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६. इतनी कठोर और अनहोनी तुक्केबाजी का कारण यह है कि आज भारतीय शिक्षा को जो भीषण रोग लग गया है उसका निदान और उपचार कर उसे पूर्ण रूप से रोगमुक्त करने का कार्य या तो चमत्कार से या तो कठोर तपश्चर्या से हो सकता है । चमत्कार देवों का काम है, तपश्चर्या मनुष्यों का । कदाचित चमत्कार तपश्चर्या का ही अनुसरण करते हैं । अतः कठोर तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप ही विद्यालयों में भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है ।
 
६. इतनी कठोर और अनहोनी तुक्केबाजी का कारण यह है कि आज भारतीय शिक्षा को जो भीषण रोग लग गया है उसका निदान और उपचार कर उसे पूर्ण रूप से रोगमुक्त करने का कार्य या तो चमत्कार से या तो कठोर तपश्चर्या से हो सकता है । चमत्कार देवों का काम है, तपश्चर्या मनुष्यों का । कदाचित चमत्कार तपश्चर्या का ही अनुसरण करते हैं । अतः कठोर तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप ही विद्यालयों में भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हो सकती है ।
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७. कठोर तपश्चर्या के लिये अग्रसर शिक्षकों को ही होना होगा । शिक्षकों के अलावा और किसीने तपश्चर्या की भी तो उसका परिणाम नहीं होगा । शिक्षकों ने तपश्चर्या की तो और लोगों का साथ मिलेगा और नहीं भी मिला तो भी शिक्षक स्वयं ही सबकुछ कर लेंगे ।
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७. कठोर तपश्चर्या के लिये अग्रसर शिक्षकों को ही होना होगा । शिक्षकों के अलावा और किसीने तपश्चर्या की भी तो उसका परिणाम नहीं होगा । शिक्षकों ने तपश्चर्या की तो और लोगोंं का साथ मिलेगा और नहीं भी मिला तो भी शिक्षक स्वयं ही सबकुछ कर लेंगे ।
    
=== शिक्षा की स्वायत्तता ===
 
=== शिक्षा की स्वायत्तता ===
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८. विद्यालय के माध्यम से शिक्षा की पुनर््रतिष्ठा का काम कठिन इसलिये है कि विद्यालय घर की तरह अभी स्वायत्त नहीं रहे हैं । घर अभी भी पर्याप्त मात्रा में स्वायत्त हैं । विवाह का पंजीयन और जन्म मृत्यु का पंजीयन यदि छोड दिया जाय तो शेष सारी बातों में परिवार स्वायत्त हैं । घर का खानपान, वेशभूषा, कया पढना चिकित्सा कौन सी करना, बच्चों के विवाह किसके साथ करना आदि बातों में सरकार का या अन्य किसी का हस्तक्षेप नहीं होता । घर के लोग मिलकर ही तय करते हैं ।
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८. विद्यालय के माध्यम से शिक्षा की पुनर््रतिष्ठा का काम कठिन इसलिये है कि विद्यालय घर की तरह अभी स्वायत्त नहीं रहे हैं । घर अभी भी पर्याप्त मात्रा में स्वायत्त हैं । विवाह का पंजीयन और जन्म मृत्यु का पंजीयन यदि छोड दिया जाय तो शेष सारी बातों में परिवार स्वायत्त हैं । घर का खानपान, वेशभूषा, क्या पढना चिकित्सा कौन सी करना, बच्चोंं के विवाह किसके साथ करना आदि बातों में सरकार का या अन्य किसी का हस्तक्षेप नहीं होता । घर के लोग मिलकर ही तय करते हैं ।
    
९. परन्तु शिक्षा में ऐसा नहीं है । सब कुछ सरकार की पहल से ही तय होता है और चलता है । घर घरवालों का होता है परन्तु शिक्षा शिक्षावालों की नहीं है । शिक्षावालों से तात्पर्य है शिक्षक और विद्यार्थी । ये दोनों दूसरों द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं ।
 
९. परन्तु शिक्षा में ऐसा नहीं है । सब कुछ सरकार की पहल से ही तय होता है और चलता है । घर घरवालों का होता है परन्तु शिक्षा शिक्षावालों की नहीं है । शिक्षावालों से तात्पर्य है शिक्षक और विद्यार्थी । ये दोनों दूसरों द्वारा ही नियन्त्रित होते हैं ।
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१०. अतः प्रथम बात तो है विद्यालय को घर के ही समान स्वायत्त बनाने की । शिक्षा विषयक जो सारी एडमिनिस्ट्रेटीव सिस्टम की ढह जाने की आकांक्षा है इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम तो शिक्षा को मुक्त हवा में श्वास लेने देना चाहिये । सरकार यदि समझदार है तो सरकार स्वयं शिक्षा को मुक्त करेगी । यदि सरकार मुक्त नहीं करती तो शिक्षकों को अपनी तपश्चर्या के बल पर मुक्त करनी पडेगी
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१०. अतः प्रथम बात तो है विद्यालय को घर के ही समान स्वायत्त बनाने की । शिक्षा विषयक जो सारी एडमिनिस्ट्रेटीव सिस्टम की ढह जाने की आकांक्षा है इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम तो शिक्षा को मुक्त हवा में श्वास लेने देना चाहिये । सरकार यदि समझदार है तो सरकार स्वयं शिक्षा को मुक्त करेगी । यदि सरकार मुक्त नहीं करती तो शिक्षकों को अपनी तपश्चर्या के बल पर मुक्त करनी पड़ेगी
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११. सरकार मुक्त कर भी दे तो भी प्रश्न रहेगा शिक्षकों के सामर्थ्य का । सामर्थ्य के दो पहलू होंगे । ज्ञान और साहस । शिक्षकों को ज्ञानसाधना करनी पडेगी और साहस भी ज़ुटाना पडेगा । यह सरल कार्य नहीं है । आज जिन्हें शिक्षक कहा जाता है उनमें से बहुत कम लोग ऐसा साहस जुटा पायेंगे ।
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११. सरकार मुक्त कर भी दे तो भी प्रश्न रहेगा शिक्षकों के सामर्थ्य का । सामर्थ्य के दो पहलू होंगे । ज्ञान और साहस । शिक्षकों को ज्ञानसाधना करनी पड़ेगी और साहस भी ज़ुटाना पड़ेगा । यह सरल कार्य नहीं है । आज जिन्हें शिक्षक कहा जाता है उनमें से बहुत कम लोग ऐसा साहस जुटा पायेंगे ।
    
१२. परिणाम स्वरूप साधना करने वाले समर्थ शिक्षकों की
 
१२. परिणाम स्वरूप साधना करने वाले समर्थ शिक्षकों की
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१३. हमें एक नये प्रतिमान का, नई व्यवस्था का विचार करना होगा । एक ऐसा प्रतिमान जिसे लागू करने की प्रक्रिया में हम सरलता से कठिनता की ओर जा सकें और शिक्षकों के सूत्रसंचालन में सर्वसामान्य जनों का सहयोग प्राप्त कर सकें, प्रचलित शिक्षाव्यवस्था की निन्‍्दा करने के स्थान पर हम योजना को ही कार्यान्वित कर सर्के ।
 
१३. हमें एक नये प्रतिमान का, नई व्यवस्था का विचार करना होगा । एक ऐसा प्रतिमान जिसे लागू करने की प्रक्रिया में हम सरलता से कठिनता की ओर जा सकें और शिक्षकों के सूत्रसंचालन में सर्वसामान्य जनों का सहयोग प्राप्त कर सकें, प्रचलित शिक्षाव्यवस्था की निन्‍्दा करने के स्थान पर हम योजना को ही कार्यान्वित कर सर्के ।
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१४. क्रियान्वयन की एक दिशा तो इस प्रकार है । दस वर्ष की आयु तक मातापिता ही अपने बच्चों को आवश्यक शिक्षा दें । इसमें चरिन्ननिर्माण, कार्यकौशल, साक्षरता और व्यावहारिक गणित विज्ञान की शिक्षा का समावेश हो । जिस प्रकार अन्न वस्त्रादि आवश्यकताओं की पूर्ति घर में होती है उसी प्रकार ज्ञानात्मक और संस्कारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति भी घर में ही हो । जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मातापिता को अर्थार्जन करना पडता है और काम करना पडता है उस प्रकार शिक्षा देना भी एक काम है । घर की वृद्ध मण्डली इसमें मूल्यबान सहयोग कर सकती है ।
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१४. क्रियान्वयन की एक दिशा तो इस प्रकार है । दस वर्ष की आयु तक मातापिता ही अपने बच्चोंं को आवश्यक शिक्षा दें । इसमें चरिन्ननिर्माण, कार्यकौशल, साक्षरता और व्यावहारिक गणित विज्ञान की शिक्षा का समावेश हो । जिस प्रकार अन्न वस्त्रादि आवश्यकताओं की पूर्ति घर में होती है उसी प्रकार ज्ञानात्मक और संस्कारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति भी घर में ही हो । जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मातापिता को अर्थार्जन करना पडता है और काम करना पडता है उस प्रकार शिक्षा देना भी एक काम है । घर की वृद्ध मण्डली इसमें मूल्यबान सहयोग कर सकती है ।
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१५. जिन बच्चों के मातापिता अपने बच्चों के चरित्रनिर्माण और साक्षरता की शिक्षा देने की क्षमता नहीं रखते उन्हें सिखाने की व्यवस्था शिक्षकों और धर्माचार्यों को करनी चाहिये । शिक्षित मातापिता भी अपने आसपास के मातापिताओं की सहायता कर सकते हैं ।
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१५. जिन बच्चोंं के मातापिता अपने बच्चोंं के चरित्रनिर्माण और साक्षरता की शिक्षा देने की क्षमता नहीं रखते उन्हें सिखाने की व्यवस्था शिक्षकों और धर्माचार्यों को करनी चाहिये । शिक्षित मातापिता भी अपने आसपास के मातापिताओं की सहायता कर सकते हैं ।
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१६. तात्पर्य यह है कि आज दस वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिये नहीं अपितु उनके मातिपातओं के लिये विद्यालयों की आवश्यकता है । यह कार्य विद्वानों का, अनुभवी वृद्धों का, सन्तों का और संन्यासियों का है । विशष रूप से वानप्रस्थियों का है । गृहस्थी-विद्वानों ने नहीं अपितु वानप्रस्थी-विद्वाननों ने करना उचित है ।
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१६. तात्पर्य यह है कि आज दस वर्ष की आयु तक के बच्चोंं के लिये नहीं अपितु उनके मातिपातओं के लिये विद्यालयों की आवश्यकता है । यह कार्य विद्वानों का, अनुभवी वृद्धों का, सन्तों का और संन्यासियों का है । विशष रूप से वानप्रस्थियों का है । गृहस्थी-विद्वानों ने नहीं अपितु वानप्रस्थी-विद्वाननों ने करना उचित है ।
    
१७. वानप्रस्थी विद्वानों और धर्माचार्यों ने समाजसेवी संस्था के रूप में ऐसे विद्यालय चलाने चाहिये । ये विद्यालय पूर्ण रूप से निःशुल्क, परीक्षाविहीन और अनौपचारिक होने चाहिये । परन्तु उसमें विनय, अनुशासन, नियमपालन और आज्ञापालन का आग्रह अनिवार्य रूप से होना चाहिये ।
 
१७. वानप्रस्थी विद्वानों और धर्माचार्यों ने समाजसेवी संस्था के रूप में ऐसे विद्यालय चलाने चाहिये । ये विद्यालय पूर्ण रूप से निःशुल्क, परीक्षाविहीन और अनौपचारिक होने चाहिये । परन्तु उसमें विनय, अनुशासन, नियमपालन और आज्ञापालन का आग्रह अनिवार्य रूप से होना चाहिये ।
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१९. इन विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने हेतु जाना मातापिताओं के लिये किन्हीं बाहरी नियमों से अनिवार्य नहीं बनाना चाहिये अपितु प्रबोधन के माध्यम से आन्तरिक प्रेरणा ही जगाना चाहिये । जिस प्रकार मन्दिर जाना या कथाश्रवण करना अनिवार्य नहीं होने पर भी लोग जाते हैं उसी प्रकार इन विद्यालयों में जाना भी आवश्यक माना जाना चाहिये ।
 
१९. इन विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने हेतु जाना मातापिताओं के लिये किन्हीं बाहरी नियमों से अनिवार्य नहीं बनाना चाहिये अपितु प्रबोधन के माध्यम से आन्तरिक प्रेरणा ही जगाना चाहिये । जिस प्रकार मन्दिर जाना या कथाश्रवण करना अनिवार्य नहीं होने पर भी लोग जाते हैं उसी प्रकार इन विद्यालयों में जाना भी आवश्यक माना जाना चाहिये ।
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२०. यदि दस वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करनी हो तो सात या आठ वर्ष की आयु तक तो बच्चों को विद्यालय में भेजना अक्षम्य ही माना जाना चाहिये ।
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२०. यदि दस वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करनी हो तो सात या आठ वर्ष की आयु तक तो बच्चोंं को विद्यालय में भेजना अक्षम्य ही माना जाना चाहिये ।
    
२१. दस वर्ष की आयु के बाद के विद्यालय व्यवसायों के आधार पर निश्चित किये जाने चाहिये । दस वर्ष की आयु तक विद्यार्थियों का व्यवसाय निश्चित हो जाना व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । अर्थार्जन व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है । उसे गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिये ।
 
२१. दस वर्ष की आयु के बाद के विद्यालय व्यवसायों के आधार पर निश्चित किये जाने चाहिये । दस वर्ष की आयु तक विद्यार्थियों का व्यवसाय निश्चित हो जाना व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । अर्थार्जन व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है । उसे गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिये ।
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का कानून, शिक्षासंस्थाओं की मान्यता का कानून अवरोधक न बने । इस दृष्टि से शिक्षक, उद्योजक, विट्रज्जन, धर्माचार्य आदि सब सरकार के साथ बातचीत करें और सर्व प्रकार से आपसी अनुकूलता बनायें । शिक्षा के हित में सबका योगदान हो यह अपेक्षित है ।
 
का कानून, शिक्षासंस्थाओं की मान्यता का कानून अवरोधक न बने । इस दृष्टि से शिक्षक, उद्योजक, विट्रज्जन, धर्माचार्य आदि सब सरकार के साथ बातचीत करें और सर्व प्रकार से आपसी अनुकूलता बनायें । शिक्षा के हित में सबका योगदान हो यह अपेक्षित है ।
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२४. जनसामान्य के दैनन्दिनिजीवन से सम्बन्धित जितनी भी बातें हैं उन सभी बातों के जानकार लोगों ने उन उन बातों की शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी । उदाहरण के लिये वैद्यों से यह अपेक्षा नहीं है कि वे केवल चिकित्सा ही करें । वे लोगों को स्वास्थ्यरक्षा विषयक शिक्षा दें, जनमानस प्रबोधन करें यह अपेक्षित है। साथ ही मातापिताओं के लिये चलनेवाले विद्यालयों में आहारशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, स्वच्छताशास्त्र आदि बातों की भी व्यावहारिक शिक्षा दें । इन्हीं विद्यालयों में शिशुसंगोपन की शिक्षा की भी व्यवस्था हो ।
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२४. जनसामान्य के दैनन्दिनिजीवन से सम्बन्धित जितनी भी बातें हैं उन सभी बातों के जानकार लोगोंं ने उन उन बातों की शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी । उदाहरण के लिये वैद्यों से यह अपेक्षा नहीं है कि वे केवल चिकित्सा ही करें । वे लोगोंं को स्वास्थ्यरक्षा विषयक शिक्षा दें, जनमानस प्रबोधन करें यह अपेक्षित है। साथ ही मातापिताओं के लिये चलनेवाले विद्यालयों में आहारशास्त्र, आरोग्यशास्त्र, स्वच्छताशास्त्र आदि बातों की भी व्यावहारिक शिक्षा दें । इन्हीं विद्यालयों में शिशुसंगोपन की शिक्षा की भी व्यवस्था हो ।
    
२५. व्यवसायों से सम्बन्धित विद्यालयों में व्यवसाय का केन्द्रवर्ती विषय होना स्वाभाविक है परन्तु संस्कृति, समाज, देशदुनिया, धर्म आदि की भी शिक्षा देने का प्रावधान अनिवार्य रूप से होना चाहिये । हमें केवल आर्थिक समाज नहीं बनाना है, सुसंस्कृत और ज्ञानी समाज भी बनाना है ।
 
२५. व्यवसायों से सम्बन्धित विद्यालयों में व्यवसाय का केन्द्रवर्ती विषय होना स्वाभाविक है परन्तु संस्कृति, समाज, देशदुनिया, धर्म आदि की भी शिक्षा देने का प्रावधान अनिवार्य रूप से होना चाहिये । हमें केवल आर्थिक समाज नहीं बनाना है, सुसंस्कृत और ज्ञानी समाज भी बनाना है ।
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२९. वर्तमान उद्योगों, उत्पादनों, यन्त्रों , रसायनों, व्यवस्थापन, वाहनों आदि को नियन्त्रित करने की शक्ति किसी के पास नहीं है । इनका विकल्प निर्माण किये बिना यह सम्भव भी नहीं होगा । इस प्रकार के उद्यमिता विद्यालय विकल्प निर्माण करने की दिशा में एक कदम सिद्ध होगा ।
 
२९. वर्तमान उद्योगों, उत्पादनों, यन्त्रों , रसायनों, व्यवस्थापन, वाहनों आदि को नियन्त्रित करने की शक्ति किसी के पास नहीं है । इनका विकल्प निर्माण किये बिना यह सम्भव भी नहीं होगा । इस प्रकार के उद्यमिता विद्यालय विकल्प निर्माण करने की दिशा में एक कदम सिद्ध होगा ।
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३०. सोलह वर्ष के होते होते हर तरुण का उत्पादन और अधथर्जिन शुरु हो जाना लगभग अनिवार्य बनाना चाहिये । इन विद्यालयों ने आर्थिक स्वावलम्बन, स्वमान, स्वगौरव आदि से युक्त युवा निर्माण करने चाहिये जो स्वतन्त्र व्यवसाय करें और नौकरी की सुरक्षा का विचार न करें ।
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३०. सोलह वर्ष के होते होते हर तरुण का उत्पादन और अधथर्जिन आरम्भ हो जाना लगभग अनिवार्य बनाना चाहिये । इन विद्यालयों ने आर्थिक स्वावलम्बन, स्वमान, स्वगौरव आदि से युक्त युवा निर्माण करने चाहिये जो स्वतन्त्र व्यवसाय करें और नौकरी की सुरक्षा का विचार न करें ।
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३१. सोलह से पचीस वर्ष की आयु में दो तीन प्रकार से विचार किया जाना चाहिये । इसमें गृहस्थाश्रम की शिक्षा सबके लिये प्रमुख विषय है । इसके साथ जुड़कर समाजशास्त्र, संस्कृति, धर्म, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजशास्त्र आदि सभी बातों का समावेश होगा । दूसरा आयाम है शाख्रों का अध्ययन और अनुसन्धान । तीसरा विषय है व्यवसाय का प्रगत ज्ञान । तीन में गृहस्थाश्रम की शिक्षा अनिवार्य है । शेष दो में चयन की स्वतन्त्रता भी हो सकती है ।
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३१. सोलह से पचीस वर्ष की आयु में दो तीन प्रकार से विचार किया जाना चाहिये । इसमें गृहस्थाश्रम की शिक्षा सबके लिये प्रमुख विषय है । इसके साथ जुड़कर समाजशास्त्र, संस्कृति, धर्म, इतिहास, अर्थशास्त्र, राजशास्त्र आदि सभी बातों का समावेश होगा । दूसरा आयाम है शास्त्रों का अध्ययन और अनुसन्धान । तीसरा विषय है व्यवसाय का प्रगत ज्ञान । तीन में गृहस्थाश्रम की शिक्षा अनिवार्य है । शेष दो में चयन की स्वतन्त्रता भी हो सकती है ।
    
३२. जाहिर है कि शास्त्रों का अध्ययन ज्ञान का सांस्कृतिक पक्ष है और व्यवसाय का प्रगत ज्ञान भौतिक पक्ष । स्वाभाविक है कि भौतिक पक्ष का चयन करने वालों की संख्या अधिक होगी, सांस्कृतिक की कम । यह अपेक्षित भी है । शास्त्रों के अध्ययन और अनुसन्धान के लिये तेजस्वी, कुशाग्र और विशाल बुद्धि के साथ साथ सादगी, संयम, लोकहित की कामना और तपश्चर्या की आवश्यकता रहेगी । भौतिक पक्ष के अध्ययन हेतु व्यावहारिक बुद्धि, धर्माचरण की तत्परता और समाजेसवा की भावना अपेक्षित है । दोनों की समाज को आवश्यकता है । स्वाभाविक रूप से ही शास्त्रों के अध्ययन हेतु दस से बीस प्रतिशत और भौतिक पक्ष के अध्ययन हेतु शेष विद्यार्थी उपलब्ध होंगे ।
 
३२. जाहिर है कि शास्त्रों का अध्ययन ज्ञान का सांस्कृतिक पक्ष है और व्यवसाय का प्रगत ज्ञान भौतिक पक्ष । स्वाभाविक है कि भौतिक पक्ष का चयन करने वालों की संख्या अधिक होगी, सांस्कृतिक की कम । यह अपेक्षित भी है । शास्त्रों के अध्ययन और अनुसन्धान के लिये तेजस्वी, कुशाग्र और विशाल बुद्धि के साथ साथ सादगी, संयम, लोकहित की कामना और तपश्चर्या की आवश्यकता रहेगी । भौतिक पक्ष के अध्ययन हेतु व्यावहारिक बुद्धि, धर्माचरण की तत्परता और समाजेसवा की भावना अपेक्षित है । दोनों की समाज को आवश्यकता है । स्वाभाविक रूप से ही शास्त्रों के अध्ययन हेतु दस से बीस प्रतिशत और भौतिक पक्ष के अध्ययन हेतु शेष विद्यार्थी उपलब्ध होंगे ।
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होगी । शिक्षाशास््र के एक विभाग के रूप में गर्भावस्‍था और शिशुअवस्था की शिक्षा का शास्त्र बनाना पडेगा और उसके लिये साहित्य भी तैयार करना पड़ेगा ।
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होगी । शिक्षाशास््र के एक विभाग के रूप में गर्भावस्‍था और शिशुअवस्था की शिक्षा का शास्त्र बनाना पड़ेगा और उसके लिये साहित्य भी तैयार करना पड़ेगा ।
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४५. आज देश में सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर लाखों की संख्या में प्राथमिक विद्यालय चल रहे हैं जिनमें पढ़ने वाले बच्चों की संख्या करोडों में होगी । इन विद्यालयों के सम्बन्ध में पहली ही महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक पढायें । आठ वर्ष की पढाई के बाद भी विद्यार्थियों को यदि पढ़ना लिखना नहीं आता है तो जिम्मेदार शिक्षक ही हैं ।
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४५. आज देश में सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर लाखों की संख्या में प्राथमिक विद्यालय चल रहे हैं जिनमें पढ़ने वाले बच्चोंं की संख्या करोडों में होगी । इन विद्यालयों के सम्बन्ध में पहली ही महत्त्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षक पढायें । आठ वर्ष की पढाई के बाद भी विद्यार्थियों को यदि पढ़ना लिखना नहीं आता है तो जिम्मेदार शिक्षक ही हैं ।
    
४६. पढाना शिक्षक की इच्छा मात्र पर निर्भर करता है । कोई भी नियम कानून, दबाव, प्रलोभन शिक्षक को पढ़ाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता । आज यदि शिक्षक नहीं पढाते हैं तो कोई कुछ नहीं कर सकता । हमें केवल प्रार्थना ही करनी चाहिये के भगवान शिक्षकों के हृदयों में पढाने की इच्छा जाग्रत करे ।
 
४६. पढाना शिक्षक की इच्छा मात्र पर निर्भर करता है । कोई भी नियम कानून, दबाव, प्रलोभन शिक्षक को पढ़ाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता । आज यदि शिक्षक नहीं पढाते हैं तो कोई कुछ नहीं कर सकता । हमें केवल प्रार्थना ही करनी चाहिये के भगवान शिक्षकों के हृदयों में पढाने की इच्छा जाग्रत करे ।
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४८. नहीं पढाने का ठेका कवल प्राथमिक विद्यालयों तक सीमित नहीं है । इसका विस्तार विश्वविद्यालयों तक हुआ है जिसके नमूने अत्यन्त घटिया किसम के शोधनिबन्धों के रूप में दिखाई देते हैं जो पीएचडी की पदवी प्राप्त करने हेतु स्वे जाते हैं ।
 
४८. नहीं पढाने का ठेका कवल प्राथमिक विद्यालयों तक सीमित नहीं है । इसका विस्तार विश्वविद्यालयों तक हुआ है जिसके नमूने अत्यन्त घटिया किसम के शोधनिबन्धों के रूप में दिखाई देते हैं जो पीएचडी की पदवी प्राप्त करने हेतु स्वे जाते हैं ।
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४९. व्यवस्था नहीं पढ़ाने वाले छोटे से छोटे या बडे से बडे शिक्षक का कुछ नहीं बिगाड सकती क्योंकि ऐसा करने की उसमें क्षमता ही नहीं होती । जिस प्रकार निर्जीव मृतदेह पेड के सूखे पत्ते को भी नहीं हिला सकता उसी प्रकार जड व्यवस्था जीवित शिक्षक को कुछ नहीं कर सकती ।
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४९. व्यवस्था नहीं पढ़ाने वाले छोटे से छोटे या बडे से बडे शिक्षक का कुछ नहीं बिगाड सकती क्योंकि ऐसा करने की उसमें क्षमता ही नहीं होती । जिस प्रकार निर्जीव मृतदेह पेड के सूखे पत्ते को भी नहीं हिला सकता उसी प्रकार जड़ व्यवस्था जीवित शिक्षक को कुछ नहीं कर सकती ।
    
५०. शिक्षको को हाथ जोडकर, शीश नवाकर, उनके समक्ष घुटने टेककर, उनका अनुनय विनय कर, उनमें विश्वास जता कर उनके सम्बन्ध में बने सभी कानूनों और नियमों को समाप्त कर, उन्हें wea कर ही उन्हें पढाने वाले शिक्षक बनाया जा सकता है । विद्यालय और नकारात्मक दोनों अर्थों में यह सही है । हमारा विनय जितना सही होगा उतना हमें अधिक संख्या में सही शिक्षक मिलेंगे । जितना नकारात्मक होगा उतने ही गैरशिक्षक मिलेंगे ।
 
५०. शिक्षको को हाथ जोडकर, शीश नवाकर, उनके समक्ष घुटने टेककर, उनका अनुनय विनय कर, उनमें विश्वास जता कर उनके सम्बन्ध में बने सभी कानूनों और नियमों को समाप्त कर, उन्हें wea कर ही उन्हें पढाने वाले शिक्षक बनाया जा सकता है । विद्यालय और नकारात्मक दोनों अर्थों में यह सही है । हमारा विनय जितना सही होगा उतना हमें अधिक संख्या में सही शिक्षक मिलेंगे । जितना नकारात्मक होगा उतने ही गैरशिक्षक मिलेंगे ।
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५१. यह बात तो सही है कि समाज प्रार्थना करता है, विनयशील बनता है तभी सही लोगों के मन में कल्याणकारी शिक्षा देने वाले शिक्षक बनने की प्रेरणा जाग्रत होती है ।
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५१. यह बात तो सही है कि समाज प्रार्थना करता है, विनयशील बनता है तभी सही लोगोंं के मन में कल्याणकारी शिक्षा देने वाले शिक्षक बनने की प्रेरणा जाग्रत होती है ।
    
५२. ऐसे सही शिक्षक जिन विद्यालयों में हैं उन विद्यालयों के लिये विचारणीय और करणीय बातें आगे कही गई हैं। शिक्षक स्वयं भी अनेक बातों की कल्पना कर सकते हैं ।
 
५२. ऐसे सही शिक्षक जिन विद्यालयों में हैं उन विद्यालयों के लिये विचारणीय और करणीय बातें आगे कही गई हैं। शिक्षक स्वयं भी अनेक बातों की कल्पना कर सकते हैं ।
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६५. वर्ष प्रतिवर्ष हम शिकायत ही करते रहते हैं और प्रश्न ही पूछते हैं । प्रश्नों का ही विस्तार होता है । प्रश्न की पाश्चभूमि बताते हैं परन्तु उत्तर नहीं देतें । देते हैं तो वे संदिग्ध ही होते हैं । देश में चल रही विद्वचर्या का यही स्वरूप है ।
 
६५. वर्ष प्रतिवर्ष हम शिकायत ही करते रहते हैं और प्रश्न ही पूछते हैं । प्रश्नों का ही विस्तार होता है । प्रश्न की पाश्चभूमि बताते हैं परन्तु उत्तर नहीं देतें । देते हैं तो वे संदिग्ध ही होते हैं । देश में चल रही विद्वचर्या का यही स्वरूप है ।
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६६. स्पष्ट उत्तर यह है कि शिक्षा में परिवर्तन ही प्रथम होगा, बाद में अन्य व्यवस्थाओं का । कारण भी स्पष्ट है। अन्य व्यवस्थाओं में परिवर्तन करने वाले लोगों को भी शिक्षित और दीक्षित करना पडेगा । यह शिक्षा का ही कार्य है । इसलिये प्रारम्भ शिक्षा से होना व्यावहारिक है ।
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६६. स्पष्ट उत्तर यह है कि शिक्षा में परिवर्तन ही प्रथम होगा, बाद में अन्य व्यवस्थाओं का । कारण भी स्पष्ट है। अन्य व्यवस्थाओं में परिवर्तन करने वाले लोगोंं को भी शिक्षित और दीक्षित करना पड़ेगा । यह शिक्षा का ही कार्य है । इसलिये प्रारम्भ शिक्षा से होना व्यावहारिक है ।
    
६७. शिक्षा तन्त्र के शैक्षिक पक्ष में क्या होना चाहिये और कैसे होना चाहिये इस सम्बन्ध में विपुल साहित्य और मार्गदर्शन उपलब्ध है । प्राचीनतम काल से अवचिीनतम काल तक का यह मार्गदर्शन है । परन्तु इसका कोई उपयोग नहीं है क्योंकि यान्त्रिक परीक्षा सारे प्रयासों को इस प्रकार जकडती है कि किसी मनीषी की कुछ नहीं चलती ।
 
६७. शिक्षा तन्त्र के शैक्षिक पक्ष में क्या होना चाहिये और कैसे होना चाहिये इस सम्बन्ध में विपुल साहित्य और मार्गदर्शन उपलब्ध है । प्राचीनतम काल से अवचिीनतम काल तक का यह मार्गदर्शन है । परन्तु इसका कोई उपयोग नहीं है क्योंकि यान्त्रिक परीक्षा सारे प्रयासों को इस प्रकार जकडती है कि किसी मनीषी की कुछ नहीं चलती ।

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