परन्तु तय कौन करे यह समस्या है। वर्तमान में देश की शिक्षा राज्य के अर्थात् शासन के हाथ में है। राज्य शिक्षाक्षेत्र में ऐसा कोई साहस दिखा नहीं सकता, उसकी अपनी ही अनेक मर्यादायें हैं । बन्धन हैं। यदि राज्य नहीं करता तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र ही यह तय करे । इसकी सीमा यह है कि शासन के निर्देश और अनुमति के बिना वे कर नहीं सकते । दोनो होने के बाद अध्यापकों की इच्छाशक्ति चाहिये । आज तो इसकी कल्पना करना कठिन है । विश्वविद्यालयों को साथ में जोडते हुए संगठित करने वाली कोई रचना नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सभी विश्वविद्यालयों को अपने साथ जोडे रखता है। परन्तु यह आर्थिक पक्ष ही देखता है । यदि सरकार इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग बनाकर इसे शैक्षिक संगठन का रूप दे और इसका एकमात्र कार्य शिक्षा को भारतीय बनाने का ही निश्चित किया जाय तो स्थिति बदलनी शुरू हो सकती है। दूसरी एक आशा है देश में चल रहे अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक और सांस्कृतिक - धार्मिक संगठनों से । धर्म और शिक्षा एक साथ मिलकर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करना निश्चित कर लें तो यह कार्य हो सकता है। डेढ सौ वर्षों से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन विविध स्वरूपों में चल रहा है । सफलता और असफलता के बीच झूल रहा है । डेढ सौ वर्षों के अनुभवों से सीखकर, वर्तमान समय का आकलन कर यदि संगठित होकर शिक्षा योजना बनाई जाय और इसमें शासन का भी सहयोग प्राप्त हो तो प्रजा का अनुकूल होना कठिन नहीं है, बल्कि प्रजा तो ऐसी किसी योजना का स्वागत करने हेतु तत्पर है। शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का संक्षेप में विचार कर अब हम दूसरे व्यवस्थाकीय पहलू का विचार करेंगे। | परन्तु तय कौन करे यह समस्या है। वर्तमान में देश की शिक्षा राज्य के अर्थात् शासन के हाथ में है। राज्य शिक्षाक्षेत्र में ऐसा कोई साहस दिखा नहीं सकता, उसकी अपनी ही अनेक मर्यादायें हैं । बन्धन हैं। यदि राज्य नहीं करता तो उच्च शिक्षा का क्षेत्र ही यह तय करे । इसकी सीमा यह है कि शासन के निर्देश और अनुमति के बिना वे कर नहीं सकते । दोनो होने के बाद अध्यापकों की इच्छाशक्ति चाहिये । आज तो इसकी कल्पना करना कठिन है । विश्वविद्यालयों को साथ में जोडते हुए संगठित करने वाली कोई रचना नहीं है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग सभी विश्वविद्यालयों को अपने साथ जोडे रखता है। परन्तु यह आर्थिक पक्ष ही देखता है । यदि सरकार इसे विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग बनाकर इसे शैक्षिक संगठन का रूप दे और इसका एकमात्र कार्य शिक्षा को भारतीय बनाने का ही निश्चित किया जाय तो स्थिति बदलनी शुरू हो सकती है। दूसरी एक आशा है देश में चल रहे अखिल भारतीय स्तर के शैक्षिक और सांस्कृतिक - धार्मिक संगठनों से । धर्म और शिक्षा एक साथ मिलकर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा करना निश्चित कर लें तो यह कार्य हो सकता है। डेढ सौ वर्षों से राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन विविध स्वरूपों में चल रहा है । सफलता और असफलता के बीच झूल रहा है । डेढ सौ वर्षों के अनुभवों से सीखकर, वर्तमान समय का आकलन कर यदि संगठित होकर शिक्षा योजना बनाई जाय और इसमें शासन का भी सहयोग प्राप्त हो तो प्रजा का अनुकूल होना कठिन नहीं है, बल्कि प्रजा तो ऐसी किसी योजना का स्वागत करने हेतु तत्पर है। शिक्षा के ज्ञानात्मक पक्ष का संक्षेप में विचार कर अब हम दूसरे व्यवस्थाकीय पहलू का विचार करेंगे। |