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४४. ऐसा चयन यदि नहीं कर सकते तो सन्तों और सजऊ्जनों की शरण में जाना चाहिये । हमारी बुद्धि यदि निःस्वार्थ है तो शासख्त्रज्ञ, सन्त, सज्जन को पहचानना बहुत कठिन नहीं होता है ।
 
४४. ऐसा चयन यदि नहीं कर सकते तो सन्तों और सजऊ्जनों की शरण में जाना चाहिये । हमारी बुद्धि यदि निःस्वार्थ है तो शासख्त्रज्ञ, सन्त, सज्जन को पहचानना बहुत कठिन नहीं होता है ।
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४५. जूते, कपडे तथा अन्य वस्तुयें मनुष्य द्वारा उत्पादित और मनुष्य का स्वामित्व जिसमें बाधित न होता हो ऐसी व्यवस्था से उत्पादित हो ऐसा आग्रह होना चाहिये । उदाहरण के लिये दर्जी द्वारा सीले गये कपडे पहनना चाहिये परन्तु दर्जी जिसमें नौकर है ऐसे कारखानें में बने कपडे नहीं पहनने चाहिये । मोची द्वारा बने जूते पहनना चाहिये परन्तु मोची जहाँ यन्त्र चलाने वाला नौकर है ऐसे कारखाने में बने जूते नहीं पहनने चाहिये ।
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४५. जूते, कपड़े तथा अन्य वस्तुयें मनुष्य द्वारा उत्पादित और मनुष्य का स्वामित्व जिसमें बाधित न होता हो ऐसी व्यवस्था से उत्पादित हो ऐसा आग्रह होना चाहिये । उदाहरण के लिये दर्जी द्वारा सीले गये कपड़े पहनना चाहिये परन्तु दर्जी जिसमें नौकर है ऐसे कारखानें में बने कपड़े नहीं पहनने चाहिये । मोची द्वारा बने जूते पहनना चाहिये परन्तु मोची जहाँ यन्त्र चलाने वाला नौकर है ऐसे कारखाने में बने जूते नहीं पहनने चाहिये ।
    
४६. सम्पूर्ण समाज की व्यवस्था बनी रहे इस दृष्टि से भिन्न भिन्न व्यक्तियों को भिन्न भिन्न काम करने होते हैं । इन कामों के विभिन्न स्तर और प्रकार होते हैं । व्यक्ति को समझ लेना आवश्यक है कि स्वयं जो काम कर रहा है या करना चाहता है उसका समाजव्यवस्था में क्या स्थान है। उस स्थान के अनुसार अपनी मनोभूमिका बनाना उसका कर्तव्य है ।
 
४६. सम्पूर्ण समाज की व्यवस्था बनी रहे इस दृष्टि से भिन्न भिन्न व्यक्तियों को भिन्न भिन्न काम करने होते हैं । इन कामों के विभिन्न स्तर और प्रकार होते हैं । व्यक्ति को समझ लेना आवश्यक है कि स्वयं जो काम कर रहा है या करना चाहता है उसका समाजव्यवस्था में क्या स्थान है। उस स्थान के अनुसार अपनी मनोभूमिका बनाना उसका कर्तव्य है ।
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६६. हम सीखते जाते हैं और अनुभव प्राप्त करते जाते हैं । तब हमें सिखाने की भी इच्छा होती है और अपने चरित्र तथा व्यवहार से अनेक लोगोंं को अनेक बातें सिखाते भी हैं । उनका कल्याण होता है । फिर एक समय ऐसा आता है जब सिखाने की इच्छा भी नहीं रहती और हम प्रयास भी नहीं करते । तो भी लोग हम से सीखते ही है ।
 
६६. हम सीखते जाते हैं और अनुभव प्राप्त करते जाते हैं । तब हमें सिखाने की भी इच्छा होती है और अपने चरित्र तथा व्यवहार से अनेक लोगोंं को अनेक बातें सिखाते भी हैं । उनका कल्याण होता है । फिर एक समय ऐसा आता है जब सिखाने की इच्छा भी नहीं रहती और हम प्रयास भी नहीं करते । तो भी लोग हम से सीखते ही है ।
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६७. नदी किसी को पोनी देने के लिये नहीं बहती फिर भी लोगोंं को नदी से पानी मिलता ही है उसी प्रकार लोग हमसे सीखते ही है । ऐसी अवस्था को पहुँचना हमारा लक्ष्य है कि नहीं इसका विचार करना चाहिये । शिक्षा इसी के लिये होती है ।
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६७. नदी किसी को पोनी देने के लिये नहीं बहती तथापि लोगोंं को नदी से पानी मिलता ही है उसी प्रकार लोग हमसे सीखते ही है । ऐसी अवस्था को पहुँचना हमारा लक्ष्य है कि नहीं इसका विचार करना चाहिये । शिक्षा इसी के लिये होती है ।
    
६८. हमारा शरीर बहुत ही अच्छा आज्ञाकारी चाकर है, बहुत ही कुशल यन्त्र है । उसे हम मन का चाकर बनाते हैं या बुद्धि का यह समझ लेना चाहिये । यदि वह मन का चाकर है तो उसे उससे मुक्त कर बुद्धि के अधीन बनाना चाहिये ।
 
६८. हमारा शरीर बहुत ही अच्छा आज्ञाकारी चाकर है, बहुत ही कुशल यन्त्र है । उसे हम मन का चाकर बनाते हैं या बुद्धि का यह समझ लेना चाहिये । यदि वह मन का चाकर है तो उसे उससे मुक्त कर बुद्धि के अधीन बनाना चाहिये ।

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