Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "फिर भी" to "तथापि"
Line 114: Line 114:  
आँख नहीं अपितु मन के स्तर पर यह जाना जाता है कि आँख ने जिसे लाल रंग के रूप में जाना वह सुख देने वाला है कि नहीं, वह अच्छा लगता है कि नहीं । मन के स्वभाव के अनुसार किसीको लाल रंग अच्छा लगता है, किसी को अच्छा नहीं लगता । परन्तु यह मन के स्तर का ज्ञान हुआ । यह अनुभूति नहीं है । मन के स्तर पर होने वाला ज्ञान यथार्थज्ञान नहीं है, वह सापेक्ष ज्ञान है। सापेक्षता मन का ही विषय है । मन को होने वाला ज्ञान संकल्पविकल्प के स्वरूप का होता है । मन ज्ञानिन्द्रियों के संवेदनों को विचार के रूप में, भावना के रूप में ग्रहण करता है । कई बातों में इंद्रियों के बिना ही मन जानता है । उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति से मिलने का सुख ज्ञानेन्द्रियों के बिना ही होता है । अच्छी कहानी सुनने का सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्वार्थ नहीं जान सकता ।
 
आँख नहीं अपितु मन के स्तर पर यह जाना जाता है कि आँख ने जिसे लाल रंग के रूप में जाना वह सुख देने वाला है कि नहीं, वह अच्छा लगता है कि नहीं । मन के स्वभाव के अनुसार किसीको लाल रंग अच्छा लगता है, किसी को अच्छा नहीं लगता । परन्तु यह मन के स्तर का ज्ञान हुआ । यह अनुभूति नहीं है । मन के स्तर पर होने वाला ज्ञान यथार्थज्ञान नहीं है, वह सापेक्ष ज्ञान है। सापेक्षता मन का ही विषय है । मन को होने वाला ज्ञान संकल्पविकल्प के स्वरूप का होता है । मन ज्ञानिन्द्रियों के संवेदनों को विचार के रूप में, भावना के रूप में ग्रहण करता है । कई बातों में इंद्रियों के बिना ही मन जानता है । उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति से मिलने का सुख ज्ञानेन्द्रियों के बिना ही होता है । अच्छी कहानी सुनने का सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्वार्थ नहीं जान सकता ।
   −
तत्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन के आधार पर नहीं जानती । वह अपने ही साधनों से जानती है । हम जानते हैं कि बुद्धि तर्क, तुलना, अनुमान, संश्लेषण आदि के आधार पर विवेक करती है । इसके आधार पर जो ज्ञान होता है वह यथार्थ ज्ञान तो होता है परन्तु वह इस भौतिक जगत का ही ज्ञान होता है । यह अपरा विद्या का क्षेत्र है। ज्ञानार्जन के बहि:करण और अन्तःकरण के माध्यम से होने वाला ज्ञान इस दुनिया का व्यवहार चलाने के लिए उपयोगी होता है। परन्तु यह अनुभूति नहीं है । अनुभूति का क्षेत्र बुद्धि से परे हैं । अनुभूति क्या है और वह कैसे होती है यह शब्दों में समझाया नहीं जाता है । शब्द कि सीमा भी बुद्धि तक ही है । फिर भी अनुभूति होती है यह सब जानते हैं । कुछ उदाहरण देखें:
+
तत्वार्थ जानने के लिए बुद्धि सक्षम होती है । वह विवेक से काम लेती है । विवेक निरपेक्ष होता है । वह मन के आधार पर नहीं जानती । वह अपने ही साधनों से जानती है । हम जानते हैं कि बुद्धि तर्क, तुलना, अनुमान, संश्लेषण आदि के आधार पर विवेक करती है । इसके आधार पर जो ज्ञान होता है वह यथार्थ ज्ञान तो होता है परन्तु वह इस भौतिक जगत का ही ज्ञान होता है । यह अपरा विद्या का क्षेत्र है। ज्ञानार्जन के बहि:करण और अन्तःकरण के माध्यम से होने वाला ज्ञान इस दुनिया का व्यवहार चलाने के लिए उपयोगी होता है। परन्तु यह अनुभूति नहीं है । अनुभूति का क्षेत्र बुद्धि से परे हैं । अनुभूति क्या है और वह कैसे होती है यह शब्दों में समझाया नहीं जाता है । शब्द कि सीमा भी बुद्धि तक ही है । तथापि अनुभूति होती है यह सब जानते हैं । कुछ उदाहरण देखें:
 
* कक्षा १ में हमें संख्या १ क्या है यह समझाना है । संख्या अमूर्त पदार्थ है अतः किसी भी मूर्त वस्तु कि सहायता से हम उसे समझा नहीं सकते । फिर हम क्या करते हैं? एक वस्तु बताकर पूछते हैं कि यह क्या है । बालक वस्तु का नाम देता है । फिर पूछते हैं कि वस्तु कितनी है। बालक उत्तर नहीं दे सकता । फिर हम बताते हैं कि यह एक वस्तु है । परन्तु बालक को संकल्पना समझती नहीं है। हम बार बार भिन्न भिन्न वस्तुये बताकर प्रथम वस्तु का नाम और बाद में संख्या पूछते हैं । हर बार कितनी पूछने पर उत्तर एक ही होता है । तब किसी एक क्षण में बालक को एक क्या है इसकी अनुभूति होती है और वह संकल्पना समझता है । यह अनुभूति कब होगी इसका निश्चय कोई नहीं कर सकता । शिक्षक केवल अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करता है, वहाँ पहुँचने में सहायता करता है, परन्तु अनुभूति कब होगी इसका कोई नियम नहीं होता । संभव है कि किसी व्यक्ति को बड़ा हो जाने के बाद भी एक की संख्या क्या है इसकी अनुभूति हुई हो न हो, व्यवहार तो चला लेता है, गणित भी कर लेता है, परन्तु गणित के आनंद का अनुभव नहीं प्राप्त करता ।
 
* कक्षा १ में हमें संख्या १ क्या है यह समझाना है । संख्या अमूर्त पदार्थ है अतः किसी भी मूर्त वस्तु कि सहायता से हम उसे समझा नहीं सकते । फिर हम क्या करते हैं? एक वस्तु बताकर पूछते हैं कि यह क्या है । बालक वस्तु का नाम देता है । फिर पूछते हैं कि वस्तु कितनी है। बालक उत्तर नहीं दे सकता । फिर हम बताते हैं कि यह एक वस्तु है । परन्तु बालक को संकल्पना समझती नहीं है। हम बार बार भिन्न भिन्न वस्तुये बताकर प्रथम वस्तु का नाम और बाद में संख्या पूछते हैं । हर बार कितनी पूछने पर उत्तर एक ही होता है । तब किसी एक क्षण में बालक को एक क्या है इसकी अनुभूति होती है और वह संकल्पना समझता है । यह अनुभूति कब होगी इसका निश्चय कोई नहीं कर सकता । शिक्षक केवल अनुभूति का मार्ग प्रशस्त करता है, वहाँ पहुँचने में सहायता करता है, परन्तु अनुभूति कब होगी इसका कोई नियम नहीं होता । संभव है कि किसी व्यक्ति को बड़ा हो जाने के बाद भी एक की संख्या क्या है इसकी अनुभूति हुई हो न हो, व्यवहार तो चला लेता है, गणित भी कर लेता है, परन्तु गणित के आनंद का अनुभव नहीं प्राप्त करता ।
 
* एक शिक्षिका छोटे बालक के साथ खेल रही है । छोटे छोटे नारियल के सोलह फल लेकर खेल चल रहा है । शिक्षिका बालक को सोलह नारियल को दो समान पंक्तियों में जमाने को कहती है । बालक को समान हिस्से ज्ञात नहीं हैं अतः वह एक पंक्ति में दस और दूसरी में छः फल रखता है । गिनने पर यह असमान विभाजन होता है। दूसरी बार करता है। इस बार नौ और सात होते हैं । बालक दो तीन बार करता है परन्तु समान हिस्से नहीं होते हैं। अब शिक्षिका संकेत देकर सहायता करती है । वह कहती है कि प्रथम पहली पंक्ति में १ फल रखो फिर इसके नीचे दूसरी पंक्ति में १ रखो । इस प्रकार दोनों पंक्तियों में समान संख्या होगी । बालक वैसा करता है और उसे सफलता मिलती है । फिर शिक्षिका इस प्रकार तीन पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक यही क्रम अपनाता है परन्तु उसे समान पंक्तियाँ बनाने में सफलता नहीं मिलती । शिक्षिका उसे चार पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक सरलता से चार पंक्तियाँ बनाता है । अब शिक्षिका और बालक दोनों खड़ी और पड़ी पंक्तियाँ बार बार गिनते हैं । दोनों चार चार हैं । अचानक बालक खड़ा हो जाता है और ज़ोर से चिल्लाता है, चोकू चोकू सोलह' । यह क्या है ? यह चार का पहाड़ा है जो उसने रटा हुआ है । चार बार संख्या दोहराते दोहराते उसे पहाड़े की अनुभूति होती है । वह अब अनुभूति से जानता है की चार का पहाड़ा क्‍या है। अनुभूति उसकी चिल्लाहट में और चेहरे के आनन्द में व्यक्त होती है परन्तु वह उसे तर्क से समझा नहीं सकता । बालक तो क्या कोई भी अपनी अनुभूति को समझा नहीं सकता, वह केवल व्यक्त होती है।
 
* एक शिक्षिका छोटे बालक के साथ खेल रही है । छोटे छोटे नारियल के सोलह फल लेकर खेल चल रहा है । शिक्षिका बालक को सोलह नारियल को दो समान पंक्तियों में जमाने को कहती है । बालक को समान हिस्से ज्ञात नहीं हैं अतः वह एक पंक्ति में दस और दूसरी में छः फल रखता है । गिनने पर यह असमान विभाजन होता है। दूसरी बार करता है। इस बार नौ और सात होते हैं । बालक दो तीन बार करता है परन्तु समान हिस्से नहीं होते हैं। अब शिक्षिका संकेत देकर सहायता करती है । वह कहती है कि प्रथम पहली पंक्ति में १ फल रखो फिर इसके नीचे दूसरी पंक्ति में १ रखो । इस प्रकार दोनों पंक्तियों में समान संख्या होगी । बालक वैसा करता है और उसे सफलता मिलती है । फिर शिक्षिका इस प्रकार तीन पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक यही क्रम अपनाता है परन्तु उसे समान पंक्तियाँ बनाने में सफलता नहीं मिलती । शिक्षिका उसे चार पंक्तियाँ बनाने के लिए कहती है । बालक सरलता से चार पंक्तियाँ बनाता है । अब शिक्षिका और बालक दोनों खड़ी और पड़ी पंक्तियाँ बार बार गिनते हैं । दोनों चार चार हैं । अचानक बालक खड़ा हो जाता है और ज़ोर से चिल्लाता है, चोकू चोकू सोलह' । यह क्या है ? यह चार का पहाड़ा है जो उसने रटा हुआ है । चार बार संख्या दोहराते दोहराते उसे पहाड़े की अनुभूति होती है । वह अब अनुभूति से जानता है की चार का पहाड़ा क्‍या है। अनुभूति उसकी चिल्लाहट में और चेहरे के आनन्द में व्यक्त होती है परन्तु वह उसे तर्क से समझा नहीं सकता । बालक तो क्या कोई भी अपनी अनुभूति को समझा नहीं सकता, वह केवल व्यक्त होती है।

Navigation menu