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४. किसी भी रोग के कारण जानने से उपाय भी उचित हो सकते हैं । हीनताबोध के कारण प्रजा के विभिन्न वर्गों के लिये विभिन्न प्रकार के हैं। इन्हें रोग के इतिहास में जाकर समझा जा सकेगा ।
 
४. किसी भी रोग के कारण जानने से उपाय भी उचित हो सकते हैं । हीनताबोध के कारण प्रजा के विभिन्न वर्गों के लिये विभिन्न प्रकार के हैं। इन्हें रोग के इतिहास में जाकर समझा जा सकेगा ।
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५. हीनता बोध का यह इतिहास लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराना है । रोग भी इतना पुराना होकर भीषण स्वरूप धारण कर चुका है । इस रोग को लगाने वाले अंग्रेज हैं । अपने स्वार्थी हेतुओं से प्रेरित होकर कुटिल बुद्धि से जन्मे अनेकविध कारनामों का प्रयोग कर उन्होंने भारतीय प्रजा के मानस को ग्रस लिया है जो अभी भी उससे मुक्त नहीं हुआ है ।
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५. हीनता बोध का यह इतिहास लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुराना है । रोग भी इतना पुराना होकर भीषण स्वरूप धारण कर चुका है । इस रोग को लगाने वाले अंग्रेज हैं । अपने स्वार्थी हेतुओं से प्रेरित होकर कुटिल बुद्धि से जन्मे अनेकविध कारनामों का प्रयोग कर उन्होंने धार्मिक प्रजा के मानस को ग्रस लिया है जो अभी भी उससे मुक्त नहीं हुआ है ।
    
६. उनका एक प्राथमिक स्वरूप का साधन था अत्याचार । समृद्ध भारत के अनेकविध चीजवस्तुओं की निर्मिति कर प्रभूत उत्पादन करनेवाले असंख्य कारीगरों से अंग्रेजों ने धन्धे छीन लिये । उन्हें भूखों मरने को मजबूर किया । उनसे मजदूरी करवाई, कोडे मार मार कर शारीरिक यातनायें दीं, उनसे वेठ बिगारी करवाई, उन को पीडा, आत्मग्लानि और भूख से भर दिया । वे भागना चाहते थे, उन्हें भागने नहीं दिया | वे मरना चाहते थे, उन्हें मरने नहीं दिया । तिरस्कार, भूख, वेठ और मारने उन्हें तोड दिया । उनकी सहनशक्ति जब खतम हो गई तो उनके मन टूट गये और आत्मग्लानि से भर कर हताश हो गये । यह सिलसिला दो तीन पीढ़ियों तक चलता रहा । उनके जातीय वंशज आज भी उस रोग से ग्रस्त बने हुए है । यह आत्मग्लानि प्रजामानस में बहुत गहरी और व्यापक है। काम और कारीगरी हीन है यह प्रजामानस का एक स्थायी भाव बन गया है । हर कोई इससे बचना चाहता है और काम न करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहता है ।
 
६. उनका एक प्राथमिक स्वरूप का साधन था अत्याचार । समृद्ध भारत के अनेकविध चीजवस्तुओं की निर्मिति कर प्रभूत उत्पादन करनेवाले असंख्य कारीगरों से अंग्रेजों ने धन्धे छीन लिये । उन्हें भूखों मरने को मजबूर किया । उनसे मजदूरी करवाई, कोडे मार मार कर शारीरिक यातनायें दीं, उनसे वेठ बिगारी करवाई, उन को पीडा, आत्मग्लानि और भूख से भर दिया । वे भागना चाहते थे, उन्हें भागने नहीं दिया | वे मरना चाहते थे, उन्हें मरने नहीं दिया । तिरस्कार, भूख, वेठ और मारने उन्हें तोड दिया । उनकी सहनशक्ति जब खतम हो गई तो उनके मन टूट गये और आत्मग्लानि से भर कर हताश हो गये । यह सिलसिला दो तीन पीढ़ियों तक चलता रहा । उनके जातीय वंशज आज भी उस रोग से ग्रस्त बने हुए है । यह आत्मग्लानि प्रजामानस में बहुत गहरी और व्यापक है। काम और कारीगरी हीन है यह प्रजामानस का एक स्थायी भाव बन गया है । हर कोई इससे बचना चाहता है और काम न करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना चाहता है ।
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८. तीसरा उपाय शिक्षा का था । समाज के ब्राह्मण वर्ग के कुछ लोगों पर उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा देने की “कृपा' की और उन्हें शेष समाज से अलग कर अपने साथ जोडा । अपने जैसा वेश, अपने जैसा खानपान, अपने जैसा शिष्टाचार, अपनी भाषा और अपना ज्ञान देकर उन्हें अपने जैसा बनाया, उनका सम्मान किया, उनके गुणगान किये और शेष प्रजा को हीन मानना सिखाया । शिक्षित वर्ग में अंग्रेजी, अंगप्रेजीयत और अंग्रेजी ज्ञान अपने आपको श्रेष्ठ मानकर शेष प्रजा को हीन मानता है ।
 
८. तीसरा उपाय शिक्षा का था । समाज के ब्राह्मण वर्ग के कुछ लोगों पर उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा देने की “कृपा' की और उन्हें शेष समाज से अलग कर अपने साथ जोडा । अपने जैसा वेश, अपने जैसा खानपान, अपने जैसा शिष्टाचार, अपनी भाषा और अपना ज्ञान देकर उन्हें अपने जैसा बनाया, उनका सम्मान किया, उनके गुणगान किये और शेष प्रजा को हीन मानना सिखाया । शिक्षित वर्ग में अंग्रेजी, अंगप्रेजीयत और अंग्रेजी ज्ञान अपने आपको श्रेष्ठ मानकर शेष प्रजा को हीन मानता है ।
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९. इन तीनों बातों की सहायता से, शिक्षित भारतीयों का ही साधन के रूप में उपयोग कर सभी राजकीय, प्रशासनिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक संस्थाओं को छिन्नविच्छन्न कर उनके स्थान पर युरोपीय संस्थाओं को प्रस्थापित कर दिया । शिक्षा के माध्यम से बुद्धि में, अत्याचार और छल के माध्यम से मन में और व्यवस्थाओं के माध्यम से व्यवहार में वे छा गये ।  
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९. इन तीनों बातों की सहायता से, शिक्षित धार्मिकों का ही साधन के रूप में उपयोग कर सभी राजकीय, प्रशासनिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक संस्थाओं को छिन्नविच्छन्न कर उनके स्थान पर युरोपीय संस्थाओं को प्रस्थापित कर दिया । शिक्षा के माध्यम से बुद्धि में, अत्याचार और छल के माध्यम से मन में और व्यवस्थाओं के माध्यम से व्यवहार में वे छा गये ।  
    
=== हिनता बोध का स्वरूप ===
 
=== हिनता बोध का स्वरूप ===
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१०. अब हमारे भारतीय श्याम वर्ण के शरीर में वे वस्त्र, आहार, दिनचर्या, सुखसुविधाओं के रूप में बैठे हैं । हमारे मन पर स्वैराचार, अकर्मण्यता, निष्क्रिय मनोरंजन, चरित्र और शील के प्रति उदासीनता बन कर राज्य कर रहे हैं । हमारी बुद्धि में स्वकेन्द्रितता, अर्थप्रधानता, विकास की भौतिक और एकरेखीय संकल्पना बन कर स्थापित हो गये हैं । बाहर जो दिख रहा है वह हमारे अन्दर के अंग्रेज की ही छाया है, उस भूत की ही माया है ।
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१०. अब हमारे धार्मिक श्याम वर्ण के शरीर में वे वस्त्र, आहार, दिनचर्या, सुखसुविधाओं के रूप में बैठे हैं । हमारे मन पर स्वैराचार, अकर्मण्यता, निष्क्रिय मनोरंजन, चरित्र और शील के प्रति उदासीनता बन कर राज्य कर रहे हैं । हमारी बुद्धि में स्वकेन्द्रितता, अर्थप्रधानता, विकास की भौतिक और एकरेखीय संकल्पना बन कर स्थापित हो गये हैं । बाहर जो दिख रहा है वह हमारे अन्दर के अंग्रेज की ही छाया है, उस भूत की ही माया है ।
    
११. उस भूत को निकालने में कष्ट तो होगा ही। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी स्तरों पर कष्ट होगा । परन्तु उन कष्टों का औषध मानकर सहना होगा । काँटे को काँटे से निकालने और विष को विष से उतारने जैसे प्रयोग हमें करने ही होंगे ।
 
११. उस भूत को निकालने में कष्ट तो होगा ही। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक सभी स्तरों पर कष्ट होगा । परन्तु उन कष्टों का औषध मानकर सहना होगा । काँटे को काँटे से निकालने और विष को विष से उतारने जैसे प्रयोग हमें करने ही होंगे ।
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५०. छोटे मोटे कार्यक्रमों से समरसता निर्माण होना असम्भव है । इसके लिये व्यवस्था चाहिये । सामान्य जनों के प्रबोधन से यह कार्य होने वाला नहीं है । श्रेष्ठ जनों के प्रबोधन की आवश्यकता है क्योंकि oy छोटों के नहीं, श्रेष्ठों के मन में है । उदाहरण के लिये एक संन्यासी यदि दलित के घर की भिक्षा का स्वीकार नहीं करता तो वह समाज का बडा अपराधी है ।
 
५०. छोटे मोटे कार्यक्रमों से समरसता निर्माण होना असम्भव है । इसके लिये व्यवस्था चाहिये । सामान्य जनों के प्रबोधन से यह कार्य होने वाला नहीं है । श्रेष्ठ जनों के प्रबोधन की आवश्यकता है क्योंकि oy छोटों के नहीं, श्रेष्ठों के मन में है । उदाहरण के लिये एक संन्यासी यदि दलित के घर की भिक्षा का स्वीकार नहीं करता तो वह समाज का बडा अपराधी है ।
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५१. असपृश्यता भारतीय समाज का कलंक है । समरसता का वह बडा अवरोध है । आज सार्वजनिक स्थानों तथा समारोहों में, कार्यालयों में, यातायात में, होटलों में आअस्पृश्यता दिखाई नहीं दे रही है परन्तु वह परिस्थितजन्य विवशता है, मन में से अस्पृश्यता गई नहीं है । वह मन में से जाना ही आवश्यक है । इसका भी उपाय बडों के पास ही है । आज तो ब्राह्मण, साधु, संन्यासी, धर्माचार्य अपने आचार को तो छोड रहे हैं परन्तु अस्पृश्यता को पाल रहे हैं। जिन्हें न्याय करना है वे ही अपराधी हैं, उनका न्याय कौन करेगा ? जिन्हें आचार का उपदेश देना है वे ही आचारों का पालन नहीं करते हैं । ह्लउन्हें उपदेश कौन देगा ? जिन्हें समाज को समरस बनाना है वे ही भेदभाव कते हैं, उन्हें समरसता कौन सिखायेगा ? सरकार के पास तो केवल कानून है और कानून के प्रति जनमानस की श्रद्धा नहीं है । जिन के प्रति श्रद्धा है वे श्रद्धा के पात्र नहीं हैं । इसलिये समरसता की समस्या हल नहीं होती ।
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५१. असपृश्यता धार्मिक समाज का कलंक है । समरसता का वह बडा अवरोध है । आज सार्वजनिक स्थानों तथा समारोहों में, कार्यालयों में, यातायात में, होटलों में आअस्पृश्यता दिखाई नहीं दे रही है परन्तु वह परिस्थितजन्य विवशता है, मन में से अस्पृश्यता गई नहीं है । वह मन में से जाना ही आवश्यक है । इसका भी उपाय बडों के पास ही है । आज तो ब्राह्मण, साधु, संन्यासी, धर्माचार्य अपने आचार को तो छोड रहे हैं परन्तु अस्पृश्यता को पाल रहे हैं। जिन्हें न्याय करना है वे ही अपराधी हैं, उनका न्याय कौन करेगा ? जिन्हें आचार का उपदेश देना है वे ही आचारों का पालन नहीं करते हैं । ह्लउन्हें उपदेश कौन देगा ? जिन्हें समाज को समरस बनाना है वे ही भेदभाव कते हैं, उन्हें समरसता कौन सिखायेगा ? सरकार के पास तो केवल कानून है और कानून के प्रति जनमानस की श्रद्धा नहीं है । जिन के प्रति श्रद्धा है वे श्रद्धा के पात्र नहीं हैं । इसलिये समरसता की समस्या हल नहीं होती ।
    
५२. आज भी एक वर्ग ऐसा है जो समरसता हेतु प्रयासरत है। उस वर्ग को अपनी संकल्पना स्पष्ट करनी होगी | साथ ही यह तो निश्चित है कि धर्माचार्यों द्वारा कठोर तपश्चर्या के ट्वारा आदर्श प्रस्थापित कर व्यवस्थित योजना बनाये बिना इस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता ।
 
५२. आज भी एक वर्ग ऐसा है जो समरसता हेतु प्रयासरत है। उस वर्ग को अपनी संकल्पना स्पष्ट करनी होगी | साथ ही यह तो निश्चित है कि धर्माचार्यों द्वारा कठोर तपश्चर्या के ट्वारा आदर्श प्रस्थापित कर व्यवस्थित योजना बनाये बिना इस समस्या का निराकरण नहीं हो सकता ।
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८१. हमें यहाँ जन्म लेकर, यहाँ पढाई कर विदेशों की सेवा करने के लिये जाने को मन कैसे करता है ? क्या चार पैसे हमें इतना आकर्षित करते हैं कि हम यहाँ पैसा नहीं, अवसर नहीं, रिसर्च की सुविधा नहीं जैसे बहाने बनाकर भाग जाते हैं ?
 
८१. हमें यहाँ जन्म लेकर, यहाँ पढाई कर विदेशों की सेवा करने के लिये जाने को मन कैसे करता है ? क्या चार पैसे हमें इतना आकर्षित करते हैं कि हम यहाँ पैसा नहीं, अवसर नहीं, रिसर्च की सुविधा नहीं जैसे बहाने बनाकर भाग जाते हैं ?
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८२. क्या भारतीय विद्याओं को पढने की हमारी इच्छा ही
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८२. क्या धार्मिक विद्याओं को पढने की हमारी इच्छा ही
    
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