पुरुषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है। वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरुषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है। ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरुषार्थ की योजना है। अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है।  
 
मनुस्मृति में (6-176) मे यही कहा है<ref>मनुस्मृति (6-176)</ref> <blockquote>परित्यजेदर्थकामौ यास्यातां धर्मवर्जितौ ।। 6-176 ।। </blockquote>श्रीमद्भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है। धर्म का अविरोधी काम मैं ही हूं। मोक्ष पुरुषार्थ तो ऐसा करने से अनायास ही प्राप्त होता है। वैसे भी सामान्य मनुष्य के लिये मोक्ष पुरुषार्थ बहुत महत्वपूर्ण नहीं है। वह तो जब सामान्य मनुष्य मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक विकास कर मुमुक्षु पद प्राप्त कर लेता है तब उस में मोक्षप्राप्ति की कामना जागती है। ऐसे मुमुक्षु लोगों के लिये मोक्ष पुरुषार्थ की योजना है। अन्यों के लिये तो धर्म, अर्थ और काम इस त्रिवर्ग का ही महत्व है।  
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===== ४.३.१ काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थ =====
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==== .१ काम और अर्थ पुरुषार्थ ====
धर्म के विषय में यह [[Dharma: Bhartiya Jeevan Drishti (धर्म:भारतीय जीवन दृष्टि)|लेख]] देखें। आगे काम, अर्थ और मोक्ष पुरुषार्थों को जानने का प्रयास अब करेंगे।
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काम पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं। धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं। सभी इच्छाओं को पुरुषार्थ नही कहा जाता। सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं। वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं। और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें। मेरा आदर सम्मान करें। ऐसी तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है। किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरुषार्थ नहीं कहलातीं। श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है। काम पुरुषार्थ ही है। किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ठ पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरुषार्थ नही काम पुरुषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी। ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है।
 
काम पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाएं। धर्मसुसंगत इच्छाएं और आकांक्षाएं। सभी इच्छाओं को पुरुषार्थ नही कहा जाता। सामान्यत: पुत्रेषणा अर्थात् मै श्रेष्ठ बच्चों को जन्म दूं। वित्तेषणा अर्थात् मै अकूत धन कमाऊं। और लोकेषणा अर्थात् लोग मेरी सराहना करें। मेरा आदर सम्मान करें। ऐसी तीन प्रमुख इच्छाएं तो हर व्यक्ति के मन में होती ही है। किंतु केवल ऐसी इच्छा पुरुषार्थ नहीं कहलातीं। श्रेष्ठ पुत्र/पुत्री की प्राप्ति के लिये मेरा विवाह श्रेष्ठ सुशील कन्या से हो ऐसी इच्छा करना तो ठीक है। काम पुरुषार्थ ही है। किन्तु ऐसी किसी श्रेष्ठ पराई स्त्री के या जो मेरे साथ विवाह के लिये तैयार नही है ऐसी कन्या के साथ मै बलपूर्वक विवाह करने की इच्छा करूं तो यह धर्म का विरोध करनेवाली इच्छा है  और यह काम पुरुषार्थ नही काम पुरुषार्थ के विरोधी इच्छा मानी जाएगी। ऐसी इच्छा को अकरणीय माना गया है।
    
अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास। अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है। इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है। तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा। ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है।
 
अर्थ पुरुषार्थ अर्थात् धर्मानुकूल कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये धर्मानुकूल प्रयास। अर्थ पुरुषार्थ के लिये केवल प्रयासों का धर्मानुकूल होना पर्याप्त नहीं है। इच्छाएं भी धर्मानुकूल होना अनिवार्य है। तब ही वह प्रयास पुरुषार्थ कहलाया जा सकेगा। ऊपर हमने देखा कि श्रेष्ठ सुशील स्त्री से विवाह की कामना तो धर्मानुकूल ही है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये जब मै अपने ओज, तेज, बल, विक्रम, शील, विनय आदि गुणों से ऐसी कन्या को प्रभावित कर मेरे साथ विवाह के लिये उद्यत करता हूं तब वह धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ कहता है।
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मोक्ष का भी वर्तमान संदर्भ में अर्थ हमें समझना होगा। हमारी मान्यता है – साविद्या या विमुक्तये। जीवन का लक्ष्य मोक्ष या मुक्ति होने से ही शिक्षा का लक्ष्य भी मुक्ति ही रहेगा। शिक्षा की व्याख्या स्वामी विवेकानंद कुछ ऐसी करते हैं – मनुष्य में पहले से ही विद्यमान अन्तर्निहित पूर्णत्व का प्रकटीकरण ही शिक्षा है। इस पूर्णत्व की व्याख्या पंडित दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं: व्यक्तिगत विकास, समष्टिगत विकास और सृष्टि गत विकास ही पूर्णत्व है। मानव का समग्र विकास है। व्यक्तिगत विकास यह शरीर, मन और बुद्धि का विकास है। समष्टी गत विकास का अर्थ है समूचे समाज के साथ आत्मीयता की या कुटुंब भावना का विकास। और सृष्टि गत विकास का अर्थ है सृष्टि के हर अस्तित्व के साथ कुटुंब भावना का विकास। चराचर के साथ एकात्मता की अनुभूति उस चराचर में विद्यमान परमात्मा से ही एकात्मता की अनुभूति ही है। यही तो मुक्ति है। मोक्ष है। पूर्णत्व है। लेकिन यहाँ बस इतना ही ध्यान में लें कि धर्मानुकूल काम और धर्मानुकूल अर्थ पुरुषार्थ के व्यवहार से मानव स्वाभाविक ही मोक्षगामी बन जाता है।
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=== परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् {{Citation needed}} ===
 
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==== ४.४ परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम् {{Citation needed}} ====
   
सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी।  
 
सत्कर्म और दुष्कर्म की इतनी सरल और सटीक व्याख्या शायद ही किसी ने की होगी।  
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संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिध्दांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है।  
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संत तुलसीदासजी कहते है - परहित सरिस पुण्य नही भाई परपीडा सम नही अधमाई। तो संत तुकाराम कहते है पुण्य पर उपकार पाप ते परपीडा। मैने यदि अत्याचार किये तो आज नहीं कल, इस जन्म में नही तो अगले जन्मों में मुझे भी दण्ड मिलेगा ऐसी धार्मिक (भारतीय) समाज की श्रद्धा है। इस श्रध्दा के कारण ही किसी भी (सम्राट अशोक का अपवाद छोडकर) धार्मिक (भारतीय) राजा या सम्राट ने विजित राज्य की जनता पर कभी अत्याचार नहीं किये। किन्तु इहवादी धार्मिक (भारतीय) अर्थात् जो पुनर्जन्म या कर्मसिद्धांतपर विश्वास नहीं करते और अभारतीयों की बात भिन्न है।  
    
मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
 
मेरे इस जन्म से पहले मै नहीं था और ना ही मेरी मृत्यू के बाद मै रहूंगा, ऐसा ये लोग समझते है। इन्हें इहवादी कहा जाता है। ऐसे लोग दुर्बल लोगों को, जो पलटकर उन के द्वारा दी गई पीडा का उत्तर नहीं दे सकते, ऐसे लोगों को पीडा देने में हिचकिचाते नहीं है। योरप के कई समाजों ने जैसे स्पेन, पुर्तगाल, इटली, फ्रांस, इंग्लंड आदि ने विश्वभर में उपनिवेश निर्माण किये थे। योरप के इन समाजों में से एक भी समाज ऐसा नही है जिसने अपने उपनिवेशों में बर्बर अत्याचार नही किये, नृशंस हत्याकांड नहीं किये, स्थानिक लोगों को चूसचूसकर, लूटलूटकर उन उपनिवेशों को कंगाल नहीं किया। यह सब ये समाज इसलिये कर पाए और किया क्योंकि इन की मान्यता इहवादी थी। ऐसा करने में इन्हें कोई पापबोध नहीं हुआ। इन्ही को भौतिकतावादी भी कहते है। जो यह मानते हैं की जड़ के विकास में किसी स्तर पर अपने आप जीव का और आगे मनुष्य का निर्माण हो गया। ऐसे लोग पाप-पुण्य को नहीं मानते।<blockquote>परोपकाराय फलन्ति वृक्ष:। परोपकारार्थ वहन्ति नद्य:।। {{Citation needed}}</blockquote><blockquote>परोपकाराय दुहन्ति गाव:। परोपकारार्थमिदं शरीरम्।।</blockquote>प्रकृति के सभी अंश निरंतर परोपकार करते रहते है। पेड फल देते हैं। नदियाँ जल देतीं हैं। गाय दूध देती है। मैं तो इन सब से अधिक चेतनावान हूं, बुद्धिमान हूं, क्षमतावान हूं। इसलिये मुझे भी अपनी शक्तियों का उपयोग लोगों के उपकार के लिये ही करना चाहिये। यह है धार्मिक (भारतीय) विचार।
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इस्लाम और ईसाईयत में पुण्य नाम की कोई संकल्पना नहीं है। केवल ईसा मसीह पर श्रध्दा या पैगंबर मुहम्मद पर श्रध्दा उन्हें हमेशा के लिये स्वर्गप्राप्ति करा सकती है। इस के लिये सदाचार की कोई शर्त नहीं है। अंग्रेजी भाषा में शायद इसी कारण से ‘पुण्य’ शब्द ही नहीं है।  
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धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा। आगे कर्मसिद्धांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।  
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धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो पाप और पुण्य दोनों ही मन, वचन ( वाणी ) और कर्म ( कृति ) इन तीनों से होते है। और इन तीनों के पाप के बुरे और पुण्य के अच्छे फल मिलते हैं। मन में भी किसी के विषय में बुरे विचार आने से पाप हो जाता है। और उस का मानसिक क्लेष के रूप में फल भुगतना पडता है। हमारे बोलने से भी यदि किसी को दुख होता है तो ऐसे ही दुख देनेवाले वचन सुनने के रूप में हमें इस पाप का फल भोगना ही पडता है। कृति तो प्रत्यक्ष शारीरिक पीडा देनेवाला कार्य है। उस का फल शारीरिक दृष्टि से भोगना ही पडेगा। आगे कर्मसिध्दांत में हम इस की अधिक विवेचना करेंगे।    
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यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है। वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है। ऐसी कृति से किसी को हानि होती हो या ना होती हो वह अपराध है। और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है। किंतु हमारी कृति से जब तक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानि नहीं होती तब तक वह पाप नहीं है। धार्मिक (भारतीय) सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है।    
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यहाँ अपराध और पाप इन में अंतर भी समझना आवश्यक है। वर्तमान कानून के विरोधी व्यवहार को अपराध कहते है। ऐसी कृति से किसी को हानि होती हो या ना होती हो वह अपराध है। और प्रचलित कानून की दृष्टि से दंडनीय है। किंतु हमारी कृति से जब तक किसी को दुख नहीं होता, किसी की हानि नहीं होती तब तक वह पाप नहीं है। धार्मिक (भारतीय) सोच में कानून को महत्व तो है किन्तु उस से भी अधिक महत्व पाप-पुण्य विचार को है। दो उदाहरणों से इसे हम स्पष्ट करेंगे। रेलवे कानून के अनुसार रेलवे की पटरियां लाँघकर इधर-उधर जाना अपराध है। किंतु जब तक मेरे ऐसा करने से किसी को हानि नहीं होती है किसी को कष्ट नहीं होता, वह पाप नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व मेल गाडियों में धूम्रपान की अनुमति हुआ करती थी। और पियक्कड लोग रेलों में धूम्रपान किया करते थे। उन का धूम्रपान कानून के अनुसार अपराध नहीं था। दंडनीय नहीं था। किन्तु उन के धूम्रपान से लोगों को तकलीफ होती ही थी। इसलिये वह पाप अवश्य था। वर्तमान में तो सार्वजनिक स्थानपर धूम्रपान कानून से अपराध माना जाता है। इसलिये रेल के डिब्बे जैसे सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान अब अपराध भी है और पाप भी है। अपराध का दण्ड मिलने की सभावनाएं तो इस जन्म के साथ समाप्त हो जातीं है। किन्तु पाप के फल को भोगने का बोझ तो जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोडता। 
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==== ४.५ कर्मसिद्धांत ====
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मनुष्य को सन्मार्ग पर रखने के लिये धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे। कर्मसिद्धांत भी उन्ही में से एक है। कर्मसिद्धांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ जीवनदर्शन है। किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिद्धांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।
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==== ४.५ कर्मसिध्दांत ====
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वास्तव में देखें तो कर्मसिद्धांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिद्धांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिद्धांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिद्धांत नहीं रहता। वह अंत तक सिद्ध हो सकता है ऐसा, सिद्धांत बन जाता है। अब कर्मसिद्धांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:  
मनुष्य को सन्मार्ग पर रखने के लिये धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने कई जीवनदर्शन निर्माण किये थे। कर्मसिध्दांत भी उन्ही में से एक है। कर्मसिध्दांत एक अत्यंत शास्त्रीय, तर्कशुध्द और विज्ञाननिष्ठ जीवनदर्शन है। किन्तु अंग्रजों ने समाज में फूट डालने की दृष्टि से कर्म सिध्दांत की विकृत प्रस्तुति कर इसे बदनाम किया।
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# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिद्धांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिद्धांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।  
 
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# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिद्धांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिद्धांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:  
वास्तव में देखें तो कर्मसिध्दांत, पाश्चात्य ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना से अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धांत है। धार्मिक (भारतीय) विचार में इस ‘कॉज ऍंड इफेक्ट’ संकल्पना को कार्य-कारण सिध्दांत कहा गया है। जगत में कोई भी काम अपने आप नही होता। यदि कोई काम होता है तो उस का कारण होता ही है। इसी प्रकार यदि कारण होगा तो कार्य भी निश्चित रूप से होगा ही। यह है कार्य-कारण सिध्दांत। कार्य कारण संकल्पना में पुनर्जन्म और आत्मतत्व के अविनाशित्व का विचार जुडने से वह मात्र ‘कॉज एण्ड इफेक्ट’ या कार्य-कारण सिध्दांत नहीं रहता। वह अंत तक सिध्द हो सकता है ऐसा, सिध्दांत बन जाता है। अब कर्मसिध्दांत के महत्वपूर्ण सूत्रों को हम समझेंगे:  
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# किये हुए अच्छे कर्म का ( कर्म के प्रमाण में ) अच्छा या बुरे कर्म का  ( कर्म के प्रमाण में ) बुरा फल भोगना ही पडता है। अच्छा और बुरा काम या सत्कर्म और दुष्कर्म का विवेचन हमने पूर्व में देखा है। मान लीजिये आपने किसी व्यक्ति को मदद करने के लिये रू. ५०००/- दिये। यह आप के हाथ से पुण्य का या अच्छा काम हो गया। इस काम के फलस्वरूप आप को रू ५०००/- कभी ना कभी, आपको आवश्यकता होगी तब अवश्य मिलेंगे। इसी तरह आपने किसी के मन को दुखाया। तो जितना क्लेष उस व्यक्ति को आप की करनी से हुआ है, उतना क्लेष कभी ना कभी आप को भी भोगना पडेगा। मान लो आप ने मन में किसी एक या अनेक मनुष्यों के लिये कुछ बुरा सोचा है। तो इस के प्रतिकार में आप के बारे में बुरा सोचनेवाले भी एक या अनेक लोग बन जाएंगे। जैसे वैज्ञानिक सिध्दांत कहता है की हर क्रिया की उस क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती ही है। उसी प्रकार से कर्मसिध्दांत में भी फल की मात्रा भी कर्म के प्रमाण में ही रहती है। थोडी कम नहीं या थोडी अधिक नहीं।  
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# किये हुए कर्म का फल मुझे कब मिले यह मै हमेशा तय नहीं कर सकता।  अर्थात् कभी कभी फल क्या मिलेगा हम तय कर सकते है। जैसे हम बाजार जाते है। यह विचार कर के जाते है कि पालक की सब्जी लाएंगे। और पैसे  देकर बाजार से पालक ले आते है। इस में पैसे, हमारा संचित कर्म है। और पालक की सब्जी उस का फल या परिणाम है। किन्तु कभी ऐसा हो जाता है की हम सोचकर निकलते है कि पालक की सब्जी लाएंगे लेकिन पालक की सब्जी हमारे बाजार जाने से पूर्व ही समाप्त हो गई है। यह बात हमारे हाथ में नहीं है। किन्तु हमारे हाथ में जो पैसे हैं  उन से अन्य कोई सब्जी हम अवश्य ला सकते हैं।विज्ञान से संबंधित एक उदाहरण अब हम देखेंगे। बोह्म का सिध्दांत कहता है की पूरी सृष्टि के कण-कण एक दूसरे से अत्यंत निकटता से जुडे हुए है। अर्थात् धूलि का एक कण हिलाने से पूरी सृष्टि हिलती है। यह तो हुआ वैज्ञानिक  सिध्दांत। अब कल्पना कीजिये आपने भारत में हॉकी का बल्ला चलाया। पूरी सृष्टि जुडी होने से स्पेन में हॉकी की गेंद हिली। अत्यंत संवेदनाक्षम यंत्र से आपने गेंद को हिलते देखा। आप त्रिकालज्ञानी तो है नहीं। इसलिये आप इस गेंद के हिलने को भारत में हिलाए गये बल्ले से तो जोड नहीं सकते। तो आप कहेंगे की जब गेंद हिली है तो कुछ कारण अवश्य हुआ है। उस गेंद के हिलने का और बल्ले के हिलाए जाने का संबंध जोडना संभव नहीं है। फिर भी प्रत्यक्ष में तो यही हुआ है। इसे समझना महत्वपूर्ण है। यहाँ कर्म की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना को भी समझ लेना उपयुक्त होगा। कर्म सामान्यत: तीन प्रकार के होते है:  
   
## एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।  
 
## एक है संचित कर्म। हमारे अच्छे और बुरे कर्मों का फल हमारे भविष्य के खाते में जमा होता जाता है। यह खाता जन्म-जन्मांतर चलता रहता है।  
 
## दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।  
 
## दूसरा है प्रारब्ध कर्म। हमारे पिछले जन्म में मृत्यू के समय हमारे जो कर्म के फल इस जन्म में भोगने के लिये पक गए हैं उन कर्मों को प्रारब्ध कर्म कहते है।  
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# कर्मफलों का जोड या घटाव नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है। अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है। दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है। अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते। दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है।  
 
# कर्मफलों का जोड या घटाव नहीं होता। अर्थात् अच्छे कर्म का और बुरे कर्म का फल अलग अलग भोगना पडता है। अच्छे कर्म में से बुरे कर्म को घटाकर शेष का भोग करने की व्यवस्था नहीं है। दैनंदिन व्यवहार में भी हम देखते हैं कि प्रत्येक मनुष्य सुख भी भोगता है और दुख भी भोगता है। अर्थात् सुखकारक कर्मों में से दुखकारक कर्म घटाए नहीं जा सकते। दोनों को स्वतंत्र भोगना पडता है।  
 
# परमात्मा सर्वशक्तिमान है। किन्तु वह अपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है। उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है। किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है। फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों। हमारे कई संत कहते है कि परमात्मा दयालू है। किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं कि परमात्मा भक्त की परीक्षा लेता है। परीक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है कि बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है। परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परीक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते।   
 
# परमात्मा सर्वशक्तिमान है। किन्तु वह अपने किये कर्मों के फल देने के लिये बंधा हुआ है।  परब्रह्म परमात्मा तो सर्वशक्तिमान है। उसी की इच्छा और शक्ति के कारण सृष्टि बनी है। किन्तु वह परमात्मा भी सब कुछ नियमों से ही चलता है। फिर वे सृष्टि के चक्र हों या जीव के शरीर में काम करनेवाली रक्ताभिसरण या चेतातंत्र जैसी विभिन्न प्रक्रियाएं हों। हमारे कई संत कहते है कि परमात्मा दयालू है। किन्तु इस के साथ ही वे कहते हैं कि परमात्मा भक्त की परीक्षा लेता है। परीक्षा लेने से उन का अर्थ वास्तव में होता है कि बुरे कर्मों को भुगतवाकर समाप्त कर देता है। परमात्मा की भक्ति के कारण आप कष्ट देनेवाली परमात्मा की परीक्षाओं के लिये तैयार हो जाते हैं। सहनशील बन जाते हैं। बुरे फल भोगने से भी दुखी नहीं होते।   
#* वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है। केवल पादरी को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है। इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद पर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे। साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे। ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे। किन्तु कर्मसिध्दांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता।   
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#* वास्तव में मामुली कुछ करने से पापमुक्त होने की प्रथा तो ईसाईयत और इस्लाम की प्रतिक्रिया के स्वरूप में भारत में चली होगी ऐसा लगता है। केवल पादरी को दिये कन्फेशन ( गलत काम की स्वीकारोक्ति) से पाप धुल जाते है ऐसी ईसाई मान्यता है। इसी प्रकार से केवल अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद पर श्रध्दा रखनेमात्र से जब बुरे कर्मों के फल से छुटकारा मिलने लगा तो हिंदू पुजारी भी हिंदू प्रजा का मतांतरण रोकने के लिये आपध्दर्म के रूप में, सरल मार्ग बताने लग गये होंगे। साथ मे स्वार्थ भी साधने लग गये होंगे। ब्राह्मण को सोने की गाय की प्रतिमा दान करो, गंगा में नहा लो आदि पापकर्मों से मुक्ति के सरल उपाय बताने लग गये होंगे। किन्तु कर्मसिद्धांत ऐसे कोई समझौतों का समर्थन नहीं करता।   
 
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==== ४.६ स्वर्ग - नरक कल्पना ====
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अन्य समाज और धार्मिक (भारतीय) समाज की स्वर्ग - नरक कल्पनाएं भिन्न भिन्न है। अन्य समाजों में  गॉड या अल्ला पर और उन के प्रेषितों पर श्रध्दा रखना इतना हमेशा के लिये स्वर्ग प्राप्ति के लिये पर्याप्त है। स्वर्ग-नरक की धार्मिक (भारतीय) मान्यता बुद्धियुक्त है। धार्मिक (भारतीय) विचार के अनुसार जिसने जितने प्रमाण में अच्छे कर्म किये होंगे उसे उतने प्रमाण में स्वर्गसुख का लाभ होगा। और उसने जितने बुरे कर्म किये होंगे उसी प्रमाण में उसे नरक-यातनाएं भोगनी पडेंगी। स्वर्ग और नरक की धार्मिक (भारतीय) कल्पना स्पष्ट होने से सामान्यत: कोई बुरा कर्म करने को प्रवृत्त नहीं होता। व्यक्ति और समाज को सदाचारी रखने में धार्मिक (भारतीय) स्वर्ग-नरक कल्पना का भी महत्वपूर्ण योगदान है।
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==== ४.७ आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ====
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जिसने अपने सभी सांसारिक कर्तव्यों को अच्छी तरह पूरा किया है ऐसे ही व्यक्ति को मोक्षगामी बनने का अधिकार था। सन्यास की अनुमति थी। स्वामी विवेकानंद तो कहते थे जब तक एक भी धार्मिक (भारतीय) दुखी है मुझे मोक्ष नही चाहिये। यही हमरे समाज के श्रेष्ठजनो का विचार और व्यवहार रहा है। अपना काम ठीक करना चाहिये। लेकिन केवल इतना पर्याप्त नही है। इस के साथ ही जब तक मै अन्यों के हित के लिये विशेष कुछ या बहुत कुछ नही करता मै मोक्षगामी नही बन सकता। अन्यों के हित के लिये मेरे बढते प्रयास ही मुझे मोक्ष की ओर ले जाने का मार्ग प्रशस्त करते है। और यह मार्ग मै मेरे प्रत्येक जन्म में किये बढते लोकहित के कर्मों के कारण अधिक प्रशस्त होता जाता है। यह है धार्मिक (भारतीय) मान्यता।
      
=== ५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा<ref>ईशावास्योपनिषद्, प्रथम मन्त्र </ref> अर्थात् संयमित उपभोग : ===
 
=== ५. तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा<ref>ईशावास्योपनिषद्, प्रथम मन्त्र </ref> अर्थात् संयमित उपभोग : ===
अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। ये वे पाँच यम है। यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है। इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना। कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। यह धार्मिक (भारतीय) मान्यता थोडी कठोर लगती है। किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है। वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है। और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा। तेल पर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराक पर हुए हमले से यही सिध्द हुआ है। लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये गए वस्तु और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है। इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है। और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है। इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है।  
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अष्टांग योग में पांच यमों का वर्णन है। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। ये वे पाँच यम है। यम सामाजिक स्तरपर पालन करने के लिये होते है। इन में अपरिग्रह का अर्थ है अपने उपभोग के लिये उपयोगी वस्तुओं का अपनी आवश्यकताओं से अधिक संचय नहीं करना। कोई यदि उस की आवश्यकता से अधिक संचय और उपभोग करता है तो वह चोरी करता है ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। यह धार्मिक (भारतीय) मान्यता थोडी कठोर लगती है। किन्तु इस तत्व में संसार की एक बहुत बडी समस्या का समाधान छुपा हुआ है। वर्तमान अर्थशास्त्रीयों के समक्ष सब से बडी अनुत्तरित समस्या यह है की प्रकृति मर्यादित है और मनुष्य की (इच्छाएं) अमर्याद हैं। मर्यादित प्रकृति से अमर्याद इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं है। और यह गणित यदि नहीं बिठाया गया तो पूरा विश्व संसाधनों की लडाई में नष्ट हो जाएगा। तेल पर अधिकार प्राप्त करने के लिये अमरीका के इराक पर हुए हमले से यही सिद्ध हुआ है। लेकिन पाश्चात्य विकास की कल्पना में आज किये गए वस्तु और सेवाओं के उपभोग से अगले दिन अधिक उपभोग को ही विकास माना जाता है। इस विकास कल्पना ने प्राकृतिक संसाधनों की मर्यादितता का संकट खडा कर दिया है। और दुर्भाग्य से भारत जैसे ही अन्य विश्व के लगभग सभी देशों के अर्थशास्त्रीयों ने भी इसी विकास कल्पना को और इस आत्मघाती अर्थशास्त्र को अपना लिया है। इस कारण यह संकट अब गंभीरतम बन गया है।  
    
इस समस्या का बुद्धियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है। जब तक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता।  
 
इस समस्या का बुद्धियुक्त उत्तर ईशावास्योपनिषद में मार्गदर्शित ' तेन त्यक्तेन भुञ्जिथा ' अर्थात् ' संयमित उपभोग ' से ही मिल सकता है। जब तक उपभोग को नियंत्रण में नहीं रखा जाएगा, न्यूनतम नहीं रखा जाएगा और आज है उसे भी न्यून करने के प्रयास नहीं किये जाएंगे, इस समस्या का समाधान नही मिल सकता।  
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=== १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् ===
 
=== १५ कृण्वंतो विश्वमार्यंम् ===
कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे। हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है। ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है। वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ। प्राचीन और मध्यकालीन पूरे धार्मिक (भारतीय) साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा। किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया। इसे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया। आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया। इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिध्द हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर भी यही पढ़ाया जा रहा है।  
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कृण्वंतो विश्वमार्यंम् का अर्थ है हम समूचे विश्व को आर्य बनाएंगे। हमें पढाए जा रहे विकृत इतिहास के अनुसार आर्य यह जाति है। ऐसा सिखाना ना केवल गलत है अपितु देश के अहित का भी है। वास्तव में आर्य का अर्थ है श्रेष्ठ। प्राचीन और मध्यकालीन पूरे धार्मिक (भारतीय) साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग ' विचार और व्यवहार से श्रेष्ठ ' इसी अर्थ से किया गया मिलेगा। किन्तु भारत में भिन्न भिन्न कारणों से फूट डालने के अंग्रेजी षडयंत्र के अनुसार आर्य को जाति बनाकर प्रस्तुत किया गया। इसे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करनेवाली जाति बताया गया। आर्य अनार्य, आर्य-द्रविड ऐसा हिन्दू समाज को तोडने का काफी सफल प्रयास अंग्रेजों ने किया। इसी कारण आज भी, जब यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गया है की आर्य ऐसी कोई जाति नहीं थी, फिर भी यही पढ़ाया जा रहा है।  
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यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये। ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रंग के थे। उन्होंने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया। ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है। इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है। तर्क के लिये मान लीजिये कि आर्य यह जाति थी। तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना। इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती। किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर धार्मिक (भारतीय) समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही। चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। किन्तु इसे प्रमाणों के आधार पर भी गलत सिध्द करने के उपरांत भी 'साहेब वाक्यं प्रमाणम्' माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है।   
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यहाँ एक बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। आर्य जाति के लोग उत्तर ध्रुव से आये। ये लोग लंबे तगडे, मजबूत और गेहुं रंग के थे। उन्होंने यहाँ के निवासी द्रविडों को दक्षिण में खदेड दिया। ऐसा लिखा इतिहास आज भी अधिकृत माना जाता है। इस प्रमाणहीन सफेद झूठ को सत्य मान लिया गया है। तर्क के लिये मान लीजिये कि आर्य यह जाति थी। तो कृण्वंतो विश्वमार्यम् का अर्थ होगा ठिगने लोगों को उंचा बनाना, काले या पीले रंग के लोगों को गेहुं रंग के बनाना। इतनी मूर्खतापूर्ण बात और कोई नहीं हो सकती। किन्तु अंग्रेजों की मानसिक गुलामी करनेवाले लोगों को आर्य-अनार्य, आर्य-द्रविड, आदिवासी-अन्य ऐसे शब्दों को रूढ कर धार्मिक (भारतीय) समाज में फूट डालने की अंग्रेजों की चाल अब भी समझ में नहीं आ रही। चमडी का रंग, उंचाई यह बातें आनुवंशिक और भाप्रगोलिक कारणों से होतीं है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। किन्तु इसे प्रमाणों के आधार पर भी गलत सिद्ध करने के उपरांत भी 'साहेब वाक्यं प्रमाणम्' माननेवाले तथाकथित इतिहास विशेषज्ञों की फौज विरोध में खडी हो जाती है।   
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सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिध्द कर दिया है। फिर भी हमने इतिहास में 'आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है। मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से स्थापित होता है।   
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सरस्वती शोध संस्थान ने आर्यों का मूल भारत ही है यह सप्रमाण सिद्ध कर दिया है। फिर भी हमने इतिहास में 'आर्यों का आक्रमण ' सिखाना नहीं छोडा है। मेकॉले शिक्षा का परिणाम कितना गहरा है यही इस से स्थापित होता है।   
    
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता। उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधार पर जब तक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती। सत्यमेव जयते यह अर्धसत्य है। सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है। इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है। अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है। सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा। ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा। दुर्जनों के मन में डर पैदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा। तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी।     
 
केवल तत्वज्ञान श्रेष्ठ होना या सर्वहितकारी होना पर्याप्त नहीं होता। उस तत्वज्ञान के पीछे व्यवहार के आधार पर जब तक शक्ति खडी नहीं की जाती विश्व उस तत्वज्ञान को स्वीकार नहीं करती। सत्यमेव जयते यह अर्धसत्य है। सत्य के पक्ष में जब शक्ति होती है तब ही सत्य की विजय होती है। इतिहास के अनुसार यही पूर्ण सत्य है। अर्थात् केवल कृण्वंतो विश्वमार्यम् कहना पर्याप्त नहीं है। सर्वप्रथम हमें ही विचार और व्यवहार से आर्य बनना होगा। ऐसे सज्जन आर्यों को संगठित करना होगा। दुर्जनों के मन में डर पैदा करनेवाली और सज्जनों को आश्वस्त करनेवाली शक्ति के रूप में खडा होना होगा। तब ही विश्व भी आर्य बनने का प्रयास करेगी।     
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== साईंटिफिक टेम्परामेंट का आतंक ==
 
== साईंटिफिक टेम्परामेंट का आतंक ==
वर्तमान में साईंटिफिक टेम्परामेंट जिसे हम गलती से वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, को अनन्य साधारण महत्व प्राप्त हो गया है। जीवन के किसी भी पहलू से जुडी बात हो उसे साईंस की कसौटी पर तौला जाता है। वर्तमान में जिसे साईंस कहा जाता है वह प्रमुखत: पंचमहाभौतिक तत्वों से संबंध रखता है। इन पंचमहाभूतों से संबंधित जो भी सिध्दांत साईंटिस्टों ने प्रस्तुत किये है वे सत्य ही हैं। पंचमहाभूतों के संबंध में तो कसौटी साईंस के नियमों के आधार पर लगाई जाये यह उचित ही है। किन्तु विश्व केवल पंचमहाभूतों से ही नहीं बना। अन्य भी कुछ घटक मिलकर विश्व का निर्माण हुआ है। इस दृष्टि से साईंस की कसौटीयों की मर्यादाएं खींच जातीं हैं। मन, बुद्धि, अहंकार जैसी अनुभव जन्य बातों के लिये जो पंचमहाभूतों से अति सूक्ष्म है उन के लिये और परमात्व तत्व जैसी अनूभूति जन्य बात के लिये साईंस की कसौटीयाँ लागू नहीं होतीं। किन्तु आज के साईंटिस्ट सामान्यत: यह समझते नहीं हैं।
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वर्तमान में साईंटिफिक टेम्परामेंट जिसे हम गलती से वैज्ञानिक दृष्टिकोण कहते हैं, को अनन्य साधारण महत्व प्राप्त हो गया है। जीवन के किसी भी पहलू से जुडी बात हो उसे साईंस की कसौटी पर तौला जाता है। वर्तमान में जिसे साईंस कहा जाता है वह प्रमुखत: पंचमहाभौतिक तत्वों से संबंध रखता है। इन पंचमहाभूतों से संबंधित जो भी सिद्धांत साईंटिस्टों ने प्रस्तुत किये है वे सत्य ही हैं। पंचमहाभूतों के संबंध में तो कसौटी साईंस के नियमों के आधार पर लगाई जाये यह उचित ही है। किन्तु विश्व केवल पंचमहाभूतों से ही नहीं बना। अन्य भी कुछ घटक मिलकर विश्व का निर्माण हुआ है। इस दृष्टि से साईंस की कसौटीयों की मर्यादाएं खींच जातीं हैं। मन, बुद्धि, अहंकार जैसी अनुभव जन्य बातों के लिये जो पंचमहाभूतों से अति सूक्ष्म है उन के लिये और परमात्व तत्व जैसी अनूभूति जन्य बात के लिये साईंस की कसौटीयाँ लागू नहीं होतीं। किन्तु आज के साईंटिस्ट सामान्यत: यह समझते नहीं हैं।
    
वास्तव में धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों के ज्ञाता जब वर्तमान साईंस का भी ठीक अध्ययन कर दोनों की संतुलित विश्लेषणात्मक प्रस्तुति करेंगे तब न केवल कसौटी की समस्या दूर होगी साथ ही में साईंस का मार्ग जो आज पंचमहाभौतिक में उलझ जाने के कारण अवरूध्द हुआ है, वह भी प्रशस्त होगा। वैसे तो एस्ट्रो फिजिक्स या पार्टिकल फिजिक्स जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले वैज्ञानिक अपने प्रगत प्रयोगों के माध्यम से पंचमहाभौतिक से आगे मन और बुद्धि के क्षेत्र में विचार करने को बाध्य हो रहे हैं। आईन्स्टीन, नील बोर, हायज़ेनबर्ग, व्हीलर आदि और उन के अनुयायी ऐसे वैज्ञानिकों में रहे हैं जो धार्मिक (भारतीय) दर्शनों में साईंस को आगे बढाने की सम्भावनाएँ देखते हैं। उन के लिये भी ऐसा संतुलित और बुद्धियुक्त विश्लेषण लाभदायी होगा।
 
वास्तव में धार्मिक (भारतीय) शास्त्रों के ज्ञाता जब वर्तमान साईंस का भी ठीक अध्ययन कर दोनों की संतुलित विश्लेषणात्मक प्रस्तुति करेंगे तब न केवल कसौटी की समस्या दूर होगी साथ ही में साईंस का मार्ग जो आज पंचमहाभौतिक में उलझ जाने के कारण अवरूध्द हुआ है, वह भी प्रशस्त होगा। वैसे तो एस्ट्रो फिजिक्स या पार्टिकल फिजिक्स जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले वैज्ञानिक अपने प्रगत प्रयोगों के माध्यम से पंचमहाभौतिक से आगे मन और बुद्धि के क्षेत्र में विचार करने को बाध्य हो रहे हैं। आईन्स्टीन, नील बोर, हायज़ेनबर्ग, व्हीलर आदि और उन के अनुयायी ऐसे वैज्ञानिकों में रहे हैं जो धार्मिक (भारतीय) दर्शनों में साईंस को आगे बढाने की सम्भावनाएँ देखते हैं। उन के लिये भी ऐसा संतुलित और बुद्धियुक्त विश्लेषण लाभदायी होगा।
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# अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।
 
# अनुमान प्रमाण : इस में पूर्व में प्राप्त प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अनुमान से पूर्व अनुभव के साथ तुलना कर उसे सत्य माना जाता है। इस संबंध में यह समझना योग्य होगा की अनुमान कितना सटीक है इस पर सत्य निर्भर हो जाता है। मिथ्या अनुमान जैसे अंधेरे में साँप को रस्सी समझना आदि से सत्य नहीं जाना जा सकता।
 
# शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है।
 
# शास्त्र या शब्द या आप्त वचन प्रमाण : प्रत्येक बात का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति बार बार नहीं कर सकता। कुछ अनुभव तो केवल एक बार ही ले सकता है। जैसे साईनाईड जैसे जहरीले पदार्थ का स्वाद। साईनाईड का सेवन करने वाले की तत्काल मृत्यू हो जाती है। वह दूसरी बार उस का स्वाद लेने के लिये जीवित नहीं रहता। ऐसे अनुभव छोड भी दें तो भी अनंत ऐसी परिस्थितियाँ होतीं है कि हर परिस्थिति का अनुभव लेना केवल प्रत्येक व्यक्ति के लिये ही नहीं तो किसी भी व्यक्ति के लिये संभव नहीं होता। इस लिये ऐसी स्थिति में शास्त्र वचन को ही प्रमाण माना जाता है। शास्त्रों के जानकारों के लिये शास्त्र वचन प्रमाण होता है। और शास्त्रों के जो जानकार नहीं है ऐसे लोगों के लिये शास्त्र जानने वाले और नि:स्वार्थ भावना से सलाह देने वाले लोगों का वचन भी प्रमाण माना जाता है। ऐसे लोगों को ही आप्त कहा गया है।
सामान्यत: अधार्मिक (अभारतीय) समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु धार्मिक (भारतीय) परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिध्दि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।
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सामान्यत: अधार्मिक (अभारतीय) समाजों में तो सत्य जानने के यही तीन तरीके माने जाते है। किन्तु धार्मिक (भारतीय) परंपरा में और भी एक प्रमाण को स्वीकृति दी गई है। वह है अंतर्ज्ञान या अभिप्रेरणा। यह सभी के लिये लागू नहीं है। केवल कुछ विशेष सिद्धि प्राप्त लोग ही इस प्रमाण का उपयोग कर सकते है।
    
किन्तु सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।
 
किन्तु सभी प्रमाणों का आधार तो प्रत्यक्ष प्रमाण ही होता है। शास्त्र वचन भी शास्त्र निर्माण कर्ता का कथन होता है। इस कथन का आधार भी उस शास्त्र कर्ता के अपने प्रत्यक्ष अनुभव और अपनी प्रत्यक्ष अनुभूति के माध्यम से प्राप्त हुई जानकारी ही होती है। इसी जानकारी की प्रस्तुति को शास्त्र कहते है।

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