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पश्चिमी विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित (लिमिटेड) रह जाता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटीयों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है।
 
पश्चिमी विचार में जड को समझने की, यंत्रों को समझने की सटीकता तो है। किन्तु चेतन को नकारने के कारण चेतन के क्षेत्र में इस का उपयोग मर्यादित (लिमिटेड) रह जाता है। परिवर्तन तो जड में ही होता है। लेकिन वह चेतन की उपस्थिति के बिना नहीं हो सकता। इस लिये चेतन का जितना भौतिक हिस्सा है उस हिस्से के लिये साईंस को प्रमाण मानना उचित ही है। इस भौतिक हिस्से के मापन की भी मर्यादा है। जड भौतिक शरीर के साथ जब मन की या आत्म शक्ति जुड जाति है तब वह केवल जड की भौतिक शक्ति नहीं रह जाती। और प्रत्येक जीव यह जड और चेतन का योग ही होता है। इस लिये चेतन के मन, बुद्धि, अहंकार आदि विषयों में फिझिकल साईंस की कसौटीयों को प्रमाण नहीं माना जा सकता। अनिश्चितता का प्रमेय (थियरी ऑफ अनसर्टेंटी), क्वॉटम मेकॅनिक्स, अंतराल भौतिकी (एस्ट्रो फिजीक्स), कण भौतिकी (पार्टिकल फिजीक्स) आदि साईंस की आधुनिक शाखाओं ने देकार्ते के प्रतिमान की मर्यादाएं स्पष्ट कर दीं है।
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== व्यवहार के सूत्र ==
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== भारतीय  जीवनदृष्टि और इस पर आधारित व्यवहार सूत्र ==
इस चिंतन के आधार पर धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न हैं:
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इस चिंतन के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न हैं:
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=== १. नर करनी करे तो उतरोत्तर प्रगति संभव है  ===
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=== १. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात्{{Citation needed}} ===
 
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योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है। यह मान्यता केवल हिंदू या धार्मिक (भारतीय) चिंतन की मान्यता है। अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है। फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह, आगे बढ़ सकता है। इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है।
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मनुष्य चार प्रकार के होते है।
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सब से नीचे के स्तरपर होता है '''नरराक्षस'''। औरों को कष्ट देकर या औरों को दुखी देखकर इन्हें सुख मिलता है।  जानबूझकर सडकपर केले के छिलके फेंक कर लोगों को फिसलते देख आनंदित होना या खुजली का चूर्ण सार्वजनिक स्थानों पर लोगों के बदन पर डालकर लोगों की परेशानी से आनंद पाना ऐसा इन का स्वभाव रहता है।
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नरराक्षस से उपरका स्तर होता है '''नरपशु''' का। जिस की संवेदनाएं मर गईं है ऐसे मनुष्य को नरपशु कहा जाता है। जिसे अन्य के दुख देखकर कोई दर्द नही होता ऐसे मनुष्य को नरपशु कहते है। नरपशु नाक की सीध में चलता है। किसी के झंझट मे पडता नही है। जो अपने आसपास के दुख-दर्द को समझ नही सकता वह नरपशु नही है तो और क्या है ? किंतु यह भावना समाज में बहुत सामान्य हो गई है।
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औरों का दुख-दर्द समझनेवाले मनुष्य को '''नर''' कहा जाता है। ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं जागृत रहती है। लोगों के दर्द निवारण के लिये मै कुछ करूं ऐसा उस का मन करता है। लेकिन वह ऐसा करने की हिम्मत नही रखता।
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दुखी लोगों के साथ सहानुभूति के कारण जो लोगों के दर्द दूर करने का प्रयास करता है उसे '''नरोत्तम''' कहते है। ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं इतनी तीव्र होती है की वे उसे स्वस्थ बैठने नही देतीं। ऐसी लोगों की मदद करने की उस की लगन की तीव्रता के अनुसार उस का नरोत्तमता का प्रमाण तय होता है। ऐसे नरोत्तम की परिसीमा ही परमात्मपद प्राप्ति है। 
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संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता '। इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही। जो कुछ जीना हे बस लोगों के लिये। यही है नरोत्तम  होने की अवस्था। 
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प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है। जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था। कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें नरोत्तम की चाह नहीं है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है। अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है। नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है। पानी नीचे की ओर ही बहता है। दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते। शिक्षा नही दी जाती। सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है। इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है। वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है। किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है। 
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=== २. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात्{{Citation needed}} ===
   
भावार्थ - सब सुखी हों। किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो। किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो। अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों।
 
भावार्थ - सब सुखी हों। किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो। किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो। अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों।
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विश्वभर का हजारों वर्षों का साहित्य खोजकर देखनेपर भी इतना श्रेष्ठ विचार कहीं नही मिलेगा। कुछ लोग कहेंगे यह तो कागजी विचार है। सभी लोग तो कभी भी एक साथ सुखी नही हो सकते। यह कुछ मात्रा में सत्य भी है। हर व्यक्ति भिन्न होता है। कुछ दुष्ट या नरराक्षस प्रवृत्ति के लोग तो औरों के सुख से दुखी होते है या दूसरों को दुखी कर सुख पाते है। फिर सब सुखी कैसे हो सकते है ? ऐसा होनेपर भी हमारा लक्ष्य तो सब सुखी हों यही रखना होगा।  
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सभी लोग तो कभी भी एक साथ सुखी नही हो सकते। यह कुछ मात्रा में सत्य भी है। हर व्यक्ति भिन्न होता है। फिर सब सुखी कैसे हो सकते है ? ऐसा होने पर भी हमारा लक्ष्य तो सब सुखी हों यही रखना होगा।  
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दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है। किंतु उस के परिणाम हम  देख रहे है। केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है। बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमें व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये। जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘
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दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है। किंतु उस के परिणाम हम  देख रहे है। केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है। बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमें व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये। जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘{{Citation needed}}
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एक बार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है। उन का उत्तर था की यह संभव नही है। इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता। परिणाम हम सबके सामने है। कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है। इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है। इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही। इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा।
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किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये। आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है। किंतु पारे में औषधि गुण भी है। आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है। उस के बाद ही वह औषधि बनाने के लिये योग्य बनता है।  
 
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निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है{{Citation needed}} :<blockquote>मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव।</blockquote><blockquote>शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥</blockquote>किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये। आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है। किंतु पारे में औषधि गुण भी है। आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है। उस के बाद ही वह औषधि बनाने के लिये योग्य बनता है।
      
महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है। किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था। ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था। साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था।
 
महाभारत काल में हम ब्रह्मास्त्र जैसे अति संहारक अस्त्र के बारे में पढते है। किन्तु आज के अणूध्वम जैसा यह तंत्रज्ञान अधूरी स्थिति में व्यवहार में नहीं लाया गया था। ब्रह्मास्त्र का शमन करने का, छोडे हुए ब्रह्मास्त्र को वापस लेने का तंत्र विकसित करने के बाद ही ब्रह्मास्त्र व्यवहार में लाया गया था। साथ ही में अपात्र को ब्रह्मास्त्र ना देने का भी नियम था।
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==== २.आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता:<ref>ऋग्वेदः सूक्तं १.८९</ref> ====
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=== २. आ नो भद्रा: कृतवो यन्तु विश्वता:<ref>ऋग्वेदः सूक्तं १.८९</ref> ===
 
भावार्थ - भद्र या शुभ-ज्ञान संपूर्ण विश्व से हमें मिले।  
 
भावार्थ - भद्र या शुभ-ज्ञान संपूर्ण विश्व से हमें मिले।  
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हमारा जो ज्ञान है वही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा अहंकार धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने कभी नही पाला। यहाँ तक कह डाला कि ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यं’। छोटा बच्चा भी कुछ श्रेष्ठ ज्ञान देता है तो उसे स्वीकार करना चाहिये। बाहर से आनेवाली शीतल और शुध्द हवा के लिये हम अपने घरों की खिडकियाँ खोलते है। ठीक उसी तरह हमने अपने मन की खिडकियाँ भी शुभ ज्ञान की प्राप्ति के लिये खुली रखनी चाहिये। किन्तु कुछ अशुद्ध हवा आने लगे तो हम जैसे खिडकियाँ बंद भी कर लेते है वैसी ही हमारी अभद्र ज्ञान के विषय में भूमिका होनी चाहिये। कोई बात अन्यों के लिए हितकर है इसलिये यह आवश्यक नही कि वह हमारे लिये भी उपयुक्त होगी ही। इसलिये उसे अपनी स्थानिकता की दृष्टि से वह कितनी हितकर है, इस की कसौटी पर ही भद्र-अभद्र का निर्णय कर स्वीकार करना होगा।
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हमारा जो ज्ञान है वही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा अहंकार धार्मिक (भारतीय) मनीषियों ने कभी नही पाला। यहाँ तक कह डाला कि ‘बालादपि सुभाषितं ग्राह्यं’{{Citation needed}}। छोटा बच्चा भी कुछ श्रेष्ठ ज्ञान देता है तो उसे स्वीकार करना चाहिये। बाहर से आनेवाली शीतल और शुध्द हवा के लिये हम अपने घरों की खिडकियाँ खोलते है।  
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यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा। भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरन सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधि के लिये नहीं होकर चिरकाल तक सब के हित का होना आवश्यक है। ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है।  ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो। ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जबतक हम उसे चिरकाल तक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें। वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा।
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यहाँ भद्र का अर्थ भी ठीक से समझना होगा। भद्र का अर्थ केवल हमारे हित का है ऐसा नहीं वरन सब के हित का जो है वही भद्र ज्ञान है। और यह सब का हित भी केवल वर्तमान से संबंधित या अल्पावधि के लिये नहीं होकर चिरकाल तक सब के हित का होना आवश्यक है। ऐसे ज्ञान को ही भद्र या शुभ ज्ञान कहा जा सकता है।  ऐसा भी हो सकता है की बाहर से आनेवाला ज्ञान सब के हित का ना हो या सब के हित का होनेपर भी चिरंतन हित का ना हो। ऐसी स्थिति में ऐसे ज्ञान को सुधारकर जब तक हम उसे चिरकाल तक सब के हित का नही बना देते उस ज्ञान का उपयोग वर्जित रखें। वह ज्ञान भले ही हमारे हित का हो लेकिन कम से कम उस ज्ञानसे अन्यों का अहित नही होगा यह सुनिश्चित करनेपर ही वह ज्ञान भद्र कहा जा सकेगा।
    
भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है। कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदायी है और कुछ मात्रा में हानि करनेवाला है। ऐसे तंत्रज्ञान को वह जब तक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा। उदाहरण: संगणक को लें। एक सीमा तक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है। किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा। जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगों को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी।  
 
भद्र ज्ञान के विषय में एक और पहलू भी विचार करने योग्य है। कोई तंत्रज्ञान कुछ मात्रा में तो लाभदायी है और कुछ मात्रा में हानि करनेवाला है। ऐसे तंत्रज्ञान को वह जब तक सब के हित में काम करनेवाला है उस सीमा तक ही उपयोग में लाना होगा। उस से आगे उस का उपयोग वर्जित करना होगा। उदाहरण: संगणक को लें। एक सीमा तक तो संगणक बहुत ही लाभदायक तंत्रज्ञान है। किंतु वह जब मानव के अहित के लिये उपयोग में लाया जाएगा तब उस का उपयोग वर्जित होगा। जिस व्यक्ति या संस्था के पास यह शुभ ज्ञान का विवेक नहीं है ऐसे लोगों को संगणक के ज्ञान से वंचित रखने में ही सब की भलाई होगी।  
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==== २.आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ====
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=== . आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च<ref>Swami Vivekananda Volume 6 page 473.</ref> ===
 
मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। किन्तु जब तक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये।
 
मेरे जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। किन्तु जब तक मैं अपने सांसारिक कर्तव्य और लोकहित के संबंध में अपनी भूमिका ठीक से पूरी नहीं करता मुझे मोक्षगामी होने का कोई अधिकार नहीं है। ऐसी धार्मिक (भारतीय) मान्यता है। स्वामी विवेकानंद कहते थे जबतक मेरे भारत का एक भी व्यक्ति दुख से ग्रस्त है मुझे मोक्ष नहीं चाहिये।
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=== . एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति<ref>ऋग्वेद 1.164.46 (इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥)</ref> / विविधता में एकता ===
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=== . एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति<ref>ऋग्वेद 1.164.46 (इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्। एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:॥)</ref> / विविधता में एकता ===
 
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सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है {{Citation needed}}।<blockquote>सत्य एक अनुभूति भिन्न है सत्य यही तू जान </blockquote><blockquote>इंद्रिय, मन, बुद्धि भिन्न है भिन्न सत्य अनुमान </blockquote>एक प्रयोग से इसे हम समझने का प्रयास करेंगे। खुले आसमान में सितारें देखने के लिये दूरबीन लगाएं। दूरबीन के अगले कांच पर बीच में एक छोटा छेद वाला कागज चिपका दें। अब आकाश का एक छोटा हिस्सा ही दिखाई देगा। अब इस छोटे हिस्से में कितने तारे दिखाई देते है गिनती करें। संख्या लिख लें। अब एक अधू दृष्टि के मनुष्य को दूरबीन में से देखने दें। तारे गिनने दें। फिर संख्या लिख लें। अब तारों की संख्या कम हो गई होगी। अब एक अंधे को देखने दें। अब संख्या शून्य होगी। अब सोचिये तीनों मे से सत्य संख्या कौन सी है। तीनों संख्याओं के भिन्न होनेपर भी, तीनों ही अपने अपने हिसाब से सत्य का ही कथन कर रहे है।
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धार्मिक (भारतीय) मनीषियों की यही विशेषता रही है कि जो स्वाभाविक है, प्रकृति से सुसंगत है उसी को उन्होंने तत्व के रूप में सब के सामने रखा है। और एक उदाहरण देखें। न्यूटन के काल में यदि किसी ने आइंस्टीन के सिध्दांत प्रस्तुत किये होते तो क्या होता ? गणित और उपकरणों का विकास उन दिनों कम हुआ था। इसलिये आइंस्टीन के सिध्दांतों को अमान्य करदिया जाता। किन्तु आइंस्टीन के सिध्दांत न्यूटन के काल में भी उतने ही सत्य थे जितने आइंस्टीन के काल में।
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सत्य एक ही है। किन्तु हर व्यक्ति को मिले ज्ञानेंद्रियों की, मन, बुद्धि और चित्त की क्षमताएं भिन्न है। इन साधनों के आधार पर ही कोई मनुष्य सत्य जानने का प्रयास करता है। ये सब बातें हरेक व्यक्ति की भिन्न होने के कारण उस के सत्य का आकलन भिन्न होना स्वाभाविक है
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इसलिये मै जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर शायद ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। यह तो अधार्मिक (अभारतीय) चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है।
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भारतीय विचार कहता है, मैं जो कह रहा हूं केवल वही सत्य है ऐसा समझना ठीक नही है। अन्य लोगों को जो अनुभव हो रहा है वह भी सत्य ही है। प्रत्येक मनुष्य की स्वतंत्र बुद्धि का इतना आदर शायद ही विश्व के अन्य किसी समाज ने नही किया होगा। भारत मे कभी भी अपने से अलग मत का प्रतिपादन करनेवालों के साथ हिंसा नहीं हुई। किसी वैज्ञानिक को प्रताडित नही किया गया किसी को जीना दुस्सह नहीं किया गया। प्रचलित सर्वमान्य विचारों के विपरीत विचार रखनेवाले चार्वाक को भी महर्षि चार्वाक कहा गया। यह तो अधार्मिक (अभारतीय) चलन है जिस के चलते लोग असहमति के कारण हिंसा पर उतारू हो जाते है।
    
इस पार्श्वभूमि पर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।
 
इस पार्श्वभूमि पर एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति यह मान्यता स्वाभाविक तो है ही हम भारतीयों के लिये गर्व करने की भी बात है।

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