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→‎स्त्रीपुरुष समानता: लेख सम्पादित किया
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पाँच वर्ष (सन्तानों का) लालन चलना चाहिये, दस वर्ष ताडन करना चाहिये और सोलह वर्ष को प्राप्त होने पर पुत्र के साथ मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिये । यह कथन आचार्य चाणक्य का है। मनुष्य के मनोव्यापार कैसे होते हैं, उनसे प्रेरित हो कर वह कैसा व्यवहार करता है, उन्हें कैसे जाना पहचाना जाता है और उसके आधार पर उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। इस बात में आचार्य चाणक्य तज्ञ हैं । उपरोक्त कथन भी इसका निदर्शक है ।
 
पाँच वर्ष (सन्तानों का) लालन चलना चाहिये, दस वर्ष ताडन करना चाहिये और सोलह वर्ष को प्राप्त होने पर पुत्र के साथ मित्र जैसा व्यवहार करना चाहिये । यह कथन आचार्य चाणक्य का है। मनुष्य के मनोव्यापार कैसे होते हैं, उनसे प्रेरित हो कर वह कैसा व्यवहार करता है, उन्हें कैसे जाना पहचाना जाता है और उसके आधार पर उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है। इस बात में आचार्य चाणक्य तज्ञ हैं । उपरोक्त कथन भी इसका निदर्शक है ।
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पुत्र और पुत्री जब पन्द्रह वर्ष पार करते हैं तब वे बालक-बालिका नहीं रहते, वे तरुण-तरुणी बन जाते हैं । वे अब बच्चे नहीं, बड़े हैं । भले ही मातापिता और उनमें आयु का अन्तर पूर्ववत्‌ ही हो तो भी अब उनके साथ बच्चों जैसा नहीं, बड़ों जैसा व्यवहार किया जाता है । यह मित्रता का व्यवहार है ।
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पुत्र और पुत्री जब पन्द्रह वर्ष पार करते हैं तब वे बालक-बालिका नहीं रहते, वे तरुण-तरुणी बन जाते हैं । वे अब बच्चे नहीं, बड़े हैं । भले ही मातापिता और उनमें आयु का अन्तर पूर्ववत्‌ ही हो तो भी अब उनके साथ बच्चोंं जैसा नहीं, बड़ों जैसा व्यवहार किया जाता है । यह मित्रता का व्यवहार है ।
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मित्र किसे कहते हैं ? जो सुहदय है अर्थात्‌ जिसके हृदय में हमारे लिये भलाई की भावना है वह मित्र है । जिस पर हम भरोसा कर सकें वह मित्र है । जिसके साथ हम रहस्य उद्घाटित कर सकें वह मित्र है। वह संकट में सहायता करेगा ऐसा विश्वास कर सकते हैं वह मित्र है । अपने स्वार्थ के लिये हमारी मित्रता का दुरुपयोग नहीं करेगा ऐसा विश्वास है वह मित्र है । जिसका हमें हमेशा आधार लगता है वह मित्र है । जिसके साथ समानता का व्यवहार करके भी हम छोटे नहीं हो जाते अथवा हमारा मन कम नहीं होता वह मित्र है । सोलह वर्ष की सन्तानों के साथ मातापिता का ऐसा व्यवहार होना अपेक्षित है । मातापिता को अपनी सन्तानों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिये, साथ ही सन्तानों को भी लगना चाहिये कि मातापिता ऐसा व्यवहार कर रहे हैं । इससे भी अधिक इस बात की आवश्यकता है कि वे मातापिता की मित्रता के लायक बनें और स्वयं भी मातापिता के मित्र बनें । सन्तानों के साथ मित्रता का व्यवहार करते हुए भी ये दोनों बातें सन्तानों को सिखाने की आवश्यकता होती है । मजबूरी में मित्र बना या बनाया नहीं जाता ।
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मित्र किसे कहते हैं ? जो सुहदय है अर्थात्‌ जिसके हृदय में हमारे लिये भलाई की भावना है वह मित्र है । जिस पर हम भरोसा कर सकें वह मित्र है । जिसके साथ हम रहस्य उद्घाटित कर सकें वह मित्र है। वह संकट में सहायता करेगा ऐसा विश्वास कर सकते हैं वह मित्र है । अपने स्वार्थ के लिये हमारी मित्रता का दुरुपयोग नहीं करेगा ऐसा विश्वास है वह मित्र है । जिसका हमें सदा आधार लगता है वह मित्र है । जिसके साथ समानता का व्यवहार करके भी हम छोटे नहीं हो जाते अथवा हमारा मन कम नहीं होता वह मित्र है । सोलह वर्ष की सन्तानों के साथ मातापिता का ऐसा व्यवहार होना अपेक्षित है । मातापिता को अपनी सन्तानों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिये, साथ ही सन्तानों को भी लगना चाहिये कि मातापिता ऐसा व्यवहार कर रहे हैं । इससे भी अधिक इस बात की आवश्यकता है कि वे मातापिता की मित्रता के लायक बनें और स्वयं भी मातापिता के मित्र बनें । सन्तानों के साथ मित्रता का व्यवहार करते हुए भी ये दोनों बातें सन्तानों को सिखाने की आवश्यकता होती है । मजबूरी में मित्र बना या बनाया नहीं जाता ।
    
पन्द्रह वर्ष से आगे पुत्र या पुत्री गृहस्थाश्रमी बने तब तक की अवधि में दो पीढ़ियों में मित्रता के सम्बन्ध स्थापित हों और मातापिता अपना गृहस्थाश्रम सन्तानों को सुपुर्द करें यह सम्भव बनाने के लिये कुछ इस प्रकार विचार किया जा सकता है ।
 
पन्द्रह वर्ष से आगे पुत्र या पुत्री गृहस्थाश्रमी बने तब तक की अवधि में दो पीढ़ियों में मित्रता के सम्बन्ध स्थापित हों और मातापिता अपना गृहस्थाश्रम सन्तानों को सुपुर्द करें यह सम्भव बनाने के लिये कुछ इस प्रकार विचार किया जा सकता है ।
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# '''सन्तानों को निर्णय लेने के अवसर उपलब्ध करवाना''' - यह पहला काम है । कुटुम्बजीवन की, समाजजीवन की, राष्ट्रजीवन की अनेक घटनाओं का विश्लेषण करना, इनके कारण और परिणामों के विषय में तर्क करना, इसके हल क्या हो सकते हैं, इसकी चर्चा करना लाभदायी हो सकता है । चर्चा के समय उनके तर्कों और अवलोकनों को उचित मोड़ देना, उनके सुझावों पर साधकबाधक चर्चा करना उपयोगी होता है। अधिकांश होता यह है कि अखबारों में आने वाली अनेक घटनाओं, स्थितियों और व्यवहारों पर बिना विश्लेषण किये, उनके घटने की प्रक्रियाओं का बिना विचार किये सीधी आलोचनात्मक टिप्पणी की जाती है या अभिप्राय बनाया जाता है । इसका तो कोई फल नहीं होता ।
 
# '''सन्तानों को निर्णय लेने के अवसर उपलब्ध करवाना''' - यह पहला काम है । कुटुम्बजीवन की, समाजजीवन की, राष्ट्रजीवन की अनेक घटनाओं का विश्लेषण करना, इनके कारण और परिणामों के विषय में तर्क करना, इसके हल क्या हो सकते हैं, इसकी चर्चा करना लाभदायी हो सकता है । चर्चा के समय उनके तर्कों और अवलोकनों को उचित मोड़ देना, उनके सुझावों पर साधकबाधक चर्चा करना उपयोगी होता है। अधिकांश होता यह है कि अखबारों में आने वाली अनेक घटनाओं, स्थितियों और व्यवहारों पर बिना विश्लेषण किये, उनके घटने की प्रक्रियाओं का बिना विचार किये सीधी आलोचनात्मक टिप्पणी की जाती है या अभिप्राय बनाया जाता है । इसका तो कोई फल नहीं होता ।
 
# '''विवेक जाग्रत करने के लिये घटनाओं की प्रक्रियाओं पर ध्यान देना''' अधिक आवश्यक है । उदाहरण के लिये समाज में अब बलात्कार क्यों बढ़ गये हैं अथवा आर्थिक भ्रष्टाचार क्‍यों होता है अथवा लड़कियाँ लड़कों का वेश क्यों पहनती हैं अथवा विद्यार्थी परीक्षा में नकल क्यों करते हैं आदि प्रश्नों की खुली चर्चा अच्छे वातावरण में होनी चाहिये । चर्चा करने के लिये समय, धैर्य, सद्भावना और बुद्धि की आवश्यकता होती है । इनकी सीमा आ जाय इतनी लम्बी चर्चायें नहीं चलनी चाहिये । विवेक जाग्रत करने के लिये निर्णय लेने की प्रक्रिया में उन्हें सहभागी बनाना चाहिये । अपना निर्णय मान्य किया जाता है यह देखकर उसके साथ जिम्मेदारी की भावना भी आती है । परन्तु ये निर्णय स्वनिरपेक्ष होने चाहिये । उदाहरण के लिये “तुम बताओ आज क्या खाना बनेगा' अथवा “तुम बताओ घर में कैसा डाइनिंग टेबल लायेंगे' और वे कुछ भी उत्तर दे देंगे यह ठीक नहीं है । इसमें न निर्णय में कोई तुक है न जिम्मेदारी है । डाइनिंग टेबल की उपयोगिता, सुविधा, गुणवत्ता, हमारा बजट, बाजार की स्थिति आदि का विचार करना, बाजार में जाना, उसे परखना, पसन्द करना, उसे घर ले आना, यथास्थान जमाना - यहाँ तक के सारे काम किये तो वह समझदारी है । इस प्रकार से लिये गये निर्णय की जब अन्य समझदार लोग सराहना करते हैं तभी निर्णय करने वाले के विवेक की परीक्षा होती है और उसमें यश मिलता है ।
 
# '''विवेक जाग्रत करने के लिये घटनाओं की प्रक्रियाओं पर ध्यान देना''' अधिक आवश्यक है । उदाहरण के लिये समाज में अब बलात्कार क्यों बढ़ गये हैं अथवा आर्थिक भ्रष्टाचार क्‍यों होता है अथवा लड़कियाँ लड़कों का वेश क्यों पहनती हैं अथवा विद्यार्थी परीक्षा में नकल क्यों करते हैं आदि प्रश्नों की खुली चर्चा अच्छे वातावरण में होनी चाहिये । चर्चा करने के लिये समय, धैर्य, सद्भावना और बुद्धि की आवश्यकता होती है । इनकी सीमा आ जाय इतनी लम्बी चर्चायें नहीं चलनी चाहिये । विवेक जाग्रत करने के लिये निर्णय लेने की प्रक्रिया में उन्हें सहभागी बनाना चाहिये । अपना निर्णय मान्य किया जाता है यह देखकर उसके साथ जिम्मेदारी की भावना भी आती है । परन्तु ये निर्णय स्वनिरपेक्ष होने चाहिये । उदाहरण के लिये “तुम बताओ आज क्या खाना बनेगा' अथवा “तुम बताओ घर में कैसा डाइनिंग टेबल लायेंगे' और वे कुछ भी उत्तर दे देंगे यह ठीक नहीं है । इसमें न निर्णय में कोई तुक है न जिम्मेदारी है । डाइनिंग टेबल की उपयोगिता, सुविधा, गुणवत्ता, हमारा बजट, बाजार की स्थिति आदि का विचार करना, बाजार में जाना, उसे परखना, पसन्द करना, उसे घर ले आना, यथास्थान जमाना - यहाँ तक के सारे काम किये तो वह समझदारी है । इस प्रकार से लिये गये निर्णय की जब अन्य समझदार लोग सराहना करते हैं तभी निर्णय करने वाले के विवेक की परीक्षा होती है और उसमें यश मिलता है ।
# '''तत्काल विचार करना और उसके आधार पर व्यवहार करना इनका स्वभाव होता है''' । इन्हें पाँच या दस वर्ष की अवधि का एक साथ विचार करना, उसके आधार पर योजना करना, योजना को सफल बनाने हेतु रणनीति तैयार करना आदि व्यावहारिक बुद्धि जिसमें कसी जाय ऐसे कामों में लगाना चाहिये । यह उनका अच्छा प्रशिक्षण है । उदाहरण के लिये हमें घर के लिये चौपहिया गाड़ी खरीद करनी है परन्तु बैंक से ऋण नहीं लेना है तो कया उपाय हो सकते हैं यह प्रश्न हो सकता है । घर में पचीस लोगों की भोजन की व्यवस्था करनी है वह उत्तम पद्धति से कैसे की जाय यह प्रश्न है या आज की बाजार की स्थिति देखते हुए अथर्जिन के लिये कौन सा करिअर बेहतर होगा यह प्रश्न भी हो सकता है । देखा यह जाता है कि ऐसा कम अधिक गम्भीर प्रश्नों पर तरुण विचार ही नहीं करते, मन में आता है वैसा निर्णय करते हैं और उनकी स्वतन्त्रता की दुहाई देकर बड़े उसे मान्य करते हैं । उसके विपरीत परिणाम देखने के बाद भी खास विचार होता है ऐसा भी नहीं है ।
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# '''तत्काल विचार करना और उसके आधार पर व्यवहार करना इनका स्वभाव होता है''' । इन्हें पाँच या दस वर्ष की अवधि का एक साथ विचार करना, उसके आधार पर योजना करना, योजना को सफल बनाने हेतु रणनीति तैयार करना आदि व्यावहारिक बुद्धि जिसमें कसी जाय ऐसे कामों में लगाना चाहिये । यह उनका अच्छा प्रशिक्षण है । उदाहरण के लिये हमें घर के लिये चौपहिया गाड़ी खरीद करनी है परन्तु बैंक से ऋण नहीं लेना है तो क्या उपाय हो सकते हैं यह प्रश्न हो सकता है । घर में पचीस लोगोंं की भोजन की व्यवस्था करनी है वह उत्तम पद्धति से कैसे की जाय यह प्रश्न है या आज की बाजार की स्थिति देखते हुए अर्थार्जन के लिये कौन सा करिअर बेहतर होगा यह प्रश्न भी हो सकता है । देखा यह जाता है कि ऐसा कम अधिक गम्भीर प्रश्नों पर तरुण विचार ही नहीं करते, मन में आता है वैसा निर्णय करते हैं और उनकी स्वतन्त्रता की दुहाई देकर बड़े उसे मान्य करते हैं । उसके विपरीत परिणाम देखने के बाद भी खास विचार होता है ऐसा भी नहीं है ।
 
# तरुण और युवा कितने भी बड़े हो गये हैं, स्वतन्त्रता की चाह रखने वाले हो तो भी बड़े बड़े हैं इस बात का दोनों को स्मरण रखना आवश्यक है । मित्र होते हुए भी बड़ों ने बड़ों जैसा और छोटों ने छोटों जैसा व्यवहार करना चाहिये । तरुणाई प्रदर्शित करने वाली सभी बातों में - खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन, अध्ययन, सूझबूझ आदि - बड़ों का बड़प्पन दिखना ही चाहिये, मित्र जैसा व्यवहार करने के लिये प्रौढ़ों ने तरुण बनने की आवश्यकता नहीं होती । माता-पुत्री या पिता-पुत्र में अनेक बातों में बराबरी या स्पर्धा नहीं होनी चाहिये । घर का बजट बनाना, खर्च की प्राथमिकतायें तय करना, काम का आयोजन करना, काम को जिद के साथ पूर्ण करना आदि जिम्मेदारियाँ इन्हें सौंपी जा सकती हैं ।
 
# तरुण और युवा कितने भी बड़े हो गये हैं, स्वतन्त्रता की चाह रखने वाले हो तो भी बड़े बड़े हैं इस बात का दोनों को स्मरण रखना आवश्यक है । मित्र होते हुए भी बड़ों ने बड़ों जैसा और छोटों ने छोटों जैसा व्यवहार करना चाहिये । तरुणाई प्रदर्शित करने वाली सभी बातों में - खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन, अध्ययन, सूझबूझ आदि - बड़ों का बड़प्पन दिखना ही चाहिये, मित्र जैसा व्यवहार करने के लिये प्रौढ़ों ने तरुण बनने की आवश्यकता नहीं होती । माता-पुत्री या पिता-पुत्र में अनेक बातों में बराबरी या स्पर्धा नहीं होनी चाहिये । घर का बजट बनाना, खर्च की प्राथमिकतायें तय करना, काम का आयोजन करना, काम को जिद के साथ पूर्ण करना आदि जिम्मेदारियाँ इन्हें सौंपी जा सकती हैं ।
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बेटी और बेटा, स्त्री और पुरुष दोनों की आवश्यकता है । इसलिये स्त्री को स्त्री और पुरुष को पुरुष बनाना प्रथम तो घर की ही जिम्मेदारी है । स्त्री को नकारा नहीं जाता परन्तु स्त्रीत्व को नकारा जाता है यह तो स्त्री को नकारे जाने से भी अधिक घातक है यह बात मातापिता को भी समझनी चाहिये और समाजहितचिन्तकों को भी समझनी चाहिये ।  
 
बेटी और बेटा, स्त्री और पुरुष दोनों की आवश्यकता है । इसलिये स्त्री को स्त्री और पुरुष को पुरुष बनाना प्रथम तो घर की ही जिम्मेदारी है । स्त्री को नकारा नहीं जाता परन्तु स्त्रीत्व को नकारा जाता है यह तो स्त्री को नकारे जाने से भी अधिक घातक है यह बात मातापिता को भी समझनी चाहिये और समाजहितचिन्तकों को भी समझनी चाहिये ।  
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इसका ही परिणाम है कि आजकल लड़कियाँ लडकों का वेश पहनती हैं, उनकी अंगभंगिमा लड़कों जैसी होती है । आगे चलकर करिअर और व्यवसाय भी लड़कों जैसा करती है । परम्परा से घर स्त्री का होता है इसलिये अब गृहसंचालन स्त्री या पुरुष कोई नहीं करना चाहता । इससे तो घर घर नहीं रहेगा । घर ही तो संस्कृति की रक्षा करने का केन्द्र है ।  
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इसका ही परिणाम है कि आजकल लड़कियाँ लडकों का वेश पहनती हैं, उनकी अंगभंगिमा लड़कों जैसी होती है । आगे चलकर करिअर और व्यवसाय भी लड़कों जैसा करती है । परम्परा से घर स्त्री का होता है इसलिये अब गृहसंचालन स्त्री या पुरुष कोई नहीं करना चाहता । इससे तो घर घर नहीं रहेगा । घर ही तो संस्कृति की रक्षा करने का केन्द्र है । उस पर ही संकट आया है। अतः मातापिता को चाहिये कि शिशुअवस्था से बेटी का बेटी की तरह और बेटे का बेटे की तरह संगोपन करे और बेटे को बेटी का, बेटी के रूप में सम्मान करना सिखायें । स्त्रीत्व का सम्मान करने के स्थान पर पुरुषत्व की कसौटी पर खरी उतरने वाली स्त्री का सम्मान करना पुरुषत्व का ही सम्मान है । यह समाज के लिये घातक है ।  
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''उस पर ही संकट आया है । अतः मातापिता को... सम्मान करना पुरुषत्व का ही सम्मान''
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यह एक बड़ा विषय है। देश के साधुसन्तों, समाजचिन्तकों, बौद्धिकों और प्राध्यापकों का विषय है। परन्तु इसका आचरण तो घर में ही होना है ।  
 
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''चाहिये कि शिशुअवस्था से बेटी का बेटी की तरह और बेटे... है । यह समाज के लिये घातक है ।''
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''का बेटे की तरह संगोपन करे और बेटे को बेटी का बेटी के यह एक बड़ा विषय है। देश के साधुसन्तों''
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''रूप में सम्मान करना सिखायें । ख्त्रीत्व का सम्मान करने के... समाजचिन्तकों, बौद्धिकों और प्राध्यापकों का विषय है ।''
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''स्थान पर पुरुषत्व की कसौटी पर खरी उतरने वाली स्त्री का... परन्तु इसका आचरण तो घर में ही होना है ।''
      
==References==
 
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