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१३. हमें एक नये प्रतिमान का, नई व्यवस्था का विचार करना होगा । एक ऐसा प्रतिमान जिसे लागू करने की प्रक्रिया में हम सरलता से कठिनता की ओर जा सकें और शिक्षकों के सूत्रसंचालन में सर्वसामान्य जनों का सहयोग प्राप्त कर सकें, प्रचलित शिक्षाव्यवस्था की निन्‍्दा करने के स्थान पर हम योजना को ही कार्यान्वित कर सर्के ।
 
१३. हमें एक नये प्रतिमान का, नई व्यवस्था का विचार करना होगा । एक ऐसा प्रतिमान जिसे लागू करने की प्रक्रिया में हम सरलता से कठिनता की ओर जा सकें और शिक्षकों के सूत्रसंचालन में सर्वसामान्य जनों का सहयोग प्राप्त कर सकें, प्रचलित शिक्षाव्यवस्था की निन्‍्दा करने के स्थान पर हम योजना को ही कार्यान्वित कर सर्के ।
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१४. क्रियान्वयन की एक दिशा तो इस प्रकार है । दस वर्ष की आयु तक मातापिता ही अपने बच्चों को आवश्यक शिक्षा दें । इसमें चरिन्ननिर्माण, कार्यकौशल, साक्षरता और व्यावहारिक गणित विज्ञान की शिक्षा का समावेश हो । जिस प्रकार अन्न वस्त्रादि आवश्यकताओं की पूर्ति घर में होती है उसी प्रकार ज्ञानात्मक और संस्कारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति भी घर में ही हो । जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मातापिता को अथर्जिन करना पडता है और काम करना पडता है उस प्रकार शिक्षा देना भी एक काम है । घर की वृद्ध मण्डली इसमें मूल्यबान सहयोग कर सकती है ।
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१४. क्रियान्वयन की एक दिशा तो इस प्रकार है । दस वर्ष की आयु तक मातापिता ही अपने बच्चों को आवश्यक शिक्षा दें । इसमें चरिन्ननिर्माण, कार्यकौशल, साक्षरता और व्यावहारिक गणित विज्ञान की शिक्षा का समावेश हो । जिस प्रकार अन्न वस्त्रादि आवश्यकताओं की पूर्ति घर में होती है उसी प्रकार ज्ञानात्मक और संस्कारात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति भी घर में ही हो । जिस प्रकार भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये मातापिता को अर्थार्जन करना पडता है और काम करना पडता है उस प्रकार शिक्षा देना भी एक काम है । घर की वृद्ध मण्डली इसमें मूल्यबान सहयोग कर सकती है ।
    
१५. जिन बच्चों के मातापिता अपने बच्चों के चरित्रनिर्माण और साक्षरता की शिक्षा देने की क्षमता नहीं रखते उन्हें सिखाने की व्यवस्था शिक्षकों और धर्माचार्यों को करनी चाहिये । शिक्षित मातापिता भी अपने आसपास के मातापिताओं की सहायता कर सकते हैं ।
 
१५. जिन बच्चों के मातापिता अपने बच्चों के चरित्रनिर्माण और साक्षरता की शिक्षा देने की क्षमता नहीं रखते उन्हें सिखाने की व्यवस्था शिक्षकों और धर्माचार्यों को करनी चाहिये । शिक्षित मातापिता भी अपने आसपास के मातापिताओं की सहायता कर सकते हैं ।
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२०. यदि दस वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करनी हो तो सात या आठ वर्ष की आयु तक तो बच्चों को विद्यालय में भेजना अक्षम्य ही माना जाना चाहिये ।
 
२०. यदि दस वर्ष की आयु तक प्रतीक्षा नहीं करनी हो तो सात या आठ वर्ष की आयु तक तो बच्चों को विद्यालय में भेजना अक्षम्य ही माना जाना चाहिये ।
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२१. दस वर्ष की आयु के बाद के विद्यालय व्यवसायों के आधार पर निश्चित किये जाने चाहिये । दस वर्ष की आयु तक विद्यार्थियों का व्यवसाय निश्चित हो जाना व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । अथर्जिन व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है । उसे गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिये ।
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२१. दस वर्ष की आयु के बाद के विद्यालय व्यवसायों के आधार पर निश्चित किये जाने चाहिये । दस वर्ष की आयु तक विद्यार्थियों का व्यवसाय निश्चित हो जाना व्यावहारिक दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । अर्थार्जन व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक जीवन का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पहलू है । उसे गम्भीरतापूर्वक लेना चाहिये ।
    
२२. इस दृष्टि से जितने भी उत्पादन केन्द्र हैं उन सभी केन्द्रों को अपने उत्पादन से सम्बन्धित शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये । यह शिक्षा केवल निःशुल्क होनी चाहिये इतना ही पर्याप्त नहीं है , इनमें पढने वाले सभी विद्यार्थियों की पढाई के लिये आनुषंगिक खर्च की भी व्यवस्था करनी चाहिये ।
 
२२. इस दृष्टि से जितने भी उत्पादन केन्द्र हैं उन सभी केन्द्रों को अपने उत्पादन से सम्बन्धित शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये । यह शिक्षा केवल निःशुल्क होनी चाहिये इतना ही पर्याप्त नहीं है , इनमें पढने वाले सभी विद्यार्थियों की पढाई के लिये आनुषंगिक खर्च की भी व्यवस्था करनी चाहिये ।

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