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==== ३. शिक्षा का व्यवसायात्मक पक्ष ====
 
==== ३. शिक्षा का व्यवसायात्मक पक्ष ====
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भारतीय शिक्षा के विनाश का प्रारम्भ तो ब्रिटीशों के मानस में अठारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में आने लगा । तब से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की समाप्ति तक ब्रिटीश राहु ने भारतीय शिक्षा को पूर्ण रूप से ग्रस लिया । इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के अन्त तक, अर्थात् आज तक वह ग्रहण छूटा नहीं है । स्वाधीन भारत में भी शिक्षा स्वाधीन नहीं है।
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शिक्षा के पश्चिमीकरण का एक हिस्सा है शिक्षा का सरकार के हस्तक, सरकार के नियन्त्रण में होना । भारतीय शिक्षा के प्रदीर्घ इतिहास में शिक्षा कभी भी शासन के हस्तक या शासन के नियन्त्रण में नहीं रही। इसीलिये वह राज्य और प्रजा के लिये कल्याणकारी बनी रही। वैसे तो शिक्षा ही क्यों भारतीय समाज भी शासन के अधीन कभी नहीं रहा । व्यापार उद्योग, धर्म संस्कृति, शिक्षा, परिवार शासन के अधीन नहीं होना ही स्वाभाविक था । शासन को इसकी चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है ? शासन को केवल व्यवस्था, सुरक्षा, अनुकूलता देखना है, अवरोध दूर करने हैं, प्रजा की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता की रक्षा करनी
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इस व्यवस्था पर ही आघात हुआ और ब्रिटीश शासनने प्रजा की सम्पूर्ण स्वायत्त व्यवस्था अपने अधीन कर दी। उन्हें स्वायत्त समाज की समझ भी नहीं थी और उनके स्वार्थी उद्देश्यों की पूर्ति हेतु पराई प्रजा को अपने अधीन बनाने की उन्हें आवश्यकता भी थी। जब सारी व्यवस्थायें शासन के अधीन हो गई तो शिक्षा भी हो गई। बल्कि शिक्षा का शासन के अधीन होना उनके लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण था क्योंकि उसके परिणाम स्वरूप ही प्रजा की स्वतन्त्रता की चाह समाप्त हो जाती है ।
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ब्रिटीशों ने शिक्षा को अपने अधीन बना लिया और उसी क्रम को स्वाधीन भारत की सरकार ने उत्तराधिकार के रूप में स्वीकार कर लिया। स्वाधीन भारत में भी शिक्षा स्वायत्त और स्वतन्त्र नहीं हुई । केवल शिक्षा ही नहीं तो सम्पूर्ण समाज ही शासन के अधीन बनकर जी रहा है। समाज जीवन को संचालित करनेवाली जो व्यवस्थायें थीं वे सब छिन्वविच्छिन्न कर दी गई, शिक्षा के माध्यम से शिक्षित वर्ग में उनके प्रति तिरस्कार और हीनता का भाव भर गया और परिणाम स्वरूप आज केवल पूर्वजों के पुण्य के भरोसे चल रहा है, उसकी अपनी कोई व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था के नाम पर केवल संविधान और कानून हैं जो सरकार के हस्तक हैं । केवल प्रजा के पुण्य कुछ बचे हैं इसलिये परिवारसंस्था अभी कुछ मात्रा में स्वायत्त है । उसमें भी शिक्षा और अर्थार्जन तो स्वायत्त नहीं है। खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन, व्रत, उपवास, कथाश्रवण, पर्वत्यौहार, सन्तानों के संगोपन और विवाहादि में, भले ही पश्चिमी प्रभाव से हतबल, परन्तु स्वायत्त है।
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प्रजामानस आन्तरिक दन्द्र से ग्रस्त है। यह भारतीय संस्कृति की महत्ता और हमारे मेघावी पूर्वजों की तपश्चर्या और समस्त रचना विषयक गहन मनोवैज्ञानिक समझ का सामर्थ्य ही है कि पश्चिम के भीषण झंझावात में जहाँ अनेक देश नष्ट हो गये, अनेक देश इसाई हो गये, अनेक अपनी संस्कृति बदलकर अस्तित्व टिका रहे हैं, वहाँ भारत क्षतविक्षत होकर भी वही भारत है जो वेदों के समय में था। भारत क्षीणप्राण हुआ है, गतप्राण नहीं। इस क्षीणप्राणता का ही लक्षण है कि भारत का अन्तरंग और बहिरंग निरन्तर संघर्षरत है। भारत का अन्तरंग भारत है और बहिरंग पश्चिम है। अन्तरंग का कहना बहिरंग नहीं मानता और बहिरंग का समर्थन अन्तरंग नहीं करता । इनके निरन्तर संघर्ष में दिनप्रतिदिन संकट तो भीषण होता जा रहा है परन्तु आशा अभी बची है । इस अवस्था में शिक्षा का स्वायत्त होना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।
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परन्तु यह सरल नहीं है । किसकी इच्छाशक्ति के बल पर शिक्षा स्वायत्त होगी ? शिक्षक शिक्षा के अधिष्ठाता हैं परन्तु वे हार चुके हैं। स्वतन्त्र होने की न चाह है न शक्तिः । सरकार शिक्षा को मुक्त करने में असमर्थ है क्योंकि अब वहाँ जिन्दा व्यक्तियों का नहीं अपितु सिस्टम का आधिपत्य है । सिस्टम जिन्दा नहीं होने के कारण से उसमें न लचीलापन है, न विवेक, न भावना । इस सिस्टम में काम करनेवाले जिन्दा तो हैं परन्तु वे सिस्टम द्वारा जकडे हुए ही हैं। वे सिस्टम के ही आधिपत्य में काम कर रहे हैं । इस देश में स्वतन्त्र होने की सबसे कम चाह यदि किसी वर्ग में हो तो वह है प्रशासकों का वर्ग जिसमें सचिव से लेकर सामान्य बाबू तक के लोगों का समावेश है । चाहे संस्कृत विभाग का हो या संस्कृति विभाग का, चाहे वनवासी विभाग का हो चाहे ग्रामीण क्षेत्र का, चाहे मध्यप्रदेश का हो, बिहार का हो या हरियाणा का, यह वर्ग अंग्रेजी में ही बात करता है, अंग्रेजी में ही पत्रव्यवहार करता है और अंग्रेजी नहीं जाननावालों के प्रति उसी दृष्टि से देखता है जैसे ब्रिटीश भारतीयों को देखते थे।
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शिक्षा को भारतीय बनाने के अभियान की यह सबसे कठिन श्रेणी है । इसलिये शैक्षिक संगठनों को चाहिये कि वे इस श्रेणी के साथ संवाद स्थापित करें । यह वर्ग बुद्धिमान है, चतुर है, परिस्थिति को समझने वाला है। इस वर्ग के साथ शिक्षा को भारतीय बनाने की अनिवार्यता को लेकर शास्त्रार्थ किया जाय, भावना और बुद्धि दोनों को सम्बोधित किया जाय और जनमानस प्रबोधन से भी अधिक महत्त्वपूर्ण मानकर उनका प्रबोधन किया जाय । उन्हें ही सिस्टम से मुक्त होने का मार्ग बताने के लिये आग्रह किया जाय । शैक्षिक संगठन सरकार से कृपा मांगने के स्थान पर शिक्षा की मुक्ति माँगे । शासकों को भी इस कार्य में साथ में लिया जाय और शासन, प्रशासन, धर्मसंस्थायें और शैक्षिक संगठन मिलकर इस समस्या का समाधान करने का बीडा उठायें।
    
==References==
 
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