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#जर्मनी के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से धार्मिक विद्यार्थियों को पुस्तक ले जाने का निषेध हुआ था क्योंकि धार्मिक विद्यार्थी पुस्तक में से उपयोगी सामग्री की नकल करने के स्थान पर पुस्तक के पन्ने ही फाड लेते थे। यह आरोप झूठा नहीं है यह भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के ग्रन्थालयों के ग्रन्थपाल कहेंगे।
 
#जर्मनी के विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से धार्मिक विद्यार्थियों को पुस्तक ले जाने का निषेध हुआ था क्योंकि धार्मिक विद्यार्थी पुस्तक में से उपयोगी सामग्री की नकल करने के स्थान पर पुस्तक के पन्ने ही फाड लेते थे। यह आरोप झूठा नहीं है यह भारत के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के ग्रन्थालयों के ग्रन्थपाल कहेंगे।
#ऑस्ट्रेलिया में यदि आपका मोबाइल खो जाता है और आप सरकार को बताते हैं तो सरकार बिना पूछताछ किये आपको दूसरा मोबाइल देती है । सरकार अपने नागरिक का विश्वास करती है । कई धार्मिक अपना मोबाइल भारत में भेज देते हैं और सरकार से चोरी हो गया कहकर दूसरा लेते हैं। सरकार उन्हें देती भी है । ऐसा दो बार, होने के बाद पूछताछ शुरू होती है ।सरकार का यह विश्वास कितने दिन चलेगा ? तब लांछन किस को लगेगा ?
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#ऑस्ट्रेलिया में यदि आपका मोबाइल खो जाता है और आप सरकार को बताते हैं तो सरकार बिना पूछताछ किये आपको दूसरा मोबाइल देती है । सरकार अपने नागरिक का विश्वास करती है । कई धार्मिक अपना मोबाइल भारत में भेज देते हैं और सरकार से चोरी हो गया कहकर दूसरा लेते हैं। सरकार उन्हें देती भी है । ऐसा दो बार, होने के बाद पूछताछ आरम्भ होती है ।सरकार का यह विश्वास कितने दिन चलेगा ? तब लांछन किस को लगेगा ?
 
#विदेश में भी जो चोरी करते हैं और अनीति का आचरण करते हैं वे देश में क्या नहीं करेंगे ? यहाँ भी कानून तोडना, घूस देना और लेना, कस्वोरी करना, परीक्षा में नकल करना, पैसा लेकर मत बेचना, शराबबन्दी होने पर भी शराब बेचना और पीना, गोबधबन्दी होने पर भी गोहत्या करना, मौका मिले तो बिना टिकट यात्रा करना धूमधाम से चल रहा है । खुछ्ठम-खु्ठा चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि की बात तो अलग है, यह तो सारे अनीति के मामले हैं ।
 
#विदेश में भी जो चोरी करते हैं और अनीति का आचरण करते हैं वे देश में क्या नहीं करेंगे ? यहाँ भी कानून तोडना, घूस देना और लेना, कस्वोरी करना, परीक्षा में नकल करना, पैसा लेकर मत बेचना, शराबबन्दी होने पर भी शराब बेचना और पीना, गोबधबन्दी होने पर भी गोहत्या करना, मौका मिले तो बिना टिकट यात्रा करना धूमधाम से चल रहा है । खुछ्ठम-खु्ठा चोरी, डकैती, लूट, हत्या आदि की बात तो अलग है, यह तो सारे अनीति के मामले हैं ।
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यह अनीति समाजविरोधी है, देशविरोधी है, धर्मविरोधी है । भारत की विचारधारा कभी भी इसका समर्थन नहीं करती । भारत की परम्परा इसकी कभी भी दुहाई नहीं देती । यहाँ तो दो शत्रुओं के बीच युद्ध भी धर्म के नियमों का पालन करके होते हैं। निहत्थे शत्रु के साथ लडने के लिये व्यक्ति अपना हथियार छोड देता है क्योंकि एक के हाथ में शस्त्र हो और दूसरे के हाथ में न हो तो शख्रधारी निःशस्त्र के साथ युद्ध करे यह अन्याय है, अधर्म है ।  
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यह अनीति समाजविरोधी है, देशविरोधी है, धर्मविरोधी है । भारत की विचारधारा कभी भी इसका समर्थन नहीं करती । भारत की परम्परा इसकी कभी भी दुहाई नहीं देती । यहाँ तो दो शत्रुओं के मध्य युद्ध भी धर्म के नियमों का पालन करके होते हैं। निहत्थे शत्रु के साथ लडने के लिये व्यक्ति अपना हथियार छोड देता है क्योंकि एक के हाथ में शस्त्र हो और दूसरे के हाथ में न हो तो शख्रधारी निःशस्त्र के साथ युद्ध करे यह अन्याय है, अधर्म है ।  
    
नीतिमत्ता का ह्रास वर्तमान समय का राष्ट्रीय संकट है । इसके साथ लडने हेतु और इस संकट को दूर करने हेतु विद्यालय, घर और धर्माचार्यों ने जिम्मेदारी लेकर योजना बनानी होगी ।
 
नीतिमत्ता का ह्रास वर्तमान समय का राष्ट्रीय संकट है । इसके साथ लडने हेतु और इस संकट को दूर करने हेतु विद्यालय, घर और धर्माचार्यों ने जिम्मेदारी लेकर योजना बनानी होगी ।
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नीति का पक्ष लेने वाले कुछ लोग तो समाज में हैं ही । ये केवल नीति की बात ही नहीं करते, उनका आचरण भी नैतिक होता है । अक्सर ऐसे लोग अपने में ही मस्त होते हैं । दूसरों को अनीति का आचरण करना है तो करें, उनका हिसाब भगवान करेगा, हम अनीति का आचरण नहीं करेंगे । हमने दुनिया को सुधार करने का ठेका नहीं लिया है ऐसा वे कहते हैं ।
 
नीति का पक्ष लेने वाले कुछ लोग तो समाज में हैं ही । ये केवल नीति की बात ही नहीं करते, उनका आचरण भी नैतिक होता है । अक्सर ऐसे लोग अपने में ही मस्त होते हैं । दूसरों को अनीति का आचरण करना है तो करें, उनका हिसाब भगवान करेगा, हम अनीति का आचरण नहीं करेंगे । हमने दुनिया को सुधार करने का ठेका नहीं लिया है ऐसा वे कहते हैं ।
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परन्तु केवल अच्छाई पर्याप्त नहीं है । यह सत्य है कि ऐसे लोगों के प्रभाव से ही दुनिया का अभी नाश नहीं हुआ है परन्तु नीतिमान अच्छे लोगों के अक्रिय रहने से चलने वाला नहीं है । इन्हें संगठित होकर सामर्थ्य बढाने की आवश्यकता है ।
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परन्तु केवल अच्छाई पर्याप्त नहीं है । यह सत्य है कि ऐसे लोगोंं के प्रभाव से ही दुनिया का अभी नाश नहीं हुआ है परन्तु नीतिमान अच्छे लोगोंं के अक्रिय रहने से चलने वाला नहीं है । इन्हें संगठित होकर सामर्थ्य बढाने की आवश्यकता है ।
    
*विद्यालयों के संचालक और शिक्षक दोनों नीतिमान हों ऐसे विद्यालयों के साथ समाज की सज्जनशक्ति को ज़ुडना चाहिये ।
 
*विद्यालयों के संचालक और शिक्षक दोनों नीतिमान हों ऐसे विद्यालयों के साथ समाज की सज्जनशक्ति को ज़ुडना चाहिये ।
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#ट्यूशन या कोचिंग क्लास में नहीं जाना ।
 
#ट्यूशन या कोचिंग क्लास में नहीं जाना ।
 
#घर से विद्यालय और विद्यालय से घर पैद्ल अथवा बाइसिकल से आनाजाना ।
 
#घर से विद्यालय और विद्यालय से घर पैद्ल अथवा बाइसिकल से आनाजाना ।
#कारखाने में बने कपडे और जूते नहीं पहनना, दर्जी ने और मोची ने बनाये हुए ही पहनना ।
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#कारखाने में बने कपड़े और जूते नहीं पहनना, दर्जी ने और मोची ने बनाये हुए ही पहनना ।
 
#सूती गणवेश पहनना ।
 
#सूती गणवेश पहनना ।
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*इस कार्यक्रम को अपने अपने विद्यालयों में निश्चितता पूर्वक लागू करना चाहिये । कड़ाई से लागू करने से प्रारम्भ होगा परन्तु धीरे धीरे विद्यार्थियों और अभिभावकों को समझाकर सहमत बनाना चाहिये । सबको इन बातों के लिये अपने विद्यालय पर गर्व हो ऐसी स्थिति आनी चाहिये ।
 
*इस कार्यक्रम को अपने अपने विद्यालयों में निश्चितता पूर्वक लागू करना चाहिये । कड़ाई से लागू करने से प्रारम्भ होगा परन्तु धीरे धीरे विद्यार्थियों और अभिभावकों को समझाकर सहमत बनाना चाहिये । सबको इन बातों के लिये अपने विद्यालय पर गर्व हो ऐसी स्थिति आनी चाहिये ।
 
*धीरे धीरे इन विद्यालयों की प्रतिष्ठा समाज में बनने लगे इस बात की और ध्यान देना चाहिये । सज्जनों को चाहिये कि वे इन्हें समाज में प्रतिष्ठा दिलने का काम करे ।
 
*धीरे धीरे इन विद्यालयों की प्रतिष्ठा समाज में बनने लगे इस बात की और ध्यान देना चाहिये । सज्जनों को चाहिये कि वे इन्हें समाज में प्रतिष्ठा दिलने का काम करे ।
*अब इन विद्यालयों का सामर्थ्य केवल संचालकों और शिक्षकों तक सीमित नहीं है । विद्यार्थी और उनके परिवार भी इनके साथ जुडे हैं ।
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*अब इन विद्यालयों का सामर्थ्य केवल संचालकों और शिक्षकों तक सीमित नहीं है । विद्यार्थी और उनके परिवार भी इनके साथ जुड़े हैं ।
 
*अब इन विद्यालयों ने आसपास के विद्यालयों को बदलने का अभियान छेडना होगा । विद्यार्थी विद्यार्थियों को, शिक्षक शिक्षकों को और संचालक संचालकों को परिवर्तित करने का काम करें ।
 
*अब इन विद्यालयों ने आसपास के विद्यालयों को बदलने का अभियान छेडना होगा । विद्यार्थी विद्यार्थियों को, शिक्षक शिक्षकों को और संचालक संचालकों को परिवर्तित करने का काम करें ।
 
*अब धमचिार्यों को भी इस अभियान में जुड़ने हेतु समझाना चाहिये । सन्त, महन्त, आचार्य, कथाकार, सत्संगी सार्वजनिक कार्यक्रमों में नीतिमत्ता के इन दस सूत्रों के पालन का आग्रह करें, अपने अनुयायियों से प्रतिज्ञा करवायें ।
 
*अब धमचिार्यों को भी इस अभियान में जुड़ने हेतु समझाना चाहिये । सन्त, महन्त, आचार्य, कथाकार, सत्संगी सार्वजनिक कार्यक्रमों में नीतिमत्ता के इन दस सूत्रों के पालन का आग्रह करें, अपने अनुयायियों से प्रतिज्ञा करवायें ।
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#विद्यार्थी और अभिभावकों को विद्यालय के विरोधी बनाया जा सकता है ।
 
#विद्यार्थी और अभिभावकों को विद्यालय के विरोधी बनाया जा सकता है ।
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*राजनीति के क्षेत्र के लोगों की ओर से जाँच, आरोप, दण्ड आदि के माध्यम से परेशानी निर्माण की जा सकती है ।
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*राजनीति के क्षेत्र के लोगोंं की ओर से जाँच, आरोप, दण्ड आदि के माध्यम से परेशानी निर्माण की जा सकती है ।
 
*इन अवरोधों से भयभीत हुए बिना यदि विद्यालय डटे रहते हैं तो वे अपने अभियान में यशस्वी हो सकते हैं । लोग भी इन्हें मान्यता देने लगते हैं ।
 
*इन अवरोधों से भयभीत हुए बिना यदि विद्यालय डटे रहते हैं तो वे अपने अभियान में यशस्वी हो सकते हैं । लोग भी इन्हें मान्यता देने लगते हैं ।
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विश्व में धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा है । अमरिका में डॉक्टर, इन्जिनियर, संगणक निष्णात, वैज्ञानिक आदि बडी संख्या में धार्मिक हैं । विश्व में धार्मिक परिवार संकल्पना की प्रतिष्ठा है । भारत की कामगीरी की प्रतिष्ठा है । परन्तु अनीतिमान लोगों के रूप में अप्रतिष्ठा भी है ।
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विश्व में धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा है । अमरिका में डॉक्टर, इन्जिनियर, संगणक निष्णात, वैज्ञानिक आदि बडी संख्या में धार्मिक हैं । विश्व में धार्मिक परिवार संकल्पना की प्रतिष्ठा है । भारत की कामगीरी की प्रतिष्ठा है । परन्तु अनीतिमान लोगोंं के रूप में अप्रतिष्ठा भी है ।
    
===स्वच्छता के विषय में अप्रतिष्ठा===
 
===स्वच्छता के विषय में अप्रतिष्ठा===
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===एक हाथ में लेने लायक अभियान===
 
===एक हाथ में लेने लायक अभियान===
चारों ओर पैकिंग का बोलबाला है । पैन पन्सिल, रबड से लेकर कपडे जूते खाने की वस्तुर्यें पैकिंग में मिलती हैं । आकर्षक पैकिंग के विज्ञापन होते हैं ।
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चारों ओर पैकिंग का बोलबाला है । पैन पन्सिल, रबड से लेकर कपड़े जूते खाने की वस्तुर्यें पैकिंग में मिलती हैं । आकर्षक पैकिंग के विज्ञापन होते हैं ।
    
आकर्षक पैकिंग से लोग आसानी से वस्तु खरीद करते हैं ऐसा व्यापारियों का मत है । एक पुस्तक प्रकाशक का कहना है कि आकर्षक मुखपृष्ठ देखकर पुस्तक या नियतकालिक पढने के लिये उठाने वाले और स्वरूप आकर्षक नहीं है इसलिये उसके प्रति उदासीन रहनेवाले पाठक होते हैं । यह तो खरीदने वाले की या पढनेवाले की बुद्धि पर प्रश्नचिह्न है। आकर्षक पैकिंग और अन्दर की वस्तु की गुणवत्ता का क्या सम्बन्ध है ? मुखपृष्ठ और अन्दर की सामग्री का क्या सम्बन्ध है ?
 
आकर्षक पैकिंग से लोग आसानी से वस्तु खरीद करते हैं ऐसा व्यापारियों का मत है । एक पुस्तक प्रकाशक का कहना है कि आकर्षक मुखपृष्ठ देखकर पुस्तक या नियतकालिक पढने के लिये उठाने वाले और स्वरूप आकर्षक नहीं है इसलिये उसके प्रति उदासीन रहनेवाले पाठक होते हैं । यह तो खरीदने वाले की या पढनेवाले की बुद्धि पर प्रश्नचिह्न है। आकर्षक पैकिंग और अन्दर की वस्तु की गुणवत्ता का क्या सम्बन्ध है ? मुखपृष्ठ और अन्दर की सामग्री का क्या सम्बन्ध है ?
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इस दुर्बल मनःस्थिति का फायदा उठाने वाले धूर्त व्यापारी तो हो सकते हैं परन्तु ग्राहकों और पाठकों की विवेकबुद्धि को जाग्रत करने वाले मार्गदर्शकों की भी आवश्यकता है । जहाँ आवश्यक है वहाँ तो लाख रूपये खर्च करने में संकोच नहीं करना चाहिये परन्तु जहाँ अनावश्यक है वहाँ एक पैसे का भी खर्च नहीं करना चाहिये ऐसी व्यावहारिक बुद्धि का विकास करना चाहिये ।
 
इस दुर्बल मनःस्थिति का फायदा उठाने वाले धूर्त व्यापारी तो हो सकते हैं परन्तु ग्राहकों और पाठकों की विवेकबुद्धि को जाग्रत करने वाले मार्गदर्शकों की भी आवश्यकता है । जहाँ आवश्यक है वहाँ तो लाख रूपये खर्च करने में संकोच नहीं करना चाहिये परन्तु जहाँ अनावश्यक है वहाँ एक पैसे का भी खर्च नहीं करना चाहिये ऐसी व्यावहारिक बुद्धि का विकास करना चाहिये ।
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विज्ञापन अत्यन्त विनाशक उद्योग है। पैकिंग आकर्षक डाकिनी है। इसके भुलावे में पडने वाले लोग विवेक भूले हुए हैं । इन्हें विवेक  सिखाने वाले लोगों को आगे आने की आवश्यकता है । नई पीढ़ी के छात्रों को यह काम करने की आवश्यकता है ।
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विज्ञापन अत्यन्त विनाशक उद्योग है। पैकिंग आकर्षक डाकिनी है। इसके भुलावे में पडने वाले लोग विवेक भूले हुए हैं । इन्हें विवेक  सिखाने वाले लोगोंं को आगे आने की आवश्यकता है । नई पीढ़ी के छात्रों को यह काम करने की आवश्यकता है ।
    
==विद्यालय एवं परिवार==
 
==विद्यालय एवं परिवार==
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प्र.२ आचार्य एवं परिवार के संबंधों बाबत भावात्मक संबंध, परिवार के मार्गदर्शक के रूप में, शुभचिंतक, परिवार का विद्यालय अभिन्न अंग इस प्रकार के मत प्रदर्शित हुए ।
 
प्र.२ आचार्य एवं परिवार के संबंधों बाबत भावात्मक संबंध, परिवार के मार्गदर्शक के रूप में, शुभचिंतक, परिवार का विद्यालय अभिन्न अंग इस प्रकार के मत प्रदर्शित हुए ।
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प्र.३ मातपिता ने अपने बालक का विकास जानना, तथा विद्यार्थियों की समस्याओं का हल निकाले हेतु विद्यालय को भेट देना चाहिये यह लगभग सबका उत्तर था।
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प्र.३ मातपिता ने अपने बालक का विकास जानना, तथा विद्यार्थियों की समस्याओं का हल निकाले हेतु विद्यालय को भेंट देना चाहिये यह लगभग सबका उत्तर था।
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प्र.६ विद्यालय संचालन मे आर्थिक सहयोग देना, कार्यक्रमों मे सहयोग देना, स्वयं का कलाकौशल विद्यालय के काम में लगाना, समाज में विद्यालय के प्रति अच्छा दृष्टिकोण विकसित करना इस प्रकार की मदद हो सकती है।  
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प्र.६ विद्यालय संचालन मे आर्थिक सहयोग देना, कार्यक्रमों मे सहयोग देना, स्वयं का कलाकौशल विद्यालय के काम में लगाना, समाज में विद्यालय के प्रति अच्छा दृष्टिकोण विकसित करना इस प्रकार की सहायता हो सकती है।  
    
प्र. ४, ८ और ९ परस्परावलंबी प्रश्न थे उनका तथ्य इस प्रकार था । अपने बालक की शैक्षिक प्रगति अनुशासन, चारित्र्य, व्यवहार में परिवर्तन इस बातों में विद्यालय परिवार का मार्गदर्शक बने। उसके लिए अभिभावक संमेलन, बैठकें, ई-मेल, दूरध्वनि द्वारा संपर्क करना तथा चिन्तन बैठक का आयोजन करना ।
 
प्र. ४, ८ और ९ परस्परावलंबी प्रश्न थे उनका तथ्य इस प्रकार था । अपने बालक की शैक्षिक प्रगति अनुशासन, चारित्र्य, व्यवहार में परिवर्तन इस बातों में विद्यालय परिवार का मार्गदर्शक बने। उसके लिए अभिभावक संमेलन, बैठकें, ई-मेल, दूरध्वनि द्वारा संपर्क करना तथा चिन्तन बैठक का आयोजन करना ।
    
===अभिमत===
 
===अभिमत===
आज विद्यालय एवं परिवार में जैसे संबंध होते हैं उसी के आधार पर जवाब मिले । छात्र का विकास विद्यालय एवं घर दोनों मे होता है। दोनों की भूमिका जब कि भिन्न हैं। घर संस्कार केन्द्र और विद्यालय बालक का ज्ञानकेन्द्र होता है। ऐसी भूमिका जब दोनों के मन में होती है तब छात्र का समग्र विकास सहजता से होता है यह धार्मिक सोच है । इसलिए विद्यालय और परिवार के संबंध घनिष्ठ एवं आत्मीय होने चाहिये । बिना कहे परिवार ने विद्यालय की आवश्यकताएं जानना एवं उनकी पूर्तता करना । और विद्यालय ने परिवार को योग्य मार्गदर्शन करना । शिक्षक परिवार के एवं बालक के गुरु हैं और परिवार, समाज अपना अन्नदाता है यह भावना होनी चाहिये । फिर आपस मे विश्वास और सामंजस्य निर्माण होगा, सहयोग वृत्ति निर्माण होगी । अभिभावकों ने केवल बालक का शैक्षिक विकास देखने हेतु विद्यालय को भेंट देना अधूरा होगा, उसके साथ बालक की मानसिकता, चरित्र के संबंध में चर्चा विमर्श करना होगा । अभिभावक अपनी गायनवादन कला, लेखनकला का बिनामूल्य सहयोग करे, अपना पद, अधिकार व्यवसाय से विद्यालय संचालन में सहयोगी बने । कभी शिक्षकों की अनुपस्थिति में योग्य अभिभावक कक्षा भी ले सकते हैं । अपने सुलेख का उपयोग विद्यालय के कार्यालयीन कामों में अथवा छात्रों को व्यक्तिगत रूप से सेवा के रूप में सहायता कर सकते हैं । विद्यालय ने भी गणवेश सिलाना होता हैं । सिलाई के लिए अपने दर्जी अभिभावक, फर्निचर के लिये सुथार, भवन निर्माण के लिये बिल्डर अभिभावकों का उपयोग कर उन्हें रोजगार देना चाहिये । बाहर की एजन्सी को दूर रखे तब आत्मीयता एवं मित्रता प्रस्थापित होगी ।
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आज विद्यालय एवं परिवार में जैसे संबंध होते हैं उसी के आधार पर जवाब मिले । छात्र का विकास विद्यालय एवं घर दोनों मे होता है। दोनों की भूमिका जब कि भिन्न हैं। घर संस्कार केन्द्र और विद्यालय बालक का ज्ञानकेन्द्र होता है। ऐसी भूमिका जब दोनों के मन में होती है तब छात्र का समग्र विकास सहजता से होता है यह धार्मिक सोच है । अतः विद्यालय और परिवार के संबंध घनिष्ठ एवं आत्मीय होने चाहिये । बिना कहे परिवार ने विद्यालय की आवश्यकताएं जानना एवं उनकी पूर्तता करना । और विद्यालय ने परिवार को योग्य मार्गदर्शन करना । शिक्षक परिवार के एवं बालक के गुरु हैं और परिवार, समाज अपना अन्नदाता है यह भावना होनी चाहिये । फिर आपस मे विश्वास और सामंजस्य निर्माण होगा, सहयोग वृत्ति निर्माण होगी । अभिभावकों ने केवल बालक का शैक्षिक विकास देखने हेतु विद्यालय को भेंट देना अधूरा होगा, उसके साथ बालक की मानसिकता, चरित्र के संबंध में चर्चा विमर्श करना होगा । अभिभावक अपनी गायनवादन कला, लेखनकला का बिनामूल्य सहयोग करे, अपना पद, अधिकार व्यवसाय से विद्यालय संचालन में सहयोगी बने । कभी शिक्षकों की अनुपस्थिति में योग्य अभिभावक कक्षा भी ले सकते हैं । अपने सुलेख का उपयोग विद्यालय के कार्यालयीन कामों में अथवा छात्रों को व्यक्तिगत रूप से सेवा के रूप में सहायता कर सकते हैं । विद्यालय ने भी गणवेश सिलाना होता हैं । सिलाई के लिए अपने दर्जी अभिभावक, फर्निचर के लिये सुथार, भवन निर्माण के लिये बिल्डर अभिभावकों का उपयोग कर उन्हें रोजगार देना चाहिये । बाहर की एजन्सी को दूर रखे तब आत्मीयता एवं मित्रता प्रस्थापित होगी ।
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शिक्षक अभिभावक आपस में आशंका से नहीं अपितु परस्पर पूरक एवं विश्वासु मित्र बनेंगे तो छात्रो का भी हित होगा । आज अभिभावक विद्यालय की कहाँ कमी दिखाई देती है इस तरफ नजर रखते हैं और विद्यालय उन्हें एक आर्थिक स्रोत के रूप में उनका शोषण करते हुए दिखाई देते है । विद्यालय का चयन करते समय आज अभिभावक जहाँ अच्छे संस्कार मिलते है, जहाँ सब प्रकार के उत्सव त्योहार मनाये जाते हैं, जहाँ बहुत सुखसुविधायें बालक को प्राप्त होती हैं वहाँ एडमिशन दिलवाना ऐसा विचार करते हैं । विद्यालय भी अभिभावकों ने बच्चों की पढ़ाई में ध्यान देना, घरों में उत्सव पर्व नहीं मनाये जाते इसलिये संस्कार होने हेतु विद्यालय में करना ऐसा विचार रखते हैं,  बिल्कुल इससे उल्टा विद्यालय ने शिक्षा की ओर घरों ने संस्कारों की जिम्मेदारी लेकर करना चाहिये । यह धार्मिक विचार है।  
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शिक्षक अभिभावक आपस में आशंका से नहीं अपितु परस्पर पूरक एवं विश्वासु मित्र बनेंगे तो छात्रो का भी हित होगा । आज अभिभावक विद्यालय की कहाँ कमी दिखाई देती है इस तरफ नजर रखते हैं और विद्यालय उन्हें एक आर्थिक स्रोत के रूप में उनका शोषण करते हुए दिखाई देते है । विद्यालय का चयन करते समय आज अभिभावक जहाँ अच्छे संस्कार मिलते है, जहाँ सब प्रकार के उत्सव त्योहार मनाये जाते हैं, जहाँ बहुत सुखसुविधायें बालक को प्राप्त होती हैं वहाँ एडमिशन दिलवाना ऐसा विचार करते हैं । विद्यालय भी अभिभावकों ने बच्चोंं की पढ़ाई में ध्यान देना, घरों में उत्सव पर्व नहीं मनाये जाते इसलिये संस्कार होने हेतु विद्यालय में करना ऐसा विचार रखते हैं,  बिल्कुल इससे उल्टा विद्यालय ने शिक्षा की ओर घरों ने संस्कारों की जिम्मेदारी लेकर करना चाहिये । यह धार्मिक विचार है।  
    
"जेनुं काम तेने थाय बीजा करे तो गोथा खाय' (जिसका काम है वही करेगा, अन्य करता है तो गोते लगाता है) ऐसी कहावत है। विद्यालय और परिवार दोनों ने परस्पर आशंका और स्वार्थ छोडकर आपस में विश्वास और घनिष्ठता प्रस्थापित करने से परिवार सुदृढ़ बनेंगे विद्यालय बड़ा होगा, शिक्षा का दर्जा बढ़ेगा ।
 
"जेनुं काम तेने थाय बीजा करे तो गोथा खाय' (जिसका काम है वही करेगा, अन्य करता है तो गोते लगाता है) ऐसी कहावत है। विद्यालय और परिवार दोनों ने परस्पर आशंका और स्वार्थ छोडकर आपस में विश्वास और घनिष्ठता प्रस्थापित करने से परिवार सुदृढ़ बनेंगे विद्यालय बड़ा होगा, शिक्षा का दर्जा बढ़ेगा ।
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शिक्षा सर्वत्र चलती है तब भी वह तीन स्थानों में केन्द्रित हुई है। ये तीन केन्द्र हैं विद्यालय, परिवार और मन्दिर । विद्यालय में शिक्षक, घर में अभिभावक और मन्दिर में धर्माचार्य इस शिक्षा की योजना और व्यवस्था करने वाले होते हैं ।
 
शिक्षा सर्वत्र चलती है तब भी वह तीन स्थानों में केन्द्रित हुई है। ये तीन केन्द्र हैं विद्यालय, परिवार और मन्दिर । विद्यालय में शिक्षक, घर में अभिभावक और मन्दिर में धर्माचार्य इस शिक्षा की योजना और व्यवस्था करने वाले होते हैं ।
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आज शिक्षा का विचार केवल विद्यालयों के सन्दर्भ में ही होता है, जबकि विद्यालय से भी प्रभावी और अधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है घर । घर में व्यक्ति जन्म पूर्व से ही रहना शुरू करता है और आजीवन रहता है । जीवनशिक्षा की ६० से ७० प्रतिशत शिक्षा घर में ही होती है । घर इतना प्रभावी स्थान है । परन्तु आज घर उपेक्षित हो गया है । घर का सांस्कृतिक और शैक्षिक दोनों प्रकार का महत्त्व कम हो गया है ।
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आज शिक्षा का विचार केवल विद्यालयों के सन्दर्भ में ही होता है, जबकि विद्यालय से भी प्रभावी और अधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है घर । घर में व्यक्ति जन्म पूर्व से ही रहना आरम्भ करता है और आजीवन रहता है । जीवनशिक्षा की ६० से ७० प्रतिशत शिक्षा घर में ही होती है । घर इतना प्रभावी स्थान है । परन्तु आज घर उपेक्षित हो गया है । घर का सांस्कृतिक और शैक्षिक दोनों प्रकार का महत्त्व कम हो गया है ।
    
यह बहुत बडी हानि है। इसे शीघ्र ही भर देना चाहिये । वर्तमान समय में जितनी दुर्गति घर की हुई है उतनी ही मन्दिर की भी हुई है । मन्दिर तो और भी विवाद में फँस गया है। इस कारण से अब घर को पुनः शिक्षा केन्द्र बनाने का दायित्व भी विद्यालय पर आता है ।
 
यह बहुत बडी हानि है। इसे शीघ्र ही भर देना चाहिये । वर्तमान समय में जितनी दुर्गति घर की हुई है उतनी ही मन्दिर की भी हुई है । मन्दिर तो और भी विवाद में फँस गया है। इस कारण से अब घर को पुनः शिक्षा केन्द्र बनाने का दायित्व भी विद्यालय पर आता है ।
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====गर्भावस्‍था के संस्कार :====
 
====गर्भावस्‍था के संस्कार :====
बालक का इस जन्म का जीवन गर्भाधान से शुरू होता है । इसमें निमित्त उसके मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार प्राप्त होते हैं। इससे वंशपरम्परा अर्थात्‌ कुल परम्परा बनती है। वंश-परम्परा बनाये रखने की, उसे समृद्ध करने की शिक्षा का केन्द्र घर ही है । विद्यालय उसमें सहयोग और मार्गदर्शन करता है परन्तु मुख्य कार्य तो घर ही करता है । इस दृष्टि से घर को बालक का प्रथम विद्यालय कहा गया है । घर में माता प्रथम शिक्षक होती है, पिता द्वितीय और बाद में शेष सारे व्यक्ति शिक्षक की भूमिका में होते हैं । दादा, दादी, बडे भाईबहन, पिता के भाई, अर्थात्‌ चाचाचाची, घर में समय समय पर आनेवाले सगे सम्बन्धी, अतिथि अभ्यागत बालक को सिखाने का काम करते हैं । यह विधिवत्‌ दीक्षा देकर दी हुई शिक्षा नहीं है। यह अनौपचारिक शिक्षा है जो सहज रूप से निरन्तर चलती रहती है । अपने आसपास बालक हैं, उनपर हमारी वाणी, विचार और व्यवहार का प्रभाव पड़ेगा और वह उन बातों को सीखेगा ऐसी सजगता रही तो शिक्षा सजगता पूर्वक होती है अन्यथा बालक तो अपनी सजगता न रही तो भी सीख ही लेते हैं ।
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बालक का इस जन्म का जीवन गर्भाधान से आरम्भ होता है । इसमें निमित्त उसके मातापिता होते हैं । मातापिता के माध्यम से उसे पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार प्राप्त होते हैं। इससे वंशपरम्परा अर्थात्‌ कुल परम्परा बनती है। वंश-परम्परा बनाये रखने की, उसे समृद्ध करने की शिक्षा का केन्द्र घर ही है । विद्यालय उसमें सहयोग और मार्गदर्शन करता है परन्तु मुख्य कार्य तो घर ही करता है । इस दृष्टि से घर को बालक का प्रथम विद्यालय कहा गया है । घर में माता प्रथम शिक्षक होती है, पिता द्वितीय और बाद में शेष सारे व्यक्ति शिक्षक की भूमिका में होते हैं । दादा, दादी, बडे भाईबहन, पिता के भाई, अर्थात्‌ चाचाचाची, घर में समय समय पर आनेवाले सगे सम्बन्धी, अतिथि अभ्यागत बालक को सिखाने का काम करते हैं । यह विधिवत्‌ दीक्षा देकर दी हुई शिक्षा नहीं है। यह अनौपचारिक शिक्षा है जो सहज रूप से निरन्तर चलती रहती है । अपने आसपास बालक हैं, उनपर हमारी वाणी, विचार और व्यवहार का प्रभाव पड़ेगा और वह उन बातों को सीखेगा ऐसी सजगता रही तो शिक्षा सजगता पूर्वक होती है अन्यथा बालक तो अपनी सजगता न रही तो भी सीख ही लेते हैं ।
    
परिवारजनों से सीखने की कालावधि बालक बड़ा होकर अपने बालक को जन्म देता है तब तक की माननी चाहिये । यह पूरी पीढी की शिक्षा है । इसके मुख्य अंग इस प्रकार हैं
 
परिवारजनों से सीखने की कालावधि बालक बड़ा होकर अपने बालक को जन्म देता है तब तक की माननी चाहिये । यह पूरी पीढी की शिक्षा है । इसके मुख्य अंग इस प्रकार हैं
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बाल और किशोर अवस्था में चरित्र के अनेक पहलुओं को सुदृढ़ बनाना, शरीर और मन को साधना, बुद्धि की सक्रियता का प्रास्भ करना, घरगृहस्थी चलाने हेतु आवश्यक सारे काम सीखना, परिवार का अंग बनने हेतु नियमन और अनुशासन में रहना । शिशु अवस्था में माता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं। बाल तथा किशोर अवस्था में पिता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं ।
 
बाल और किशोर अवस्था में चरित्र के अनेक पहलुओं को सुदृढ़ बनाना, शरीर और मन को साधना, बुद्धि की सक्रियता का प्रास्भ करना, घरगृहस्थी चलाने हेतु आवश्यक सारे काम सीखना, परिवार का अंग बनने हेतु नियमन और अनुशासन में रहना । शिशु अवस्था में माता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं। बाल तथा किशोर अवस्था में पिता की भूमिका प्रमुख होती है और शेष सभी सहयोगी होते हैं ।
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तरुण और युवावस्था में स्वतन्त्र होने की, दायित्वबोध की और समाज के साथ समायोजित होने की शिक्षा मुख्य विषय है। इस दृष्टि से निरीक्षण, चिन्तन, विचारविमर्श, मातापिता से मार्गदर्शन और परामर्श अत्यन्त उपयोगी होते हैं। इस आयु में पुरुषत्व और स्त्रीत्व का विकास, अथर्जिन तथा गृहसंचालन की योग्यता और मातापिता के दायित्वों में सर्वप्रकार का सहभाग शिक्षा के प्रमुख अंग हैं ।
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तरुण और युवावस्था में स्वतन्त्र होने की, दायित्वबोध की और समाज के साथ समायोजित होने की शिक्षा मुख्य विषय है। इस दृष्टि से निरीक्षण, चिन्तन, विचारविमर्श, मातापिता से मार्गदर्शन और परामर्श अत्यन्त उपयोगी होते हैं। इस आयु में पुरुषत्व और स्त्रीत्व का विकास, अर्थार्जन तथा गृहसंचालन की योग्यता और मातापिता के दायित्वों में सर्वप्रकार का सहभाग शिक्षा के प्रमुख अंग हैं ।
    
युवक विवाह करके गृहस्थ बनता है और घर का दायित्व लेता है । अब पत्नी के साथ उसे मातापिता बनने की सिद्धता करनी है । उसे अपने मातापिता से जो मिला है उसे नई पीढ़ी तक पहुँचाने हेतु समर्थ बनना है । यह शिक्षा भी उसे मातापिता से ही प्राप्त होती है । वे पतिपत्नी बालक को जन्म देते हैं और उनकी परिवार में होनेवाली औपचारिक शिक्षा पूर्णता को प्राप्त होती है ।
 
युवक विवाह करके गृहस्थ बनता है और घर का दायित्व लेता है । अब पत्नी के साथ उसे मातापिता बनने की सिद्धता करनी है । उसे अपने मातापिता से जो मिला है उसे नई पीढ़ी तक पहुँचाने हेतु समर्थ बनना है । यह शिक्षा भी उसे मातापिता से ही प्राप्त होती है । वे पतिपत्नी बालक को जन्म देते हैं और उनकी परिवार में होनेवाली औपचारिक शिक्षा पूर्णता को प्राप्त होती है ।
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===बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर हो===
 
===बालक की विद्यालयीन शिक्षा का प्रारम्भ उचित समय पर हो===
समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है, इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं । यह कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती । उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के शिक्षाशासत्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण होने के बाद ही शुरू होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते हैं । परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी, शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है । शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते । “शिशुशिक्षा' नामक यह वस्तु महँगी भी बहुत है । शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में, आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस विषय को ठीक करने हेतु एक बड़ा समाजव्यापी आन्दोलन करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात्‌ माता- पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है ।
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समाज में आम धारणा बन गई है कि शिक्षा विद्यालय में ही होती है । व्यक्ति के जीवन में शिक्षा अनिवार्य है, इसलिये उसका विद्यालय जाना भी अनिवार्य है । मातापिता को शिक्षा की इतनी जल्दी हो जाती है कि वे ढाई वर्ष की आयु में ही बालक को विद्यालय में भेज देते हैं । यह कवल बालक के साथ ही नहीं तो शिक्षा के साथ और समाज के साथ भी अन्याय है । जल्दी करने से अधिक शिक्षा नहीं होती, जल्दी करने से अच्छी शिक्षा नहीं होती । उल्टे अनेक प्रकार से हानि होती है। दुनियाभर के शिक्षाशास्त्री बालक की शिक्षा कम से कम पाँच वर्ष पूर्ण होने के बाद ही आरम्भ होनी चाहिये यह आग्रहपूर्वक कहते हैं । परन्तु देशमें पूर्व प्राथमिक, नर्सरी, के.जी., बालवाडी, शिशुविहार, शिशुवाटिका आदि नामों से यह शिक्षा जोरशोर से चलती है । अनेक स्थानों पर तो यह एक उद्योग बन गया है और कम्पनियाँ बनी हैं । बाजार के लोभ से और मातापिता के आअज्ञान से यह शिक्षा चलती है । शिक्षाशास्त्र, मनोविज्ञान, व्यवहारशास्त्र इस बात का समर्थन नहीं करते तो भी यह चलता है । कई विद्यालय तो अपने पूर्वप्राथमिक विभाग में यदि प्रवेश नहीं लिया तो आगे की शिक्षा के लिये प्रवेश ही नहीं देते । “शिशुशिक्षा' नामक यह वस्तु महँगी भी बहुत है । शिशु शिक्षा होनी चाहिये घर में, आग्रह रखा जाता है विद्यालय में होने का । इसका एक कारण घर अब शिक्षा के केन्द्र नहीं रहे यह भी है । इस विषय को ठीक करने हेतु एक बड़ा समाजव्यापी आन्दोलन करने की आवश्यकता है । परिवार प्रबोधन अर्थात्‌ माता- पिता की शिक्षा इस आन्दोलन का महत्त्वपूर्ण अंग है ।
    
===प्राथमिक शिक्षा क्रिया और अनुभव प्रधान हो===
 
===प्राथमिक शिक्षा क्रिया और अनुभव प्रधान हो===
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अपने बालकों ने बहुत पढ़ना चाहिये ऐसी महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर मातापिता अपने बालकों को बहुत छोटी आयु में ही ट्यूशन के लिये भेजते हैं या अपने घर में शिक्षक को बुलाते हैं । कहीं कहीं तो तीन वर्ष के बालक के लिये भी स्यूशन होता है । कहीं कहीं बालक से पिण्ड छुड़ाने के लिये भी उसे ट्यूशन में भेजा जाता है । कहीं कहीं गृहकार्य पूरा करवाने के लिये ट्यूशन में भेजा जाता है। यह तो बालक के साथ अन्याय है, उस पर अत्याचार है ।
 
अपने बालकों ने बहुत पढ़ना चाहिये ऐसी महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर मातापिता अपने बालकों को बहुत छोटी आयु में ही ट्यूशन के लिये भेजते हैं या अपने घर में शिक्षक को बुलाते हैं । कहीं कहीं तो तीन वर्ष के बालक के लिये भी स्यूशन होता है । कहीं कहीं बालक से पिण्ड छुड़ाने के लिये भी उसे ट्यूशन में भेजा जाता है । कहीं कहीं गृहकार्य पूरा करवाने के लिये ट्यूशन में भेजा जाता है। यह तो बालक के साथ अन्याय है, उस पर अत्याचार है ।
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बालक थोडे बडे होते ही कोचिंग क्लास नामक प्रकरण शुरू हो जाता है । विभिन्न विषयों का कोचिंग होता है । दसवीं, बारहवीं, महाविद्यालयीन आदि सर्व स्तरों पर कोचिंग की महिमा बढ गई है । विद्यालयों से भी इनकी प्रतिष्ठा बढ गई है । इसके रूप में हम शिक्षाक्षेत्र को दूषित कर रहे हैं इसका भान शिक्षकों, अभिभावकों और कोचिंग देने वालों को नहीं है। इनके रूप में विषयों की परीक्षालक्षी शिक्षा होती है, विद्यार्थियों की शिक्षा नहीं होती यह मुद्दा विस्मृत हो गया है । शिक्षा का अग्रताक्रम ही बदल गया है । इस विषय पर अभिभावक प्रबोधन करने की आवश्यकता है ।
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बालक थोडे बडे होते ही कोचिंग क्लास नामक प्रकरण आरम्भ हो जाता है । विभिन्न विषयों का कोचिंग होता है । दसवीं, बारहवीं, महाविद्यालयीन आदि सर्व स्तरों पर कोचिंग की महिमा बढ गई है । विद्यालयों से भी इनकी प्रतिष्ठा बढ गई है । इसके रूप में हम शिक्षाक्षेत्र को दूषित कर रहे हैं इसका भान शिक्षकों, अभिभावकों और कोचिंग देने वालों को नहीं है। इनके रूप में विषयों की परीक्षालक्षी शिक्षा होती है, विद्यार्थियों की शिक्षा नहीं होती यह मुद्दा विस्मृत हो गया है । शिक्षा का अग्रताक्रम ही बदल गया है । इस विषय पर अभिभावक प्रबोधन करने की आवश्यकता है ।
    
अपने बालक का सर्वांगीण विकास हो इसका भूत अभिभावकों के मस्तिष्क पर सवार हो गया है । इस के चलते वे अपने बालकों को संगीत भी सिखाना चाहते हैं और नृत्य भी, चित्र भी सिखाना चाहते हैं और कारीगरी भी, वैदिक गणित भी सिखाना चाहते हैं और संस्कृत भी । गर्मी की छुट्टियों में भी योग, तैराकी, फैशन डिजाइनिंग, पर्वतारोहण आदि इतनी अधिक गतिविधियाँ होती हैं कि बालक को एक भी ठीक से नहीं आती । यह तो मानसिक ही नहीं बौद्धिक अस्थिरता भी पैदा करती है । विद्यार्थी की रुचि ही नहीं बन पाती है । एक भी विषय में गहरी पैठ नहीं होती । और सबसे बड़ा नुकसान यह है कि विद्यार्थी घर के साथ जुड़ता नहीं है । घर की दुनिया में उसका प्रवेश ही नहीं होता, सहभागिता की बात तो दूर की है । जो सीखना चाहिये वह नहीं सीखा जाता और व्यर्थ की भागदौड चलती रहती है ।
 
अपने बालक का सर्वांगीण विकास हो इसका भूत अभिभावकों के मस्तिष्क पर सवार हो गया है । इस के चलते वे अपने बालकों को संगीत भी सिखाना चाहते हैं और नृत्य भी, चित्र भी सिखाना चाहते हैं और कारीगरी भी, वैदिक गणित भी सिखाना चाहते हैं और संस्कृत भी । गर्मी की छुट्टियों में भी योग, तैराकी, फैशन डिजाइनिंग, पर्वतारोहण आदि इतनी अधिक गतिविधियाँ होती हैं कि बालक को एक भी ठीक से नहीं आती । यह तो मानसिक ही नहीं बौद्धिक अस्थिरता भी पैदा करती है । विद्यार्थी की रुचि ही नहीं बन पाती है । एक भी विषय में गहरी पैठ नहीं होती । और सबसे बड़ा नुकसान यह है कि विद्यार्थी घर के साथ जुड़ता नहीं है । घर की दुनिया में उसका प्रवेश ही नहीं होता, सहभागिता की बात तो दूर की है । जो सीखना चाहिये वह नहीं सीखा जाता और व्यर्थ की भागदौड चलती रहती है ।
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===अंग्रेजी माध्यम का मोह===
 
===अंग्रेजी माध्यम का मोह===
अभिभावकों को अंग्रेजी का इतना अधिक आकर्षण होता है कि वे अपने बालकों को मातृभाषा सिखाने से पहले ही अंग्रेजी सिखाना प्रारम्भ करते हैं । बालक को भविष्य में विदेश भेजना है इसलिये अंग्रेजी अनिवार्य है यह तर्क देकर वे दो वर्ष की आयु से अंग्रेजी सिखाना शुरु कर देते हैं और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजते हैं । इससे न मातृभाषा आती है न वे अपनी संस्कृति से जुडते हैं । अंग्रेजी माध्यम में पढने से विचार करने की, चिन्तन की, विषय को ग्रहण करने की, अभिव्यक्ति की, मौलिकता की बौद्धिक शक्तियों का विकास नहीं होता इस बडे भारी नुकसान की ओर ध्यान ही नहीं जाता है । व्यक्तिगत रूप से या सामाजिक रूप से मौलिक और स्वतन्त्र चिन्तन का ह्रास अंग्रेजी के लिये चुकानी पड़ने वाली भारी कीमत है । परिवार प्रबोधन के बिना इसका परिहार होने वाला नहीं है ।
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अभिभावकों को अंग्रेजी का इतना अधिक आकर्षण होता है कि वे अपने बालकों को मातृभाषा सिखाने से पहले ही अंग्रेजी सिखाना प्रारम्भ करते हैं । बालक को भविष्य में विदेश भेजना है इसलिये अंग्रेजी अनिवार्य है यह तर्क देकर वे दो वर्ष की आयु से अंग्रेजी सिखाना आरम्भ कर देते हैं और अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में भेजते हैं । इससे न मातृभाषा आती है न वे अपनी संस्कृति से जुडते हैं । अंग्रेजी माध्यम में पढने से विचार करने की, चिन्तन की, विषय को ग्रहण करने की, अभिव्यक्ति की, मौलिकता की बौद्धिक शक्तियों का विकास नहीं होता इस बडे भारी नुकसान की ओर ध्यान ही नहीं जाता है । व्यक्तिगत रूप से या सामाजिक रूप से मौलिक और स्वतन्त्र चिन्तन का ह्रास अंग्रेजी के लिये चुकानी पड़ने वाली भारी कीमत है । परिवार प्रबोधन के बिना इसका परिहार होने वाला नहीं है ।
    
===सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा===
 
===सांस्कृतिक विषयों की उपेक्षा===
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यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं । सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है । बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को प्रभावित करते हैं ।
 
यहाँ जिन विषयों का उल्लेख हुआ हैं उनको ठीक करना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है क्योंकि ये देशव्यापी हैं, अत्यन्त प्रभावी रूप से पकड जमाये हुए हैं । सम्पूर्ण समाज कहीं न कहीं अभिभावक के रूप में ही व्यवहार करता है । सरकार भी इसका ही एक अंग है । बाजार ने इस पर पकड जमाई है । विज्ञापन मानस को प्रभावित करते हैं ।
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परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना ही क्यों, पशु तो फिर भी प्राकृतिक जीवन जीते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा क माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये पर्यायवाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को परिवार प्रबोधन ही कहेंगे ।
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परन्तु विषय गम्भीर है। जीवन की सर्वप्रकार की गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है । मनुष्यजीवन और पशुजीवन में जो अन्तर होता है वही समाप्त होता जा रहा है । इतना ही क्यों, पशु तो तथापि प्राकृतिक जीवन जीते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से बच जाते हैं । मनुष्य सुसंस्कृत जीवन व्यतीत करे ऐसी उससे अपेक्षा होती है परन्तु संस्कृति के शिखर से च्युत होने पर वह प्राकृत नहीं होता, विकृति के गर्त में गिरता है । मनुष्य जीवन को अपने ही द्वारा निर्मित समस्याओं के परिणाम स्वरूप विकृत हो जाने की स्थिति आज निर्माण हुई है । शिक्षा को लेकर अभिभावक प्रबोधन का प्रयोजन शिक्षा को और शिक्षा क माध्यम से मनुष्यजीवन को विकृति से बचाना है, विकृति के गर्त से बाहर लाना है। परिवार अभिभावक के लिये पर्यायवाची संज्ञा है अतः हम अभिभावक प्रबोधन को परिवार प्रबोधन ही कहेंगे ।
    
परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे की योजना बनेगी। पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...
 
परिवार प्रबोधन की योजना का पहला अंग है परिवार प्रबोधन का पाठ्यक्रम तैयार करना जिसके आधार पर आगे की योजना बनेगी। पाठ्यक्रम के विषय कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...
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# परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार व्यवस्था
 
# परिवार की रचना, परिवार भावना एवं परिवार व्यवस्था
 
# परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा
 
# परिवार में शिक्षा और परिवार की शिक्षा
# वसुधैव कुट्म्बकम्‌
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# वसुधैव कुटुम्बकम्‌
 
# धार्मिक परिवार की विशेषता
 
# धार्मिक परिवार की विशेषता
 
# परिवार की धार्मिक और पश्चिमी संकल्पना की तुलना
 
# परिवार की धार्मिक और पश्चिमी संकल्पना की तुलना
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# आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि बातों का समावेश होगा।
 
# आहारशास्त्र जिसमें भोजन बनाना, करना और करवाना, भोजनसामग्री की शुद्धता की परख आदि बातों का समावेश होगा।
# शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चों की, वृद्धों की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या और शुश्रूषा का समावेश होगा ।
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# शुश्रूषा और परिचर्या करना जिसमें बच्चोंं की, वृद्धों की अतिथि की, बडों की और रुण्णों की परिचर्या और शुश्रूषा का समावेश होगा ।
# गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपडे, बर्तन, फर्नीचर, धान्य आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा ।
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# गृहोपयोगी कार्य जिसमें कपड़े, बर्तन, फर्नीचर, धान्य आदि अनेक बातों की सफाई का समावेश होगा ।
 
# इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, व्रतों, उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि करना, व्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश होगा ।
 
# इन्हीं के साथ पूजा, अतिथिसत्कार, व्रतों, उत्सवों, त्योहारों आदि को मनाना, दान-यज्ञ आदि करना, व्रत-उपवास आदि करना इन सब का समावेश होगा ।
# अथर्जिन की क्षमता का विकास
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# अर्थार्जन की क्षमता का विकास
 
# अधिजननशास्त्र
 
# अधिजननशास्त्र
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# शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना ।
 
# शिक्षा के सर्व स्तरों पर सामान्य पाठ्यक्रम के अन्तर्गत इन विषयों का समावेश करना ।
 
# विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो सकता है ।
 
# विद्यालय में जिस प्रकार प्राथमिक, माध्यमिक आदि विभाग होते हैं उस प्रकार परिवार शिक्षा विभाग हो सकता है ।
# इन विषयों को सिखाने के लिये शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी शुरू करनी होगी ।
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# इन विषयों को सिखाने के लिये शिक्षक तैयार करने हेतु शिक्षक शिक्षा भी आरम्भ करनी होगी ।
# विश्वविद्यालयों में गृहशास्तर, अधिजननशास्त्र जैसे विषय शुरू किये जा सकते हैं ।
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# विश्वविद्यालयों में गृहशास्त्र, अधिजननशास्त्र जैसे विषय आरम्भ किये जा सकते हैं ।
 
# विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला आदि की योजना हो सकती है ।
 
# विभिन्न सामाजिक सांस्कृतिक संस्था एवं संगठनों में छोटे छोटे पाठ्यक्रम, व्याख्यानमाला, कार्यशाला आदि की योजना हो सकती है ।
 
# सभाओं, सम्मेलनों, मेलों आदि में पुस्तक तथा अन्य सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है ।
 
# सभाओं, सम्मेलनों, मेलों आदि में पुस्तक तथा अन्य सामग्री के वितरण की योजना बन सकती है ।
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समाजशास्त्र कहते हैं । यह व्यवस्था मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग बन जाता है तब वह स्वाभाविक होता है । इसे ही सामाजिकता कहते हैं। हर व्यक्ति में इस सामाजिकता का विकास होना चाहिये ।
 
समाजशास्त्र कहते हैं । यह व्यवस्था मनुष्य के व्यक्तित्व का अंग बन जाता है तब वह स्वाभाविक होता है । इसे ही सामाजिकता कहते हैं। हर व्यक्ति में इस सामाजिकता का विकास होना चाहिये ।
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परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है । मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ आत्मिक स्तर पर जुडे हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के
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परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है । मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ आत्मिक स्तर पर जुड़े हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के
 
कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं, ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं, उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है।
 
कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं, ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं, उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है।
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==== देना और बाँट कर उपभोग करना ====
 
==== देना और बाँट कर उपभोग करना ====
शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, कहानी आदि का चयन होना चाहिये । बच्चे घर से अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन शुरू करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा
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शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, कहानी आदि का चयन होना चाहिये । बच्चे घर से अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन आरम्भ करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा
हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगों को घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाव्रत चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं ।
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हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगोंं को घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाव्रत चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं ।
    
==== सत्कारपूर्वक देना ====
 
==== सत्कारपूर्वक देना ====
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उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है ।
 
उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है ।
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वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना शुरू किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना शुरू किया है। परिणाम स्वरूप लोगों के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती ।
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वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना आरम्भ किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना आरम्भ किया है। परिणाम स्वरूप लोगोंं के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती ।
    
इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता की हानि होती है ।
 
इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता की हानि होती है ।
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समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अर्थों में सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली भी इसी के उदाहरण हैं ।
 
समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अर्थों में सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली भी इसी के उदाहरण हैं ।
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तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था । जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' । कुम्भ जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, सामान्य मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था । तात्पर्य यह है कि हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये ।
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तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था । जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' । [[Kumbh Mela (कुम्भ मेला)|कुम्भ]] जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, सामान्य मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था । तात्पर्य यह है कि हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये ।
    
==== गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ====
 
==== गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ====
धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपडे, जूते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
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धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपड़े सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपड़े, जूते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
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जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगों की चाटुकारिता और विपन्न और सामान्य लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है।
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जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगोंं की चाटूकारिता और विपन्न और सामान्य लोगोंं की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है।
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कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसेवालों के बच्चों का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने जैसे नहीं हैं ऐसे लोगों को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही बडे लोगों के बेटों की मर्जी उठानी पड़ती है। इन्हे विद्या का धाम कैसे सकते है ? ऐसे विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते है।  
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कई तो पूरे विद्यालय ही ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसेवालों के बच्चोंं का ही प्रवेश हो सकता है। कुछ विद्यालय ऐसे होते हैं जहाँ केवल पैसे वाले ही नहीं अपितु उच्च पदों पर आसीन लोग ही प्रवेश प्राप्त कर सकते हैं । ऐसे विद्यालय न तो ज्ञान की सेवा करते हैं न समाज की क्योंकि ये ऐसे लोग निर्माण करते हैं जो समाज के अपने जैसे नहीं हैं ऐसे लोगोंं को तुच्छ समझते हैं । ऐसे विद्यालयों में शिक्षकों का सम्मान नहीं होता, उल्टे शिक्षकों को ही बडे लोगोंं के बेटों की मर्जी उठानी पड़ती है। इन्हे विद्या का धाम कैसे सकते है ? ऐसे विद्यालय ज्ञान को सत्ता की दासी बना देते है।  
    
==== सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना ====
 
==== सत्य, धर्म, ज्ञान, सेवा न्याय आदि की परख होना ====
अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक सद्गुणों का मूल है। दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। परन्तु समझ यदि कम है या स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमे विकृति भी आती है। स्वयं तो दयावान, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही चाहिए, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिए। अपने लिए इनके आचरण के साथ साथ, न्याय, ज्ञान और धर्म  का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, असत्य, अधर्म और अज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बड़ा, बलवान  और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा नहीं चाटुकारिता है। व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान व्यक्ति यदि धनवान की चाटुकारिता करता है तो वह ज्ञान की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्य यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता है तो वह धर्म का अनादर करता है। आततायी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं। शोषण करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा करने हेतु वकीली करना अधर्म है। धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड़ जाती है। ऐसे में संस्कृति की रक्षा नहीं होती। असंस्कृत समाज की समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है।
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अपनत्व का व्यवहार करना यह सारे सामाजिक सद्गुणों का मूल है। दया, दान, क्षमा, उपकार, सहयोग आदि मूल्यों का जतन करना सद्गुण है। इनके अनुकूल आचरण करना सदाचार है। परन्तु समझ यदि कम है या स्वार्थ यदि अधिक है तो इनमे विकृति भी आती है। स्वयं तो दयावान, न्यायी, सत्यवादी आदि होना ही चाहिए, इनको पहचानने का विवेक और उसके अनुरूप व्यवहार करने का साहस भी होना चाहिए। अपने लिए इनके आचरण के साथ साथ, न्याय, ज्ञान और धर्म  का पक्ष भी लेना चाहिये और अन्याय, असत्य, अधर्म और अज्ञान का त्याग, उपेक्षा, तिरस्कार या दण्ड - जहाँ जो भी आवश्यक है - भी करना चाहिये । उदाहरण के लिये स्वयं अन्याय नहीं करेंगे यह प्रथम चरण है, किसी के द्वारा किये गये अन्याय को नहीं सहेंगे परन्तु समाज में किसी छोटे, दुर्बल या दीन व्यक्ति के प्रति बड़ा, बलवान  और समर्थ व्यक्ति अन्याय कर रहा है तो दीन, दुर्बल, छोटे व्यक्ति का पक्ष लेना और उसकी रक्षा करना तथा अन्याय करने वाले व्यक्ति का विरोध करना भी अपेक्षित है। सुपात्र, सद्गुणी व्यक्ति की प्रशंसा करनी ही चाहिये, भले ही वह गरीब हो, परन्तु अपने लाभ के लिये समर्थ, गुणहीन व्यक्ति की प्रशंसा नहीं करना चाहिये । वह प्रशंसा नहीं चाटूकारिता है। व्यक्ति भले ही विद्वान, धनवान या सत्तावान हो, यदि वह अधर्म और अन्यायपूर्ण व्यवहार करता है तो उसकी मित्रता नहीं करनी चाहिये, भले ही वह हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार करता हो । विद्वान व्यक्ति यदि धनवान की चाटूकारिता करता है तो वह ज्ञान की अवमानना करता है यही समझना चाहिये । धर्माचार्य यदि सत्तावान व्यक्ति के अनुकूल बनने का प्रयास करता है तो वह धर्म का अनादर करता है। आततायी व्यक्ति को दण्ड नहीं देना हिंसा है, अहिंसा नहीं। शोषण करनवाले व्यक्ति के विरुद्ध आवाज नहीं उठाना अधर्म है। भूखे व्यक्ति को अन्न नहीं देना अधर्म है, जिज्ञासु व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना अधर्म है, दुर्बल की रक्षा नहीं करना अधर्म है परन्तु शत्रु के गट में अन्न नहीं जाने देना धर्म है, दुष्ट व्यक्ति को ज्ञान देना अधर्म है, गुंडे की रक्षा करने हेतु वकीली करना अधर्म है। धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा, न्याय-अन्याय, सही-गलत आदि का विवेक नहीं किया और पक्ष लेने और विरोध करने का साहस नहीं दिखाया तो सामाजिकता घोर संकट में पड़ जाती है। ऐसे में संस्कृति की रक्षा नहीं होती। असंस्कृत समाज की समृद्धि प्रथम आसुरी बन जाती है, बाद में सबका नाश करती है और अन्त में स्वयं नष्ट हो जाती है।
    
विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये सामाजिकता को हानि पहुंचाने वाला अर्थशास्त्र, टैक्नोलोजी, वाणिज्यशास्त्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशास्त्र केवल धर्मशास्त्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्त्र का अंग है जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र समाजशास्त्र के अविरोधी होने अपेक्षित है।  
 
विद्यालयों के विषय, विषयवस्तु, अन्यान्य गतिविधियाँ, व्यवस्था, वातावरण आदि सब यह विवेक सिखाने के लिये प्रयुक्त होने चाहिये । महाविद्यालयों में तो समाजशास्त्र का स्वरूप ही प्रथम चरण में सामाजिकता सिखाने का होना चाहिये । सामाजिकता की कसौटी पर ही अन्य विषयों का मूल्यांकन होना चाहिये । उदाहरण के लिये सामाजिकता को हानि पहुंचाने वाला अर्थशास्त्र, टैक्नोलोजी, वाणिज्यशास्त्र, राजशास्त्र या मनोविज्ञान, खेल आदि मान्य ही नहीं होने चाहिये । समाजशास्त्र केवल धर्मशास्त्र के अनुकूल होता है । वह धर्मशास्त्र का अंग है जबकि शेष सभी शास्त्रों का अंगी है। सारे शास्त्र समाजशास्त्र के अविरोधी होने अपेक्षित है।  
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१. भोजन, २. निद्रा, ३. व्यायाम, ४. गृहजीवन, ५. सामाजिक जीवन, ६. सेवाकार्य, ७. श्रमकार्य, ८. योगाभ्यास, ९. सांस्कृतिक कार्य, १०. उपासना, ११. अभ्यास, १२. स्वाध्याय, १३. कौशल विकास, १४. शौक, १५. मित्र परिवार, १६. दिनचर्या, १७. मानसिकता, १८. जीवनदृष्टि, १९. कुल परम्परा
 
१. भोजन, २. निद्रा, ३. व्यायाम, ४. गृहजीवन, ५. सामाजिक जीवन, ६. सेवाकार्य, ७. श्रमकार्य, ८. योगाभ्यास, ९. सांस्कृतिक कार्य, १०. उपासना, ११. अभ्यास, १२. स्वाध्याय, १३. कौशल विकास, १४. शौक, १५. मित्र परिवार, १६. दिनचर्या, १७. मानसिकता, १८. जीवनदृष्टि, १९. कुल परम्परा
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छात्र का विकास तो सब चाहते है, मातापिता भी बालक के विकास की इच्छा करते है । विकास के कुल १९ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर शिक्षक, मातापिता, दादादादी और अन्य लोगों के साथ जो वार्तालाप हुआ उनका अभिप्राय ऐसा रहा ।
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छात्र का विकास तो सब चाहते है, मातापिता भी बालक के विकास की इच्छा करते है । विकास के कुल १९ महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर शिक्षक, मातापिता, दादादादी और अन्य लोगोंं के साथ जो वार्तालाप हुआ उनका अभिप्राय ऐसा रहा ।
    
शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढ़ाई के कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढाने के लिये समय ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती ।
 
शिक्षकोने बताया यह सारे बिन्दु उनके पढ़ाई के कोर्स के बाहर है, अतिरिक्त है । यह सब बातें करवाना मातापिता का कर्तव्य है । इतना सब पढाने के लिये समय ही नहीं बचता क्योंकि पूरे वर्ष कोर्स, परीक्षा कार्यक्रम यह सारे तंत्र से फुरसत ही नहीं मिलती ।
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बडे बुजुर्ग लोगों को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें आता है परंतु आजकल की पीढ़ी सुनती समझती ही नहीं अतः वे हतबल थे ।  
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बडे बुजुर्ग लोगोंं को उन बिन्दुओं मे तथ्य समझमें आता है परंतु आजकल की पीढ़ी सुनती समझती ही नहीं अतः वे हतबल थे ।  
    
मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, सेवाकार्य, योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पूरा करवाते है। यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए हमे घर मे फुरसत नही मिलती, क्योंकि दोनों नौकरी करते हैं। इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है ।
 
मातापिता अच्छा भोजन, व्यायाम, सेवाकार्य, योगाभ्यास, उपासना आदि का महत्व तो जानते है परंतु बच्चे सुनते नहीं, करते नही या तो विद्यालय की पढ़ाई में उनका यह सब होता नहीं है । केवल होमवर्क हम पूरा करवाते है। यह सब बातों की तरफ ध्यान देने के लिए हमे घर मे फुरसत नही मिलती, क्योंकि दोनों नौकरी करते हैं। इसी संबंध में कोई अच्छा क्लास होगा तो एडमिशन दिलवा देने के लिये वे तैयार है ।
    
==== अभिमत ====
 
==== अभिमत ====
प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है । परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही कोई मार्ग नहीं है। विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप नहीं देते हैं । बच्चों का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं । घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते । श्रम करने से पढ़ाई मे रुकावट आती है, थकान आती है, पढ़ाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार भी नहीं ।
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प्रश्नावली के ७९ बिंदु विकास मे अत्यंत उपयुक्त है । परंतु इस संबंध में मार्गदर्शन करने हेतू शिक्षको के पास ही कोई मार्ग नहीं है। विद्यालय में अभिभावक एसे विषय चुनने के लिये आते नहीं हैं । जीवनदृष्टि, भोजन, व्यायाम आदि विषयों में शिक्षक, अभिभावक भी आज पाश्चात्य शैली का शिकार बने हैं अतः वे मार्गदर्शन तो करेंगे परंतु उनको साकार रूप नहीं देते हैं । बच्चोंं का मित्र परिवार उन्हे गलत मार्ग पर ही ले जाता है । अतः वह विकास का मार्ग उन्हे मान्य नहीं । घर में माता, पिता संतानो के अपने अपने व्यक्तिगत मित्र होते हैं । ये सब घर के मित्र होते तो विकास अवश्य करते । श्रम करने से पढ़ाई मे रुकावट आती है, थकान आती है, पढ़ाई कम होती है ऐसी भ्रामक मान्यताओं से अभिभावक के लिये है । शिक्षक यह दायित्व लेने समर्थ भी नहीं तैयार भी नहीं ।
    
==== घर में छात्र विकास ====
 
==== घर में छात्र विकास ====
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यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य होते हैं। वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण करता है। समाजसेवा सीखता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता है।  
 
यह सब सिखाने वाले मातापिता और अन्य सदस्य होते हैं। वह जीवनमूल्य सीखता है, कुलपरम्परा ग्रहण करता है। समाजसेवा सीखता है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह जीवन का दृष्टिकोण भी घर में ही सीखता है।  
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आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे पुनः स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगों को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
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आज इस विषय की सर्वथा विस्मृति हुई है। उसे पुनः स्मरण में लाने हेतु योजनापूर्वक प्रयास करने की आवश्यकता है। शिक्षाक्षेत्र के सौजन्य लोगोंं को इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
    
==References==
 
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