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६. ऐसा नहीं है कि आज भारत में अनुभूति हुई है या होती है ऐसे लोग नहीं हैं । स्थिति ऐसी है कि ऐसे लोगों की विश्वविद्यालयों में और शासन में प्रतिष्ठा नहीं है। ऋषिमुनियों का ज्ञान विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित होता नहीं तब तक वह बौद्धिक जगत में स्वीकृत नहीं होता है ।
 
६. ऐसा नहीं है कि आज भारत में अनुभूति हुई है या होती है ऐसे लोग नहीं हैं । स्थिति ऐसी है कि ऐसे लोगों की विश्वविद्यालयों में और शासन में प्रतिष्ठा नहीं है। ऋषिमुनियों का ज्ञान विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित होता नहीं तब तक वह बौद्धिक जगत में स्वीकृत नहीं होता है ।
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७. श्री रमण महर्षि, श्री अरविन्द, भगवान रामकृष्ण, स्वामी विवेकनन्द , स्वामी रामतीर्थ आदि वर्तमान समय के उदाहरण हैं जिन्हें अनुभूतिजन्य ज्ञान प्राप्त हुआ था । इतिहास में तो ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं । इन सबके ज्ञान की प्रतिष्ठा होगी तब भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा हुई ऐसा माना जाएगा ।
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७. श्री रमण महर्षि, श्री अरविन्द, भगवान रामकृष्ण, स्वामी विवेकनन्द , स्वामी रामतीर्थ आदि वर्तमान समय के उदाहरण हैं जिन्हें अनुभूतिजन्य ज्ञान प्राप्त हुआ था । इतिहास में तो ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं । इन सबके ज्ञान की प्रतिष्ठा होगी तब धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा हुई ऐसा माना जाएगा ।
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८. आज की स्थिति में विश्वविद्यालयों में या संसद में भारतीय अनुभूत ज्ञान की प्रतिष्ठा होने की संभावना नहीं है क्योंकि ऐसी मानसिकता नहीं है । जबतक शासकीय मान्यता नहीं मिलती तबतक लोक में प्रतिष्ठा नहीं होती क्योंकि यह भी मानसिकता का ही मुद्दा है ।
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८. आज की स्थिति में विश्वविद्यालयों में या संसद में धार्मिक अनुभूत ज्ञान की प्रतिष्ठा होने की संभावना नहीं है क्योंकि ऐसी मानसिकता नहीं है । जबतक शासकीय मान्यता नहीं मिलती तबतक लोक में प्रतिष्ठा नहीं होती क्योंकि यह भी मानसिकता का ही मुद्दा है ।
    
९. यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है । जबतक शासन की मान्यता नहीं तबतक कोई शिक्षित माना नहीं जाता, उसे सरकारी तो क्या निजी क्षेत्र में भी नौकरी नहीं मिलती । नौकरी के बिना अथार्जिन हो सकता है ऐसी कल्पना भी कम ही की जाती है ।
 
९. यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है । जबतक शासन की मान्यता नहीं तबतक कोई शिक्षित माना नहीं जाता, उसे सरकारी तो क्या निजी क्षेत्र में भी नौकरी नहीं मिलती । नौकरी के बिना अथार्जिन हो सकता है ऐसी कल्पना भी कम ही की जाती है ।
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१२. वर्तमान में ज्ञान की यात्रा का उल्टा चक्र चला है । वह प्रदक्षिणा का रास्ता न होकर उल्टी दिशा में चलता है । प्रदक्षिणा का रास्ता हमेशा भगवान को दाहिनी ओर रखकर चलता है । इसका संकेत यह है कि हमारे मार्गक्रमण में भगवान हमेशा साथ हैं । इसका अर्थ यही है कि हमारे ज्ञानक्षेत्र का अधिष्ठान अध्यात्म है ।
 
१२. वर्तमान में ज्ञान की यात्रा का उल्टा चक्र चला है । वह प्रदक्षिणा का रास्ता न होकर उल्टी दिशा में चलता है । प्रदक्षिणा का रास्ता हमेशा भगवान को दाहिनी ओर रखकर चलता है । इसका संकेत यह है कि हमारे मार्गक्रमण में भगवान हमेशा साथ हैं । इसका अर्थ यही है कि हमारे ज्ञानक्षेत्र का अधिष्ठान अध्यात्म है ।
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१३. हमारा ज्ञानक्षेत्र ठीक करने के लिए हमें दिशा बदलनी पड़ेगी । जिस दिशा में चल रहे हैं उस दिशा की गति को प्रथम रोकनी पड़ेगा, अर्धवृत्त करना पड़ेगा | उसके बाद जो भी मार्ग होगा वह सही होगा । ऐसी दिशा बदलने के बाद ही हम शिक्षा को भारतीय बना सकेंगे और भारतीय ज्ञान की प्रतिष्ठा कर पाएंगे ।
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१३. हमारा ज्ञानक्षेत्र ठीक करने के लिए हमें दिशा बदलनी पड़ेगी । जिस दिशा में चल रहे हैं उस दिशा की गति को प्रथम रोकनी पड़ेगा, अर्धवृत्त करना पड़ेगा | उसके बाद जो भी मार्ग होगा वह सही होगा । ऐसी दिशा बदलने के बाद ही हम शिक्षा को धार्मिक बना सकेंगे और धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा कर पाएंगे ।
    
१४. उल्टा चक्र सीधाकर चलाने का प्रथम चरण है शासन की मान्यता के बिना शैक्षिक प्रकल्प खड़े करना । इसका भी प्रथम चरण है मानसिक भय से मुक्त होना । यह भय वास्तविक नहीं है परन्तु इसकी ग्रंथि बहुत गहरे तक हमारे मन में बैठ गई है । इस ग्रंथि को खोलना होगा |
 
१४. उल्टा चक्र सीधाकर चलाने का प्रथम चरण है शासन की मान्यता के बिना शैक्षिक प्रकल्प खड़े करना । इसका भी प्रथम चरण है मानसिक भय से मुक्त होना । यह भय वास्तविक नहीं है परन्तु इसकी ग्रंथि बहुत गहरे तक हमारे मन में बैठ गई है । इस ग्रंथि को खोलना होगा |
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२६. गम्भीर स्वरूप का अध्ययन करने की क्षमता रखने वाले लोग पद और पैसे से मिलने वाले सम्मान की अपेक्षा करते हैं। ऐसी सुविधा नहीं मिली तो वे अपने आपको असुरक्षित अनुभव करते हैं । परन्तु ऐसा करने में उन्हें व्यवस्था पर निर्भर करना पड़ता है और अपने हिसाब से वे अध्ययन नहीं कर सकते । किसीके अधीन होकर और सुविधा की चिन्ता करते करते साधना नहीं हो सकती ।
 
२६. गम्भीर स्वरूप का अध्ययन करने की क्षमता रखने वाले लोग पद और पैसे से मिलने वाले सम्मान की अपेक्षा करते हैं। ऐसी सुविधा नहीं मिली तो वे अपने आपको असुरक्षित अनुभव करते हैं । परन्तु ऐसा करने में उन्हें व्यवस्था पर निर्भर करना पड़ता है और अपने हिसाब से वे अध्ययन नहीं कर सकते । किसीके अधीन होकर और सुविधा की चिन्ता करते करते साधना नहीं हो सकती ।
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२७. जो वास्तव में साधक होते हैं उन्हे शिक्षा का विषय, भारतीय ज्ञान का विषय ध्यान में ही नहीं आता । उन्होंने कभी इस विषय में गंभीरतापूर्वक सोचा ही
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२७. जो वास्तव में साधक होते हैं उन्हे शिक्षा का विषय, धार्मिक ज्ञान का विषय ध्यान में ही नहीं आता । उन्होंने कभी इस विषय में गंभीरतापूर्वक सोचा ही
    
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४८. फिर उन्हें लागू करने का विचार करना तो बहुत दूर की बात है । वेद पाठशाला में पढ़कर छात्र या तो दूसरी पाठशाला में पढ़ाते हैं या पौरोहित्य करते हैं या ज्योतिष आदि का व्यवसाय करते हैं । देश कैसे चलता है इसका विचार करना नहीं सिखाया जाता है ।
 
४८. फिर उन्हें लागू करने का विचार करना तो बहुत दूर की बात है । वेद पाठशाला में पढ़कर छात्र या तो दूसरी पाठशाला में पढ़ाते हैं या पौरोहित्य करते हैं या ज्योतिष आदि का व्यवसाय करते हैं । देश कैसे चलता है इसका विचार करना नहीं सिखाया जाता है ।
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४९. इस प्रकार के अनेक प्रयास देश में चलते हैं परन्तु देश की जनसंख्या को देखते हुए ये बहुत कम पड रहे हैं । वे अपने आप में आधे अधूरे ही हैं । ये भारतीय ज्ञानधारा को टिकाये हुए हैं इतना ही उनका समाज पर उपकार है । इनके कारण से ही ज्ञानधारा सर्वथा लुप्त नहीं हो गई है ।
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४९. इस प्रकार के अनेक प्रयास देश में चलते हैं परन्तु देश की जनसंख्या को देखते हुए ये बहुत कम पड रहे हैं । वे अपने आप में आधे अधूरे ही हैं । ये धार्मिक ज्ञानधारा को टिकाये हुए हैं इतना ही उनका समाज पर उपकार है । इनके कारण से ही ज्ञानधारा सर्वथा लुप्त नहीं हो गई है ।
    
५०. परन्तु इनके आधार पर अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है ।
 
५०. परन्तु इनके आधार पर अभी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है ।

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