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१३. सत्ययुग में धर्म का पालन करवाने के लिये किसी दूंडविधान की आवश्यकता नहीं थी । उसी प्रकार किसी शास्त्र की भी आवश्यकता नहीं थी । धर्म लोगों के अन्तःकरणों में स्वयं ही रहता था और मनुष्य के जीवन का निर्देश करता था । तब जीवन सुखमय था |
 
१३. सत्ययुग में धर्म का पालन करवाने के लिये किसी दूंडविधान की आवश्यकता नहीं थी । उसी प्रकार किसी शास्त्र की भी आवश्यकता नहीं थी । धर्म लोगों के अन्तःकरणों में स्वयं ही रहता था और मनुष्य के जीवन का निर्देश करता था । तब जीवन सुखमय था |
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१४. परन्तु अब कलियुग है । बिना शास्त्र के और बिना दंडविधान के धर्म का पालन नहीं हो सकता । उससे भी शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राज्य भी शास्त्र के अनुसार ही चलता है । बिना राज्य के शाख्र तो हो सकता है परन्तु बिना शास्त्र के राज्य नहीं चल सकता । इस प्रकार धर्म स्वयं शासन करने वालों का भी शासक है ।
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१४. परन्तु अब कलियुग है । बिना शास्त्र के और बिना दंडविधान के धर्म का पालन नहीं हो सकता । उससे भी शास्त्र अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि राज्य भी शास्त्र के अनुसार ही चलता है । बिना राज्य के शास्त्र तो हो सकता है परन्तु बिना शास्त्र के राज्य नहीं चल सकता । इस प्रकार धर्म स्वयं शासन करने वालों का भी शासक है ।
    
१५. धर्म की बात करने वाला, धर्म की प्रतिष्ठा के लिये प्रयास करने वाला यदि वह नहीं करेगा तो समाज कैसे रह सकता है ? धर्माचार्य यह नहीं करते तो और कौन करेगा ? हम इसीलिए आपके पास आए हैं ।
 
१५. धर्म की बात करने वाला, धर्म की प्रतिष्ठा के लिये प्रयास करने वाला यदि वह नहीं करेगा तो समाज कैसे रह सकता है ? धर्माचार्य यह नहीं करते तो और कौन करेगा ? हम इसीलिए आपके पास आए हैं ।

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