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५. आज भारत के भी बौद्धिक जगत में अनुभूत ज्ञान की प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क की ही प्रतिष्ठा है । इसका कारण यह है कि हमने यूरोप और अमेरिका की ज्ञानप्रक्रिया को ही स्वीकार कर लिया है । इसका भी कारण हमारा हीनताबोध ही है ।
 
५. आज भारत के भी बौद्धिक जगत में अनुभूत ज्ञान की प्रतिष्ठा नहीं है । तर्क की ही प्रतिष्ठा है । इसका कारण यह है कि हमने यूरोप और अमेरिका की ज्ञानप्रक्रिया को ही स्वीकार कर लिया है । इसका भी कारण हमारा हीनताबोध ही है ।
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६. ऐसा नहीं है कि आज भारत में अनुभूति हुई है या होती है ऐसे लोग नहीं हैं । स्थिति ऐसी है कि ऐसे लोगों की विश्वविद्यालयों में और शासन में प्रतिष्ठा नहीं है। ऋषिमुनियों का ज्ञान विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित होता नहीं तब तक वह बौद्धिक जगत में स्वीकृत नहीं होता है ।
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६. ऐसा नहीं है कि आज भारत में अनुभूति हुई है या होती है ऐसे लोग नहीं हैं । स्थिति ऐसी है कि ऐसे लोगोंं की विश्वविद्यालयों में और शासन में प्रतिष्ठा नहीं है। ऋषिमुनियों का ज्ञान विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित होता नहीं तब तक वह बौद्धिक जगत में स्वीकृत नहीं होता है ।
    
७. श्री रमण महर्षि, श्री अरविन्द, भगवान रामकृष्ण, स्वामी विवेकनन्द , स्वामी रामतीर्थ आदि वर्तमान समय के उदाहरण हैं जिन्हें अनुभूतिजन्य ज्ञान प्राप्त हुआ था । इतिहास में तो ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं । इन सबके ज्ञान की प्रतिष्ठा होगी तब धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा हुई ऐसा माना जाएगा ।
 
७. श्री रमण महर्षि, श्री अरविन्द, भगवान रामकृष्ण, स्वामी विवेकनन्द , स्वामी रामतीर्थ आदि वर्तमान समय के उदाहरण हैं जिन्हें अनुभूतिजन्य ज्ञान प्राप्त हुआ था । इतिहास में तो ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं । इन सबके ज्ञान की प्रतिष्ठा होगी तब धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा हुई ऐसा माना जाएगा ।
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९. यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है । जबतक शासन की मान्यता नहीं तबतक कोई शिक्षित माना नहीं जाता, उसे सरकारी तो क्या निजी क्षेत्र में भी नौकरी नहीं मिलती । नौकरी के बिना अथार्जिन हो सकता है ऐसी कल्पना भी कम ही की जाती है ।
 
९. यह एक मनोवैज्ञानिक समस्या है । जबतक शासन की मान्यता नहीं तबतक कोई शिक्षित माना नहीं जाता, उसे सरकारी तो क्या निजी क्षेत्र में भी नौकरी नहीं मिलती । नौकरी के बिना अथार्जिन हो सकता है ऐसी कल्पना भी कम ही की जाती है ।
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१०. शासकीय मान्यता वाले विद्यालय में प्रवेश, शासकीय मान्यता वाले बोर्ड अथवा विश्वविद्यालय का प्रमाणपत्र, उस प्रमाणपत्र पर आधारित नौकरी और नौकरी ही अथर्जिन का मुख्य साधन ऐसा एक चक्र चला है । इस चक्र में शासन के द्वारा प्रमाणित नहीं है ऐसे किसी ज्ञान की प्रतिष्ठा होना लगभग असम्भव @ | असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन तो अवश्य है।
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१०. शासकीय मान्यता वाले विद्यालय में प्रवेश, शासकीय मान्यता वाले बोर्ड अथवा विश्वविद्यालय का प्रमाणपत्र, उस प्रमाणपत्र पर आधारित नौकरी और नौकरी ही अर्थार्जन का मुख्य साधन ऐसा एक चक्र चला है । इस चक्र में शासन के द्वारा प्रमाणित नहीं है ऐसे किसी ज्ञान की प्रतिष्ठा होना लगभग असम्भव @ | असम्भव नहीं तो अत्यन्त कठिन तो अवश्य है।
    
=== ज्ञान की प्रतिष्ठा हेतु उपाय ===
 
=== ज्ञान की प्रतिष्ठा हेतु उपाय ===
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११. परन्तु देशीय ज्ञान की प्रतिष्ठा तो होनी चाहिए । कठिन हों तो भी मार्ग खोजने चाहिए । लम्बा रास्ता हो तो भी उस पर चलना चाहिए । यदि मार्ग एकमेव है तो चाहे जितना लम्बा हो उस पर ही चलना चाहिए ।
 
११. परन्तु देशीय ज्ञान की प्रतिष्ठा तो होनी चाहिए । कठिन हों तो भी मार्ग खोजने चाहिए । लम्बा रास्ता हो तो भी उस पर चलना चाहिए । यदि मार्ग एकमेव है तो चाहे जितना लम्बा हो उस पर ही चलना चाहिए ।
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१२. वर्तमान में ज्ञान की यात्रा का उल्टा चक्र चला है । वह प्रदक्षिणा का रास्ता न होकर उल्टी दिशा में चलता है । प्रदक्षिणा का रास्ता हमेशा भगवान को दाहिनी ओर रखकर चलता है । इसका संकेत यह है कि हमारे मार्गक्रमण में भगवान हमेशा साथ हैं । इसका अर्थ यही है कि हमारे ज्ञानक्षेत्र का अधिष्ठान अध्यात्म है ।
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१२. वर्तमान में ज्ञान की यात्रा का उल्टा चक्र चला है । वह प्रदक्षिणा का रास्ता न होकर उल्टी दिशा में चलता है । प्रदक्षिणा का रास्ता सदा भगवान को दाहिनी ओर रखकर चलता है । इसका संकेत यह है कि हमारे मार्गक्रमण में भगवान सदा साथ हैं । इसका अर्थ यही है कि हमारे ज्ञानक्षेत्र का अधिष्ठान अध्यात्म है ।
    
१३. हमारा ज्ञानक्षेत्र ठीक करने के लिए हमें दिशा बदलनी पड़ेगी । जिस दिशा में चल रहे हैं उस दिशा की गति को प्रथम रोकनी पड़ेगा, अर्धवृत्त करना पड़ेगा | उसके बाद जो भी मार्ग होगा वह सही होगा । ऐसी दिशा बदलने के बाद ही हम शिक्षा को धार्मिक बना सकेंगे और धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा कर पाएंगे ।
 
१३. हमारा ज्ञानक्षेत्र ठीक करने के लिए हमें दिशा बदलनी पड़ेगी । जिस दिशा में चल रहे हैं उस दिशा की गति को प्रथम रोकनी पड़ेगा, अर्धवृत्त करना पड़ेगा | उसके बाद जो भी मार्ग होगा वह सही होगा । ऐसी दिशा बदलने के बाद ही हम शिक्षा को धार्मिक बना सकेंगे और धार्मिक ज्ञान की प्रतिष्ठा कर पाएंगे ।
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१४. उल्टा चक्र सीधाकर चलाने का प्रथम चरण है शासन की मान्यता के बिना शैक्षिक प्रकल्प खड़े करना । इसका भी प्रथम चरण है मानसिक भय से मुक्त होना । यह भय वास्तविक नहीं है परन्तु इसकी ग्रंथि बहुत गहरे तक हमारे मन में बैठ गई है । इस ग्रंथि को खोलना होगा |
 
१४. उल्टा चक्र सीधाकर चलाने का प्रथम चरण है शासन की मान्यता के बिना शैक्षिक प्रकल्प खड़े करना । इसका भी प्रथम चरण है मानसिक भय से मुक्त होना । यह भय वास्तविक नहीं है परन्तु इसकी ग्रंथि बहुत गहरे तक हमारे मन में बैठ गई है । इस ग्रंथि को खोलना होगा |
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१५. मानसिक भय से मुक्त होने के लिए मनोवैज्ञानिक उपाय करने होते हैं । समाज में जो दुर्बल मनोवृत्ति के लोग होते हैं वे कभी भी इससे मुक्त होने का प्रयास नहीं करेंगे । दृढ़ मनोबल से युक्त लोगों को ही दिशा परिवर्तन के लिए निवेदन करना होगा ।
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१५. मानसिक भय से मुक्त होने के लिए मनोवैज्ञानिक उपाय करने होते हैं । समाज में जो दुर्बल मनोवृत्ति के लोग होते हैं वे कभी भी इससे मुक्त होने का प्रयास नहीं करेंगे । दृढ़ मनोबल से युक्त लोगोंं को ही दिशा परिवर्तन के लिए निवेदन करना होगा ।
    
१६. समाज में विभिन्न प्रकार के लोग विभिन्न प्रकार के
 
१६. समाज में विभिन्न प्रकार के लोग विभिन्न प्रकार के
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लोगों से प्रभावित होते हैं । जो जिनसे प्रभावित होता है उसके लिए उन उन प्रकार के लोगों को नियुक्त करना चाहिए । इनका चयन ठीक हुआ तो शेष बातें भी ठीक हो सकती हैं ।
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लोगोंं से प्रभावित होते हैं । जो जिनसे प्रभावित होता है उसके लिए उन उन प्रकार के लोगोंं को नियुक्त करना चाहिए । इनका चयन ठीक हुआ तो शेष बातें भी ठीक हो सकती हैं ।
    
१७. वर्तमान समय में समाजमन पर टीवी के विज्ञापनों का अत्यधिक प्रभाव होता है । छोटे बच्चे और अबोध लोग टीवी में जिस पदार्थ का विज्ञापन आता है उससे प्रभावित होकर वस्तुरयें खरीद करते हैं । दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं में इसका सर्वाधिक प्रभाव होता है। टीवी के विज्ञापन हमारे उपभोग का नियमन करते हैं ।
 
१७. वर्तमान समय में समाजमन पर टीवी के विज्ञापनों का अत्यधिक प्रभाव होता है । छोटे बच्चे और अबोध लोग टीवी में जिस पदार्थ का विज्ञापन आता है उससे प्रभावित होकर वस्तुरयें खरीद करते हैं । दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं में इसका सर्वाधिक प्रभाव होता है। टीवी के विज्ञापन हमारे उपभोग का नियमन करते हैं ।
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१८. इसलिए कुछ लोगों का अभिप्राय बनता है कि हमें जो भी बात समाजमन तक प्रभावी ढंग से पहुंचानी है उसे टीवी के माध्यम से पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए । केवल विज्ञापन ही नहीं तो विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम हम टीवी के माध्यम से प्रस्तुत करें तो समाजमन को प्रभावित कर सकते हैं ।
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१८. अतः कुछ लोगोंं का अभिप्राय बनता है कि हमें जो भी बात समाजमन तक प्रभावी ढंग से पहुंचानी है उसे टीवी के माध्यम से पहुंचाने का प्रयास करना चाहिए । केवल विज्ञापन ही नहीं तो विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम हम टीवी के माध्यम से प्रस्तुत करें तो समाजमन को प्रभावित कर सकते हैं ।
    
१९. इस प्रकार से समाजप्रबोधन करने में दो अवरोध होंगे । एक यह कि टीवी के माध्यम से जो प्रभाव होता है वह बहुत ऊपर ऊपर का होता है । दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं के लिए उसका प्रभाव होता है परन्तु गंभीर और दूरवर्ती परिणामों के लिए टीवी का उतना अधिक उपयोग नहीं होता है जितना हमें लगता है ।
 
१९. इस प्रकार से समाजप्रबोधन करने में दो अवरोध होंगे । एक यह कि टीवी के माध्यम से जो प्रभाव होता है वह बहुत ऊपर ऊपर का होता है । दैनंदिन उपयोग की वस्तुओं के लिए उसका प्रभाव होता है परन्तु गंभीर और दूरवर्ती परिणामों के लिए टीवी का उतना अधिक उपयोग नहीं होता है जितना हमें लगता है ।
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२०. दूसरा अवरोध यह है कि टीवी का और उसके सदूश माध्यमों का उपयोग इतना अधिक खर्चीला होता है और टीवी की दुनिया इतनी अधिक स्पर्धा से भरी होती है कि उसका प्रयोग करते करते हम थक जाते हैं । बहुत प्रयास करने पर भी अपेक्षित परिणाम नहीं होता । बाजार में जिसे पैसा ही कमाना है उसके लिए टीवी का या विज्ञापन का उपयोग है ।
 
२०. दूसरा अवरोध यह है कि टीवी का और उसके सदूश माध्यमों का उपयोग इतना अधिक खर्चीला होता है और टीवी की दुनिया इतनी अधिक स्पर्धा से भरी होती है कि उसका प्रयोग करते करते हम थक जाते हैं । बहुत प्रयास करने पर भी अपेक्षित परिणाम नहीं होता । बाजार में जिसे पैसा ही कमाना है उसके लिए टीवी का या विज्ञापन का उपयोग है ।
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२१. संचार माध्यमों से प्रचार होता है इस सम्बन्ध में हमारी हमेशा दुविधा ही रहती है । इसलिए ऐसे प्रयास भी हम आधे मन से ही करते हैं । यह भी एक कारण है कि हम उस माध्यम से बहुत प्रभावी प्रयास नहीं कर सकते ।
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२१. संचार माध्यमों से प्रचार होता है इस सम्बन्ध में हमारी सदा दुविधा ही रहती है । अतः ऐसे प्रयास भी हम आधे मन से ही करते हैं । यह भी एक कारण है कि हम उस माध्यम से बहुत प्रभावी प्रयास नहीं कर सकते ।
    
२२. जो मूल उपाय है वह कठिन है, लम्बा है और धैर्य की अपेक्षा करता है। वह है एक नया प्रतिमान विकसित करना और लागू करने की व्यावहारिक योजना बनाना । इस पर हम जितनी भी शक्ति लगाएंगे उतना ही परिणाम ठोस होगा । पूर्व में भी जब ऐसी परिस्थिति निर्माण हुई थी तब मनीषियों ने ऐसा ही किया था । उनके उदाहरण से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं ।
 
२२. जो मूल उपाय है वह कठिन है, लम्बा है और धैर्य की अपेक्षा करता है। वह है एक नया प्रतिमान विकसित करना और लागू करने की व्यावहारिक योजना बनाना । इस पर हम जितनी भी शक्ति लगाएंगे उतना ही परिणाम ठोस होगा । पूर्व में भी जब ऐसी परिस्थिति निर्माण हुई थी तब मनीषियों ने ऐसा ही किया था । उनके उदाहरण से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं ।
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२३. ज्ञान के क्षेत्र की प्रतिष्ठा के लिए तपश्चर्या करनी होती है,साधना करनी होती है । देशभर से ऐसे तपस्वी और साधक स्वभाव के लोगों को निवेदन करना होगा कि समाज के हित के लिए और ज्ञान की प्रतिष्ठा के लिए वे साधना करें । उनके बिना जगत का भला होगा ही नहीं ।
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२३. ज्ञान के क्षेत्र की प्रतिष्ठा के लिए तपश्चर्या करनी होती है,साधना करनी होती है । देशभर से ऐसे तपस्वी और साधक स्वभाव के लोगोंं को निवेदन करना होगा कि समाज के हित के लिए और ज्ञान की प्रतिष्ठा के लिए वे साधना करें । उनके बिना जगत का भला होगा ही नहीं ।
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२४. यह साधना ज्ञानसाधना होगी । गंभीर स्वरूप का अध्ययन करने वाले लोगों द्वारा यह साधना होगी । आज के युग के अनुरूप यह साधना होगी । साधना से ही देशीय ज्ञान की सही प्रतिष्ठा हो सकती है ।
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२४. यह साधना ज्ञानसाधना होगी । गंभीर स्वरूप का अध्ययन करने वाले लोगोंं द्वारा यह साधना होगी । आज के युग के अनुरूप यह साधना होगी । साधना से ही देशीय ज्ञान की सही प्रतिष्ठा हो सकती है ।
    
२५. आज साधक लोग भी हैं और गम्भीर अध्ययन करने वाले लोग भी हैं । परन्तु होता यह है कि जो साधना करते हैं वे अध्ययन नहीं करते और जो अध्ययन करते हैं वे साधना नहीं करते हैं । परिणामस्वरूप दोनों में से एक का भी प्रभाव नहीं होता है ।
 
२५. आज साधक लोग भी हैं और गम्भीर अध्ययन करने वाले लोग भी हैं । परन्तु होता यह है कि जो साधना करते हैं वे अध्ययन नहीं करते और जो अध्ययन करते हैं वे साधना नहीं करते हैं । परिणामस्वरूप दोनों में से एक का भी प्रभाव नहीं होता है ।

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