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=== ब्रहमचर्याश्रम ===
 
=== ब्रहमचर्याश्रम ===
आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं ।
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आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं । प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं। जन्म से पूर्व गर्भाधान, पुंसबन और सीमंतोन्नयन ऐसे तीन संस्कार उस पर किये जाते हैं। जन्म के बाद जातकर्म, कर्णवेध, नामकरण, चौलकर्म, और विद्यारंभ ऐसे संस्कार किये जाते हैं। ये संस्कार शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उपचार हैं। ये सब चरित्रनिर्माण की नींव हैं। जीवनविकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया कैसे चलेगी यह इसी समय तय होता है। यद्यपि यह ब्रह्मचर्याश्रम के वर्णन में समाविष्ट नहीं होता है क्योंकि यह व्यक्ति ने नहीं अपितु मातापिता ने करना होता है पर होता व्यक्ति पर ही है। प्रथम पाँच वर्ष में ये संस्कार हो जाते हैं। उसके बाद उपनयन संस्कार होता है और व्यक्ति का ब्रह्मचर्याश्रम शुरू होता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म में चर्या। चर्या का अर्थ है आचरण की पद्धति। ब्रह्म को प्राप्त करने हेतु जो जो करना होता है वह ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्याश्रम के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं:
प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं । जन्म से पूर्व
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* गुरुगृहवास : ब्रह्मचारी मातापिता का घर छोड़कर गुरु के घर रहने के लिये जाता है । गुरु के घर जाकर वह गुरु के घर की सारी रीत अपनाता है । वह उसका गुरुकुल है। गुरु के घर के सदस्य के नाते उसे घर के सारे कामों के दायित्व में सहभागी होना है। घर के सारे काम करने हैं। गुरुमाँ को भी काम में सहायता करनी है। स्वच्छता करना, पानी भरना, इंधन लाना आदि काम करने हैं। गुरु की परिचर्या करनी है। ये सब काम श्रमसाध्य हैं। श्रम करना इस आश्रम में महत्त्वपूर्ण पहलू है। श्रम करते करते और ये सारे काम करते करते इन कामों की मानसिक और शारीरिक शिक्षा भी होती है, अर्थात्‌ ये सब काम करना भी आता है और काम करने की मानसिकता भी बनती है। गुरुगृह में गुरु जो खाते हैं वैसे ही उसे भी खाना है, वे जिन सुविधाओं का उपभोग करते हैं उन्ही का उपभोग करना है।
गर्भाधान, पुंसबन और सीमंतोन्नयन ऐसे तीन संस्कार उस
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पर किये जाते हैं। जन्म के बाद जातकर्म, कर्णवेध,
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नामकरण, चौलकर्म, और बविद्यास्भ ऐसे संस्कार किये जाते
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हैं। ये संस्कार शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से
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महत्त्वपूर्ण उपचार हैं । ये सब चरित्रनिर्माण की सींव हैं ।
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जीवनविकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया कैसे चलेगी यह इसी
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समय तय होता है । यद्यपि यह ब्रह्मचर्याश्रम के वर्णन में
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समाविष्ट नहीं होता है क्योंकि यह व्यक्ति ने नहीं अपितु
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मातापिता ने करना होता है पर होता व्यक्ति पर ही है।
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प्रथम पाँच वर्ष में ये संस्कार हो जाते हैं । उसके बाद
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उपनयन संस्कार होता है और व्यक्ति का ब्रह्मचर्याश्रम शुरू
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होता है । ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म में चर्या । चर्या का अर्थ
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है आचरण की पद्धति ।. ब्रह्म को प्राप्त करने हेतु जो जो
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करना होता है वह ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्याश्रम के प्रमुख
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लक्षण इस प्रकार हैं
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०... गुरुगृहवास : ब्रह्मचारी मातापिता का घर छोड़कर गुरु
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के घर रहने के लिये जाता है गुरु के घर जाकर वह
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* भिक्षा : गुरुगृहवास में भिक्षा माँगकर लाना भी एक महत्त्वपूर्ण काम है। भिक्षा के भी नियम हैं। प्रतिदिन एक ही घर से भिक्षा नहीं माँगना है। जहाँ रोज अच्छा ही भोजन मिलता है उसी घर भिक्षा नहीं माँगना है। भिक्षा माँगकर गुरु को सुपुर्द करना है और बाद में गुरु देते हैं वही ग्रहण करना है। पाँच घर से ही भिक्षा माँगना है। भिक्षा माँगने से जनसम्पर्क होता है, विनयशीलता आती है और व्यवहारज्ञान भी बढ़ता है।
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गुरु के घर की सारी रीत अपनाता है । वह उसका
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* संयम : संयम अथवा इन्द्रियनिग्रह यह ब्रह्मचर्य के आचार का कठोर नियम है। ब्रह्मचर्य के सूचक मेखला और दण्ड धारण करना है। वस्त्र सादे ही होने चाहिये। रेशमी वस्त्र, आभूषण, शृंगार आदि सर्वथा त्याज्य हैं। मिष्टान्न सेवन नहीं करना है। नाटक, संगीत या अन्य मनोरंजन सर्वथा त्याज्य है। खाट पर नहीं अपितु नीचे भूमि पर सोना है। यज्ञ के लिये समिधा एकत्रित करना है। लड़कियों के साथ बात नहीं करना है। शृंगारप्रधान साहित्य नहीं पढ़ना है। ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि कर एकाग्रता और शरीर सौष्ठव प्राप्त करना है ।
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गुरुकुल है । गुरु के घर के सदस्य के नाते उसे घर के
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* गुर्सेवा : गुरु की परिचर्या करना है । गुरु की आज्ञा का अक्षरश: पालन करना है । प्रात:काल गुरु जागे, उससे पूर्व जागना है और रात्रि में गुरु सो जाय उसके बाद सोना है। गुरु की पूजा, योगाभ्यास, अध्ययन आदि की तैयारी करना है। गुरु के प्रति नितान्त आदर होना अपेक्षित है। गुरु खड़े हों तब तक बैठना नहीं है। गुरु से ऊँचे आसन पर बैठना नहीं है। गुरु के वचन में सन्देह नहीं करना है। गुरुवाक्य प्रमाण मानना है।
सारे कामों के दायित्व में सहभागी होना है । घर के
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सारे काम करने हैं । गुरुमाँ को भी काम में सहायता
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करनी है । स्वच्छता करना, पानी भरना, इंधन लाना
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आदि काम करने हैं । गुरु की परिचर्या करनी है । ये
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सब काम श्रमसाध्य हैं । श्रम करना इस आश्रम में
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महत्त्वपूर्ण पहलू है । श्रम करते करते और ये सारे
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काम करते करते इन कामों की मानसिक और
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शारीरिक शिक्षा भी होती है, अर्थात्‌ ये सब काम
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करना भी आता है और काम करने की मानसिकता
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भी बनती है । गुरुगृह में गुरु जो खाते हैं वैसे ही उसे
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भी खाना है, वे जिन सुविधाओं का उपभोग करते हैं
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उन्हीका उपभोग करना है ।
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०. भिक्षा : गुरुगृहवास में भिक्षा माँगकर लाना भी एक
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* वेदाध्ययन : ब्रह्मचर्याश्रम अध्ययन के लिये है। गुरु जब भी पढ़ाना चाहें अध्ययन के लिये तत्पर रहना है। गुरु ने नियत किये हुए काल में अध्ययन करना है। गुरु ने तय किया हुआ ही अध्ययन करना है।
महत्त्वपूर्ण काम है । भिक्षा के भी नियम हैं । प्रतिदिन
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एक ही घर से भिक्षा नहीं माँगना है। जहाँ रोज
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अच्छा ही भोजन मिलता है उसी घर भिक्षा नहीं
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माँगना है । भिक्षा माँगकर गुरु को सुपुर्द करना है
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और बाद में गुरु देते हैं वही ग्रहण करना है । पाँच
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घर से ही भिक्षा माँगना है। भिक्षा माँगने से
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जनसम्पर्क होता है, विनयशीलता आती है और
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व्यवहारज्ञान भी बढ़ता है ।
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०. संयम : संयम अथवा इन्द्रियनिग्रह यह ब्रह्मचर्य के
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* अनुशासन और नियमपालन : कठोर अनुशासन का और आश्रम के नियमों का पालन अनिवार्य है। यदि प्रमाद होता है तो प्रायश्चित्त करना है। गुरु जो प्रायश्चित  या दंड बताएं, उसको अच्छे मन से स्वीकार करना है। गुरु का द्रोह करना अतिशय निंदनीय है।
आचार का कठोर नियम है । ब्रह्मचर्य के सूचक
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मेखला और दण्ड धारण करना है । वस्त्र सादे ही होने
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इस प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम यह कठोर व्रत, तप और विद्याध्ययन का काल है । यह चरित्र और क्षमताओं के अर्जन का काल है। सामान्य रूप से बारह वर्ष का काल विद्याध्ययन का काल माना जाता है। बारह वर्षों में वह गुरु ने नियत किया हुआ अध्ययन कर लेता है। अध्ययन समाप्त होने के बाद गुरु अपनी पद्धति से परीक्षा करते हैं। उसमें उत्तीर्ण होने पर वे घर जाने की अनुज्ञा देते हैं। यदि उत्तीर्ण नहीं हुआ तो गुरु की आज्ञा के अनुसार आगे भी अध्ययन करना है। अध्ययन समाप्त होने पर समावर्तन संस्कार होते है। ब्रह्मचारी स्नान करता है, नये वस्त्र और आभूषण धारण करता है और गुरु की आज्ञा से गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर गुरुकुल छोड़कर अपने पिता के घर जाने हेतु प्रस्थान करता है। उस समय वह विशेष स्नान करता है इसलिये उसे स्नातक कहते हैं। वह व्रतस्नातक और विद्यास्नातक होता है। केवल व्रतस्नातक भी नहीं और केवल विद्यास्नातक भी नहीं। ऐसे स्नातक का समाज में अतिशय मान और गौरव है। यदि रास्ते में राजा और स्नातक आमने सामने पड़ जाय तो
चाहिये । रेशमी वस्त्र, आभूषण, शृंगार आदि सर्वथा
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त्याज्य हैं । मिष्टान्न सेवन नहीं करना है । नाटक,
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संगीत या अन्य मनोरंजन सर्वथा त्याज्य है । खाट पर
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नहीं अपितु नीचे भूमि पर सोना है । यज्ञ के लिये
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समिधा एकत्रित करना है । लड़कियों के साथ बात
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नहीं करना है । शृंगारप्रधान साहित्य नहीं पढ़ना है ।
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ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि कर एकाग्रता और
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शरीर सौष्ठव प्राप्त करना है ।
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०. गुर्सेवा : गुरु की परिचर्या करना है । गुरु की आज्ञा
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... आश्रम है। स्नातक अब गृहस्थ बनता है । गृहस्थ की
 
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का अक्षरश: पालन करना है । प्रात:काल गुरु जागे
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उससे पूर्व जागना है और रात्रि में
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गुरु सो जाय उसके बाद सोना है । गुरु की पूजा,
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योगाभ्यास, अध्ययन आदि की तैयारी करना है । गुरु
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के प्रति नितान्त आदर होना अपेक्षित है । गुरु खड़े
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हों तब तक बैठना नहीं है । गुरु से ऊँचे आसन पर
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बैठना नहीं है । गुरु के वचन में सन्देह नहीं करना
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है । गुरुवाक्य प्रमाण मानना है ।
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०... वेदाध्ययन : ब्रह्मचर्याश्रम अध्ययन के लिये है ।
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गुरु जब भी पढ़ाना चाहें अध्ययन के लिये तत्पर
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रहना है । गुरु ने नियत किये हुए काल में अध्ययन
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करना है । गुरु ने तय किया हुआ ही अध्ययन करना
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है।
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०... अनुशासन और नियमपालन : कठोर अनुशासन का
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और आश्रम के नियमों का पालन अनिवार्य है । यदि
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प्रमाद होता है तो प्रायश्चित्त करना है । गुरु जो
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was a ws sad sant अच्छे मन से
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स्वीकार करना है। गुरु का द्रोह करना अतिशय
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Fete है ।
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इस प्रकार ब्रह्मचर्याश्रम यह कठोर ब्रत, तप और
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विद्याध्ययन का काल है । यह चरित्र और क्षमताओं के
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अर्जन का काल है । सामान्य रूप से बारह वर्ष का काल
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विद्याध्ययन का काल माना जाता है । बारह वर्षों में वह गुरु
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ने नियत किया हुआ अध्ययन कर लेता है। अध्ययन
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समाप्त होने के बाद गुरु अपनी पद्धति से परीक्षा करते हैं ।
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उसमें उत्तीर्ण होने पर वे घर जाने की अनुज्ञा देते हैं । यदि
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उत्तीर्ण नहीं हुआ तो गुरु की आज्ञा के अनुसार आगे भी
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अध्ययन करना है । अध्ययन समाप्त होने पर समावर्तन
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संस्कार होते है । ब्रह्मचारी स्नान करता है, नये वस्त्र और
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आभूषण धारण करता है और गुरु की आज्ञा से गृहस्थाश्रम
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में प्रवेश कर गुरुकुल छोड़कर अपने पिता के घर जाने हेतु
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प्रस्थान करता है । उस समय वह विशेष स्नान करता है
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इसलिये उसे स्नातक कहते हैं । वह ब्रतस्नातक और
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विद्यास्नातक होता है । केवल ब्रतस्नातक भी नहीं और
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केवल विद्यास्नातक भी नहीं । ऐसे स्नातक का समाज में
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अतिशय मान और गौरव है । यदि रास्ते में राजा और
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स्नातक आमने सामने पड़ जाय तो... आश्रम है। स्नातक अब गृहस्थ बनता है । गृहस्थ की
   
राजा ही स्नातक को मार्ग देता है । परिभाषा है, गृहेषु दारेषु तिष्ठति अभिरमते इति गृहस्थ:
 
राजा ही स्नातक को मार्ग देता है । परिभाषा है, गृहेषु दारेषु तिष्ठति अभिरमते इति गृहस्थ:
 
ब्रह्मचर्याश्रम व्यक्ति की हर प्रकार की क्षमताओं का... अर्थात्‌ जो घर में रहता है और पत्नी में रमण करता है वह
 
ब्रह्मचर्याश्रम व्यक्ति की हर प्रकार की क्षमताओं का... अर्थात्‌ जो घर में रहता है और पत्नी में रमण करता है वह

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