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| धर्म कर्तव्य के रूप में भी मनुष्य के जीवन के साथ जुड़ा है। व्यक्ति को अपना शरीर स्वास्थ्य बनाए रखना चाहिए। पशु को शरीर स्वास्थ्य की इतनी चिन्ता नहीं होती जितनी मनुष्य को होती है। पशु प्रकृति के द्वारा नियंत्रित जीवन जीता है इसलिए उसका आहारविहार नियमित होता है और वह साधारण रूप से बीमार नहीं होता। हो भी गया तो अपनी प्राणिक वृत्ति से प्रेरित होकर उचित आहार नियंत्रण करता है और पुन: स्वस्थ हो जाता है। मनुष्य अपने मन की आसक्ति के कारण आहार विहार में अनियमित हो जाता है और बीमार होता है। धर्म उसे मन को नियंत्रण में रखना सिखाता है जिससे वह अपना स्वास्थ्य ठीक करता है। धर्मबुद्धि ही उसे समझाती है कि शरीर धर्म का पालन करने हेतु साधन है और उसे स्वस्थ रखना चाहिए। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए और बुद्धि को तेजस्वी बनाने हेतु उसने अपने मन को वश में करना चाहिए। मन, जो हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता है, चंचल रहता है उसे शान्त बनाना चाहिए, एकाग्र बनाना चाहिए। अर्थात् मनुष्य के अपनेआप के प्रति जो कर्तव्य हैं उनका पालन करना ही धर्म का पालन करना है। | | धर्म कर्तव्य के रूप में भी मनुष्य के जीवन के साथ जुड़ा है। व्यक्ति को अपना शरीर स्वास्थ्य बनाए रखना चाहिए। पशु को शरीर स्वास्थ्य की इतनी चिन्ता नहीं होती जितनी मनुष्य को होती है। पशु प्रकृति के द्वारा नियंत्रित जीवन जीता है इसलिए उसका आहारविहार नियमित होता है और वह साधारण रूप से बीमार नहीं होता। हो भी गया तो अपनी प्राणिक वृत्ति से प्रेरित होकर उचित आहार नियंत्रण करता है और पुन: स्वस्थ हो जाता है। मनुष्य अपने मन की आसक्ति के कारण आहार विहार में अनियमित हो जाता है और बीमार होता है। धर्म उसे मन को नियंत्रण में रखना सिखाता है जिससे वह अपना स्वास्थ्य ठीक करता है। धर्मबुद्धि ही उसे समझाती है कि शरीर धर्म का पालन करने हेतु साधन है और उसे स्वस्थ रखना चाहिए। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए और बुद्धि को तेजस्वी बनाने हेतु उसने अपने मन को वश में करना चाहिए। मन, जो हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता है, चंचल रहता है उसे शान्त बनाना चाहिए, एकाग्र बनाना चाहिए। अर्थात् मनुष्य के अपनेआप के प्रति जो कर्तव्य हैं उनका पालन करना ही धर्म का पालन करना है। |
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− | दूसरे क्रम पर मनुष्य का अपने आसपास के मनुष्यों के प्रति जो कर्तव्य है उसका भी पालन उसे करना है। उसे अपने कुटुंब में पिता, पुत्र, भाई, पति, मामा, चाचा या माता, पुत्री, पत्नी, बहन, भाभी आदि अनेक प्रकार की भूमिकायें निभानी होती हैं। यह भी उसका कर्त्तव्य अर्थात धर्म है। पशु पक्षी, प्राणी, वृक्ष वनस्पति आदि के प्रति जो कर्तव्य है, वह भी उसका धर्म है। समाज में वह शिक्षक, व्यापारी, मंत्री, कृषक, धर्माचार्य आदि अनेक प्रकार से व्यवहार करता है। यह व्यवहार उचित प्रकार से करना उसका धर्म है। अर्थात् कर्तव्यधर्म धर्म का एक बहुत बड़ा और कदाचित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आयाम है । | + | दूसरे क्रम पर मनुष्य का अपने आसपास के मनुष्यों के प्रति जो कर्तव्य है उसका भी पालन उसे करना है। उसे अपने कुटुंब में पिता, पुत्र, भाई, पति, मामा, चाचा या माता, पुत्री, पत्नी, बहन, भाभी आदि अनेक प्रकार की भूमिकायें निभानी होती हैं। यह भी उसका कर्त्तव्य अर्थात धर्म है। पशु पक्षी, प्राणी, वृक्ष वनस्पति आदि के प्रति जो कर्तव्य है, वह भी उसका धर्म है। समाज में वह शिक्षक, व्यापारी, मंत्री, कृषक, धर्माचार्य आदि अनेक प्रकार से व्यवहार करता है। यह व्यवहार उचित प्रकार से करना उसका धर्म है। अर्थात् कर्तव्यधर्म धर्म का एक बहुत बड़ा और कदाचित सर्वाधिक महत्वपूर्ण आयाम है । |
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| भारत के मनीषियों ने इस कर्तव्यधर्म को अनेक | | भारत के मनीषियों ने इस कर्तव्यधर्म को अनेक |
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| === ब्रहमचर्याश्रम === | | === ब्रहमचर्याश्रम === |
− | आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं । प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं। जन्म से पूर्व गर्भाधान, पुंसबन और सीमंतोन्नयन ऐसे तीन संस्कार उस पर किये जाते हैं। जन्म के बाद जातकर्म, कर्णवेध, नामकरण, चौलकर्म, और विद्यारंभ ऐसे संस्कार किये जाते हैं। ये संस्कार शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण उपचार हैं। ये सब चरित्रनिर्माण की नींव हैं। जीवनविकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया कैसे चलेगी यह इसी समय तय होता है। यद्यपि यह ब्रह्मचर्याश्रम के वर्णन में समाविष्ट नहीं होता है क्योंकि यह व्यक्ति ने नहीं अपितु मातापिता ने करना होता है पर होता व्यक्ति पर ही है। प्रथम पाँच वर्ष में ये संस्कार हो जाते हैं। उसके बाद उपनयन संस्कार होता है और व्यक्ति का ब्रह्मचर्याश्रम शुरू होता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म में चर्या। चर्या का अर्थ है आचरण की पद्धति। ब्रह्म को प्राप्त करने हेतु जो जो करना होता है वह ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्याश्रम के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं: | + | आयु के प्रथम पचीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम के होते हैं । प्रथम छः से आठ वर्ष घर में ही बीतते हैं। जन्म से पूर्व गर्भाधान, पुंसबन और सीमंतोन्नयन ऐसे तीन संस्कार उस पर किये जाते हैं। जन्म के बाद जातकर्म, कर्णवेध, नामकरण, चौलकर्म, और विद्यारंभ ऐसे संस्कार किये जाते हैं। ये संस्कार शरीरविज्ञान और मनोविज्ञान की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपचार हैं। ये सब चरित्रनिर्माण की नींव हैं। जीवनविकास की सम्पूर्ण प्रक्रिया कैसे चलेगी यह इसी समय तय होता है। यद्यपि यह ब्रह्मचर्याश्रम के वर्णन में समाविष्ट नहीं होता है क्योंकि यह व्यक्ति ने नहीं अपितु मातापिता ने करना होता है पर होता व्यक्ति पर ही है। प्रथम पाँच वर्ष में ये संस्कार हो जाते हैं। उसके बाद उपनयन संस्कार होता है और व्यक्ति का ब्रह्मचर्याश्रम शुरू होता है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म में चर्या। चर्या का अर्थ है आचरण की पद्धति। ब्रह्म को प्राप्त करने हेतु जो जो करना होता है वह ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्याश्रम के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं: |
− | * गुरुगृहवास : ब्रह्मचारी मातापिता का घर छोड़कर गुरु के घर रहने के लिये जाता है । गुरु के घर जाकर वह गुरु के घर की सारी रीत अपनाता है । वह उसका गुरुकुल है। गुरु के घर के सदस्य के नाते उसे घर के सारे कामों के दायित्व में सहभागी होना है। घर के सारे काम करने हैं। गुरुमाँ को भी काम में सहायता करनी है। स्वच्छता करना, पानी भरना, इंधन लाना आदि काम करने हैं। गुरु की परिचर्या करनी है। ये सब काम श्रमसाध्य हैं। श्रम करना इस आश्रम में महत्त्वपूर्ण पहलू है। श्रम करते करते और ये सारे काम करते करते इन कामों की मानसिक और शारीरिक शिक्षा भी होती है, अर्थात् ये सब काम करना भी आता है और काम करने की मानसिकता भी बनती है। गुरुगृह में गुरु जो खाते हैं वैसे ही उसे भी खाना है, वे जिन सुविधाओं का उपभोग करते हैं उन्ही का उपभोग करना है। | + | * गुरुगृहवास : ब्रह्मचारी मातापिता का घर छोड़कर गुरु के घर रहने के लिये जाता है । गुरु के घर जाकर वह गुरु के घर की सारी रीत अपनाता है । वह उसका गुरुकुल है। गुरु के घर के सदस्य के नाते उसे घर के सारे कामों के दायित्व में सहभागी होना है। घर के सारे काम करने हैं। गुरुमाँ को भी काम में सहायता करनी है। स्वच्छता करना, पानी भरना, इंधन लाना आदि काम करने हैं। गुरु की परिचर्या करनी है। ये सब काम श्रमसाध्य हैं। श्रम करना इस आश्रम में महत्वपूर्ण पहलू है। श्रम करते करते और ये सारे काम करते करते इन कामों की मानसिक और शारीरिक शिक्षा भी होती है, अर्थात् ये सब काम करना भी आता है और काम करने की मानसिकता भी बनती है। गुरुगृह में गुरु जो खाते हैं वैसे ही उसे भी खाना है, वे जिन सुविधाओं का उपभोग करते हैं उन्ही का उपभोग करना है। |
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− | * भिक्षा : गुरुगृहवास में भिक्षा माँगकर लाना भी एक महत्त्वपूर्ण काम है। भिक्षा के भी नियम हैं। प्रतिदिन एक ही घर से भिक्षा नहीं माँगना है। जहाँ रोज अच्छा ही भोजन मिलता है उसी घर भिक्षा नहीं माँगना है। भिक्षा माँगकर गुरु को सुपुर्द करना है और बाद में गुरु देते हैं वही ग्रहण करना है। पाँच घर से ही भिक्षा माँगना है। भिक्षा माँगने से जनसम्पर्क होता है, विनयशीलता आती है और व्यवहारज्ञान भी बढ़ता है। | + | * भिक्षा : गुरुगृहवास में भिक्षा माँगकर लाना भी एक महत्वपूर्ण काम है। भिक्षा के भी नियम हैं। प्रतिदिन एक ही घर से भिक्षा नहीं माँगना है। जहाँ रोज अच्छा ही भोजन मिलता है उसी घर भिक्षा नहीं माँगना है। भिक्षा माँगकर गुरु को सुपुर्द करना है और बाद में गुरु देते हैं वही ग्रहण करना है। पाँच घर से ही भिक्षा माँगना है। भिक्षा माँगने से जनसम्पर्क होता है, विनयशीलता आती है और व्यवहारज्ञान भी बढ़ता है। |
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| * संयम : संयम अथवा इन्द्रियनिग्रह यह ब्रह्मचर्य के आचार का कठोर नियम है। ब्रह्मचर्य के सूचक मेखला और दण्ड धारण करना है। वस्त्र सादे ही होने चाहिये। रेशमी वस्त्र, आभूषण, शृंगार आदि सर्वथा त्याज्य हैं। मिष्टान्न सेवन नहीं करना है। नाटक, संगीत या अन्य मनोरंजन सर्वथा त्याज्य है। खाट पर नहीं अपितु नीचे भूमि पर सोना है। यज्ञ के लिये समिधा एकत्रित करना है। लड़कियों के साथ बात नहीं करना है। शृंगारप्रधान साहित्य नहीं पढ़ना है। ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि कर एकाग्रता और शरीर सौष्ठव प्राप्त करना है । | | * संयम : संयम अथवा इन्द्रियनिग्रह यह ब्रह्मचर्य के आचार का कठोर नियम है। ब्रह्मचर्य के सूचक मेखला और दण्ड धारण करना है। वस्त्र सादे ही होने चाहिये। रेशमी वस्त्र, आभूषण, शृंगार आदि सर्वथा त्याज्य हैं। मिष्टान्न सेवन नहीं करना है। नाटक, संगीत या अन्य मनोरंजन सर्वथा त्याज्य है। खाट पर नहीं अपितु नीचे भूमि पर सोना है। यज्ञ के लिये समिधा एकत्रित करना है। लड़कियों के साथ बात नहीं करना है। शृंगारप्रधान साहित्य नहीं पढ़ना है। ध्यान, प्राणायाम, आसन आदि कर एकाग्रता और शरीर सौष्ठव प्राप्त करना है । |
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− | * गुर्सेवा : गुरु की परिचर्या करना है । गुरु की आज्ञा का अक्षरश: पालन करना है । प्रात:काल गुरु जागे, उससे पूर्व जागना है और रात्रि में गुरु सो जाय उसके बाद सोना है। गुरु की पूजा, योगाभ्यास, अध्ययन आदि की तैयारी करना है। गुरु के प्रति नितान्त आदर होना अपेक्षित है। गुरु खड़े हों तब तक बैठना नहीं है। गुरु से ऊँचे आसन पर बैठना नहीं है। गुरु के वचन में सन्देह नहीं करना है। गुरुवाक्य प्रमाण मानना है। | + | * गुरुसेवा : गुरु की परिचर्या करना है । गुरु की आज्ञा का अक्षरश: पालन करना है । प्रात:काल गुरु जागे, उससे पूर्व जागना है और रात्रि में गुरु सो जाय उसके बाद सोना है। गुरु की पूजा, योगाभ्यास, अध्ययन आदि की तैयारी करना है। गुरु के प्रति नितान्त आदर होना अपेक्षित है। गुरु खड़े हों तब तक बैठना नहीं है। गुरु से ऊँचे आसन पर बैठना नहीं है। गुरु के वचन में सन्देह नहीं करना है। गुरुवाक्य प्रमाण मानना है। |
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| * वेदाध्ययन : ब्रह्मचर्याश्रम अध्ययन के लिये है। गुरु जब भी पढ़ाना चाहें अध्ययन के लिये तत्पर रहना है। गुरु ने नियत किये हुए काल में अध्ययन करना है। गुरु ने तय किया हुआ ही अध्ययन करना है। | | * वेदाध्ययन : ब्रह्मचर्याश्रम अध्ययन के लिये है। गुरु जब भी पढ़ाना चाहें अध्ययन के लिये तत्पर रहना है। गुरु ने नियत किये हुए काल में अध्ययन करना है। गुरु ने तय किया हुआ ही अध्ययन करना है। |
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| प्रज्ञा, प्रतिभा के गुण प्रकट होते हैं । वह ज्ञानसम्पादन और... प्रकृति के कारण उसका जीवन समृद्ध, स्वस्थ और सुखी | | प्रज्ञा, प्रतिभा के गुण प्रकट होते हैं । वह ज्ञानसम्पादन और... प्रकृति के कारण उसका जीवन समृद्ध, स्वस्थ और सुखी |
| कर्मसम्पादन के लायक बनता है । इस दृष्टि से ब्रह्मचर्याश्रम ... बनता है, और पितृओं के कारण तो जन्म ही होता है तथा | | कर्मसम्पादन के लायक बनता है । इस दृष्टि से ब्रह्मचर्याश्रम ... बनता है, और पितृओं के कारण तो जन्म ही होता है तथा |
− | का बहुत महत्त्व है । वह सम्पूर्ण जीवन का आधार है । सर्व प्रकार की परम्परायें प्राप्त होती हैं । इसलिये इन तीनों | + | का बहुत महत्व है । वह सम्पूर्ण जीवन का आधार है । सर्व प्रकार की परम्परायें प्राप्त होती हैं । इसलिये इन तीनों |
| के प्रति उसे कृतज्ञ रहना है और उनके ऋण से मुक्त होना | | के प्रति उसे कृतज्ञ रहना है और उनके ऋण से मुक्त होना |
| है । वह अध्ययन करके ऋषिक्रण से, यज्ञ करके देवऋण से | | है । वह अध्ययन करके ऋषिक्रण से, यज्ञ करके देवऋण से |
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− | लिये अपने पदार्थ की आहुति देना अर्थात् त्याग करना । | + | लिये अपने पदार्थ की आहुति देना अर्थात् त्याग करना। प्रकृति का, समाज का और अपने व्यक्तिगत जीवन का सन्तुलन बनाये रखने के लिये और सबका मिलकर जीवन सुखी, समृद्ध, सुसंस्कारित एवं स्वस्थ हो इस, दृष्टि से इन यज्ञों की रचना की गई है । |
− | प्रकृति का, समाज का और अपने व्यक्तिगत जीवन का | |
− | सन्तुलन बनाये रखने के लिये और सबका मिलकर जीवन | |
− | सुखी, समृद्ध, सुसंस्कारित एवं स्वस्थ हो इस दृष्टि से इन | |
− | यज्ञों की रचना की गई है । | |
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− | महाभारत में उत्तम गृहस्थधर्म का वर्णन इस प्रकार | + | महाभारत में उत्तम गृहस्थधर्म का वर्णन इस प्रकार किया गया है: |
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− | A AA TATA THA |
| + | शमो दानं यथाशक्ति गाहस्थो धर्म उत्तम:। |
− | | |
− | शमो दानं यथाशक्ति गाहस्थो धर्म उत्तम: | | |
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| परदारेष्वसंसर्गों न्यासस्त्रीपरिरक्षणम् । | | परदारेष्वसंसर्गों न्यासस्त्रीपरिरक्षणम् । |
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| एष पश्चविधो धर्मों बहुशाख: सुखोदय: ॥। | | एष पश्चविधो धर्मों बहुशाख: सुखोदय: ॥। |
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− | अर्थात् अहिंसा, सत्यवचन, प्राणिमात्र पर दया, शम | + | अर्थात् अहिंसा, सत्यवचन, प्राणिमात्र पर दया, शम और यथाशक्ति दान, यह उत्तम गृहस्थधर्म है। परस्त्री के साथ संसर्ग न रखना, दूसरे का न्यास और स्त्री का रक्षण करना, एक बार दी हुई वस्तु वापस न लेना, मद्य और माँस नहीं खाना यह पश्च प्रकार का धर्म है । इनकी अनेक शाखायें हैं । ये सब अत्यन्त सुखकारक हैं । |
− | और यथाशक्ति दान, यह उत्तम गृहस्थधर्म है । परख्री के | |
− | साथ संसर्ग न रखना, दूसरे का न्यास और ख्त्री का रक्षण | |
− | करना, एक बार दी हुई वस्तु वापस न लेना, मद्य और माँस | |
− | नहीं खाना यह पश्च प्रकार का धर्म है । इनकी अनेक | |
− | शाखायें हैं । ये सब अत्यन्त सुखकारक हैं । | |
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− | अतिथिसेवा : गृहस्थधर्म में अतिथिसेवा का बहुत | + | अतिथिसेवा : गृहस्थधर्म में अतिथिसेवा का बहुत महत्व है । अतिथि का अर्थ है जो बिना बताये आता है, किसी प्रकार का लेनदेन का सम्बन्ध जिसके साथ नहीं है, ऐसा व्यक्ति। ऐसे अनजान व्यक्ति को भी खानपान से सन्तुष्ट करना गृहस्थ का कर्तव्य है । |
− | महत्त्व है । अतिथि का अर्थ है जो बिना बताये आता है,
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− | किसी प्रकार का लेनदेन का सम्बन्ध जिसके साथ नहीं है | |
− | ऐसा व्यक्ति । ऐसे अनजान व्यक्ति को भी खानपान से | |
− | सन्तुष्ट करना गृहस्थ का कर्तव्य है । | |
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− | यज्ञ, दान और तप : ये तीन गृहस्थ के खास | + | यज्ञ, दान और तप : ये तीन गृहस्थ के खास आचरण हैं। गृहस्थ अधिक से अधिक देने के लिये है। वह सर्व प्रकार के यज्ञ करता है । |
− | आचरण हैं । गृहस्थ अधिक से अधिक देने के लिये है । | |
− | वह सर्व प्रकार के यज्ञ करता है । | |
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− | अर्थ और काम : गृहस्थाश्रम में अथार्जिन करना है । | + | अर्थ और काम : गृहस्थाश्रम में अथार्जिन करना है। सर्व प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग करना है। परन्तु वे धर्म के अविरोधी होने चाहिये। धर्मविरोधी अर्थ और काम ही गृहस्थ का धर्माचरण है। इस प्रकार का अर्थ और काम का सेवन उसे मोक्ष के प्रति ले जाता है। सुख, समृद्धि, संस्कार और ज्ञान ये गृहस्थाश्रम में सेव्य हैं और यज्ञ, दान, तप और लोककल्याण ये गृहस्थ के लिये आचार हैं। |
− | सर्व प्रकार के सांसारिक सुखों का उपभोग करना है । परन्तु | |
− | वे धर्म के अविरोधी होने चाहिये । धर्माविरोधी अर्थ और | |
− | काम ही गृहस्थ का धर्माचरण है । इस प्रकार का अर्थ और | |
− | काम का सेवन उसे मोक्ष के प्रति ले जाता है । सुख, | |
− | समृद्धि, संस्कार और ज्ञान ये गृहस्थाश्रम में सेव्य हैं और | |
− | यज्ञ, दान, तप और लोककल्याण ये गृहस्थ के लिये | |
− | आचार हैं । | |
− | | |
− |
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− | गृहस्थाश्रम सर्व. प्रकार
| |
− | दायित्वों को निभाने का आश्रम है । सर्व प्रकार की शक्तियाँ
| |
− | सम्पादित कर अब व्यक्ति वास्तव में कर्मक्षेत्र में प्रवेश
| |
− | करता है । वह विवाह करता है, घर बसाता है, गृहस्थ
| |
− | बनता है । यह जीवन के सर्व प्रकार के आनन्दों के उपभोग
| |
− | का काल है । वह अथर्जिन करता है । वैभव प्राप्त करता
| |
− | है । उसका आनन्द और उपभोग धर्म के अनुसार होना
| |
− | चाहिये । उसके विवाह का परिणाम है सन्तान का जन्म ।
| |
− | कुल, जाति, वर्ण, समाज आदि के प्रति उसके जो कर्तव्य
| |
− | हैं उन्हें पूर्ण करने का यह काल है । अपने परिवारजनों का
| |
− | भरण पोषण रक्षण उसे करना है । अपने सामाजिक दायित्व
| |
− | को निभाना है । पूर्वजों के ऋण से मुक्त होना है । समर्थ
| |
− | सन्तान के रूप में समाज को अच्छा नागरिक देना है।
| |
− | अपने व्यवसाय में भी नये अनुसन्धान करने हैं।
| |
− | ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम को आश्रय
| |
− | देना है। सार्वजनिक व्यवस्थाओं में अपना योगदान देना
| |
− | है। सारा समाज गृहस्थाश्रम के आश्रय में ही जीता है ।
| |
− | इसलिये गृहस्थाश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ कहा है |
| |
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− | === वानप्रस्था श्रम === | + | गृहस्थाश्रम सर्व प्रकार के दायित्वों को निभाने का आश्रम है। सर्व प्रकार की शक्तियाँ सम्पादित कर अब व्यक्ति वास्तव में कर्मक्षेत्र में प्रवेश करता है। वह विवाह करता है, घर बसाता है, गृहस्थ बनता है। यह जीवन के सर्व प्रकार के आनन्दों के उपभोग का काल है। वह अर्थार्जन करता है। वैभव प्राप्त करता है। उसका आनन्द और उपभोग धर्म के अनुसार होना चाहिये। उसके विवाह का परिणाम है सन्तान का जन्म। कुल, जाति, वर्ण, समाज आदि के प्रति उसके जो कर्तव्य हैं, उन्हें पूर्ण करने का यह काल है। अपने परिवारजनों का भरण पोषण रक्षण उसे करना है। अपने सामाजिक दायित्व को निभाना है। पूर्वजों के ऋण से मुक्त होना है। समर्थ सन्तान के रूप में समाज को अच्छा नागरिक देना है। अपने व्यवसाय में भी नये अनुसन्धान करने हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम को आश्रय देना है। सार्वजनिक व्यवस्थाओं में अपना योगदान देना है। सारा समाज गृहस्थाश्रम के आश्रय में ही जीता है। इसलिये गृहस्थाश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ कहा है | |
| + | === वानप्रस्थाश्रम === |
| धर्माचरण करते हुए, सुखों को भोगते हुए पचीस वर्ष | | धर्माचरण करते हुए, सुखों को भोगते हुए पचीस वर्ष |
| बीत जाते हैं । उसकी सन्तानें वयस्क हो गई हैं । उनके भी | | बीत जाते हैं । उसकी सन्तानें वयस्क हो गई हैं । उनके भी |
Line 375: |
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| समाजव्यवस्था कहते हैं । स्वायत्त समाज की व्यवस्था में | | समाजव्यवस्था कहते हैं । स्वायत्त समाज की व्यवस्था में |
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− | वर्णव्यवस्था महत्त्वपूर्ण योगदान है । | + | वर्णव्यवस्था महत्वपूर्ण योगदान है । |
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| आज इस व्यवस्था का विपर्यास हो गया है । यद्यपि | | आज इस व्यवस्था का विपर्यास हो गया है । यद्यपि |
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| धर्मानुसारिणी समाजव्यवस्था में erst संस्था का | | धर्मानुसारिणी समाजव्यवस्था में erst संस्था का |
− | अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है । कुट्म्ब का केंद्रवर्ती घटक है | + | अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है । कुट्म्ब का केंद्रवर्ती घटक है |
| पति पत्नी । of ak ges को पतिपत्नी बनाने वाला | | पति पत्नी । of ak ges को पतिपत्नी बनाने वाला |
| विवाहसंस्कार है । मनुष्यजीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु संस्कारों | | विवाहसंस्कार है । मनुष्यजीवन को श्रेष्ठ बनाने हेतु संस्कारों |
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| के लिए स्त्री माता, पुत्री और बहन के समान है ऐसी | | के लिए स्त्री माता, पुत्री और बहन के समान है ऐसी |
| धर्मबुद्धि समाज को अनाचारी बनने से बचाती है । स्त्री और | | धर्मबुद्धि समाज को अनाचारी बनने से बचाती है । स्त्री और |
− | पुरुष के शील की रक्षा समाजधर्म का महत्त्वपूर्ण | + | पुरुष के शील की रक्षा समाजधर्म का महत्वपूर्ण |
| आयाम है । | | आयाम है । |
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Line 564: |
| व्यवहार को ठीक करने के वे सार्वभौम महाब्रत हैं । | | व्यवहार को ठीक करने के वे सार्वभौम महाब्रत हैं । |
| इन्हें आचार के रूप में प्रस्थापित करना योगशिक्षा | | इन्हें आचार के रूप में प्रस्थापित करना योगशिक्षा |
− | का महत्त्वपूर्ण अंग है और सारी शिक्षा का आधार | + | का महत्वपूर्ण अंग है और सारी शिक्षा का आधार |
| है। हमने तो आज योग को भी शारीरिक शिक्षा का | | है। हमने तो आज योग को भी शारीरिक शिक्षा का |
| अंग बनाकर चिकित्सा का, प्रदर्शन का, स्पर्धा का | | अंग बनाकर चिकित्सा का, प्रदर्शन का, स्पर्धा का |
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Line 599: |
| चाहिए । सबमें समानता और भेद क्या हैं इसका | | चाहिए । सबमें समानता और भेद क्या हैं इसका |
| आकलन होना चाहिए । अपने धर्म की विशेषतायें, | | आकलन होना चाहिए । अपने धर्म की विशेषतायें, |
− | उनका महत्त्व आदि भी जानना चाहिए। धर्म | + | उनका महत्व आदि भी जानना चाहिए। धर्म |
| और सम्प्रदाय का अंतर क्या है, सम्प्रदायनिरपेक्षेता | | और सम्प्रदाय का अंतर क्या है, सम्प्रदायनिरपेक्षेता |
| का क्या अर्थ है, सम्प्रदाय बनते किस प्रकार हैं, | | का क्या अर्थ है, सम्प्रदाय बनते किस प्रकार हैं, |