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परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है । मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ आत्मिक स्तर पर जुडे हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के
 
परन्तु आवश्यकताओं की पूर्ति ही सामाजिकता के लिये एकमेव प्रयोजन नहीं है । केवल आवश्यकताओं की पूर्ति यह तो ऊपरी और कुछ मात्रा में कृत्रिम प्रयोजन है । मूल प्रयोजन है आत्मीयता और प्रेम । सब एकदूसरे के साथ आत्मिक स्तर पर जुडे हैं और एकदूसरे के लिये प्रेम का अनुभव करते हैं इसलिये साथ रहना स्वाभाविक है, साथ रहना अच्छा लगता है यह मूल प्रयोजन है । आत्मीयता के
कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं, ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं, उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है ।
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कारण ही सेवा, त्याग, सहयोग आदि गुण प्रकट होते हैं और व्यवहार में दिखाई देते हैं । ये बाहरी व्यवस्था के नियम नहीं हैं, लेनदेन के या लाभालाभ के हिसाब नहीं हैं, ये बिना हिसाब के देने के रूप में ही प्रकट होते हैं । यह आत्मीयता ही मनुष्य के लिये समूह में रहने हेतु प्रेरित करती है । प्रेम और आत्मीयता जिन गुणों के रूप में प्रकट होते हैं, उन गुणों का विकास ही सामाजिकता का विकास है।
    
विद्यालयों के शिक्षाक्रम में सामाजिकता के गुणों का विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना करनी चाहिये ।
 
विद्यालयों के शिक्षाक्रम में सामाजिकता के गुणों का विकास करने हेतु सावधानीपूर्वक अनेक प्रकार से योजना करनी चाहिये ।
    
==== देना और बाँट कर उपभोग करना ====
 
==== देना और बाँट कर उपभोग करना ====
शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के
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शिशु और प्रारम्भिक बाल अवस्था में इन गुणों के संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल, कहानी आदि का चयन होना चाहिये । बच्चे घर से अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन शुरू करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा
संस्कार होना आवश्यक है। इस दृष्टि से गीत, खेल,
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हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगों को घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाव्रत चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं ।
कहानी आदि का चयन होना चाहिये । बच्चे घर से
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अल्पाहार लाते हैं और साथ बैठकर करते हैं तब भोजन
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शुरू करने से पूर्व गोग्रास निकालना, भोजन के बाद बचा
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हुआ अन्न तथा जूठन कुत्ते को डालना और अपना
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खाद्यपदार्थ प्रथम दूसरे को देना और फिर स्वयं खाना यह
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आग्रह पूर्वक सिखाने की बातें हैं । कभी भी अकेले बैठकर
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खाना नहीं । यहीं संस्कार आगे चलकर अनेक लोगों को
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घर बुलाकर भोजन कराने के, अन्नदान करने के, सदाब्रत
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चलाने के कार्यों में विकसित होते हैं ।
      
==== सत्कारपूर्वक देना ====
 
==== सत्कारपूर्वक देना ====
दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी
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दूसरों को देते समय मेरे से अधिक और मेरे से अच्छी वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो गुलाब के फूल हैं । एक थोडा छोटा और अल्पविकसित है, दूसरा बड़ा और पूर्ण खिला हुआ । मैं मेरी सहेली को कौनसा फूल दूंगी ? जो अच्छा है वह उसे देने की वृत्ति और प्रवृत्ति बने इसकी शिक्षा देनी चाहिये । मेरे पास दो पेन्सिल हैं । कक्षा के किसी छात्र के पास लिखने हेतु आज
वस्तु देना ही प्रेम और सम्मान का लक्षण है । मेरे पास दो
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पेन्सिल नहीं है । मुझे एक पेन्सिल देनी ही चाहिये । मैं कौन सी दूंगा और मेरे लिये कौनसी रखूँगा ? निश्चित ही जो अधिक अच्छी है वही देने का मेरा मन करना चाहिये । बस में चढे तो खिडकी के पास बैठने के लिये नहीं भागूँगा अपितु मित्र को बैठने दूँगा । इन्हीं संस्कारों से आगे चलकर घर आये अतिथि को सत्कारपूर्वक हम अपने से अच्छी सुविधाओं से युक्त व्यवस्थायें देते हैं । अनेक प्रेरक घटनाओं तथा प्रत्यक्ष व्यवहार हेतु निमित्त निर्माण कर देने की, स्वयं से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का विकास करना चाहिये ।  
गुलाब के फूल हैं । एक थोडा छोटा और अल्पविकसित है,
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दूसरा बड़ा और पूर्ण खिला हुआ । मैं मेरी सहेली को
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कौनसा फूल दूंगी ? जो अच्छा है वह उसे देने की वृत्ति
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और प्रवृत्ति बने इसकी शिक्षा देनी चाहिये । मेरे पास दो
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पेन्सिल हैं । कक्षा के किसी छात्र के पास लिखने हेतु आज
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पेन्सिल नहीं है । मुझे एक पेन्सिल देनी ही चाहिये । मैं
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कौन सी दूंगा और मेरे लिये कौनसी रखूँगा ? निश्चित ही जो
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अधिक अच्छी है वही देने का मेरा मन करना चाहिये । बस
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में चढे तो खिडकी के पास बैठने के लिये नहीं भागूँगा
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अपितु मित्र को बैठने दूँगा । इन्हीं संस्कारों से आगे चलकर
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घर आये अतिथि को सत्कारपूर्वक हम अपने से अच्छी
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सुविधाओं से युक्त व्यवस्थायें देते हैं । अनेक प्रेरक घटनाओं
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तथा प्रत्यक्ष व्यवहार हेतु निमित्त निर्माण कर देने की, स्वयं
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से अधिक देने की और देकर खुश होने की वृत्ति का
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विकास करना चाहिये ।
      
==== भेदों को नहीं मानना ====
 
==== भेदों को नहीं मानना ====
सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल,
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सबका स्वीकार करना असंस्कृत समाज धन, बल, सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है। सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये । इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना चाहिये:
सत्ता, वर्ण, जाति आदि के भेदों से एकदूसरे को ऊँचा और नीचा मानने की प्रवृत्ति रखता है।
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सुसंस्कृत समाज इन भेदों से ऊपर उठता है । भेदों से ऊपर उठना विशेष आग्रहपूर्वक सिखाना चाहिये ।
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इस दृष्टि से गटव्यवस्था बहुत प्रभावी साधन बन सकती है । गटों की रचना में इन बातों का समावेश करना चाहिये
   
* गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना चाहिये
 
* गट के सभी विद्यार्थियों ने साथ बैठकर स्वाध्याय करना । इस दृष्टि से प्रतिदिन कुछ समय रखना चाहिये
 
* स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना ।
 
* स्वाध्याय में एकदूसरे की सहायता करना ।
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कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती । वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निःस्वार्थता, बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने में प्रकट होती है ।
 
कहीं भी किसी से कुछ सहायता प्राप्त हुई तो कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये । आजकल कृतज्ञता बहुत कृत्रिम उपचार का विषय बन गई है । बात बात में थैन्क्यू, प्लीज और सॉरी कहने की प्रथा बन गई है । किसी बच्चे को खिडकी बन्द करने को कहा और उसने वह काम किया तो थैन्क्यू, होटेल में बैरेने पानी लाकर दिया तो थैन्क्यू, पिताजी ने खिलौना लाकर दिया तो थैन्क्यू । बात बात में थैन्क्यू कहना सिखाते हैं । इसी प्रकार से विद्यार्थी को ग्रन्थालय से कुछ लाने को कहना है तो प्लीज, प्रश्न का उत्तर देने को कहना है तो प्लीज, खडे होकर पास आने के लिये कहना है तो प्लीज । मुखर होकर सर्वत्र इन शब्दों का उच्चारण करने से वह अभिव्यक्ति सतही रह जाती है, केवल उपचार मात्र बन जाती है, भावना नहीं बनती । वास्तविक कृतज्ञता की भावना आदर, सम्मान, निःस्वार्थता, बिना स्वार्थ के सहायता, बिना स्वार्थ के दूसरों की सुरक्षा करने में प्रकट होती है । वह जीवन का स्थायी भाव बनती है। किसी का भी अपने लाभ के लिये उपयोग नहीं करने में प्रकट होती है ।
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इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है । दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये । परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक, दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है। विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह
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इसी प्रकार से उदारता क्षमाशीलता में प्रकट होती है । दोष, गलतियाँ, अपराध, कृतघ्नता आदि को माफ कर देना उदारता है । परन्तु इसमें विवेक भी आवश्यक है । मेरे प्रति अपराध तो माफ करना चाहिये परन्तु किसी दुर्बल को परेशान किया तो उसे दण्ड भी देना चाहिये । दोषों और अवगुणों को दूर करने हेतु अवश्य प्रवृत्त होना चाहिये । परन्तु वह तिरस्कारपूर्वक नहीं अपितु उदारतापूर्वक, दयापूर्वक होना चाहिये । स्वकेन्द्री बनकर व्यवहार नहीं करना, दूसरे का विचार करना ही सामाजिकता है। विद्यालय की छोटी मोटी स्चनाओं में तथा व्यवहारों में यह सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात है ।
सब सिखाने की दक्षता बरतना चाहिये । यही नहीं तो गणित, भाषा, इतिहास आदि के पाठों में भी सामाजिकता अनुस्यूत होनी चाहिये । तत्त्वज्ञान को तो सामाजिकता का सन्दर्भ लेकर ही विकसित होना चाहिये । योग के प्रथम अंग यम के पाँच आयाम सामाजिकता की ही शिक्षा देते हैं और
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उन्हें सार्वभौम महाव्रत कहते हैं यह ध्यान देने योग्य बात है ।
      
==== ५. सामाजिक समरसता ====
 
==== ५. सामाजिक समरसता ====
सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है
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सामाजिकता का यह परम साध्य है । हलुवा बनता है तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई ।
तब उसमें आटा, घी, गुड और पानी होते हैं, उन सबके गुण और विशेषतायें भी पहचाने जाते हैं, यहाँ तक कि घी गाय का है कि भैस का, आटा गेहूँ का है या मूँग का, गुड देशी है कि रासायणयुक्त यह सब पहचाना जाता है परन्तु ये चीजें एक दूसरे से अलग नहीं की जा सकतीं, किंबहुना एक दूसरे में उचित प्रक्रिया से समरस होने पर ही हलवा बनता है। विभिन्न पदार्थों को उचित मात्रा में, उचित प्रक्रिया अपनाकर समरस नहीं किया जाता तब तक कोई पदार्थ नहीं बनता, फिर वह खाद्य पदार्थ हो या और कोई ।
      
समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया अपनाने से समरसता निर्माण होती है ।
 
समाज को भी एकसंध बनाने के लिये समरसता की आवश्यकता होती है । समाज में भेद तो होते ही हैं । भेद गुणों और विशेषताओं को दशतते हैं । इनके मिलाप से ही सामाजिक रचनायें सुन्दर बनती हैं । इन रचनाओं में सम्मान और आत्मीयता की, सुरक्षा और सम्हाल की प्रक्रिया अपनाने से समरसता निर्माण होती है ।
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उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है ।
 
उदाहरण के लिये हमारे गाँवों में जब किसी के भी घर में विवाह होता था तो मंडप के लिये सुधार का, मटकी के लिये कुम्हार का, वस्त्र के लिये दर्जी का, न्यौते के लिये नायी का, वाद्यों के लिये ढोली आदि का प्रथम सम्मान किया जाता था, उनके द्वारा निर्मित और प्रदत्त पदार्थ का पूजन किया जाता था, दानदक्षिणा वस्त्राभोजन से उन्हें सन्तुष्ट किया जाता था और बाद में अन्य कार्य किये जाते थे । किसी के घर मृत्यु हो तब ये ही सब अपने द्वारा निर्मित साधन लेकर उपस्थित हो जाते थे और उसके पैसे नहीं माँगते थे । समरसता हेतु अत्यन्त बुद्धिमानी से की गई ये रचनायें हैं । इसीसे भाईचारा बना रहता है, सबको अपनी उपयोगिता लगती है। अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव होता हैं । इससे ही वास्तविक सुख मिलता है । इसके चलते हिंसा कम होती है, दंगे फसाद कम होते हैं । व्यक्तिगत स्तर पर सृजनशीलता का विकास होता है और समाज वैभवशाली बनता है ।
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वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना शुरू किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना शुरू किया है। परिणाम स्वरूप लोगों के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती ।
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वर्तमान में हमने दीर्घदृष्टि और व्यापकदूष्टि के अभाव में काम करने वाले और काम करवाने वाले के दो वर्ग निर्माण किये हैं और काम करनेवालों को नीचा और करवाने वालों को ऊँचा मानना शुरू किया है । साथ ही काम करने वालों के स्थान पर यन्त्रों को अपनाना शुरू किया है। परिणाम स्वरूप लोगों के पास काम करने के अवसर भी कम हो रहे हैं, काम करवाने वाले संख्या में कम ही होते हैं और अभाव और वर्गभेद बढ़ते ही जाते हैं । किस बात के लिये किसका सम्मान करें, किस बात के लिये किसकी उपयोगिता है यही प्रश्न है । सबको टिकने के लिये स्पर्धा ही करनी पड़ती है, संघर्ष ही करना पडता है । इसमें समरसता कैसे होगी ? बिना समरसता के सुख कहाँ? सुख की आश्वस्ति के बिना संस्कृति पनप नहीं सकती ।
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इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता
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इस व्यवस्था को बदलने का प्रावधान शिक्षा में होना चाहिये । यह एक निरन्तर चलनेवाली प्रक्रिया है । अतः परीक्षा का नहीं अपितु वातावरण, व्यवस्था और व्यवहार का विषय है । सारी बातें परीक्षाकेन्द्री कर देने से समरसता की हानि होती है ।
की हानि होती है ।
      
हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते । यह तो ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की अपेक्षा करना ।
 
हम शिक्षा, व्यवसाय, दैनन्दिन व्यवहार को आज है वैसा ही रखकर समरसता निर्माण नहीं कर सकते । यह तो ऐसा ही है जैसे गरम गुण का पदार्थ खाकर शीतलता की अपेक्षा करना ।
    
==== ६. सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप बनायें रखना ====
 
==== ६. सामाजिक उत्सवों का सांस्कृतिक स्वरूप बनायें रखना ====
समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों
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समरसता और सामूहिकता के लिये ही अनेक उत्सवों की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अर्थों में सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका
की परस्परा बनी है । उदाहरण के लिये गुजरात में जो
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रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली भी इसी के उदाहरण हैं ।
नवरात्रि का उत्सव है उसमें किसी भी वर्ग के, किसी भी
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वर्ण के, किसी भी जाति के, किसी भी आयु के, व्यक्ति को
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सहभागी होने का समान अधिकार है । वह सभी अआर्थों में
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सार्वजनिक है, शक्तिपूजा का और उपवास का आलम्बन
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लिये है और गीतनृत्य के रूप में मूर्त होता है । आज इसका
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रूप अत्यन्त बीभत्स और सामाजिकता के लिये हानिकारक
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बन गया है । विद्यालय अपने विद्यार्थियों के माध्यम से ही
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इसे परिष्कृत कर सकते हैं । होली, मकरसंक्रान्ति, दीपावली
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भी इसी के उदाहरण हैं ।
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तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण
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तीर्थयात्रायें और मेले भी इसके माध्यम हैं । उदाहरण के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था । जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' । कुम्भ जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, सामान्य मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था । तात्पर्य यह है कि हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये ।
के लिये गाँव के लोग जब तीर्थयात्रा पर जाते थे तो गाँव
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की सीमा से बाहर निकलने पर जाति छोड देते थे और एक
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हो जाते थे । फिर ऊँचनीच, छुआछूत कुछ नहीं रहता था ।
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जगन्नाथ भगवान के प्रसाद में जातिपाँत का कोई भेद नहीं
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रहता है । उक्ति है “जगन्नाथ का भात, पूछे जात न पाँत' ।
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कुम्भ जैसे मेले में पण्डित, राजा, साधु, Fed a सामान्य
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मनुष्य का कोई भेद नहीं रहता था । तात्पर्य यह है कि
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हमने इन उत्सवों और पर्वों की रचना समरस समाज बनाने
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के उद्देश्य से ही की है । आज उनका रूप विकृत हो गया
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है । उन्हें पुनः उनके मूल रूप में ले आना विद्यालयों का
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काम है । इस दृष्टि से उचित शिक्षाक्रम अपनाना चाहिये ।
      
==== ७. गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ====
 
==== ७. गुणों और क्षमताओं का सम्मान करना ====
 
धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपडे, जुते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
 
धन, सत्ता, रूप, सुविधा आदि को गुणों और क्षमताओं से अधिक महत्त्व देने से सामाजिक सन्तुलन बिगडता है । विद्यालय में जो पैदल चलकर आता है, उसके पैरों में जूते नहीं हैं, उसके कपडे सामान्य हैं परन्तु उसका स्वास्थ्य अच्छा है, जो अच्छी कबड्डी खेलता है, गणित के सवाल आसानी से हल करता है और सबकी सहायता करने हेतु तत्पर रहता है उसका सम्मान उससे अधिक होना चाहिये जो बडे बाप का बेटा है, कार में विद्यालय आता है, बस्ता, कपडे, जुते बहुत कीमती हैं परन्तु शरीर से दुर्बल है, पढने और खेलने में कमजोर है और स्वभाव से घमण्डी और असहिष्णु है ।
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जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित
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जो व्यक्ति को लागू है वही परिवारों को भी है । धनी लोग भी कृपण और स्वार्थी होते हैं, निर्धन और वंचित लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय, बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना
लोग भी उदार और समझदार होते हैं । बडे और प्रतिष्ठित लोग अश्रद्धावान, भीरू और अनीतिमान होते हैं, सामान्य
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और गरीब, झॉंपडी में रहनेवाले भी श्रद्धावान, विश्वसनीय,
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बहादुर और नीतिमान होते हैं । विद्यार्थियों को इन गुणों का सम्मान करना और अपने में विकसित करना सिखाना
   
चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगों की चाटुकारिता और विपन्न और सामान्य लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है।
 
चाहिये । गरीबी की, छोटे घर की, सामान्य कपडों की, मजदूरी करने वाले, कम कमाई करने वाले मातापिता की शर्म नहीं करना सिखाना चाहिये । सम्पन्नता का अहंकार नहीं करना सिखाना चाहिये । विद्यालय में सम्पन्न और सत्तावान लोगों की चाटुकारिता और विपन्न और सामान्य लोगों की उपेक्षा करने से सामाजिकता को हानि पहुँचती है।
  

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